उद्भव, निर्माण प्रक्रिया, विशेषताएँ, प्रमुख विवाद एवं स्थायी विरासत
संविधान के आलोक-स्तंभ: मूल भावना एवं महत्वपूर्ण तथ्य
उद्देशिका: राष्ट्र का संकल्प
"हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
उद्देशिका संविधान निर्माताओं के सपनों और आकांक्षाओं का दर्पण है।
मौलिक अधिकार: नागरिक स्वतंत्रता के प्रहरी
अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार): "राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।" यह सिद्धांत भेदभाव रहित समाज की आधारशिला है।
अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता का अधिकार): वाक्-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य, शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन, संगम या संघ बनाने, भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण, और कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार। (उचित निर्बंधनों के अधीन)
अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण): "किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।" सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी व्यापक व्याख्या करते हुए इसमें गरिमापूर्ण जीवन, स्वच्छ पर्यावरण, शिक्षा आदि अनेक अधिकारों को शामिल किया है।
अनुच्छेद 32 (सांविधानिक उपचारों का अधिकार): डॉ. अंबेडकर ने इसे 'संविधान की आत्मा और हृदय' कहा। यह नागरिकों को मौलिक अधिकारों के हनन पर सीधे सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार देता है।
"मौलिक अधिकार भारतीय लोकतंत्र के आधार स्तंभ हैं, जो राज्य की शक्ति को सीमित करते हैं और व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करते हैं।"
न्याय (सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक)
स्वतंत्रता (विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना)
समता (प्रतिष्ठा और अवसर)
बंधुत्व (व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता और अखण्डता)
राज्य के नीति निदेशक तत्व: लोक-कल्याणकारी राज्य की दिशा
अनुच्छेद 38: "राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।"
अनुच्छेद 39(क): समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता।
अनुच्छेद 40: ग्राम पंचायतों का संगठन। (गांधीवादी सिद्धांत)
अनुच्छेद 44: नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता।
अनुच्छेद 48क: पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा।
अनुच्छेद 51: अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि।
यद्यपि ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं, तथापि देश के शासन में मूलभूत हैं।
संविधान सभा के प्रमुख व्यक्तित्वों के विचार
व्यक्तित्व | प्रमुख विचार/योगदान (संक्षिप्त) | समिति/भूमिका |
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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद | कुशल संचालन, सभी मतों को सम्मान, राष्ट्रभाषा पर समन्वय। | संविधान सभा अध्यक्ष, संचालन समिति अध्यक्ष |
जवाहरलाल नेहरू | उद्देश्य संकल्प, आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी दृष्टि, विदेश नीति के सिद्धांत। | संघ शक्ति समिति, संघीय संविधान समिति अध्यक्ष |
सरदार वल्लभभाई पटेल | रियासतों का एकीकरण, मौलिक अधिकारों एवं अल्पसंख्यक संरक्षण पर बल। | प्रांतीय संविधान समिति, मौलिक अधिकार सलाहकार समिति अध्यक्ष |
डॉ. बी.आर. अंबेडकर | कानूनी प्रारूपण, सामाजिक न्याय, दलितों के अधिकार, सशक्त संवैधानिक ढांचा। | प्रारूप समिति अध्यक्ष |
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद | शिक्षा, संस्कृति, राष्ट्रीय एकता, वयस्क मताधिकार के समर्थक। | शिक्षा मंत्री (अंतरिम सरकार), विभिन्न समितियों के सदस्य |
सर बी.एन. राव | संविधान का प्रारंभिक प्रारूप, विभिन्न देशों के संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन। | संवैधानिक सलाहकार (संविधान सभा के सदस्य नहीं) |
के.एम. मुंशी | भाषा नीति, सांस्कृतिक अधिकार, हिंदी को राजभाषा बनाने के समर्थक। | प्रारूप समिति सदस्य, कार्यसंचालन समिति सदस्य |
अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर | न्यायिक समीक्षा, मौलिक अधिकार, नागरिकता पर गहन विमर्श। | प्रारूप समिति सदस्य |
आपातकालीन प्रावधान: राष्ट्र की सुरक्षा कवच
अनुच्छेद 352 (राष्ट्रीय आपातकाल): युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में। मौलिक अधिकारों पर प्रभाव।
अनुच्छेद 356 (राज्यों में सांविधानिक तंत्र की विफलता/राष्ट्रपति शासन): राज्यपाल की रिपोर्ट पर या अन्यथा। इसके प्रयोग पर अक्सर विवाद।
अनुच्छेद 360 (वित्तीय आपातकाल): भारत या उसके किसी भाग की वित्तीय स्थिरता या साख को खतरा होने पर। (आज तक लागू नहीं हुआ)
असाधारण शक्तियों का प्रयोग संयम और संवैधानिक मर्यादा में ही होना चाहिए।
संविधान संशोधन प्रक्रिया: जीवंतता का प्रमाण
अनुच्छेद 368: संशोधन की तीन प्रक्रियाएँ - (1) संसद के साधारण बहुमत द्वारा, (2) संसद के विशेष बहुमत द्वारा, (3) संसद के विशेष बहुमत तथा आधे राज्य विधानमंडलों की संस्तुति के उपरांत।
प्रमुख संशोधन: 1ला (1951) - भूमि सुधार, वाक् स्वतंत्रता पर निर्बंधन। 42वां (1976) - 'लघु संविधान', प्रस्तावना में परिवर्तन, मौलिक कर्तव्य। 44वां (1978) - संपत्ति का अधिकार हटाया, आपातकालीन प्रावधानों में सुधार। 73वां/74वां (1992) - पंचायती राज/नगरपालिका। 101वां (2016) - GST। 103वां (2019) - आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण।
संविधान एक जड़ दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक विकासशील और जीवंत विधान है।
संघवाद: विविधता में एकता का सूत्र
शक्तियों का वितरण: सातवीं अनुसूची - संघ सूची (97+ विषय), राज्य सूची (66+ विषय), समवर्ती सूची (47+ विषय)। अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के पास।
विशेषताएँ: लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, शक्तियों का विभाजन, स्वतंत्र न्यायपालिका, द्विसदनीयता।
एकात्मक प्रवृत्तियाँ: एकल नागरिकता, अखिल भारतीय सेवाएँ, राज्यपाल की नियुक्ति, आपातकालीन प्रावधान, संसद की राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन की शक्ति।
"भारतीय संविधान प्रकृति में संघीय है, किन्तु भावना में एकात्मक।"
न्यायपालिका: संविधान की प्रहरी और अधिकारों की रक्षक
संरचना: एकीकृत न्यायपालिका - सर्वोच्च न्यायालय (शीर्ष पर), राज्यों में उच्च न्यायालय, अधीनस्थ न्यायालय (जिला एवं सत्र न्यायालय आदि)।
स्वतंत्रता के प्रावधान: न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया, कार्यकाल की सुरक्षा, निश्चित सेवा शर्तें, संचित निधि से व्यय, आचरण पर बहस पर रोक।
शक्तियाँ: न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) - केंद्र और राज्य कानूनों की संवैधानिकता की जांच। रिट जारी करने की शक्ति (अनुच्छेद 32 और 226)।
विधि का शासन और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका का परम कर्तव्य है।
परिचय: भारत का संविधान – एक जीवंत और विकासशील दस्तावेज़
