✶ बघेल राजवंश का अभ्युदय और रीवा राज्य की स्थापना ✶
एक राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक मीमांसा (गहोरा से रीवा तक)
भारतीय मध्ययुगीन इतिहास के उस संक्रमणकालीन और चुनौतीपूर्ण दौर में, जब दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ और सैन्य विस्तारवादी नीतियाँ संपूर्ण उत्तर और मध्य भारत की क्षेत्रीय शक्तियों के लिए एक गंभीर चुनौती प्रस्तुत कर रही थीं, पश्चिमी भारत के गुजरात प्रान्त के ऐतिहासिक चालुक्य-सोलंकी राजवंश की एक वीर और महत्वाकांक्षी शाखा, व्याघ्रपल्लीय बघेल (जो वाघेला के नाम से भी जाने जाते हैं), ने भाग्य-चक्र के अप्रत्याशित परिवर्तन और नवीन अवसरों की तलाश के फलस्वरूप विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की नैसर्गिक शरणस्थली और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण भूभाग में एक नवीन तथा स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता का सफलतापूर्वक सूत्रपात किया। गहोरा के तत्कालीन अल्पज्ञात किन्तु सामरिक महत्व के केंद्र से अपनी ऐतिहासिक यात्रा का शुभारंभ कर, बंधवगढ़ की दुर्भेद्य और प्राकृतिक रूप से सुरक्षित ऊँचाइयों को अपनी सैन्य शक्ति तथा प्रशासनिक व्यवस्था का सुदृढ़ आधार बनाकर, और अंततः तमसा (जिसे आज टोंस नदी के नाम से जाना जाता है) एवं उसकी सहायक बीहड़ और बिछिया नदियों के उपजाऊ तथा सघन आबादी वाले तट पर रीवा नगर को अपनी स्थायी और भव्य राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित कर, बघेलों ने एक ऐसे स्वतंत्र और शक्तिशाली राज्य की नींव रखी जिसने आगामी कई शताब्दियों तक न केवल अपनी विशिष्ट राजनीतिक अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखा, बल्कि मुगल साम्राज्य जैसी तत्कालीन महाशक्ति के साथ भी जटिल और बहुआयामी संबंध स्थापित किए। यह शोधपरक और विस्तृत आलेख बघेल राजवंश के उद्भव की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उनके प्रारंभिक संघर्षों और विजयों, राज्य-विस्तार की क्रमिक प्रक्रिया, उनकी प्रशासनिक संरचना के मूलभूत तत्वों, मुगल साम्राज्य के साथ उनके कूटनीतिक एवं कभी-कभी संघर्षपूर्ण संबंधों, तथा उनकी स्थायी सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं स्थापत्यिक देन का एक गहन, समालोचनात्मक और व्यापक ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इस अध्ययन में हम विशेष रूप से उन स्थानीय जनजातीय शक्तियों (जैसे प्राचीन कोल, शक्तिशाली लोध (लोधी), और ऐतिहासिक भर समुदाय) के साथ बघेलों के प्रारंभिक अंतर्संबंधों (संघर्ष, सहयोग और सामंजस्य) का भी crítical मूल्यांकन करेंगे, जिन्होंने बघेल राज्य के निर्माण और उसके चरित्र को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस ऐतिहासिक यात्रा में हम गहोरा से लेकर रीवा तक बघेल राजवंश के विभिन्न महत्वपूर्ण पड़ावों, उनके द्वारा सामना की गई चुनौतियों, उनकी सफलताओं और उनकी स्थायी विरासत का विस्तृत अवलोकन करेंगे।

रीवा का ऐतिहासिक किला: तमसा, बीहर और बिछिया नदियों के संगम पर स्थित, बघेल राजवंश की सात शताब्दियों की शक्ति, कूटनीति और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक।
प्रस्तावना: विंध्य की गोद में एक राजवंश का अभ्युदय
