उद्भव, निर्माण प्रक्रिया, दर्शन, प्रमुख प्रावधान, विवाद एवं स्थायी विरासत
विश्लेषण के मुख्य आकर्षण
- भारतीय संविधान का निर्माण एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया और स्वतंत्रता संग्राम की आकांक्षाओं का परिणाम है।
- संविधान सभा ने गहन विचार-विमर्श और विभिन्न मतों के समायोजन के माध्यम से इस दस्तावेज़ को अंतिम रूप दिया।
- प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, और नीति निदेशक तत्व संविधान के दार्शनिक आधार स्तंभ हैं।
- डॉ. अंबेडकर, नेहरू, पटेल, और राजेन्द्र प्रसाद सहित अनेक विभूतियों ने इसके निर्माण में अमूल्य योगदान दिया।
- भाषा नीति, आरक्षण, और समान नागरिक संहिता जैसे विषय प्रारंभ से ही चुनौतीपूर्ण और विवादास्पद रहे हैं।
- भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है जो संशोधनों और न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से निरंतर विकसित हो रहा है।
- यह विश्लेषण छात्रों और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे अभ्यर्थियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है।
संविधान के मूल स्वर: महत्वपूर्ण उद्धरण एवं तथ्य
उद्देशिका (Preamble): संविधान की आत्मा
"हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
यह प्रस्तावना मात्र शब्द नहीं, बल्कि राष्ट्र का संकल्प और दर्शन है!
"प्रस्तावना हमारे संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य का भविष्य-दर्शन (horoscope) है।"
मौलिक अधिकार (Fundamental Rights - भाग III): नागरिक स्वतंत्रता के प्रहरी
अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता): "राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।" यह समानता का आधारभूत सिद्धांत है, जो किसी भी मनमाने भेदभाव को अस्वीकार करता है।
अनुच्छेद 19(1)(क) (वाक् और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य): सभी नागरिकों को वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का अधिकार होगा। यह लोकतंत्र का एक अनिवार्य अंग है।
अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण): "किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।" सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी व्यापक व्याख्या करते हुए इसमें गरिमापूर्ण जीवन, स्वच्छ पर्यावरण, शिक्षा आदि अनेक अधिकारों को शामिल किया है।
अनुच्छेद 32 (सांविधानिक उपचारों का अधिकार): इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।
"अनुच्छेद 32 संविधान का हृदय और आत्मा है।"
न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व
ये हैं संविधान के चार आधार स्तंभ, भारत की गौरवशाली पहचान।
राज्य की नीति के निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy - भाग IV)
ये तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा (अनुच्छेद 37)। ये गैर-न्यायोचित हैं, अर्थात इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता।
अनुच्छेद 39(क) (समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता): "राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो..."
अनुच्छेद 40 (ग्राम पंचायतों का संगठन): "राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों।"
अनुच्छेद 44 (नागरिकों के लिए एकसमान सिविल संहिता): "राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एकसमान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।"
अनुच्छेद 48क (पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा): "राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।" (42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया)
क्या ये तत्व केवल नैतिक उपदेश हैं, या लोक-कल्याणकारी राज्य की ओर बढ़ते कदम?
प्रारूप समिति और उसके सदस्य
संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए 29 अगस्त, 1947 को प्रारूप समिति का गठन किया गया था। इसके सदस्य थे:
नाम | भूमिका/विशेषज्ञता |
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डॉ. बी. आर. अंबेडकर | अध्यक्ष |
एन. गोपालस्वामी आयंगर | प्रशासनिक अनुभव |
अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर | कानूनी विशेषज्ञ |
डॉ. के. एम. मुंशी | कानून और साहित्य |
सैयद मोहम्मद सादुल्ला | कानूनी और राजनीतिक अनुभव |
एन. माधव राव | (बी. एल. मित्तर के स्थान पर, जिन्होंने स्वास्थ्य कारणों से त्यागपत्र दे दिया था) |
टी. टी. कृष्णामाचारी | (डी. पी. खेतान की मृत्यु के बाद 1948 में) |
इस समिति ने विभिन्न स्रोतों से प्रेरणा लेकर और व्यापक विचार-विमर्श के बाद संविधान का प्रारूप तैयार किया, जिसे फरवरी 1948 में प्रकाशित किया गया।
संविधान के स्रोत: एक विश्वव्यापी दृष्टि
भारतीय संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों के संविधानों के उत्तम प्रावधानों को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप अपनाया।
स्रोत देश/अधिनियम | अपनाए गए प्रमुख प्रावधान |
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भारत सरकार अधिनियम, 1935 |
संघीय योजना, राज्यपाल का कार्यालय, न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, आपातकालीन उपबंध, प्रशासनिक विवरण |
ब्रिटेन का संविधान |
संसदीय शासन, विधि का शासन, विधायी प्रक्रिया, एकल नागरिकता, मंत्रिमंडलीय प्रणाली, परमाधिकार लेख, द्विसदनवाद |
संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान |
मौलिक अधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक पुनरावलोकन, उपराष्ट्रपति का पद, राष्ट्रपति पर महाभियोग, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाया जाना |
आयरलैंड का संविधान |
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत, राष्ट्रपति के निर्वाचन की पद्धति, राज्य सभा के लिए सदस्यों का नामांकन |
कनाडा का संविधान |
सशक्त केंद्र के साथ संघीय व्यवस्था, अवशिष्ट शक्तियों का केंद्र में निहित होना, केंद्र द्वारा राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति, उच्चतम न्यायालय का परामर्शी न्यायनिर्णयन |
ऑस्ट्रेलिया का संविधान |
समवर्ती सूची, व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता, संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक |
जर्मनी (वाइमर) का संविधान |
आपातकाल के समय मौलिक अधिकारों का स्थगन |
सोवियत संघ (पूर्व) का संविधान |
मौलिक कर्तव्य, प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का आदर्श |
फ्रांस का संविधान |
गणतंत्रात्मक ढाँचा, प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समता और बंधुता के आदर्श |
दक्षिण अफ्रीका का संविधान |
संविधान में संशोधन की प्रक्रिया, राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन |
जापान का संविधान |
विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया |
संविधान सभा में बहस के कुछ अंश
"मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग जो इसे कार्यान्वित करते हैं, बुरे निकले, तो यह निश्चित रूप से बुरा सिद्ध होगा। संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, यदि वे लोग जो इसे कार्यान्वित करते हैं, अच्छे निकले, तो यह निश्चित रूप से अच्छा सिद्ध होगा।"
भाषा के प्रश्न पर सेठ गोविंद दास: "हिंदी के पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि यह देश के अधिकांश लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है... इसे हमारी राष्ट्रीय भाषा बनाना हमारी राष्ट्रीय गरिमा का प्रश्न है।"
संघवाद पर टी.टी. कृष्णामाचारी: "मुझे डर है कि हम एक मजबूत केंद्र बनाने की अपनी उत्सुकता में, प्रांतों को इतना कमजोर न कर दें कि वे प्रभावी ढंग से कार्य न कर सकें।"
मूल कर्तव्य (Fundamental Duties - भाग IV-क)
इन्हें 1976 में 42वें संशोधन द्वारा सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों पर जोड़ा गया। अनुच्छेद 51-क में 11 मूल कर्तव्य सूचीबद्ध हैं।
उदाहरण: "(क) संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें; (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें;"
आपातकालीन उपबंध (Emergency Provisions - भाग XVIII)
अनुच्छेद 352 (राष्ट्रीय आपातकाल): युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में।
अनुच्छेद 356 (राज्यों में सांविधानिक तंत्र की विफलता - राष्ट्रपति शासन): यदि राज्य सरकार संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चल सकती।
अनुच्छेद 360 (वित्तीय आपातकाल): भारत या उसके किसी भाग की वित्तीय स्थिरता या साख संकट में हो।
आपातकालीन शक्तियों का संतुलन: राष्ट्र की सुरक्षा बनाम व्यक्तिगत स्वतंत्रता?