भारतीय संविधान, जिसे 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को पूर्ण रूप से लागू किया गया, न केवल भारत गणराज्य का सर्वोच्च विधान है, बल्कि यह एक राष्ट्र की सामूहिक चेतना, उसके ऐतिहासिक संघर्षों, उसकी विविधतापूर्ण संस्कृति और भविष्य की आकांक्षाओं का एक जीवंत प्रतीक भी है। यह विश्व के सबसे विस्तृत लिखित संविधानों में से एक है, जो अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को रेखांकित करता है, और शासन की एक संघीय संसदीय प्रणाली स्थापित करता है। इसका निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था, जिसमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों, समुदायों और विचारधाराओं के प्रतिनिधियों ने लगभग तीन वर्षों (2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन) तक गहन विचार-विमर्श और बहस के माध्यम से इसे आकार दिया।
यह दस्तावेज़ केवल नियमों और विनियमों का संग्रह मात्र नहीं है; यह सामाजिक क्रांति का एक माध्यम भी है। इसका उद्देश्य सदियों से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को दूर करना, सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता सुनिश्चित करना और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को अक्षुण्ण रखना है। संविधान की प्रस्तावना इन उदात्त लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित हुए आदर्शों, जैसे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और मानवाधिकारों के प्रति सम्मान, को संविधान में प्रमुखता से स्थान दिया गया है। यह लेख भारतीय संविधान के ऐतिहासिक विकासक्रम, इसकी निर्माण प्रक्रिया की जटिलताओं, इसकी प्रमुख विशेषताओं और सिद्धांतों, संविधान सभा में हुए महत्वपूर्ण विवादों, इसमें योगदान देने वाले प्रमुख व्यक्तित्वों की भूमिका, और समकालीन भारत में इसकी निरंतर प्रासंगिकता और चुनौतियों का एक व्यापक और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास करेगा।
1. ऐतिहासिक विकासक्रम: औपनिवेशिक अधिनियमों से स्वशासन की आकांक्षा तक
भारतीय संविधान का उद्भव आकस्मिक नहीं था, बल्कि यह एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम था, जिसकी जड़ें ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में निहित हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान पारित विभिन्न अधिनियमों ने धीरे-धीरे भारत में संवैधानिक और प्रशासनिक सुधारों की नींव रखी, यद्यपि उनका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की पूर्ति करना था।
ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन और प्रारंभिक नियामक विधान (1773-1857)
रेग्युलेटिंग एक्ट, 1773: यह ब्रिटिश संसद द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों को नियंत्रित करने का पहला महत्वपूर्ण प्रयास था। इसने बंगाल के गवर्नर को 'गवर्नर-जनरल ऑफ बंगाल' का पदनाम दिया (पहले गवर्नर-जनरल लॉर्ड वॉरेन हेस्टिंग्स थे) और उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कार्यकारी परिषद का गठन किया। इसने कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की स्थापना का भी प्रावधान किया (1774 में स्थापित)। इस अधिनियम का उद्देश्य कंपनी के अधिकारियों के बीच व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना और कंपनी के प्रशासन में कुछ हद तक जवाबदेही लाना था।
पिट्स इंडिया एक्ट, 1784: इस अधिनियम ने कंपनी के वाणिज्यिक और राजनीतिक कार्यों को पृथक कर दिया। कंपनी के वाणिज्यिक मामलों का प्रबंधन निदेशक मंडल (Court of Directors) को सौंपा गया, जबकि राजनीतिक मामलों (जैसे नागरिक, सैन्य और राजस्व) के अधीक्षण के लिए 'नियंत्रण बोर्ड' (Board of Control) नामक एक नए निकाय का गठन किया गया। इस प्रकार, इसने भारत में ब्रिटिश सरकार के दोहरे नियंत्रण (Dual Control) की प्रणाली स्थापित की।
चार्टर एक्ट्स (1793, 1813, 1833, 1853): इन अधिनियमों की श्रृंखला ने कंपनी के शासन को नियमित अंतराल पर नवीनीकृत किया और महत्वपूर्ण संवैधानिक परिवर्तन लाए।
- चार्टर एक्ट, 1813: इसने भारत में कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को (चीन के साथ व्यापार और चाय के व्यापार को छोड़कर) समाप्त कर दिया और सभी ब्रिटिश व्यापारियों के लिए भारतीय व्यापार खोल दिया। इसने भारतीय साहित्य के पुनरुद्धार और विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय प्रावधान भी किए और ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी।
- चार्टर एक्ट, 1833: यह ब्रिटिश भारत के केंद्रीकरण की दिशा में एक निर्णायक कदम था। इसने बंगाल के गवर्नर-जनरल को 'भारत का गवर्नर-जनरल' (Governor-General of India) बनाया (पहले भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक थे) और उसे सभी नागरिक और सैन्य शक्तियाँ प्रदान कीं। इसने बॉम्बे और मद्रास के गवर्नरों की विधायी शक्तियों को छीन लिया। कंपनी के व्यापारिक निकाय के रूप में गतिविधियाँ समाप्त हो गईं और यह विशुद्ध रूप से एक प्रशासनिक निकाय बन गई। इसने सरकारी सेवाओं में चयन के लिए खुली प्रतियोगिता आयोजित करने का प्रयास किया, लेकिन निदेशक मंडल के विरोध के कारण यह प्रावधान लागू नहीं हो सका।
- चार्टर एक्ट, 1853: यह अंतिम चार्टर एक्ट था। इसने पहली बार गवर्नर-जनरल की परिषद के विधायी और कार्यकारी कार्यों को अलग किया। इसने छह नए सदस्यों (जिन्हें विधान पार्षद कहा जाता था) को जोड़कर 'भारतीय (केंद्रीय) विधान परिषद' (Indian (Central) Legislative Council) की स्थापना की। यह एक प्रकार की लघु संसद के रूप में कार्य करती थी। इसने सिविल सेवकों की भर्ती और चयन के लिए खुली प्रतियोगिता प्रणाली शुरू की (मैकाले समिति, 1854)।
ब्रिटिश ताज का शासन और प्रतिनिधिक संस्थाओं का उदय (1858-1947)
भारत सरकार अधिनियम, 1858: 1857 के सिपाही विद्रोह (जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है) के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश संसद ने यह अधिनियम पारित किया, जिसने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त कर दिया और शासन की शक्तियाँ सीधे ब्रिटिश महारानी (British Crown) को हस्तांतरित कर दीं। भारत के गवर्नर-जनरल को 'वायसराय' (Viceroy) का पदनाम दिया गया, जो भारत में ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि होता था (पहले वायसराय लॉर्ड कैनिंग थे)। इसने नियंत्रण बोर्ड और निदेशक मंडल को समाप्त कर दिया और 'भारत के राज्य सचिव' (Secretary of State for India) के एक नए पद का सृजन किया, जो ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य होता था और भारतीय प्रशासन के लिए अंतिम रूप से जिम्मेदार था। राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यीय 'भारत परिषद' (Council of India) का गठन किया गया।
भारतीय परिषद अधिनियम (1861, 1892, 1909): इन अधिनियमों ने भारत में प्रतिनिधिक संस्थाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- 1861 का अधिनियम: इसने कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीयों को शामिल करने की शुरुआत की। वायसराय अपनी विस्तारित विधान परिषद में कुछ भारतीयों को गैर-सरकारी सदस्यों के रूप में नामित कर सकता था। इसने बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसियों को उनकी विधायी शक्तियाँ बहाल कर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया शुरू की।