भारत का हृदय प्रदेश, मध्य प्रदेश, अपनी गोद में न केवल विविध प्राकृतिक संपदाओं को समेटे हुए है, बल्कि यह अनेक प्राचीन सभ्यताओं, शक्तिशाली और दीर्घजीवी राजवंशों तथा समृद्ध और बहुआयामी सांस्कृतिक विरासतों का एक महत्वपूर्ण संगम स्थल भी रहा है। इसी ऐतिहासिक और गौरवशाली भूमि का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक अध्याय है बघेलखण्ड, और इसकी राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक धुरी रही है ऐतिहासिक रीवा रियासत। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की सुरम्य, वनाच्छादित और खनिज संपदा से परिपूर्ण उपत्यकाओं तथा तमसा (टोंस), बीहड़, बिछिया जैसी जीवनदायिनी और पवित्र नदियों के तट पर पल्लवित एवं पुष्पित हुई वीर बघेल राजवंश की गौरवशाली गाथा, भारतीय इतिहास के पन्नों में अदम्य शौर्य, कुशल रणनीतिक कूटनीति, कला के प्रति गहन प्रेम, साहित्यिक अनुराग और उदार सांस्कृतिक संरक्षण का एक अद्भुत, अनूठा एवं प्रेरणादायक मिश्रण प्रस्तुत करती है। यह ऐतिहासिक यात्रा पश्चिमी भारत के गुजरात प्रान्त के प्रतापी सोलंकी (चालुक्य) राजवंश की एक महत्वाकांक्षी और वीर शाखा के कुछ साहसी पुरुषों द्वारा 13वीं शताब्दी के मध्य में इस ऊबड़-खाबड़, चुनौतीपूर्ण और जनजातीय बहुल भूभाग में अपनी नवीन सत्ता की सुदृढ़ नींव रखने से प्रारंभ होती है। यह यात्रा सदियों तक चले निरंतर संघर्षों, सफल राज्य विस्तारों और अद्वितीय सांस्कृतिक उत्कर्ष के विभिन्न महत्वपूर्ण सोपानों से गुजरती हुई मुगल काल तक पहुँचती है, जहाँ रीवा रियासत ने अपनी एक विशिष्ट, स्वतंत्र और सम्मानित पहचान सफलतापूर्वक स्थापित की, जो तत्कालीन उत्तर भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती थी। यह विस्तृत लेख, प्रख्यात इतिहासकार डॉ. नृपेन्द्र सिंह परिहार के गहन शोध पत्र "बघेलखण्ड में बघेलों का अभ्युदय एवं विकास का समीक्षात्मक अध्ययन", विदुषी शोधकर्ता पुष्पा दुबे के महत्वपूर्ण शोध पत्र "बघेलखण्ड राज्य का ऐतिहासिक अध्ययन (प्रारम्भ से 1947 ई. तक)", तथा अन्य उपलब्ध पुरातात्त्विक साक्ष्यों, साहित्यिक ग्रंथों, ऐतिहासिक वृत्तांतों और वंशावलियों के सम्यक आलोक में, बघेलखण्ड में बघेल राजवंश के अभ्युदय की जटिल परिस्थितियों, उनके प्रारंभिक संस्थापक शासकों के अथक प्रयासों और संघर्षों, राज्य के क्रमिक और रणनीतिक विस्तार, गहोरा और बांधवगढ़ जैसी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण राजधानियों के उत्थान और पतन, तथा मुगल सम्राट अकबर के समकालीन, कला-पारखी और उदार शासक महाराजा रामचंद्र सिंह के गौरवशाली शासनकाल में रीवा के सांस्कृतिक स्वर्ण युग, विशेषकर भारतीय संगीत के सम्राट मियाँ तानसेन और अपनी प्रखर बुद्धि तथा हाजिरजवाबी के लिए विख्यात राजा बीरबल (महेश दास) जैसी युगांतरकारी विभूतियों के रीवा दरबार से अविस्मरणीय जुड़ाव का एक गहन, व्यापक और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है। इस आलेख का मुख्य उद्देश्य बघेलखण्ड के उस प्रारंभिक और मध्यकालीन इतिहास को उसकी समग्रता, जटिलता और बहुआयामी स्वरूप में समझना है जिसने इस क्षेत्र की नियति, इसकी सांस्कृतिक पहचान और इसके सामाजिक ताने-बाने को निर्णायक रूप से आकार दिया और इसे भारतीय इतिहास के वृहत्तर मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण तथा सम्मानजनक स्थान दिलाया।