संविधान की आलोचना
संविधान सभा के कुछ सदस्यों और बाहरी आलोचकों द्वारा विभिन्न आधारों पर संविधान की आलोचना की गई:
- उधार का थैला: आलोचकों ने कहा कि इसमें कुछ भी नया या मौलिक नहीं है, और यह विभिन्न देशों के संविधानों से उधार लिए गए प्रावधानों का एक संग्रह मात्र है।
- 1935 के अधिनियम की कार्बन कॉपी: कहा गया कि यह काफी हद तक 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है।
- अ-भारतीय या भारत-विरोधी: कुछ का मानना था कि यह भारत की राजनीतिक परंपराओं और भावना का प्रतिनिधित्व नहीं करता।
- अ-गांधीवादी संविधान: यह गांधीजी के ग्राम स्वराज और विकेंद्रीकरण के आदर्शों पर आधारित नहीं है।
- वकीलों का स्वर्ग: इसकी भाषा जटिल और कानूनी है, जिससे यह आम आदमी की समझ से परे है।
संसदीय प्रणाली, संघीय ढांचा, स्वतंत्र न्यायपालिका
लोकतंत्र की जड़ें गहरी, विधि का शासन सर्वोपरि।
संविधान निर्माण के ऐतिहासिक क्षण

जवाहरलाल नेहरू भारतीय संविधान पर हस्ताक्षर करते हुए, 1950 (विकिमीडिया कॉमन्स से)
संविधान पर विमर्श (वीडियो उदाहरण)
संसद टीवी द्वारा निर्मित 'संविधान - भारत का निर्माण' श्रृंखला का एक अंश (उदाहरण)
भारतीय संविधान: एक विस्तृत विवेचन
परिचय: भारत का संविधान – एक राष्ट्र की आत्मा का प्रतिबिंब
भारत का संविधान, जो 26 जनवरी 1950 को पूर्ण रूप से लागू हुआ, मात्र एक विधिक दस्तावेज़ या शासन चलाने की नियमावली नहीं है। यह वस्तुतः एक जीवंत, स्पंदनशील घोषणापत्र है जो एक प्राचीन सभ्यता की नवीन आकांक्षाओं, उसके स्वतंत्रता संग्राम के उदात्त मूल्यों, और एक विविधतापूर्ण राष्ट्र के सामूहिक संकल्प को प्रतिबिंबित करता है। यह दुनिया के सबसे लंबे लिखित संविधानों में से एक है, जो भारत की अद्वितीय भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक जटिलताओं को समेटते हुए एक न्यायपूर्ण, समतावादी और प्रगतिशील समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करता है। औपनिवेशिक दासता की लंबी रात्रि के पश्चात्, यह संविधान एक संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य के सूर्योदय का प्रतीक बना।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया स्वयं में एक असाधारण ऐतिहासिक यात्रा थी। यह एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें विभिन्न विचारधाराओं, राजनीतिक दृष्टिकोणों, सामाजिक वर्गों और भौगोलिक क्षेत्रों के प्रतिनिधियों ने लगभग तीन वर्षों तक गहन विचार-विमर्श, तर्क-वितर्क और बौद्धिक मंथन के माध्यम से एक सर्वमान्य दस्तावेज़ को आकार दिया। इस प्रक्रिया का उद्देश्य केवल ब्रिटिश शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना नहीं था, बल्कि उससे कहीं अधिक व्यापक था – सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना, प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करना, लैंगिक समानता को बढ़ावा देना, सदियों से चली आ रही सामाजिक कुरीतियों का अंत करना, और सबसे महत्वपूर्ण, राष्ट्र की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखना। यह लेख भारतीय संविधान के ऐतिहासिक विकास की जड़ों से लेकर, इसके निर्माण की जटिल और बहुस्तरीय प्रक्रिया, इसकी प्रमुख विशेषताओं और दार्शनिक आधारशिलाओं, संविधान सभा में हुए महत्वपूर्ण विवादों और उनके समाधानों, तथा इसके निर्माण में योगदान देने वाले प्रमुख व्यक्तित्वों की भूमिका का एक गहन, विस्तृत और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। साथ ही, हम संविधान की वर्तमान प्रासंगिकता, इसके समक्ष उपस्थित चुनौतियों और भविष्य के भारतीय लोकतंत्र के लिए इसके निहितार्थों पर भी प्रकाश डालेंगे। इसका उद्देश्य पाठकों, विशेषकर छात्रों और प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थियों को भारतीय संविधान की समग्र और सूक्ष्म समझ प्रदान करना है।
1. ऐतिहासिक विकासक्रम: औपनिवेशिक नींव से स्वशासन की आकांक्षा तक
भारतीय संविधान का निर्माण किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं था, बल्कि यह एक क्रमिक विकास की परिणति थी जिसकी जड़ें भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान विभिन्न चरणों में पारित अधिनियमों और भारतीय राष्ट्रवादियों द्वारा स्वशासन तथा नागरिक अधिकारों की निरंतर बढ़ती मांगों में गहराई तक समाई हुई हैं।
1.1 ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन और प्रारंभिक संवैधानिक प्रयोग (1773-1857)
रेग्युलेटिंग एक्ट, 1773: इसे ब्रिटिश संसद द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के अनियंत्रित कार्यों को नियमित करने और उस पर संसदीय नियंत्रण स्थापित करने की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता है। इस अधिनियम ने बंगाल के गवर्नर को 'गवर्नर-जनरल ऑफ बंगाल' का पदनाम दिया (वारेन हेस्टिंग्स पहले गवर्नर-जनरल बने) और उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कार्यकारी परिषद का गठन किया। इसने बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसियों को बंगाल के अधीन कर दिया तथा कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया, जो 1774 में अस्तित्व में आया। हालांकि इसका उद्देश्य कंपनी के मामलों में सुधार लाना था, इसने भारत में केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी।
पिट्स इंडिया एक्ट, 1784: इस अधिनियम ने कंपनी के वाणिज्यिक और राजनीतिक कार्यों को स्पष्ट रूप से पृथक कर दिया। कंपनी के व्यापारिक मामले निदेशक मंडल (Court of Directors) के हाथ में रहे, जबकि राजनीतिक मामलों (नागरिक, सैन्य और राजस्व) के प्रबंधन के लिए 'नियंत्रण बोर्ड' (Board of Control) नामक एक छह सदस्यीय निकाय का गठन किया गया। इस प्रकार, भारत में ब्रिटिश सरकार का दोहरा नियंत्रण (Dual Control) स्थापित हुआ, जिसे 'पिट का द्वैध शासन' भी कहा जाता है। इस अधिनियम ने भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्रों को पहली बार 'भारत में ब्रिटिश आधिपत्य' (British possessions in India) कहा।
चार्टर एक्ट्स श्रृंखला (1793, 1813, 1833, 1853): इन अधिनियमों की श्रृंखला ने भारत में कंपनी के शासन को समय-समय पर विस्तार दिया और ब्रिटिश संसद के नियंत्रण को और सुदृढ़ किया।
- 1813 का चार्टर एक्ट: इसने भारत में कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को (चीन के साथ व्यापार और चाय के व्यापार को छोड़कर) समाप्त कर दिया और अन्य ब्रिटिश व्यापारियों को भी भारत के साथ व्यापार करने की अनुमति दी। इसने ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी और भारतीयों की शिक्षा के लिए प्रति वर्ष एक लाख रुपये की व्यवस्था का प्रावधान किया (हालांकि यह राशि लंबे समय तक अप्रयुक्त रही)।
- 1833 का चार्टर एक्ट: यह अधिनियम ब्रिटिश भारत के केंद्रीयकरण की दिशा में एक निर्णायक कदम था। इसने बंगाल के गवर्नर-जनरल को 'भारत का गवर्नर-जनरल' (Lord William Bentinck पहले भारत के गवर्नर-जनरल बने) बना दिया और उसे सभी नागरिक और सैन्य शक्तियाँ प्रदान कीं। बंबई और मद्रास के गवर्नरों की विधायी शक्तियों को समाप्त कर दिया गया। इस अधिनियम ने कंपनी के व्यापारिक निकाय के रूप में उसकी गतिविधियों को समाप्त कर दिया और उसे विशुद्ध रूप से एक प्रशासनिक निकाय बना दिया। इसने सरकारी सेवाओं में भारतीयों के साथ धर्म, जन्मस्थान, वंश या रंग के आधार पर भेदभाव न करने का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत भी प्रतिपादित किया (धारा 87), हालांकि व्यवहार में यह बहुत प्रभावी नहीं हुआ।