- 1892 का अधिनियम: इसने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त (गैर-सरकारी) सदस्यों की संख्या बढ़ाई, लेकिन उनमें आधिकारिक बहुमत बनाए रखा। इसने विधान परिषदों के कार्यों में वृद्धि की और उन्हें बजट पर बहस करने और कार्यपालिका से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया (यद्यपि सीमित रूप में)।
- 1909 का अधिनियम (मॉर्ले-मिंटो सुधार): लॉर्ड मॉर्ले (भारत के राज्य सचिव) और लॉर्ड मिंटो (वायसराय) के नाम पर, इस अधिनियम ने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों के आकार में काफी वृद्धि की। इसने पहली बार किसी भारतीय (सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा) को वायसराय और गवर्नरों की कार्यकारी परिषदों में शामिल करने का प्रावधान किया। इसने 'पृथक निर्वाचन' (Separate Electorate) की अवधारणा को स्वीकार करते हुए मुसलमानों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली शुरू की, जिसे भारतीय राष्ट्रवाद के लिए हानिकारक माना गया।
भारत सरकार अधिनियम, 1919 (मोंटेंग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार): एडविन मोंटेंग्यू (भारत के राज्य सचिव) और लॉर्ड चेम्सफोर्ड (वायसराय) के नाम पर, इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में धीरे-धीरे उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था।
- इसने केंद्रीय और प्रांतीय विषयों की सूचियों को अलग-अलग कर प्रांतों पर केंद्रीय नियंत्रण कम किया।
- इसने प्रांतीय विषयों को दो भागों में विभाजित किया - 'हस्तांतरित' (Transferred) और 'आरक्षित' (Reserved)। हस्तांतरित विषयों का प्रशासन गवर्नर द्वारा विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों की सहायता से किया जाना था, जबकि आरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर और उसकी कार्यकारी परिषद द्वारा विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी हुए बिना किया जाना था। शासन की इस दोहरी योजना को 'द्वैध शासन' (Dyarchy) कहा गया, जो काफी हद तक असफल रही।
- इसने देश में पहली बार द्विसदनीय व्यवस्था (Bicameralism) और प्रत्यक्ष निर्वाचन (Direct Elections) की शुरुआत की। भारतीय विधान परिषद को एक द्विसदनीय विधायिका से प्रतिस्थापित किया गया, जिसमें उच्च सदन (राज्य परिषद) और निम्न सदन (केंद्रीय विधान सभा) शामिल थे।
- इसने संपत्ति, कर या शिक्षा के आधार पर सीमित संख्या में लोगों को मताधिकार प्रदान किया।
- इसने लंदन में भारत के उच्चायुक्त (High Commissioner for India) के एक नए कार्यालय का सृजन किया।
साइमन कमीशन (1927): 1919 के अधिनियम की समीक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में सात सदस्यीय वैधानिक आयोग नियुक्त किया। इसके सभी सदस्य ब्रिटिश होने के कारण भारतीय नेताओं ने इसका बहिष्कार किया।
भारत सरकार अधिनियम, 1935: यह एक लंबा और विस्तृत दस्तावेज़ था, जिसमें 321 धाराएँ और 10 अनुसूचियाँ थीं। यह भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण स्रोत बना।
- इसने एक 'अखिल भारतीय संघ' (All-India Federation) की स्थापना का प्रावधान किया, जिसमें ब्रिटिश भारत के प्रांतों और रियासतों (यदि वे शामिल होना चाहें) को इकाइयों के रूप में शामिल किया जाना था। हालांकि, रियासतों के शामिल न होने के कारण यह संघीय प्रावधान कभी लागू नहीं हो सका।
- इसने प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त कर 'प्रांतीय स्वायत्तता' (Provincial Autonomy) प्रदान की। प्रांतों को अपने परिभाषित क्षेत्रों में प्रशासन की स्वायत्त इकाइयाँ बनाया गया।
- इसने केंद्र में द्वैध शासन अपनाने का प्रावधान किया (हालांकि यह भी लागू नहीं हुआ)।
- इसने 11 में से 6 प्रांतों में द्विसदनीय व्यवस्था शुरू की।
- इसने दलित वर्गों (अनुसूचित जातियों), महिलाओं और मजदूरों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्रों का विस्तार किया।
- इसने भारतीय रिजर्व बैंक (Reserve Bank of India) की स्थापना का प्रावधान किया।
- इसने न केवल एक संघीय लोक सेवा आयोग (Federal Public Service Commission) बल्कि प्रांतीय सेवा आयोग और दो या अधिक प्रांतों के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना का भी प्रावधान किया。
- इसने एक संघीय न्यायालय (Federal Court) की स्थापना का प्रावधान किया (1937 में स्थापित)。
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947: इस अधिनियम ने 15 अगस्त, 1947 को भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त कर दिया और भारत को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र घोषित किया। इसने भारत का विभाजन कर दो स्वतंत्र डोमिनियन - भारत और पाकिस्तान - का सृजन किया। इसने वायसराय का पद समाप्त कर दिया और प्रत्येक डोमिनियन के लिए एक गवर्नर-जनरल का प्रावधान किया। इसने दोनों डोमिनियनों की संविधान सभाओं को अपने-अपने देशों के लिए संविधान बनाने और किसी भी ब्रिटिश कानून को निरस्त करने का अधिकार दिया।
2. स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव और संवैधानिक आकांक्षाएँ
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन केवल राजनीतिक दासता से मुक्ति का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह एक नए भारत के निर्माण की परिकल्पना भी थी – एक ऐसा भारत जो सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, और राजनीतिक स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर आधारित हो। इन आकांक्षाओं ने संविधान निर्माण की प्रक्रिया को गहराई से प्रभावित किया।
प्रारंभिक राष्ट्रवादी माँगें और संवैधानिक सुधारों की चेतना
19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ ही संवैधानिक सुधारों की मांग भी उठने लगी थी। दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे उदारवादी नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही भारतीयों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व, नागरिक सेवाओं में समान अवसर, और विधायी परिषदों के विस्तार की वकालत की। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। कांग्रेस के प्रारंभिक अधिवेशनों में पारित प्रस्तावों में अक्सर प्रशासनिक और संवैधानिक सुधारों की मांगें शामिल होती थीं।
स्वराज की अवधारणा और स्वदेशी आंदोलन
20वीं सदी की शुरुआत में, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में उग्र राष्ट्रवादी धारा उभरी, जिसने "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" का नारा दिया। 1905 के बंगाल विभाजन के विरुद्ध हुए स्वदेशी आंदोलन ने आम जनता में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया और पूर्ण स्वशासन की मांग को बल दिया। इन आंदोलनों ने भारतीय पहचान और आत्मनिर्भरता पर जोर दिया, जो बाद में संविधान के कुछ गांधीवादी सिद्धांतों में प्रतिबिंबित हुआ।
गांधीवादी दर्शन और कांग्रेस का परिवर्तन
1915 में महात्मा गांधी के भारत आगमन और भारतीय राजनीति में उनके सक्रिय होने से स्वतंत्रता आंदोलन का स्वरूप पूरी तरह बदल गया। उनके सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, सर्वोदय (सबका उदय), और ग्राम स्वराज (ग्राम स्वशासन) के विचारों ने आंदोलन को एक जन आंदोलन में परिवर्तित कर दिया। गांधीजी एक ऐसे संविधान के पक्षधर थे जो भारत की आत्मा को प्रतिबिंबित करे और सबसे गरीब व्यक्ति (दरिद्रनारायण) की आवश्यकताओं को पूरा करे। उन्होंने शक्तियों के विकेंद्रीकरण, पंचायती राज संस्थाओं की मजबूती, और कुटीर उद्योगों पर आधारित आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की वकालत की। यद्यपि संविधान सभा ने अंततः एक केंद्रीकृत संसदीय प्रणाली को अपनाया, गांधीवादी सिद्धांतों का प्रभाव संविधान के भाग IV (राज्य के नीति निदेशक तत्व) में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जैसे:
- अनुच्छेद 40: ग्राम पंचायतों का संगठन।
- अनुच्छेद 43: कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा।
- अनुच्छेद 46: अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि।
- अनुच्छेद 47: पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य (जिसमें मादक पेयों और हानिकर औषधियों के उपभोग का प्रतिषेध शामिल है)।
- अनुच्छेद 48: कृषि और पशुपालन का संगठन (जिसमें गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए तथा उनके वध का प्रतिषेध करने का प्रयास शामिल है)।
नेहरू रिपोर्ट (1928) और मौलिक अधिकारों की मांग
साइमन कमीशन के बहिष्कार के जवाब में, भारतीय नेताओं ने सर्वदलीय सम्मेलन के माध्यम से मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया, जिसने 1928 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। नेहरू रिपोर्ट स्वतंत्र भारत के संविधान का एक प्रारंभिक मसौदा था। इसमें भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस, एक संघीय ढांचा, द्विसदनीय विधायिका, मौलिक अधिकारों की एक सूची (जिसमें वाक् स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, और कानून के समक्ष समानता शामिल थी), और अल्पसंख्यकों के लिए संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों के साथ सीटों के आरक्षण का प्रस्ताव था। यह रिपोर्ट भारतीय नेताओं द्वारा संविधान निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण और ठोस प्रयास था, जिसने भविष्य के संवैधानिक विमर्शों के लिए एक आधार तैयार किया।
पूर्ण स्वराज का संकल्प (1929) और सविनय अवज्ञा आंदोलन
1929 में लाहौर में हुए कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन में, जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में, 'पूर्ण स्वराज' (पूर्ण स्वतंत्रता) का प्रस्ताव पारित किया गया और 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में 'स्वतंत्रता दिवस' के रूप में मनाया गया। इसके बाद 1930-34 के दौरान हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार पर भारी दबाव डाला और भारतीय जनता की स्वतंत्रता की अदम्य इच्छा को प्रदर्शित किया। इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय अब केवल डोमिनियन स्टेटस से संतुष्ट नहीं होंगे।
क्रांतिकारी, समाजवादी और किसान-मजदूर आंदोलन
स्वतंत्रता संग्राम में केवल कांग्रेस ही एकमात्र शक्ति नहीं थी। भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों और उनके संगठनों ने सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से पूर्ण स्वतंत्रता की वकालत की। उनके विचारों में समाजवादी और समतावादी समाज की स्पष्ट झलक थी। किसान सभाओं और मजदूर यूनियनों के आंदोलनों ने भी सामाजिक-आर्थिक न्याय और शोषण से मुक्ति की मांगों को मुखर किया। इन विभिन्न धाराओं के विचारों ने भी संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित 'सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय' तथा 'अवसर की समता' जैसे आदर्शों को प्रभावित किया। सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में एक योजना आयोग की स्थापना की और स्वतंत्र भारत के लिए एक समाजवादी संविधान के निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया था।
द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) के दौरान, ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से परामर्श किए बिना भारत को युद्ध में शामिल कर दिया, जिसका कांग्रेस ने कड़ा विरोध किया। 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' ने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। यद्यपि आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिया गया, इसने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत में ब्रिटिश राज के दिन अब गिने-चुने रह गए हैं। इस दौरान, संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए क्रिप्स मिशन (1942) और वेवेल योजना (1945) जैसे प्रयास भी हुए, लेकिन वे असफल रहे।
संविधान सभा की मांग की स्वीकृति
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1934 में ही आधिकारिक तौर पर यह मांग उठाई थी कि भारत का संविधान बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के, भारतीयों द्वारा चुनी गई एक संविधान सभा द्वारा बनाया जाना चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति और ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनने के बाद, यह मांग अंततः स्वीकार कर ली गई। 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत संविधान सभा के गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिसने स्वतंत्र भारत के भाग्य का निर्धारण किया।
3. संविधान सभा: गठन, कार्यप्रणाली और प्रमुख बहसें
भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया, जिसने लगभग तीन वर्षों (9 दिसंबर 1946 से 26 नवंबर 1949) तक गहन विचार-विमर्श कर इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ को अंतिम रूप दिया।
गठन और संरचना
संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन योजना, 1946 के प्रावधानों के तहत किया गया था। इसके सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर किया गया था। कुल 389 सदस्यों (296 ब्रिटिश भारत से और 93 रियासतों से) का प्रावधान था, हालांकि भारत के विभाजन के बाद मुस्लिम लीग के सदस्यों के अलग हो जाने से यह संख्या 299 रह गई।
संविधान सभा में समाज के विभिन्न वर्गों, क्षेत्रों, और विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व था, जिसमें प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता, कानूनविद, विद्वान, और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। यद्यपि इसके सदस्यों का चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित नहीं था, फिर भी इसे काफी हद तक एक प्रतिनिधि निकाय माना जाता है। डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा को संविधान सभा का अस्थायी अध्यक्ष चुना गया, बाद में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्थायी अध्यक्ष बने।
कार्यप्रणाली और समितियाँ
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई। 13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने ऐतिहासिक 'उद्देश्य संकल्प' (Objectives Resolution) प्रस्तुत किया, जिसने संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों और दर्शन की रूपरेखा प्रस्तुत की। इसे 22 जनवरी, 1947 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया। यही उद्देश्य संकल्प बाद में संविधान की प्रस्तावना का आधार बना।
संविधान निर्माण के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के लिए कई समितियों का गठन किया गया। इनमें से कुछ प्रमुख समितियाँ थीं:
- प्रारूप समिति (Drafting Committee): अध्यक्ष - डॉ. बी.आर. अंबेडकर। यह सबसे महत्वपूर्ण समिति थी, जिस पर संविधान का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी थी।
- संघ शक्ति समिति (Union Powers Committee): अध्यक्ष - जवाहरलाल नेहरू।
- संघीय संविधान समिति (Union Constitution Committee): अध्यक्ष - जवाहरलाल नेहरू।
- प्रांतीय संविधान समिति (Provincial Constitution Committee): अध्यक्ष - सरदार वल्लभभाई पटेल।
- मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों और जनजातीय तथा बहिष्कृत क्षेत्रों पर सलाहकार समिति: अध्यक्ष - सरदार वल्लभभाई पटेल। इसकी कई उप-समितियाँ भी थीं।
- प्रक्रिया विषयक नियम समिति (Rules of Procedure Committee): अध्यक्ष - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद।
- संचालन समिति (Steering Committee): अध्यक्ष - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद।
- राष्ट्र ध्वज पर तदर्थ समिति (Ad-hoc Committee on National Flag): अध्यक्ष - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद।
- संविधान सभा के कार्यकरण संबंधी समिति (Committee on the Functions of the Constituent Assembly): अध्यक्ष - जी.वी. मावलंकर।
प्रमुख बहसें
संविधान सभा में विभिन्न मुद्दों पर गहन और जीवंत बहसें हुईं, जो भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता को दर्शाती हैं। कुछ प्रमुख बहसें निम्नलिखित विषयों पर केंद्रित थीं:
- सरकार की प्रकृति: संसदीय बनाम अध्यक्षात्मक प्रणाली, संघीय बनाम एकात्मक ढांचा। अंततः ब्रिटिश मॉडल पर आधारित संसदीय प्रणाली और एक मजबूत केंद्र वाले संघीय ढांचे को अपनाया गया।
- मौलिक अधिकार: इनकी प्रकृति, सीमाएं और प्रवर्तनीयता। संपत्ति का अधिकार एक विवादास्पद मुद्दा था।
- नीति निदेशक तत्व: इनकी कानूनी बाध्यता और मौलिक अधिकारों के साथ संबंध।
- अल्पसंख्यकों के अधिकार: धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए प्रावधान। पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की मांग को अस्वीकार कर दिया गया, लेकिन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की गारंटी दी गई।
- भाषा नीति: आधिकारिक भाषा और राष्ट्रीय भाषा का मुद्दा। हिंदी को देवनागरी लिपि में संघ की राजभाषा घोषित किया गया, जबकि अंग्रेजी को सहायक राजभाषा के रूप में जारी रखने का निर्णय लिया गया। क्षेत्रीय भाषाओं के विकास पर भी जोर दिया गया।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता: न्यायाधीशों की नियुक्ति, कार्यकाल और शक्तियों पर विस्तृत चर्चा हुई।
- आपातकालीन प्रावधान: इनके दुरुपयोग की आशंकाओं पर भी विचार किया गया।
- ग्राम पंचायतों की भूमिका: गांधीवादी सदस्य ग्राम पंचायतों को अधिक शक्तियां देने के पक्ष में थे, जबकि डॉ. अंबेडकर जैसे नेता एक मजबूत केंद्रीयकृत राज्य के समर्थक थे। अंततः, ग्राम पंचायतों को नीति निदेशक तत्वों (अनुच्छेद 40) में स्थान दिया गया।
संविधान का अंगीकरण और प्रवर्तन
संविधान का अंतिम प्रारूप 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया। इस दिन नागरिकता, चुनाव, अंतरिम संसद और कुछ अन्य प्रावधान तुरंत लागू हो गए। शेष संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ, जिसे 'गणतंत्र दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस तिथि को विशेष रूप से इसलिए चुना गया क्योंकि 26 जनवरी, 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 'पूर्ण स्वराज' दिवस मनाया था।
4. प्रमुख व्यक्तित्व और उनका योगदान
संविधान निर्माण में अनेक दूरदर्शी नेताओं, विद्वानों और कानूनविदों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके सामूहिक ज्ञान, अनुभव और समर्पण ने भारतीय संविधान को एक अद्वितीय स्वरूप प्रदान किया।
डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर (1891-1956)
डॉ. अंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे और उन्हें 'भारतीय संविधान का जनक' या 'मुख्य वास्तुकार' माना जाता है। उन्होंने न केवल संविधान के प्रारूपण का नेतृत्व किया, बल्कि संविधान सभा में विभिन्न प्रावधानों पर स्पष्टीकरण दिए और उनकी जोरदार वकालत की। उनका मुख्य ध्यान सामाजिक न्याय, समानता, और दलितों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के अधिकारों की सुरक्षा पर था। मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार, जिसे उन्होंने 'संविधान की आत्मा और हृदय' कहा), और नीति निदेशक तत्वों के माध्यम से सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना में उनका योगदान अमूल्य है। उन्होंने एक मजबूत केंद्र के साथ संघीय ढांचे का समर्थन किया।
जवाहरलाल नेहरू (1889-1964)
भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 'उद्देश्य संकल्प' प्रस्तुत किया, जो संविधान की प्रस्तावना का आधार बना। वे संघ शक्ति समिति और संघीय संविधान समिति के अध्यक्ष थे। नेहरू आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, और लोकतांत्रिक भारत के प्रबल समर्थक थे और उनके विचारों ने संविधान के कई पहलुओं, विशेष रूप से संसदीय प्रणाली, धर्मनिरपेक्षता, और योजनाबद्ध विकास की अवधारणा को प्रभावित किया।
सरदार वल्लभभाई पटेल (1875-1950)
'भारत के लौह पुरुष' के रूप में विख्यात सरदार पटेल ने रियासतों के भारत में एकीकरण में निर्णायक भूमिका निभाई। वे प्रांतीय संविधान समिति और मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों पर सलाहकार समिति के अध्यक्ष थे। उनके व्यावहारिक दृष्टिकोण और प्रशासनिक कौशल ने संविधान को एक यथार्थवादी और कार्यान्वयन योग्य ढांचा प्रदान करने में मदद की। उन्होंने एक मजबूत और एकजुट भारत की नींव रखी।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (1884-1963)
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने सभा की कार्यवाही का कुशलतापूर्वक संचालन किया। उनकी निष्पक्षता, धैर्य, और सभी सदस्यों को अपने विचार व्यक्त करने का अवसर देने की क्षमता ने संविधान निर्माण की प्रक्रिया को सुगम बनाया। बाद में वे भारत के पहले राष्ट्रपति बने।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (1888-1958)
एक प्रख्यात विद्वान और स्वतंत्रता सेनानी, मौलाना आज़ाद ने शिक्षा, संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे भारत की समग्र संस्कृति और भाषाई सद्भाव के समर्थक थे।
के.एम. मुंशी (1887-1971)
एक प्रतिष्ठित वकील और विद्वान, के.एम. मुंशी प्रारूप समिति के सदस्य थे। उन्होंने भाषा, संस्कृति, और शिक्षा से संबंधित प्रावधानों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर (1883-1953)
प्रारूप समिति के एक अन्य प्रमुख सदस्य, अय्यर एक प्रख्यात न्यायविद थे। उन्होंने मौलिक अधिकारों, नागरिकता और न्यायिक समीक्षा जैसे जटिल कानूनी मुद्दों पर महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सर बी.एन. राव (1887-1953)
हालांकि वे संविधान सभा के सदस्य नहीं थे, सर बेनेगल नरसिंह राव संवैधानिक सलाहकार थे। उन्होंने संविधान का प्रारंभिक मसौदा तैयार किया और विभिन्न देशों के संविधानों का अध्ययन कर प्रारूप समिति को बहुमूल्य जानकारी और सहायता प्रदान की। उनके योगदान को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है, लेकिन यह अत्यंत महत्वपूर्ण था।
महिला सदस्य
