हम अतिथि नहीं, अधिकार हैं!
एक अस्थायी शिक्षक की स्थायी पुकार
हम अतिथि नहीं,
हम वो सवाल हैं
जो हर क्लासरूम की दीवार पर लिखे जाते हैं
कभी चुपचाप, कभी चिल्लाकर!
हम वो हाथ हैं
जिन्होंने सरकारी पाठ्यक्रम को
सरकारी जूतों के नीचे से उठाकर
बच्चों की आँखों में सपना बनाया है।
हमने नौकरी नहीं माँगी,
हमने अवसर माँगा था —
पढ़ाने का, गढ़ने का,
राष्ट्र निर्माण में भागीदार बनने का।
पर तुमने हमें "गेस्ट" कहा,
गोया हम कोई रात्रिभोज पर आए
वो मेहमान हैं, जो कभी भी निकाले जा सकते हैं
स्थायी कुर्सियों की राजनीति के नीचे कुचले जा सकते हैं।
जब-जब कोई “स्थायी” आता है,
हम हटाए जाते हैं —
मानो हम टीचर नहीं,
कोई अस्थायी फर्नीचर हों स्कूलों का।
तुम कहते हो – "नियम यही है!"
हम पूछते हैं –
क्या संविधान में असमानता का अनुच्छेद जुड़ गया है?
क्या अनुभव, तपस्या, और ज्ञान का कोई मूल्य नहीं?
हमने भी B.Ed. किया, TET पास किया,
फिर किस संविधान से हमें 'अस्थायी' ठहराया?
हम शिक्षा के मज़दूर हैं,
मगर ठेके पर नहीं!
हम विचार हैं, संकल्प हैं, प्रतिरोध हैं,
हम ‘पैडागॉजी’ का भी नाम जानते हैं, और 'प्रतिक्रांति' का भी।
कक्षा सिर्फ़ किताबों से नहीं चलती,
वह चलती है हमारी साँसों से, हमारी भूख से, हमारी उम्मीद से।
तो सुन लो व्यवस्था के कर्णधारों,
हम सिर्फ़ नियुक्ति नहीं चाहते —
हम सम्मान, स्थायित्व, और न्याय चाहते हैं।
और जब तक यह नहीं मिलेगा —
हम बोलेंगे, लिखेंगे, सिखाएँगे,
और एक दिन इतिहास की किताबों में दर्ज होंगे —
‘वे जो शिक्षक थे, और फिर आंदोलन बन गए!’