- 1853 का चार्टर एक्ट: यह अंतिम चार्टर एक्ट था। इसने पहली बार गवर्नर-जनरल की परिषद के विधायी और कार्यकारी कार्यों को अलग किया। विधान निर्माण के लिए छह नए सदस्यों (जिन्हें 'विधान पार्षद' कहा गया) को जोड़ा गया, जिससे 'भारतीय (केंद्रीय) विधान परिषद' (Indian Legislative Council) का गठन हुआ। इसने सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए खुली प्रतियोगिता प्रणाली का सूत्रपात किया और इसके लिए 1854 में मैकाले समिति की नियुक्ति की गई।
1.2 ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष शासन और संवैधानिक सुधारों का युग (1858-1947)
भारत सरकार अधिनियम, 1858: 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (जिसे 'सिपाही विद्रोह' भी कहा जाता है) के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश संसद ने यह अधिनियम पारित कर भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त कर दिया और शासन की बागडोर सीधे ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया के हाथों में सौंप दी। भारत के गवर्नर-जनरल को 'वायसराय' (Viceroy - क्राउन का प्रतिनिधि) का अतिरिक्त पदनाम दिया गया (लॉर्ड कैनिंग पहले वायसराय बने)। नियंत्रण बोर्ड और निदेशक मंडल को समाप्त कर दिया गया और उनके स्थान पर 'भारत सचिव' (Secretary of State for India) के पद का सृजन किया गया, जो ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य होता था और भारतीय प्रशासन के लिए ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय 'भारत परिषद' (India Council) का गठन किया गया।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1861: इस अधिनियम को भारतीय संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है। इसने कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीयों को शामिल करने की शुरुआत की, वायसराय को अपनी विस्तारित परिषद में कुछ भारतीयों को गैर-सरकारी सदस्यों के रूप में नामित करने का अधिकार दिया। लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों – बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा, और सर दिनकर राव – को विधान परिषद में नामित किया। इसने मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसियों को विधायी शक्तियाँ पुनः प्रदान कर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया आरंभ की। इसने वायसराय को आपात स्थिति में अध्यादेश जारी करने का अधिकार भी दिया।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1892: इसने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ाई, लेकिन बहुमत सरकारी सदस्यों का ही रहा। इसने विधान परिषद के कार्यों में वृद्धि की – सदस्यों को बजट पर बहस करने और कार्यपालिका से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया (हालांकि पूरक प्रश्न पूछने या बजट पर मतदान का अधिकार नहीं था)। इसने केंद्रीय विधान परिषद में गैर-सरकारी सदस्यों के नामांकन के लिए वायसराय को तथा प्रांतीय विधान परिषदों में गवर्नर को कुछ निकायों (जैसे जिला बोर्ड, नगरपालिका, विश्वविद्यालय, वाणिज्य मंडल) की सिफारिश पर नामांकन करने का अधिकार देकर अप्रत्यक्ष चुनाव का एक सीमित सिद्धांत पेश किया।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1909 (मॉर्ले-मिंटो सुधार): लॉर्ड मॉर्ले तत्कालीन भारत सचिव और लॉर्ड मिंटो भारत के वायसराय थे। इस अधिनियम ने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों के आकार में काफी वृद्धि की। केंद्रीय विधान परिषद में सदस्यों की संख्या 16 से 60 हो गई। इसने सदस्यों को बजट पर प्रस्ताव रखने, पूरक प्रश्न पूछने और सार्वजनिक हित के मामलों पर चर्चा करने का अधिकार दिया। इस अधिनियम का सबसे विवादास्पद प्रावधान मुसलमानों के लिए 'पृथक निर्वाचन प्रणाली' (Communal Electorate) की शुरुआत करना था, जिसके तहत मुस्लिम सदस्य केवल मुस्लिम मतदाताओं द्वारा ही चुने जा सकते थे। इसे लॉर्ड मिंटो ने 'नाग के दांत बोना' कहा था, क्योंकि इसने भारत में सांप्रदायिकता को वैधानिक मान्यता दी और अंततः देश के विभाजन का मार्ग प्रशस्त किया।
भारत सरकार अधिनियम, 1919 (मोंटेंग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार): एडविन मोंटेंग्यू भारत सचिव और लॉर्ड चेम्सफोर्ड वायसराय थे। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में धीरे-धीरे उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था। इसकी प्रमुख विशेषताएं थीं:
- प्रांतों में द्वैध शासन (Dyarchy): प्रांतीय विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया – 'आरक्षित' (Reserved) और 'हस्तांतरित' (Transferred)। आरक्षित विषय (जैसे वित्त, भू-राजस्व, पुलिस, न्याय) गवर्नर और उसकी कार्यकारी परिषद के अधीन रहे, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। हस्तांतरित विषय (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन) भारतीय मंत्रियों को सौंपे गए, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी थे। यह प्रयोग काफी हद तक असफल रहा।
- केंद्र में द्विसदनीय विधायिका: पहली बार केंद्र में द्विसदनीय विधायिका की स्थापना की गई – राज्य परिषद (Council of State - उच्च सदन) और केंद्रीय विधान सभा (Central Legislative Assembly - निम्न सदन)। दोनों सदनों में अधिकांश सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने जाते थे।
- प्रत्यक्ष निर्वाचन और मताधिकार का विस्तार: प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली शुरू की गई, लेकिन मताधिकार संपत्ति, कर या शिक्षा की योग्यता पर आधारित था, जो बहुत सीमित था (लगभग 10% आबादी)।
- पृथक निर्वाचन का विस्तार: सांप्रदायिक आधार पर पृथक निर्वाचन प्रणाली को सिखों, भारतीय ईसाइयों, आंग्ल-भारतीयों और यूरोपीय लोगों तक विस्तारित किया गया।
- लंदन में भारत के लिए एक उच्चायुक्त (High Commissioner) के कार्यालय का सृजन किया गया।
- एक लोक सेवा आयोग (Public Service Commission) की स्थापना का प्रावधान किया गया (1926 में केंद्रीय लोक सेवा आयोग का गठन हुआ)।
"द्वैध शासन की योजना स्वाभाविक रूप से त्रुटिपूर्ण थी। विषयों का विभाजन अतार्किक था और मंत्रियों के पास वित्तीय शक्तियां नहीं थीं। गवर्नर के पास अत्यधिक शक्तियां थीं।"
साइमन कमीशन (1927): 1919 के अधिनियम की समीक्षा के लिए निर्धारित समय से दो वर्ष पूर्व ही सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय आयोग का गठन किया गया। इसके सभी सदस्य अंग्रेज थे, जिसके कारण भारत में इसका व्यापक विरोध हुआ ('साइमन गो बैक' के नारे लगे)। कमीशन ने 1930 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें द्वैध शासन को समाप्त करने, प्रांतों में उत्तरदायी सरकार स्थापित करने, और एक संघीय ढांचे की सिफारिश की गई।