संविधान सभा में 15 महिला सदस्य भी थीं, जिन्होंने विभिन्न मुद्दों पर अपनी आवाज उठाई। इनमें सरोजिनी नायडू, हंसा जीवराज मेहता, दुर्गाबाई देशमुख, राजकुमारी अमृत कौर, सुचेता कृपलानी, विजया लक्ष्मी पंडित और बेगम एजाज रसूल प्रमुख थीं। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों, सामाजिक सुधारों, वयस्क मताधिकार और राष्ट्रीय एकता जैसे विषयों पर महत्वपूर्ण योगदान दिया। उदाहरण के लिए, हंसा मेहता ने लैंगिक समानता और महिलाओं के लिए समान अधिकारों की पुरजोर वकालत की।
5. भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ
भारतीय संविधान अपनी अनूठी विशेषताओं के कारण विश्व के अन्य संविधानों से भिन्न है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- सबसे लंबा लिखित संविधान: यह विश्व का सबसे विस्तृत और व्यापक संविधान है। मूल रूप से इसमें 395 अनुच्छेद (22 भागों में विभाजित) और 8 अनुसूचियाँ थीं। वर्तमान में (विभिन्न संशोधनों के बाद) इसमें लगभग 470 अनुच्छेद (25 भागों में विभाजित) और 12 अनुसूचियाँ हैं। इसके विस्तृत होने के कई कारण हैं, जैसे भारत की विशालता और विविधता, ऐतिहासिक कारक (विशेष रूप से भारत सरकार अधिनियम, 1935 का प्रभाव), और केंद्र तथा राज्यों दोनों के लिए एकल संविधान का होना।
- विभिन्न स्रोतों से विहित: भारतीय संविधान ने विश्व के अनेक देशों के संविधानों और भारत सरकार अधिनियम, 1935 से कई प्रावधान ग्रहण किए हैं। डॉ. अंबेडकर ने गर्व से कहा था कि भारतीय संविधान विश्व के सभी ज्ञात संविधानों को छानने के बाद बनाया गया है।
प्रमुख संवैधानिक स्रोत
स्रोत देश/अधिनियम ग्रहित प्रावधान महत्व/टिप्पणी ब्रिटिश संविधान संसदीय सरकार, विधि का शासन, एकल नागरिकता, द्विसदनवाद, विधायी प्रक्रिया, परमाधिकार रिटें। भारत की राजव्यवस्था का आधार। अमेरिकी संविधान मौलिक अधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक पुनरावलोकन, राष्ट्रपति पर महाभियोग, उपराष्ट्रपति का पद। नागरिक अधिकारों और न्यायिक स्वतंत्रता की गारंटी। आयरिश संविधान राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत, राष्ट्रपति के निर्वाचन की पद्धति, राज्य सभा के लिए सदस्यों का नामांकन। लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मार्ग। कनाडाई संविधान सशक्त केंद्र के साथ संघीय व्यवस्था, अवशिष्ट शक्तियों का केंद्र में निहित होना, केंद्र द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति। राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बल। ऑस्ट्रेलियाई संविधान समवर्ती सूची, व्यापार-वाणिज्य की स्वतंत्रता, संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक। केंद्र-राज्य विधायी समन्वय। भारत सरकार अधिनियम, 1935 संघीय योजना, राज्यपाल का कार्यालय, न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, आपातकालीन उपबंध, प्रशासनिक विवरण। प्रशासनिक ढांचे का मुख्य आधार। - नम्यता और अनम्यता का सम्मिश्रण: भारतीय संविधान न तो ब्रिटिश संविधान की तरह अत्यधिक लचीला है और न ही अमेरिकी संविधान की तरह अत्यधिक कठोर। अनुच्छेद 368 के तहत कुछ प्रावधानों को संसद के विशेष बहुमत से संशोधित किया जा सकता है, जबकि कुछ अन्य प्रावधानों के लिए विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति भी आवश्यक होती है।
- एकात्मकता की ओर झुकाव के साथ संघीय व्यवस्था: संविधान भारत में एक संघीय प्रणाली स्थापित करता है। तथापि, इसमें कई एकात्मक लक्षण भी विद्यमान हैं, जैसे एक मजबूत केंद्र, एकल संविधान, एकल नागरिकता, एकीकृत न्यायपालिका, आपातकालीन प्रावधान आदि।
- सरकार का संसदीय स्वरूप: संविधान ने केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपनाया है।
- संसदीय सम्प्रभुता एवं न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय: भारतीय संविधान ने ब्रिटिश संसदीय सम्प्रभुता और अमेरिकी न्यायिक सर्वोच्चता के बीच एक उचित संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया है।
- एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका: भारतीय संविधान एक ऐसी न्यायपालिका स्थापित करता है जो अपने आप में एकीकृत होने के साथ-साथ स्वतंत्र भी है।
- मौलिक अधिकार (Fundamental Rights): संविधान के भाग III में सभी नागरिकों के लिए छह मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गई है।
- राज्य के नीति निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy): संविधान के भाग IV में इनका उल्लेख है। ये देश में सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र स्थापित करने के आदर्श हैं।
- मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties): इन्हें 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों पर जोड़ा गया (भाग IV-A, अनुच्छेद 51-A)।
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य (Secular State): भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है।
- सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise): प्रत्येक नागरिक को, जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो, मतदान करने का अधिकार।
- एकल नागरिकता (Single Citizenship): केवल भारतीय नागरिकता, राज्यों की कोई पृथक नागरिकता नहीं।
- स्वतंत्र निकाय (Independent Bodies): जैसे निर्वाचन आयोग, CAG, UPSC, SPSC।
- आपातकालीन प्रावधान (Emergency Provisions): राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352), राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356), और वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)।
- त्रि-स्तरीय सरकार (Three-tier Government): 73वें और 74वें संविधान संशोधनों (1992) द्वारा पंचायतों और नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा।
6. प्रमुख विवादित विषय और उनके समाधान
संविधान सभा में कई मुद्दों पर तीव्र मतभेद और बहसें हुईं। इन विवादों का समाधान आम सहमति और समायोजन की भावना से किया गया, जो भारतीय लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।
भाषा नीति
भारत की आधिकारिक भाषा क्या होनी चाहिए, यह एक अत्यंत विवादास्पद प्रश्न था। हिंदी समर्थक इसे राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे, जबकि दक्षिण भारतीय राज्यों के प्रतिनिधि इसका विरोध कर रहे थे। अंततः 'मुंशी-आयंगर फॉर्मूला' के तहत एक समझौता हुआ: हिंदी (देवनागरी लिपि में) को संघ की राजभाषा घोषित किया गया, और अंग्रेजी को 15 वर्षों के लिए (बाद में अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दिया गया) सहायक राजभाषा के रूप में जारी रखने का निर्णय लिया गया। संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 (अब 22) प्रमुख भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गई।
अल्पसंख्यकों के अधिकार और पृथक निर्वाचन क्षेत्र
अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की मांग पर तीखी बहस हुई। सरदार पटेल और कई अन्य नेताओं ने इसका कड़ा विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि यह राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक होगा। अंततः, पृथक निर्वाचन क्षेत्रों को अस्वीकार कर दिया गया, लेकिन अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि, संस्कृति और शिक्षण संस्थानों की सुरक्षा के लिए अनुच्छेद 29 और 30 के तहत विशेष अधिकार दिए गए।
