अतिथि का अंगार
जेएनयू की तर्ज़ पर
सुनो सत्ताधारियों, खोलो अपने कान! (आवाज़ में बुलंदी और चुनौती)
हम अतिथि शिक्षक, अब नहीं सहेंगे अपमान!
ज्ञान की मशाल ले, अँधियारा हरते हम,
और हमारे ही घर में, मातम और गम!
हम क्या माँगें? स्थायित्व! (पूरी ताकत से)
कब तक सहेंगे? अन्याय!
तोड़ो ये चुप्पी! बोलो सरकार!
नहीं सहेंगे! अब और नहीं! (आक्रोश)
बरसों की सेवा, ये कैसा प्रतिदान?
कम पगार पर, झोंकते पूरी जान! (कड़वाहट)
हर सत्र भय नया, निष्कासन का वार,
फिर नई भर्ती, ये कैसा कारोबार?
शिक्षक हैं हम, नहीं हैं बंधुआ कोई,
मन चाहा जब रखा, मन चाहा धकियाए!
हम क्या माँगें? सम्मान! (और बुलंद आवाज़ में)
कब तक सहेंगे? अपमान!
तोड़ो ये चुप्पी! बोलो सरकार!
नहीं सहेंगे! अब और नहीं! (बढ़ता आक्रोश)
सड़कों पर उतरे, खाईं लाठी-मार, (संघर्ष की याद, पीड़ा)
बस कोरे आश्वासन, झूठा ये करार!
पंचायतें सजीं, और वादे बेहिसाब,
नियमितीकरण का, दिखाया झूठा ख्वाब! (व्यंग्य और निराशा)
फाइलें हैं गुम, या नीयत में ही खोट?
हमारे भविष्य पर, करते गहरी चोट!
हम क्या माँगें? न्याय! (आक्रोश के साथ)
कब तक सहेंगे? धोखा!
तोड़ो ये चुप्पी! बोलो सरकार!
नहीं सहेंगे! अब और नहीं! (गुस्से और दृढ़ संकल्प)
कितने साथी टूटे, कितनों ने दी जान, (गहरी उदासी और शोक)
आत्महत्या को मजबूर, ये कैसा है विधान?
घर में बच्चे भूखे, चूल्हा है उदास,
ये शोषण का दानव, कब होगा विनाश?
शिक्षा की हम नींव, पर नींव ही कमज़ोर,
हमारे हक़ की रोटी, क्यों छीने हर कौर?
हम क्या माँगें? अधिकार! (अंतिम हुंकार)
कब तक सहेंगे? अत्याचार!
तोड़ो ये चुप्पी! बोलो सरकार!
नहीं सहेंगे! अब और नहीं! (घोषणात्मक, निर्णायक)
ये जेएनयू की तर्ज़ है, ये संघर्ष की मशाल,
अतिथि का लहू पुकारे, बदलो अपनी चाल!
जब तक न्याय न होगा, संघर्ष रहेगा जारी,
अब तो सुन लो हुक्मरानों, ये है ललकार हमारी!
इंकलाब! ज़िंदाबाद!
अतिथि एकता! ज़िंदाबाद!
हमारा संघर्ष! ज़िंदाबाद!