भारत सरकार अधिनियम, 1935: यह ब्रिटिश संसद द्वारा पारित अब तक का सबसे लंबा और विस्तृत अधिनियम था। यह भारतीय संविधान का एक प्रमुख स्रोत बना। इसकी मुख्य विशेषताएं थीं:
- अखिल भारतीय संघ (All-India Federation): इसमें ब्रिटिश भारतीय प्रांतों और उन रियासतों को शामिल करने का प्रावधान था जो स्वेच्छा से शामिल होना चाहें (यह संघीय प्रावधान कभी लागू नहीं हो सका क्योंकि रियासतें शामिल नहीं हुईं)।
- प्रांतीय स्वायत्तता: प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त कर दिया गया और उन्हें स्वायत्तता प्रदान की गई। गवर्नर अब भी प्रांत का प्रमुख था और उसे विशेष जिम्मेदारियां दी गई थीं।
- केंद्र में द्वैध शासन: संघीय विषयों को 'आरक्षित' (जैसे रक्षा, विदेशी मामले) और 'हस्तांतरित' श्रेणियों में विभाजित किया गया। आरक्षित विषय गवर्नर-जनरल के अधीन थे।
- शक्तियों का विभाजन: केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया – संघीय सूची (Federal List), प्रांतीय सूची (Provincial List), और समवर्ती सूची (Concurrent List)। अवशिष्ट शक्तियाँ वायसराय को दी गईं।
- द्विसदनीय विधानमंडल: केंद्र में द्विसदनीय विधानमंडल जारी रहा। छह प्रांतों में भी द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था की गई।
- संघीय न्यायालय (Federal Court): इसकी स्थापना 1937 में दिल्ली में हुई।
- भारतीय रिजर्व बैंक (Reserve Bank of India): देश की मुद्रा और साख को नियंत्रित करने के लिए इसकी स्थापना की गई।
- पृथक निर्वाचन का और विस्तार: इसे दलित वर्गों (Scheduled Castes), महिलाओं और मजदूरों तक विस्तारित किया गया।
2. स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव और संवैधानिक आकांक्षाएँ
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन केवल राजनीतिक मुक्ति का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह एक ऐसे भविष्य के भारत की परिकल्पना भी कर रहा था जो सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित हो। इस आंदोलन के विभिन्न चरणों और विचारधाराओं ने संविधान निर्माण की पृष्ठभूमि और उसके मूल सिद्धांतों को गहराई से प्रभावित किया।
2.1 प्रारंभिक राष्ट्रवादी माँगें और संवैधानिक सुधारों की चेतना
19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ ही संवैधानिक सुधारों की मांग भी उठने लगी। सुरेंद्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे प्रारंभिक नरमपंथी नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत ही भारतीयों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व, प्रशासनिक सेवाओं में भागीदारी, और नागरिक अधिकारों की वकालत की। उन्होंने याचिकाएँ, प्रार्थनापत्र, और प्रतिनिधिमंडलों के माध्यम से अपनी माँगें रखीं। 1895 का 'स्वराज्य विधेयक' (होम रूल बिल), जिसे लोकमान्य तिलक से जोड़ा जाता है, भारतीयों द्वारा संवैधानिक व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत करने का एक प्रारंभिक प्रयास माना जाता है, जिसमें स्वतंत्र अभिव्यक्ति, समानता, और संपत्ति के अधिकार जैसे विचार शामिल थे।
2.2 गांधीवादी दर्शन: नैतिकता और जन-आधारित राष्ट्र की संकल्पना
महात्मा गांधी के 1915 में भारत आगमन और उनके द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व संभालने के बाद संघर्ष का स्वरूप और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि दोनों बदल गए। गांधीजी ने सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, सर्वोदय (सबका उदय), और ग्राम स्वराज (ग्राम आत्मनिर्भरता) जैसे सिद्धांतों पर बल दिया। वे एक ऐसे भारत का स्वप्न देखते थे जो सत्ता के विकेंद्रीकरण, नैतिक मूल्यों, और आमजन की भागीदारी पर आधारित हो। उनकी कल्पना में आदर्श राज्य 'रामराज्य' था, जहाँ कोई शोषण न हो और सभी सुखी हों।
यद्यपि भारतीय संविधान ने अंततः पश्चिमी संसदीय लोकतंत्र का मॉडल अपनाया, जो गांधीजी की ग्राम-केंद्रित व्यवस्था की प्रत्यक्ष परिकल्पना से भिन्न था, फिर भी गांधीवादी विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। संविधान के भाग IV में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्व, विशेष रूप से अनुच्छेद 40 (ग्राम पंचायतों का संगठन), अनुच्छेद 43 (कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन), अनुच्छेद 46 (अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि), अनुच्छेद 47 (पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य, जिसमें मादक पेयों और हानिकारक औषधियों के उपभोग का प्रतिषेध शामिल है), और अनुच्छेद 48 (कृषि और पशुपालन का संगठन, गोहत्या पर रोक) गांधीवादी दर्शन से प्रेरित हैं।
2.3 नेहरू रिपोर्ट (1928): स्व-निर्मित संविधान का प्रथम ब्लूप्रिंट
1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति के प्रत्युत्तर में, जिसमें कोई भारतीय सदस्य नहीं था, भारतीय नेताओं ने सर्वदलीय सम्मेलन के माध्यम से भारत के लिए एक संविधान का मसौदा तैयार करने का निर्णय लिया। मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने 1928 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसे 'नेहरू रिपोर्ट' के नाम से जाना जाता है। यह भारतीयों द्वारा अपने लिए संविधान निर्माण का पहला महत्वपूर्ण और सुविचारित प्रयास था।
नेहरू रिपोर्ट की प्रमुख सिफारिशों में शामिल थे: भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस (ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासित उपनिवेश), एक संघीय ढांचा जिसमें अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के पास हों, केंद्र में द्विसदनीय विधायिका, प्रांतों में उत्तरदायी सरकार, 19 मौलिक अधिकारों की घोषणा (जिनमें वयस्क मताधिकार, महिलाओं के लिए समान अधिकार, और धर्मनिरपेक्ष राज्य के सिद्धांत शामिल थे), और भाषाई आधार पर प्रांतों के गठन का सुझाव। यद्यपि मुस्लिम लीग और कुछ अन्य समूहों ने इसके कुछ प्रावधानों पर असहमति जताई, नेहरू रिपोर्ट ने भविष्य के भारतीय संविधान के लिए एक महत्वपूर्ण आधार तैयार किया।
2.4 पूर्ण स्वराज की मांग और क्रांतिकारी-समाजवादी धाराएँ
1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 'पूर्ण स्वराज' का प्रस्ताव पारित किया गया, और 26 जनवरी 1930 को पहला 'स्वतंत्रता दिवस' मनाया गया। इसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लक्ष्य को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर दिया।
इसी दौर में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों और सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू (अपने प्रारंभिक चरण में), और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं (जैसे जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया) के समाजवादी विचारों ने भी युवाओं को आकर्षित किया। ये नेता न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता, बल्कि सामाजिक और आर्थिक समानता पर आधारित एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना के पक्षधर थे। इन विचारों ने संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' शब्द (42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया) और सामाजिक-आर्थिक न्याय के आदर्शों तथा नीति निदेशक तत्वों में धन और उत्पादन के साधनों के समान वितरण की अवधारणा को प्रभावित किया। सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वतंत्र भारत के लिए एक राष्ट्रीय योजना आयोग और समाजवादी सिद्धांतों पर आधारित संविधान की आवश्यकता पर बल दिया था।