मौलिक अधिकार बनाम नीति निदेशक तत्व
मौलिक अधिकारों (जो न्यायोचित हैं) और नीति निदेशक तत्वों (जो गैर-न्यायोचित हैं) के बीच संबंध और प्राथमिकता को लेकर भी बहस हुई। कुछ सदस्य नीति निदेशक तत्वों को भी कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाना चाहते थे। अंततः, यह तय किया गया कि नीति निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत होंगे और कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा, लेकिन इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकेगा। मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकारों और निदेशक तत्वों के बीच संतुलन संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है।
समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code)
अनुच्छेद 44 के तहत राज्य से यह अपेक्षा की गई है कि वह भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। इस पर भी संविधान सभा में काफी बहस हुई थी। कुछ सदस्यों ने इसे तुरंत लागू करने की मांग की, जबकि अन्य ने इसे स्वैच्छिक आधार पर छोड़ने का सुझाव दिया। इसे नीति निदेशक तत्व के रूप में शामिल किया गया, और यह आज भी एक संवेदनशील और विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है। शाह बानो मामले (1985) और सरला मुद्गल मामले (1995) में सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर दिया है।
केंद्र-राज्य संबंध और संघवाद की प्रकृति
भारत का संघीय ढांचा कैसा हो – मजबूत केंद्र वाला या राज्यों को अधिक स्वायत्तता देने वाला – इस पर भी विभिन्न मत थे। विभाजन की पृष्ठभूमि और राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता को देखते हुए, एक मजबूत केंद्र वाले संघीय ढांचे को अपनाया गया, जिसमें आपातकालीन स्थितियों में केंद्र को असाधारण शक्तियां दी गईं। अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) का प्रयोग अक्सर विवादों का केंद्र रहा है।
7. संविधान की आलोचनाएँ एवं समकालीन चुनौतियाँ
यद्यपि भारतीय संविधान को व्यापक रूप से सराहा गया है, इसकी कुछ आलोचनाएँ भी की जाती रही हैं और इसके कार्यान्वयन में कई समकालीन चुनौतियाँ भी विद्यमान हैं:
आलोचनाएँ:
- उधार लिया हुआ संविधान: आलोचकों का तर्क है कि यह विभिन्न देशों के संविधानों से प्रावधानों को उधार लेकर बनाया गया है और इसमें मौलिकता का अभाव है। हालांकि, संविधान निर्माताओं का मत था कि अच्छे विचारों को कहीं से भी ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है, जब तक वे भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल हों।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 की कार्बन कॉपी: यह भी कहा जाता है कि संविधान का एक बड़ा हिस्सा इस अधिनियम से लिया गया है। डॉ. अंबेडकर ने स्वयं इसे स्वीकार किया था कि प्रशासनिक विवरण मुख्यतः इसी अधिनियम से लिए गए हैं।
- अभारतीयता या भारतीयता विरोधी: कुछ आलोचकों का मानना है कि संविधान भारत की राजनीतिक परंपराओं और लोकाचार को प्रतिबिंबित नहीं करता है, और यह अत्यधिक पश्चिमीकृत है।
- गांधीवादी सिद्धांतों से दूरी: यद्यपि कुछ गांधीवादी सिद्धांत निदेशक तत्वों में शामिल हैं, आलोचकों का कहना है कि संविधान का मूल ढांचा (जैसे ग्राम पंचायतों को सीमित शक्तियाँ) गांधीजी के ग्राम स्वराज के विचार से दूर है।
- अत्यधिक विस्तृत और वकीलों का स्वर्ग: इसकी लंबाई और जटिल कानूनी भाषा के कारण इसे आम आदमी के लिए समझना कठिन माना जाता है, और यह मुकदमों को बढ़ावा देता है।
समकालीन चुनौतियाँ:
- संघवाद से संबंधित मुद्दे: केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव, राज्यपाल की भूमिका, वित्तीय संसाधनों का वितरण, अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग।
- न्यायपालिका की सक्रियता बनाम संयम: न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) और जनहित याचिकाओं (PIL) ने जहाँ एक ओर न्याय को सुलभ बनाया है, वहीं शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर भी बहस छेड़ी है। न्यायाधीशों की नियुक्ति (कॉलेजियम प्रणाली) भी विवाद का विषय रही है।
- मौलिक अधिकारों का प्रभावी कार्यान्वयन: विशेष रूप से सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए।
- धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप: धर्म और राजनीति के घालमेल, सांप्रदायिकता, और तुष्टीकरण की राजनीति धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के लिए चुनौती पेश करती हैं।
- संस्थागत क्षरण: विधायिका, कार्यपालिका और यहाँ तक कि कुछ हद तक न्यायपालिका जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता में कमी की चिंताएँ।
- आपराधिक-राजनीतिक गठजोड़ और भ्रष्टाचार: चुनावी प्रक्रिया और शासन में पारदर्शिता तथा जवाबदेही की कमी।
- बदलती सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ: वैश्वीकरण, तकनीकी परिवर्तन, और नई सामाजिक आकांक्षाओं के अनुरूप संविधान की व्याख्या और अनुकूलन की निरंतर आवश्यकता।
8. निष्कर्ष: संविधान की स्थायी विरासत और भविष्य का मार्ग
भारतीय संविधान एक असाधारण दस्तावेज़ है जिसने सात दशकों से अधिक समय से भारत के लोकतंत्र, विविधता और एकता को सफलतापूर्वक मार्गदर्शित और संरक्षित किया है। यह न केवल शासन की एक रूपरेखा प्रदान करता है, बल्कि यह सामाजिक परिवर्तन, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और नागरिकों के सशक्तिकरण का एक शक्तिशाली उपकरण भी रहा है। इसकी जीवंतता इसकी अनुकूलनशीलता, संशोधन प्रक्रिया और न्यायपालिका द्वारा समय-समय पर की गई प्रगतिशील व्याख्याओं में निहित है, जिसने इसे समकालीन चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाया है।
संविधान निर्माताओं ने विभिन्न ऐतिहासिक दबावों, सामाजिक जटिलताओं और राजनीतिक मतभेदों के बावजूद एक ऐसा संविधान बनाने का प्रशंसनीय कार्य किया जो भारत की विशिष्ट आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप हो। इसमें विश्व के अनेक संविधानों के श्रेष्ठ तत्वों को भारतीय संदर्भ में कुशलतापूर्वक समाहित किया गया है। मौलिक अधिकार, राज्य के नीति निदेशक तत्व, एक स्वतंत्र और एकीकृत न्यायपालिका, संसदीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, और एक मजबूत संघीय ढांचा इसके कुछ ऐसे मूलभूत स्तंभ हैं जिन्होंने भारतीय राष्ट्र-राज्य की नींव को सुदृढ़ किया है।
तथापि, संविधान के आदर्शों को धरातल पर पूर्ण रूप से उतारने की यात्रा अभी भी जारी है। सामाजिक और आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक तनाव, संस्थागत कमजोरियाँ, और लैंगिक तथा जातीय भेदभाव जैसी समस्याएँ आज भी हमारे समाज और राजव्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियाँ बनी हुई हैं। संविधान के महान लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निरंतर सामूहिक प्रयास, अटूट राजनीतिक इच्छाशक्ति, नागरिक समाज की सक्रिय भागीदारी, और प्रत्येक नागरिक में संवैधानिक मूल्यों के प्रति गहरी निष्ठा और जागरूकता परम आवश्यक है।