2.5 संविधान सभा की मांग और उसका फलीभूत होना
भारतीयों द्वारा स्वयं अपने संविधान का निर्माण करने के लिए एक संविधान सभा के गठन की मांग सर्वप्रथम एम. एन. रॉय ने 1934 में उठाई थी। 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसे आधिकारिक तौर पर अपनी मांग बनाया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, भारतीय सहयोग प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार पर दबाव बढ़ा। क्रिप्स मिशन (1942) ने युद्ध के बाद भारत को डोमिनियन स्टेटस और एक संविधान निर्मात्री सभा के गठन का प्रस्ताव रखा, जिसे कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया। अंततः, 1946 की कैबिनेट मिशन योजना के तहत एक संविधान सभा के गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिसने स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण किया।
3. संविधान सभा: भारत के भाग्य का निर्धारण
भारतीय संविधान का निर्माण एक संप्रभु संविधान सभा द्वारा किया गया, जिसने लगभग तीन वर्षों (2 वर्ष, 11 माह और 18 दिन) के अथक परिश्रम, गहन विचार-विमर्श, और विभिन्न दृष्टिकोणों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ को अंतिम रूप दिया। यह सभा न केवल भारत की राजनीतिक विविधता, बल्कि उसकी सामाजिक और बौद्धिक क्षमता का भी प्रतिनिधित्व करती थी।
3.1 गठन, संरचना और प्रकृति
संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन योजना, 1946 के अंतर्गत प्रस्तावित स्कीम के अनुसार किया गया था। इसके सदस्यों का चुनाव प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से, आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया गया था।
- कुल सदस्य संख्या: प्रारंभ में 389 सदस्य निर्धारित थे (292 ब्रिटिश भारतीय प्रांतों से, 4 मुख्य आयुक्तों के प्रांतों से, और 93 देशी रियासतों से)।
- विभाजन का प्रभाव: 3 जून, 1947 की माउंटबेटन योजना के तहत भारत के विभाजन के पश्चात्, पाकिस्तान के क्षेत्रों से आने वाले सदस्य संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे। परिणामस्वरूप, भारतीय संविधान सभा की वास्तविक सदस्य संख्या घटकर 299 रह गई (जिसमें 229 प्रांतीय सदस्य और 70 रियासतों के प्रतिनिधि थे)।
- प्रतिनिधित्व: यद्यपि संविधान सभा के सदस्य सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर सीधे जनता द्वारा नहीं चुने गए थे, फिर भी इसमें समाज के लगभग सभी प्रमुख वर्गों – हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी, आंग्ल-भारतीय, भारतीय ईसाई, अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ, और महिलाएँ – का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया था। इसमें प्रमुख राजनीतिक दलों (मुख्यतः कांग्रेस, जिसने लगभग 82% सीटें जीतीं) के नेता, प्रख्यात कानूनविद, विद्वान, शिक्षाविद, और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे।
- प्रकृति: अपनी गठन प्रक्रिया के बावजूद, संविधान सभा ने एक संप्रभु निकाय के रूप में कार्य किया, जिसे भारत के लिए किसी भी प्रकार का संविधान बनाने का पूर्ण अधिकार था। इसने ब्रिटिश संसद द्वारा भारत के संबंध में बनाए गए सभी कानूनों को बदलने या निरस्त करने का भी अधिकार प्राप्त कर लिया था।
"संविधान सभा कांग्रेस थी और कांग्रेस ही भारत थी।"
3.2 कार्यप्रणाली और महत्वपूर्ण चरण
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हॉल (अब संसद भवन का सेंट्रल हॉल) में हुई। मुस्लिम लीग ने इसका बहिष्कार किया और पाकिस्तान के लिए अलग संविधान सभा की मांग की। डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, सभा के सबसे वरिष्ठ सदस्य, को अस्थायी अध्यक्ष चुना गया। 11 दिसंबर, 1946 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष और एच. सी. मुखर्जी को उपाध्यक्ष चुना गया। सर बी. एन. राव को सभा का संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया गया।
उद्देश्य संकल्प (Objectives Resolution): 13 दिसंबर, 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सभा में ऐतिहासिक 'उद्देश्य संकल्प' प्रस्तुत किया। इसमें स्वतंत्र भारत के संविधान के मूल आदर्शों और दर्शन की रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी, जैसे भारत को एक स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य घोषित करना; सभी नागरिकों को न्याय, समानता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करना; अल्पसंख्यकों, पिछड़े और जनजातीय क्षेत्रों के हितों की रक्षा करना; और विश्व शांति एवं मानव कल्याण को बढ़ावा देना। यह संकल्प 22 जनवरी, 1947 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया और इसने संविधान की प्रस्तावना के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया।
समितियाँ: संविधान निर्माण के विभिन्न कार्यों को सुचारू रूप से संपन्न करने के लिए संविधान सभा ने अनेक समितियों का गठन किया। इनमें से 8 बड़ी समितियाँ और कई छोटी समितियाँ थीं। प्रमुख बड़ी समितियाँ और उनके अध्यक्ष:
- प्रारूप समिति: डॉ. बी. आर. अंबेडकर
- संघ शक्ति समिति: जवाहरलाल नेहरू
- संघीय संविधान समिति: जवाहरलाल नेहरू
- प्रांतीय संविधान समिति: सरदार वल्लभभाई पटेल
- मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों एवं जनजातीय और अपवर्जित क्षेत्रों संबंधी सलाहकार समिति: सरदार वल्लभभाई पटेल। इस समिति की पाँच उप-समितियाँ थीं: (क) मौलिक अधिकार उप-समिति (जे. बी. कृपलानी), (ख) अल्पसंख्यक उप-समिति (एच. सी. मुखर्जी), (ग) उत्तर-पूर्व सीमांत जनजातीय क्षेत्र और असम के अपवर्जित व आंशिक रूप से अपवर्जित क्षेत्र उप-समिति (गोपीनाथ बारदोलोई), (घ) अपवर्जित व आंशिक रूप से अपवर्जित क्षेत्र (असम के अतिरिक्त) उप-समिति (ए. वी. ठक्कर)।
- प्रक्रिया नियम समिति: डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
- राज्यों के लिए समिति (राज्यों से समझौता करने वाली समिति): जवाहरलाल नेहरू
- संचालन समिति: डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
प्रारूप का निर्माण और वाचन: विभिन्न समितियों की सिफारिशों के आधार पर सर बी. एन. राव ने संविधान का पहला प्रारूप तैयार किया। इस पर विचार करने के लिए 29 अगस्त, 1947 को डॉ. बी. आर. अंबेडकर की अध्यक्षता में सात सदस्यीय प्रारूप समिति का गठन किया गया। प्रारूप समिति ने विभिन्न विचार-विमर्शों और संशोधनों के बाद फरवरी 1948 में संविधान का पहला प्रारूप प्रकाशित किया। इस पर आम जनता, विभिन्न संगठनों और विशेषज्ञों से राय मांगी गई। प्राप्त सुझावों, आलोचनाओं और संशोधनों के आलोक में प्रारूप समिति ने दूसरा प्रारूप अक्टूबर 1948 में प्रकाशित किया।
संविधान के प्रारूप पर तीन वाचन (Reading) हुए:
- प्रथम वाचन (4 नवंबर से 9 नवंबर, 1948): प्रारूप को सभा में प्रस्तुत किया गया और सामान्य चर्चा हुई।
- द्वितीय वाचन (15 नवंबर, 1948 से 17 अक्टूबर, 1949): यह सबसे लंबा और महत्वपूर्ण चरण था। इसमें संविधान के प्रत्येक खंड पर विस्तृत और सूक्ष्म चर्चा हुई। इस दौरान लगभग 7,653 संशोधन प्रस्तावित किए गए, जिनमें से लगभग 2,473 पर सभा में चर्चा हुई और उन्हें स्वीकार या अस्वीकार किया गया।
- तृतीय वाचन (14 नवंबर से 26 नवंबर, 1949): डॉ. अंबेडकर ने "The Constitution as settled by the Assembly be passed" प्रस्ताव प्रस्तुत किया। इस पर अंतिम चर्चा के बाद, 26 नवंबर, 1949 को संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया गया। इस दिन उपस्थित 284 सदस्यों ने संविधान पर हस्ताक्षर किए।
3.3 संविधान सभा की प्रमुख बहसें और विवादास्पद मुद्दे
संविधान सभा में विभिन्न प्रावधानों पर जीवंत, गहन और कभी-कभी तीखी बहसें हुईं। ये बहसें भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता और सभा के सदस्यों की बौद्धिक गहराई को दर्शाती हैं। कुछ प्रमुख मुद्दे जिन पर व्यापक चर्चा हुई:
- सरकार की प्रकृति (संसदीय बनाम अध्यक्षात्मक): भारत के लिए कौन सी प्रणाली अधिक उपयुक्त होगी, इस पर विस्तृत विचार हुआ। अंततः ब्रिटिश मॉडल पर आधारित संसदीय प्रणाली को अपनाया गया, क्योंकि भारतीय नेता इससे परिचित थे और यह उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती थी।
- संघवाद की प्रकृति (मजबूत केंद्र बनाम राज्यों की स्वायत्तता): भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए एक मजबूत केंद्र की आवश्यकता महसूस की गई, खासकर विभाजन की पृष्ठभूमि में। हालांकि, राज्यों को भी पर्याप्त स्वायत्तता दी गई। इस प्रकार, भारतीय संघवाद में एकात्मकता की ओर झुकाव (Unitary bias) है। के. सी. व्हेयर ने इसे 'अर्ध-संघीय' (Quasi-federal) कहा है।
- मौलिक अधिकार: इनकी सूची, प्रकृति (न्यायोचित या गैर-न्यायोचित), और उन पर लगाए जा सकने वाले युक्तियुक्त निर्बंधनों पर व्यापक चर्चा हुई। संपत्ति का अधिकार एक विवादास्पद विषय था, जिसे अंततः 44वें संशोधन द्वारा मौलिक अधिकार से हटाकर विधिक अधिकार बना दिया गया।
- राज्य के नीति निदेशक तत्व: इनकी कानूनी बाध्यता और मौलिक अधिकारों के साथ इनके संबंध पर गहन विचार-विमर्श हुआ। इन्हें गैर-न्यायोचित बनाया गया लेकिन देश के शासन में मूलभूत माना गया।
- अल्पसंख्यकों के अधिकार: धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए प्रावधानों पर विस्तृत बहस हुई। पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की मांग को राष्ट्रीय एकता के हित में अस्वीकार कर दिया गया, लेकिन अनुच्छेद 29 और 30 के तहत उन्हें अपनी संस्कृति, भाषा, लिपि और शिक्षण संस्थानों की सुरक्षा का अधिकार दिया गया।
- भाषा नीति (आधिकारिक भाषा): यह सबसे संवेदनशील और विभाजनकारी मुद्दों में से एक था। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग और गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों, विशेषकर दक्षिण भारत, के विरोध के बीच संतुलन साधने का प्रयास किया गया। अंततः, हिंदी को देवनागरी लिपि में संघ की राजभाषा और अंग्रेजी को सह-राजभाषा के रूप में अपनाया गया।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता: न्यायाधीशों की नियुक्ति, निष्कासन, और शक्तियों पर चर्चा हुई ताकि एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका सुनिश्चित की जा सके।
- आपातकालीन प्रावधान: राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता के लिए आवश्यक माने गए, लेकिन इनके संभावित दुरुपयोग पर भी चिंता व्यक्त की गई।
- समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code): इस पर भी मतभेद थे, और इसे नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया गया।
- ग्राम पंचायतें और विकेंद्रीकरण: गांधीवादी विचारों के समर्थकों ने मजबूत ग्राम पंचायतों की वकालत की, जबकि अन्य ने एक मजबूत केंद्रीयकृत राज्य का समर्थन किया। इसे भी नीति निदेशक तत्वों (अनुच्छेद 40) में स्थान मिला।
संविधान निर्माण में कुल 11 सत्र हुए जो 165 दिनों तक चले। संविधान के प्रारूप पर 114 दिनों तक विचार हुआ। इस पूरी प्रक्रिया में लगभग 64 लाख रुपये का खर्च आया।
4. भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ
भारतीय संविधान अपनी अनेक अनूठी विशेषताओं के लिए जाना जाता है, जो इसे विश्व के अन्य संविधानों से अलग करती हैं।
4.1 सबसे लंबा लिखित संविधान
मूल रूप से इसमें एक प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद (22 भागों में विभाजित) और 8 अनुसूचियाँ थीं। वर्तमान में (विभिन्न संशोधनों के बाद) इसमें लगभग 470 अनुच्छेद (25 भागों में विभाजित) और 12 अनुसूचियाँ हैं। इसके विशाल आकार के पीछे भौगोलिक विस्तार, ऐतिहासिक कारक (जैसे भारत सरकार अधिनियम, 1935 का प्रभाव), केंद्र और राज्यों दोनों के लिए एकल संविधान, और विभिन्न मामलों पर विस्तृत प्रावधान शामिल करना जैसे कारण हैं।
4.2 विभिन्न स्रोतों से विहित
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, भारतीय संविधान ने विश्व के कई देशों के संविधानों और भारत सरकार अधिनियम, 1935 से अनेक प्रावधान ग्रहण किए हैं। डॉ. अंबेडकर ने गर्व से कहा था कि भारतीय संविधान विश्व के सभी ज्ञात संविधानों को छानने के बाद बनाया गया है।
4.3 नम्यता और अनम्यता का सम्मिश्रण (Flexibility and Rigidity)
भारतीय संविधान न तो ब्रिटेन की तरह अत्यधिक लचीला है (जहाँ सामान्य कानून बनाकर संशोधन किया जा सकता है) और न ही अमेरिका की तरह अत्यधिक कठोर (जहाँ संशोधन प्रक्रिया बहुत जटिल है)। अनुच्छेद 368 के तहत कुछ प्रावधानों को संसद के साधारण बहुमत से, कुछ को विशेष बहुमत से, और कुछ को विशेष बहुमत के साथ आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति से संशोधित किया जा सकता है।
4.4 एकात्मकता की ओर झुकाव के साथ संघीय व्यवस्था
संविधान भारत को 'राज्यों के संघ' (Union of States) के रूप में वर्णित करता है (अनुच्छेद 1)। इसमें संघवाद की दोहरी राजव्यवस्था, शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, स्वतंत्र न्यायपालिका जैसी सभी सामान्य विशेषताएँ हैं। तथापि, इसमें एकल नागरिकता, एकीकृत न्यायपालिका, अखिल भारतीय सेवाएँ, आपातकालीन प्रावधान, और राज्यपाल की केंद्र द्वारा नियुक्ति जैसे कई एकात्मक या गैर-संघीय लक्षण भी हैं, जो केंद्र को शक्तिशाली बनाते हैं।
4.5 सरकार का संसदीय स्वरूप
संविधान ने केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकार के संसदीय स्वरूप को अपनाया है, जो ब्रिटेन के मॉडल पर आधारित है। इसमें कार्यपालिका अपनी नीतियों और कार्यों के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है। राष्ट्रपति नाममात्र का कार्यकारी प्रमुख होता है, जबकि वास्तविक कार्यकारी शक्तियाँ प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिपरिषद में निहित होती हैं।
4.6 संसदीय संप्रभुता एवं न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय
ब्रिटेन में संसदीय संप्रभुता है, जबकि अमेरिका में न्यायिक सर्वोच्चता। भारतीय संविधान ने इन दोनों के बीच एक संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया है। संसद कानून बना सकती है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की शक्ति के माध्यम से उन कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है यदि वे संविधान का उल्लंघन करते हैं (विशेषकर मौलिक अधिकारों का)।
4.7 एकीकृत एवं स्वतंत्र न्यायपालिका
भारत में एक एकीकृत न्यायपालिका है जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है, उसके नीचे उच्च न्यायालय और फिर अधीनस्थ न्यायालय हैं। न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाया गया है ताकि वह बिना किसी भय या पक्षपात के संविधान की रक्षा कर सके और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा कर सके।
4.8 मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)
संविधान के भाग III में छह मौलिक अधिकारों का वर्णन है जो सभी नागरिकों को राजनीतिक लोकतंत्र के विचार को बढ़ावा देने के लिए प्रदान किए गए हैं। ये न्यायोचित हैं, अर्थात इनके उल्लंघन पर न्यायालय में जाया जा सकता है।
4.9 राज्य के नीति निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy)
संविधान के भाग IV में वर्णित ये तत्व सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए राज्य को दिए गए निर्देश हैं। ये गैर-न्यायोचित हैं लेकिन देश के शासन में मूलभूत हैं।
4.10 मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties)
मूल संविधान में इनका उल्लेख नहीं था। इन्हें 1976 में 42वें संशोधन द्वारा भाग IV-क में अनुच्छेद 51-क के तहत जोड़ा गया। वर्तमान में 11 मौलिक कर्तव्य हैं।
4.11 धर्मनिरपेक्ष राज्य (Secular State)
संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करता है (प्रस्तावना में 'पंथनिरपेक्ष' शब्द 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया)। इसका अर्थ है कि राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है, और सभी धर्मों को समान सम्मान और संरक्षण प्राप्त है। अनुच्छेद 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देते हैं।
4.12 सार्वभौम वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise)
संविधान 18 वर्ष (मूल रूप से 21 वर्ष, 61वें संशोधन, 1988 द्वारा घटाया गया) की आयु प्राप्त सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार प्रदान करता है (अनुच्छेद 326)।
4.13 एकल नागरिकता (Single Citizenship)
संघीय व्यवस्था वाले देशों (जैसे अमेरिका) के विपरीत, भारत में केवल एकल नागरिकता का प्रावधान है, अर्थात सभी नागरिक केवल भारत के नागरिक हैं, किसी विशेष राज्य के नहीं।
4.14 स्वतंत्र निकाय (Independent Bodies)
संविधान ने कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना की है जो लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में कार्य करते हैं, जैसे निर्वाचन आयोग, भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG), संघ लोक सेवा आयोग (UPSC), और राज्य लोक सेवा आयोग (SPSC)।
4.15 आपातकालीन प्रावधान
राष्ट्र की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए राष्ट्रपति को असाधारण शक्तियाँ प्रदान की गई हैं ताकि वह आपातकालीन स्थितियों (राष्ट्रीय आपातकाल, राष्ट्रपति शासन, वित्तीय आपातकाल) से निपट सके।
4.16 त्रि-स्तरीय सरकार (Three-tier Government)
73वें और 74वें संवैधानिक संशोधनों (1992) द्वारा क्रमशः पंचायतों (ग्रामीण स्थानीय स्वशासन) और नगर पालिकाओं (शहरी स्थानीय स्वशासन) को संवैधानिक मान्यता प्रदान कर त्रि-स्तरीय शासन की व्यवस्था की गई है।
5. निष्कर्ष: संविधान की चिरस्थायी विरासत और भविष्य की दिशा
भारतीय संविधान, अपनी रचना के सात दशकों से अधिक समय के बाद भी, एक राष्ट्र के रूप में भारत की यात्रा का मार्गदर्शन करने वाला सर्वोपरि प्रकाश स्तंभ बना हुआ है। यह केवल कानूनों का एक संग्रह नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का दस्तावेज़ है, जिसने एक गहरे विभाजित और शोषित समाज को एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और समतावादी राष्ट्र में बदलने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा। इसकी स्थायी विरासत इसके लचीलेपन, समावेशी चरित्र और उन उदात्त मूल्यों में निहित है जिन्हें यह बनाए रखने का प्रयास करता है - न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व।
संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता इस तथ्य में स्पष्ट होती है कि उन्होंने विभिन्न वैश्विक संवैधानिक परंपराओं से प्रेरणा लेते हुए भी भारत की विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक वास्तविकताओं के अनुरूप एक अद्वितीय ढांचा तैयार किया। मौलिक अधिकारों के माध्यम से नागरिक स्वतंत्रताओं की गारंटी, नीति निदेशक तत्वों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक न्याय का आह्वान, और एक स्वतंत्र न्यायपालिका के माध्यम से संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा, ये सभी भारतीय लोकतंत्र के जीवंत बने रहने के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं।
हालांकि, संविधान के आदर्शों और जमीनी हकीकत के बीच की खाई को पाटना अभी भी एक सतत चुनौती है। सामाजिक असमानता, आर्थिक वंचना, सांप्रदायिक तनाव, भ्रष्टाचार, और संस्थागत कमजोरियाँ वे बाधाएँ हैं जो संविधान के पूर्ण कार्यान्वयन में अवरोध उत्पन्न करती हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए केवल संवैधानिक प्रावधान ही पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि इसके लिए एक मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति, उत्तरदायी शासन, सक्रिय नागरिक समाज और संवैधानिक नैतिकता का पालन आवश्यक है।
न्यायपालिका ने, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने, संविधान की व्याख्या करने और इसे समकालीन चुनौतियों के प्रति उत्तरदायी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 'मूल संरचना' (Basic Structure) के सिद्धांत का विकास, जनहित याचिकाओं (PILs) का उदय, और मौलिक अधिकारों के दायरे का विस्तार इसके कुछ ज्वलंत उदाहरण हैं।
अंततः, भारतीय संविधान का भविष्य भारत के लोगों के हाथों में है। इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि हम नागरिक के रूप में अपने अधिकारों के प्रति कितने सचेत हैं और अपने कर्तव्यों का निर्वहन कितनी ईमानदारी से करते हैं। यह एक सतत संवाद, आत्मनिरीक्षण और सुधार की प्रक्रिया है। जैसे-जैसे भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहा है, यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम अपने संवैधानिक मूल्यों को न केवल बनाए रखें बल्कि उन्हें और मजबूत करें, ताकि भारत वास्तव में अपने संस्थापकों के सपनों का एक न्यायपूर्ण, समतावादी, धर्मनिरपेक्ष और समृद्ध राष्ट्र बन सके। संविधान की मशाल को आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रज्वलित रखना हम सभी का सामूहिक दायित्व है।
ज्ञान-परीक्षा: भारतीय संविधान प्रश्नोत्तरी
1. भारतीय संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे?