अंततः, भारत का संविधान केवल विधिवेत्ताओं, राजनेताओं या न्यायाधीशों की धरोहर नहीं है, बल्कि यह भारत के प्रत्येक नागरिक की साझी विरासत और जिम्मेदारी है। इसके उच्च आदर्शों को समझना, उनका हृदय से सम्मान करना, और उन्हें अपने दैनिक जीवन तथा आचरण में उतारना ही इसकी सच्ची सफलता और सार्थकता सुनिश्चित कर सकता है। यह एक ऐसा प्रकाश स्तंभ है जो भारत को एक न्यायपूर्ण, समतावादी, समावेशी और समृद्ध राष्ट्र बनाने की दिशा में अनंत काल तक प्रेरित करता रहेगा और हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा। संविधान की रक्षा और उसके सिद्धांतों का पालन ही एक सशक्त और जीवंत लोकतंत्र का भविष्य सुनिश्चित करेगा।
संविधान के महत्वपूर्ण अनुच्छेद (स्निपेट)
// उद्देशिका (Preamble) - संक्षिप्त रूप हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
उद्देशिका संविधान के दर्शन और उद्देश्यों को समाहित करती है।
// अनुच्छेद 21: प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण "किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।" /* सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विस्तारित अर्थ: - गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार - स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार - निजता का अधिकार (पुट्टस्वामी निर्णय) - शीघ्र विचारण का अधिकार - निःशुल्क कानूनी सहायता का अधिकार (वंचितों के लिए) - स्वास्थ्य का अधिकार - शिक्षा का अधिकार (86वां संशोधन, अनुच्छेद 21A) */
अनुच्छेद 21 भारतीय संविधान के सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों में से एक है।
// अनुच्छेद 32: सांविधानिक उपचारों का अधिकार "(1) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है। (2) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय ऐसे निदेश या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति रखेगा।" /* डॉ. अंबेडकर ने इसे 'संविधान की आत्मा और हृदय' कहा था। */
अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों को वास्तविक अर्थ प्रदान करता है।
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परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण बिंदु
- संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई। अस्थायी अध्यक्ष: डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा।
- स्थायी अध्यक्ष: डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (11 दिसंबर, 1946)। संवैधानिक सलाहकार: सर बी.एन. राव।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, जिसमें कुल 7 सदस्य थे।
- संविधान को अंगीकृत करने की तिथि 26 नवम्बर, 1949 है (संविधान दिवस)।
- संविधान पूर्ण रूप से 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ (गणतंत्र दिवस)।
- मौलिक अधिकार संविधान के भाग III में (अनुच्छेद 12-35) वर्णित हैं, जो अमेरिका के 'बिल ऑफ राइट्स' से प्रेरित हैं।
- राज्य के नीति निदेशक तत्व भाग IV में (अनुच्छेद 36-51) वर्णित हैं, जो आयरलैंड के संविधान से प्रेरित हैं।
- मौलिक कर्तव्य भाग IV-A (अनुच्छेद 51-A) में, 42वें संशोधन (1976) द्वारा स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर जोड़े गए (प्रारंभ में 10, अब 11)।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला (1973) 'संविधान की मूल संरचना' (Basic Structure Doctrine) के सिद्धांत से संबंधित है।
- 'उद्देश्य संकल्प' जवाहरलाल नेहरू द्वारा 13 दिसंबर, 1946 को प्रस्तुत किया गया।
प्रश्नोत्तरी: अपने ज्ञान का परीक्षण करें!
1. भारतीय संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष कौन थे?
सही उत्तर: (ग) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद। डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा अस्थायी अध्यक्ष थे।
2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्द किस संशोधन द्वारा जोड़े गए?
सही उत्तर: (ख) 42वां संशोधन (1976)। इस संशोधन द्वारा 'और अखण्डता' शब्द भी जोड़ा गया।
3. राज्य के नीति निदेशक तत्व किस देश के संविधान से प्रेरित हैं?
सही उत्तर: (ग) आयरलैंड।
4. निम्नलिखित में से कौन सा मौलिक अधिकार नहीं है?
सही उत्तर: (ख) संपत्ति का अधिकार। इसे 44वें संविधान संशोधन (1978) द्वारा मौलिक अधिकार से हटाकर अनुच्छेद 300-A के तहत एक विधिक अधिकार बना दिया गया है।
5. 'संविधान की मूल संरचना' का सिद्धांत किस ऐतिहासिक वाद में प्रतिपादित किया गया था?
सही उत्तर: (ख) केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)।
संविधान निर्माण के ऐतिहासिक क्षण

जवाहरलाल नेहरू 24 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान पर हस्ताक्षर करते हुए।
संविधान पर विमर्श (वीडियो)
राज्यसभा टीवी द्वारा निर्मित "संविधान" श्रृंखला का एक अंश (उदाहरण - अंतिम एपिसोड)।
विश्लेषक का दृष्टिकोण एवं अध्ययन हेतु सुझाव
यह विस्तृत लेख भारतीय संविधान के विभिन्न आयामों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का एक प्रयास है। हमारा उद्देश्य छात्रों, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे अभ्यर्थियों, और सामान्य जिज्ञासु नागरिकों को भारतीय संविधान की गहरी समझ प्रदान करना है। हमने ऐतिहासिक तथ्यों, संवैधानिक प्रावधानों, और प्रमुख विद्वानों के मतों को सरल और सुगम भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
अध्ययन कैसे करें:
- क्रमिक अध्ययन: लेख को क्रम से पढ़ें ताकि ऐतिहासिक विकास और अवधारणाओं का प्रवाह समझ में आए।
- प्रमुख अनुच्छेदों पर ध्यान दें: विशेष रूप से मौलिक अधिकारों, नीति निदेशक तत्वों, और आपातकालीन प्रावधानों से संबंधित अनुच्छेदों को याद रखने का प्रयास करें।
- व्यक्तित्वों की भूमिका समझें: संविधान निर्माण में विभिन्न नेताओं के योगदान को उनके विचारों और समिति कार्यों के संदर्भ में समझें।
- विवादित मुद्दों का विश्लेषण करें: संविधान सभा में हुए विवादों और उनके समाधानों को समझने से भारतीय लोकतंत्र की जटिलताओं और सर्वसम्मति निर्माण की प्रक्रिया की जानकारी मिलती है।
- प्रश्नोत्तरी का अभ्यास करें: दिए गए प्रश्नों को हल करने का प्रयास करें और अपनी समझ का मूल्यांकन करें।
- अतिरिक्त स्रोत: इस लेख को एक प्रारंभिक बिंदु मानें और अधिक गहन अध्ययन के लिए मानक पुस्तकों (जैसे एम. लक्ष्मीकांत, डी.डी. बसु, सुभाष कश्यप) और मूल संवैधानिक दस्तावेजों का संदर्भ लें।
शैक्षिक प्रतिबद्धता: हमारा मानना है कि एक सूचित और जागरूक नागरिक ही लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत कर सकता है। भारतीय संविधान का अध्ययन न केवल एक अकादमिक आवश्यकता है, बल्कि यह एक नागरिक कर्तव्य भी है। हम आशा करते हैं कि यह प्रयास आपके ज्ञानवर्धन में सहायक होगा।
विश्लेषण के प्रमुख खंड
ऐतिहासिक विकास स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव संविधान सभा प्रमुख व्यक्तित्व प्रमुख विशेषताएँ विवादित विषय आलोचनाएँ एवं चुनौतियाँविश्लेषक का कथन
इस विश्लेषण का उद्देश्य भारतीय संविधान के प्रति समझ और सम्मान को बढ़ावा देना है। हम आशा करते हैं कि यह सामग्री छात्रों, शोधकर्ताओं, और आम नागरिकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी तथा संवैधानिक मूल्यों पर एक सार्थक विमर्श को प्रेरित करेगी।
हमारा मानना है कि अपने संविधान को जानना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य और अधिकार है। एक सूचित नागरिक ही लोकतंत्र को सशक्त बना सकता है। जय हिंद!