2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्द किस संशोधन द्वारा जोड़े गए?
3. भारतीय संविधान का कौन सा अनुच्छेद 'प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण' से संबंधित है?
4. राज्य के नीति निदेशक तत्व भारतीय संविधान के किस भाग में वर्णित हैं?
5. 'उद्देश्य संकल्प' (Objectives Resolution) संविधान सभा में किसके द्वारा प्रस्तुत किया गया था?
6. भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्य किस देश के संविधान से प्रेरित हैं?
7. भारत में एकल नागरिकता की अवधारणा किस देश से अपनाई गई है?
8. संविधान का कौन सा अनुच्छेद ग्राम पंचायतों के संगठन से संबंधित है?
9. 'विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' (Procedure established by law) का सिद्धांत किस देश के संविधान से लिया गया है?
10. किस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 'संविधान की मूल संरचना' (Basic Structure) का सिद्धांत प्रतिपादित किया?
विश्लेषण का दृष्टिकोण एवं विशेष पाठ्य खंडों की व्याख्या
यह विस्तृत विश्लेषण भारतीय संविधान के उद्भव, निर्माण प्रक्रिया, दार्शनिक आधार, प्रमुख विशेषताओं, विवादास्पद पहलुओं और इसके निर्माताओं के योगदान का एक वस्तुनिष्ठ, गहन और शैक्षिक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। हमारा दृष्टिकोण ऐतिहासिक दस्तावेजों, संविधान सभा की बहसों, न्यायिक निर्णयों, और प्रमुख विद्वानों के मतों पर आधारित है। इसका लक्ष्य पाठकों, विशेषकर छात्रों और प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थियों को एक समग्र समझ प्रदान करना है।
"संविधान के मूल स्वर" खंड की संरचना:
इस खंड में भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण अंशों, उद्धरणों, और तथ्यों को एक विशिष्ट एवं आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया गया है:
- खंड (
.khanda
): प्रत्येक खंड एक विशिष्ट संवैधानिक विषय या पहलू पर केंद्रित है, जैसे प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, या नीति निदेशक तत्व। - मुख्य पंक्तियाँ (
.chhand-line
): ये पंक्तियाँ संविधान के अनुच्छेदों के सारांश, प्रमुख व्यक्तियों के उद्धरण, या महत्वपूर्ण तथ्यों को स्पष्टता और विषय के महत्व के अनुरूप प्रस्तुत करती हैं। - अग्नि-शब्द (
.am-fiery-word
): इन शब्दों का प्रयोग संवैधानिक अवधारणाओं (जैसे न्याय, स्वतंत्रता, समता) या महत्वपूर्ण पदों को उजागर करने के लिए किया गया है। - गंभीर पंक्तियाँ (
.am-hunkar-line
): इन पंक्तियों का उपयोग किसी विचारोत्तेजक प्रश्न या संविधान के किसी सशक्त कथन को प्रस्तुत करने के लिए किया गया है। - मुख्य सिद्धांत खंड (
.key-principle-block
): ये खंड संविधान के मूल सिद्धांतों या आदर्शों को संक्षेप में और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं। - तालिकाएँ एवं उद्धरण (
table, blockquote
): इनका प्रयोग तथ्यों को संरचित रूप में (जैसे स्रोतों की तालिका) और महत्वपूर्ण विचारों को सीधे उद्धृत करने के लिए किया गया है।
शैक्षिक उद्देश्य: इस प्रस्तुति का उद्देश्य जटिल संवैधानिक प्रावधानों को सरल, आकर्षक और यादगार तरीके से प्रस्तुत करना है, ताकि पाठक शुष्क कानूनी भाषा के बजाय इसके मर्म और भावना को समझ सकें।
कॉपीराइट सामग्री उपयोग हेतु:
नीचे दिए गए कोड बॉक्स में "संविधान के मूल स्वर" खंड की सामग्री का एक नमूना है, जिसे शैक्षिक उद्देश्यों के लिए कॉपी किया जा सकता है। पूर्ण सामग्री के लिए उपरोक्त खंड देखें।
--- संविधान के मूल स्वर: नमूना --- खंड: उद्देशिका: संविधान की आत्मा "हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए..." यह प्रस्तावना मात्र शब्द नहीं, बल्कि राष्ट्र का संकल्प और दर्शन है! खंड: मौलिक अधिकार: नागरिक स्वतंत्रता के प्रहरी अनुच्छेद 14: "राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से..." "अनुच्छेद 32 संविधान का हृदय और आत्मा है।" - डॉ. भीमराव अंबेडकर मुख्य सिद्धांत: न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व ये हैं संविधान के चार आधार स्तंभ, भारत की गौरवशाली पहचान।
विश्लेषक का कथन एवं कॉपीराइट
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इस विस्तृत विश्लेषण का उद्देश्य भारतीय संविधान के प्रति गहन समझ, सम्मान और आलोचनात्मक दृष्टि को बढ़ावा देना है। हम आशा करते हैं कि यह सामग्री छात्रों, शोधकर्ताओं, प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थियों और आम नागरिकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी तथा संवैधानिक मूल्यों एवं समकालीन चुनौतियों पर एक सार्थक विमर्श को प्रेरित करेगी।
हमारा दृढ़ विश्वास है कि अपने संविधान को जानना और उसके आदर्शों को आत्मसात करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का परम कर्तव्य और अधिकार है। एक सूचित और जागरूक नागरिक ही लोकतंत्र की जड़ों को सशक्त और जीवंत बना सकता है। जय हिंद! (🇮🇳)