बघेलखण्ड का इतिहास केवल युद्धों और विजयों का लेखा-जोखा मात्र नहीं है, बल्कि यह गुजरात की वीर भूमि से चलकर विंध्य की चुनौतीपूर्ण उपत्यकाओं में एक नए, स्वतंत्र और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध साम्राज्य की स्थापना और उसके अद्वितीय सांस्कृतिक उत्कर्ष की एक अत्यंत प्रेरणादायक, रोमांचक और गौरवशाली कहानी है, जो आज भी हमें अपने अतीत पर गर्व करने का अवसर प्रदान करती है।
1. बघेल-पूर्व रीवांचल का राजनीतिक मानचित्र: लोध, भर एवं कोल सत्ताओं का अस्तित्त्व
13वीं शताब्दी के मध्य में, जब बघेलों ने विंध्याचल की अटूट पर्वत श्रृंखलाओं और सघन वनों से आच्छादित इस भूभाग (जिसे बाद में बघेलखण्ड के नाम से जाना गया) में अपना पदार्पण किया, तब यह क्षेत्र किसी एक सुदृढ़ और केंद्रीकृत राजनीतिक इकाई के अधीन नहीं था। त्रिपुरी के शक्तिशाली कल्चुरी राजवंश, जो कभी इस क्षेत्र की प्रमुख राजनीतिक शक्ति हुआ करते थे, का पतन हो चुका था, और चंदेल शक्ति भी क्षीण हो चुकी थी। इस राजनीतिक विघटन और शून्यता ने विभिन्न स्थानीय, जनजातीय और अर्ध-स्वतंत्र सामंती शक्तियों को अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्रों में उभरने और स्वतंत्र रूप से कार्य करने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान किया था। बघेलों को अपने राज्य की स्थापना और विस्तार के लिए इन स्थापित शक्तियों के साथ या तो संघर्ष करना पड़ा या फिर कूटनीतिक माध्यमों से उन्हें अपने अधीन करना पड़ा।
लोध (लोधी) समुदाय का प्रभुत्व (गहोरा केंद्र):
आपके द्वारा प्रदत्त प्रथम शोध-पत्र में उद्धृत महत्वपूर्ण वाक्यांश, जैसे "भीमलदेव गहोरा के लोधिन कह मारि के गहोरा छड़ाइ लीन्हेंन" (अर्थात् भीमलदेव ने गहोरा के लोधियों को मारकर गहोरा छीन लिया) तथा "एकत्रा बाधोगढ़... 'लोधिन का मारिन, गहोरा अमलभा'" (अर्थात् बांधवगढ़ के एक वृत्तांत के अनुसार, लोधियों को मारकर गहोरा पर अधिकार किया गया), अकाट्य और स्पष्ट रूप से यह सिद्ध करते हैं कि गहोरा (जो वर्तमान उत्तर प्रदेश के बांदा-चित्रकूट जिले की सीमा पर, कर्वी के समीप रैपुरा के निकट स्थित एक ऐतिहासिक स्थान माना जाता है) बघेलों के हस्तक्षेप और आधिपत्य से पूर्व लोध (या लोधी) समुदाय के शक्तिशाली सामंतों या स्थानीय प्रमुखों के अधीन एक महत्वपूर्ण और सुदृढ़ गढ़ था। लोध समुदाय, जो संभवतः कृषि कार्यों और स्थानीय शासन-प्रशासन से गहराई से संबद्ध था, का गहोरा जैसे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण और कृषि की दृष्टि से उपजाऊ क्षेत्र पर प्रभावी नियंत्रण, उनकी तत्कालीन संगठित शक्ति, उनकी राजनीतिक उपस्थिति और उनके सैन्य सामर्थ्य का स्पष्ट द्योतक है। बघेलों को इस महत्वपूर्ण केंद्र पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए निश्चित रूप से एक कठिन सैन्य संघर्ष करना पड़ा होगा, जो लोधियों द्वारा किए गए कड़े प्रतिरोध और उनकी स्वतंत्रता की भावना को भी दर्शाता है।
भर जनजाति एवं कालिंजर का दुर्ग:
शोध-पत्र में यह भी महत्वपूर्ण रूप से उल्लेखित है कि बघेलों ने अपने प्रारंभिक चरण में, संभवतः अपनी शक्ति को संगठित करने और स्थानीय परिस्थितियों को समझने के लिए, "कालंजर के भर शासकों की सेवा ग्रहण कर ली।" तथा यह भी बताया गया है कि भरों की एक प्रमुख राजधानी "भरशिवगढ़' या भरगढ़ (वर्तमान बरगढ़, चित्रकूट के निकट)" में थी। भर जनजाति, जो संभवतः प्राचीन और शक्तिशाली भारशिव नाग राजवंश के वंशज या उनसे संबंधित एक अत्यंत वीर और प्रभावशाली जनजातीय समूह थे, का उस समय उत्तर भारत के सबसे अजेय और सामरिक महत्व के दुर्गों में से एक, कालिंजर के दुर्ग, पर अधिकार था। यह तथ्य इस क्षेत्र में उनकी प्रभावी राजनीतिक और सैन्य शक्ति को निर्विवाद रूप से स्थापित करता है। बघेलों का प्रारंभिक काल में उनकी अधीनता या सेवा स्वीकार करना तत्कालीन शक्ति-संतुलन में भरों की निर्विवाद श्रेष्ठता और बघेलों की अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति को स्पष्ट रूप से इंगित करता है। कालांतर में, दिल्ली सल्तनत के निरंतर आक्रमणों, आंतरिक कलह और संभवतः अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के दबाव ने भर शक्ति को धीरे-धीरे क्षीण कर दिया होगा, जिससे बघेलों के स्वतंत्र राजनीतिक उत्कर्ष और विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ।
बघेलों के उदय की कहानी केवल विजयों की ही नहीं, बल्कि लोध और भर जैसी तत्कालीन प्रभावशाली स्थानीय शक्तियों के साथ उनके प्रारंभिक संघर्ष, रणनीतिक सहयोग और अंततः राजनीतिक सामंजस्य स्थापित करने की उनकी असाधारण क्षमता और अटूट दृढ़ता का भी एक महत्वपूर्ण परिचायक है।
कोल समुदाय का विस्तृत प्रभाव क्षेत्र:
कोल जनजाति, जिसे इस क्षेत्र की प्राचीनतम ऑस्ट्रो-एशियाटिक नृजातीय इकाइयों में से एक माना जाता है, विंध्याचल पर्वत श्रृंखला के सघन वनों, दुर्गम घाटियों एवं विस्तृत पर्वतीय उपत्यकाओं में अनादि काल से निवास करती आ रही थी। 'कोलघारी' जैसे विशिष्ट स्थान-नाम, जो आज भी इस क्षेत्र में पाए जाते हैं, उनके प्राचीन और घनीभूत आवास क्षेत्रों के महत्वपूर्ण संकेतक हैं। बघेलों को अपने नवोदित राज्य के विस्तार, प्रशासन और संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करने की प्रक्रिया में कोल सरदारों और उनके समुदायों से विभिन्न प्रकार के अंतर्संबंध स्थापित करने पड़े होंगे। यह संभव है कि कुछ कोल समूहों से उन्हें महत्वपूर्ण सहयोग (जैसे दुर्गम वन मार्गों का प्रदर्शन, सैन्य अभियानों में सहायता, या स्थानीय संसाधनों की जानकारी) प्राप्त हुआ हो, अथवा कुछ अन्य कोल समूहों, विशेषकर वन संसाधनों पर अपने परंपरागत अधिकारों को लेकर सजग रहने वाले, के सशक्त प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा होगा। उनकी भूमिका समय और परिस्थितियों के अनुसार एक अधीनस्थ सहयोगी, एक स्वतंत्र इकाई, या कभी-कभी एक विद्रोही तत्व के रूप में परिवर्तित होती रही होगी। निःसंदेह, कोल समुदाय की उपस्थिति और उनके साथ बघेलों के संबंध, राज्य निर्माण की जटिल प्रक्रिया में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक कारक रहे होंगे, जिसने बघेल राज्य के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को भी प्रभावित किया।
एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला
2. बघेलों का गुजरात से प्रवासन एवं गहोरा में प्रारंभिक सत्ता-स्थापना
बघेल वंश की उत्पत्ति, जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है, पश्चिमी भारत के गुजरात प्रान्त के ऐतिहासिक और शक्तिशाली चालुक्य-सोलंकी राजवंश की एक महत्वपूर्ण शाखा 'व्याघ्रपल्लीय' से हुई मानी जाती है। यह नाम उन्हें व्याघ्रपल्ली (जिसकी पहचान संभवतः वर्तमान अहमदाबाद के निकट स्थित वाघेला या बघेला नामक गाँव से की जाती है) नामक एक महत्वपूर्ण जागीर या प्रशासनिक इकाई से संबंधित होने के कारण प्राप्त हुआ था।

गुजरात स्थित 'रानी की वाव': चालुक्य-सोलंकी स्थापत्य का एक उत्कृष्ट नमूना, जो बघेलों की पैतृक भूमि की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है।
उत्पत्ति एवं गुजरात में प्रभुत्व:
आपके द्वारा संदर्भित प्रथम शोध-पत्र और अन्य ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, गुजरात के प्रसिद्ध चालुक्य सम्राट कुमारपाल (शासनकाल लगभग 1143-1172 ई.) के मौसेरे भाई (या एक अन्य मत के अनुसार, उनके एक प्रमुख सामंत) अर्णोराज को व्याघ्रपल्ली का सामंत या प्रशासक नियुक्त किया गया था। अर्णोराज के वंशज, विशेषकर लवणप्रसाद एवं उनके पुत्र वीरधवल, ने 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में गुजरात की राजनीति में अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभाई, जब चालुक्य सत्ता कमजोर हो रही थी। वीरधवल के पराक्रमी पुत्र वीसलदेव (या बीसलदेव, शासनकाल लगभग 1245-1262 ई.) गुजरात के प्रथम स्वतंत्र और शक्तिशाली बघेल (वाघेला) शासक बने, जिन्होंने अंतिम चालुक्य शासकों को अपदस्थ कर गुजरात में एक नए राजवंश की नींव रखी। यह बघेल वंश गुजरात में लगभग 1304 ई. तक शासन करता रहा।
अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण एवं विस्थापन:
गुजरात के अंतिम स्वतंत्र बघेल (वाघेला) शासक कर्णदेव बघेल (जिन्हें कर्ण द्वितीय 'वाघेला' या 'राय करन' के नाम से भी जाना जाता है) के शासनकाल में, दिल्ली सल्तनत के महत्वाकांक्षी और शक्तिशाली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के क्रूर सेनापतियों, उलुग खान एवं नुसरत खान, ने लगभग 1299 ई. में गुजरात पर एक विनाशकारी आक्रमण किया। इस आक्रमण के परिणामस्वरूप गुजरात की स्वतंत्रता समाप्त हो गई और उसे दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। राजा कर्णदेव को पराजित होकर अपनी राजधानी अन्हिलवाड़ पाटन से पलायन करना पड़ा और उन्होंने देवगिरी के यादव शासकों तथा अन्य स्थानों पर शरण लेने का प्रयास किया, परन्तु अंततः उनका दुखद अंत हुआ। इसी राजनीतिक उथल-पुथल, विनाश और अनिश्चितता के कारण बघेल राजवंश की एक या अधिक साहसी और महत्वाकांक्षी शाखाएँ अपने अस्तित्व की रक्षा और नवीन अवसरों की तलाश में मध्य भारत तथा अन्य सुरक्षित क्षेत्रों की ओर उन्मुख हुईं।
विंध्य प्रदेश में आगमन एवं गहोरा पर नियंत्रण:
परंपरागत वृत्तांतों, स्थानीय ख्यातों और "एकात्रा बान्धवगढ़ माहात्म्य" जैसे ग्रंथों के अनुसार, गुजरात से विस्थापित हुए बघेल राजकुमारों में से बीसलदेव एवं भीमलदेव नामक दो बघेल बंधु (या कुछ स्रोतों के अनुसार, उनके पूर्वज या वंशज, नामों में भिन्नता संभव है) अपने कुछ निष्ठावान अनुयायियों के साथ मध्य भारत की ओर आए और उन्होंने प्रारंभिक चरण में कालिंजर के तत्कालीन भर शासकों की सेवा में प्रवेश किया। यह संभवतः उनकी प्रारंभिक शक्तिहीनता और एक सुरक्षित आधार की तलाश का परिणाम था। कालांतर में, अपनी सैन्य क्षमता, संगठनात्मक कौशल और राजनीतिक बुद्धिमत्ता का सफलतापूर्वक प्रदर्शन करते हुए, भीमलदेव ने (या उनके किसी वंशज ने, जिन्हें प्रायः व्याघ्रदेव से समीकृत किया जाता है) स्थानीय लोधी शासकों को एक निर्णायक युद्ध में पराजित कर गहोरा पर अपना स्वतंत्र अधिकार स्थापित किया। यह महत्वपूर्ण घटना लगभग 13वीं सदी के उत्तरार्ध या 14वीं सदी के प्रारंभ की मानी जा सकती है और यह बघेलों के स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व की दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक प्रारंभिक चरण थी। गहोरा, जो एक सामरिक रूप से सुरक्षित और कृषि की दृष्टि से उपजाऊ क्षेत्र था, तथा जो महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों के निकट भी स्थित था, बघेलों की प्रारंभिक शक्ति का एक सुदृढ़ केंद्र बना, जहाँ से उन्होंने अपने भावी राज्य विस्तार की योजनाएँ बनाईं।
3. बंधवगढ़: बघेल शक्ति का सुदृढ़ आधार एवं राजधानी
गहोरा में अपनी प्रारंभिक राजनीतिक और सैन्य स्थिति को सफलतापूर्वक सुदृढ़ करने के उपरांत, महत्वाकांक्षी बघेल शासकों ने अपनी बढ़ती हुई शक्ति और विस्तृत होती राज्य सीमाओं के अनुरूप एक अधिक सुरक्षित, सामरिक रूप से महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित केंद्र की ओर अपनी दृष्टि केन्द्रित की। विंध्याचल की अभेद्य पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित, प्राकृतिक सुरक्षा प्राचीरों से घिरा, और ऐतिहासिक तथा पौराणिक महत्व से मंडित बंधवगढ़ (या बांधवगढ़) का किला उनकी इस आवश्यकता के लिए एक स्वाभाविक और आदर्श पसंद बनकर उभरा।
राजधानी के रूप में प्रतिष्ठा:
यद्यपि विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, वंशावलियों और स्थानीय वृत्तांतों में बघेलों द्वारा बंधवगढ़ को अपनी राजधानी बनाए जाने की तिथियों और इससे जुड़े शासकों के नामों को लेकर कुछ मतांतर और अस्पष्टता पाई जाती है, तथापि सामान्यतः व्याघ्रदेव (या बाध देव, जो संभवतः गहोरा के संस्थापक भीमलदेव के ही वंशज थे या उन्हीं का दूसरा नाम था) को 14वीं शताब्दी के मध्य के आसपास (कुछ विद्वान 13वीं सदी का अंत भी मानते हैं, जो कि तिथियों के पुनर्निर्धारण की मांग करता है) बंधवगढ़ में बघेल राज्य की सुदृढ़ नींव रखने और उसे अपनी औपचारिक राजधानी बनाने का श्रेय दिया जाता है। कुछ वृत्तांतों के अनुसार, उन्होंने यह ऐतिहासिक किला कालिंजर के भर शासकों से एक सैन्य अभियान के माध्यम से प्राप्त किया था, जबकि कुछ अन्य स्रोत इसे कल्चुरी राजकुमारी से विवाह के फलस्वरूप दहेज में प्राप्त होना बताते हैं (जैसा कि करणदेव के संदर्भ में पहले उल्लेख किया गया है)। यह भी संभव है कि विभिन्न कालों में विभिन्न बघेल शासकों ने बंधवगढ़ के महत्व को समझते हुए इसे समय-समय पर सुदृढ़ किया हो और इसे अपनी प्रमुख राजधानी या एक महत्वपूर्ण उप-राजधानी के रूप में विकसित किया हो।
बंधवगढ़ की सामरिक एवं सांस्कृतिक महत्ता:
भौगोलिक अवस्थिति एवं प्राकृतिक सुरक्षा: बंधवगढ़ का किला एक अत्यंत ऊँची, विशाल और लगभग अभेद्य समझी जाने वाली पहाड़ी (जिसे बंधवगढ़ पहाड़ी कहा जाता है) पर स्थित होने के कारण प्राकृतिक रूप से दुर्जेय था। यह स्थिति प्रारंभिक और मध्यकालीन राज्यों के लिए आवश्यक सैन्य सुरक्षा प्रदान करती थी। इसके चारों ओर सघन वन, गहरी खाइयाँ और ऊबड़-खाबड़ तथा दुर्गम भूभाग इसे शत्रुओं के लिए लगभग अगम्य बनाते थे, जिससे यह एक आदर्श सैन्य गढ़ और सुरक्षित राजधानी के रूप में उभरा। प्राचीन धरोहर एवं सांस्कृतिक निरंतरता: जैसा कि पिछली पोस्ट में विस्तृत रूप से विवेचित किया गया है, बंधवगढ़ का क्षेत्र प्रागैतिहासिक काल से ही मानव गतिविधियों का केंद्र रहा था और यह गुप्त एवं कलचुरी काल में भी एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक, धार्मिक और प्रशासनिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित था। यहाँ विद्यमान प्राचीन शैलाश्रय, बौद्ध स्तूपों के अवशेष, गुप्तकालीन कलात्मक गुफाएँ (जिनमें शेषशायी विष्णु, वराह अवतार, मत्स्यावतार आदि की भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं) एवं विभिन्न प्राचीन मंदिर बघेलों को एक समृद्ध और गौरवशाली ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक विरासत प्रदान करते थे। बघेल शासकों ने इस विरासत को न केवल सहेजा, बल्कि यहाँ अपने भव्य महलों, नए मंदिरों (जैसे राम मंदिर, जानकी मंदिर) एवं कलात्मक जलाशयों (जैसे रानी तालाब, विष्णु सागर) का निर्माण कर इसे और अधिक सुशोभित और समृद्ध किया। आर्थिक एवं प्रशासनिक केंद्र के रूप में विकास: बंधवगढ़ केवल एक अजेय सैन्य गढ़ ही नहीं था, बल्कि यह शीघ्र ही आसपास के विस्तृत क्षेत्र के लिए एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक एवं आर्थिक गतिविधियों का भी केंद्र बन गया। यहाँ से प्राप्त होने वाला भू-राजस्व, वनोपज और व्यापारिक कर राज्य की आर्थिक शक्ति का प्रमुख आधार थे। किले के भीतर और तलहटी में विकसित हुए बाजार, टकसाल (यदि रही हो) और विभिन्न राजकीय कार्यालय इसके बढ़ते हुए प्रशासनिक और आर्थिक महत्व को दर्शाते हैं। यहाँ से बघेल शासक अपने विस्तृत राज्य का कुशलतापूर्वक संचालन करते थे।
बंधवगढ़ का ऐतिहासिक और अभेद्य किला बघेल राजवंश की अदम्य स्वतंत्रता की भावना, उनकी असाधारण सैन्य शक्ति और उनकी दूरदर्शी रणनीतिक सोच का एक ऐसा जीवंत प्रतीक था, जिसने उनके राज्य को सदियों तक न केवल बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा प्रदान की, बल्कि उसे आंतरिक स्थिरता और सांस्कृतिक विकास का एक अद्वितीय मंच भी उपलब्ध कराया।
विशेष सूचना: ऐतिहासिक श्रृंखला
यह विस्तृत संस्करण "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" नामक हमारी महत्वाकांक्षी ऐतिहासिक श्रृंखला का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और आधारभूत भाग है, जो विशेष रूप से बघेल राजवंश के अभ्युदय की जटिल प्रक्रिया, उनके प्रारंभिक संघर्षों, राज्य-स्थापना के विभिन्न चरणों और रीवा राज्य के एक शक्तिशाली क्षेत्रीय इकाई के रूप में उभरने पर केंद्रित है। इस गूढ़, बहुआयामी और विस्तृत विषय पर हमारी समर्पित शोध टीम द्वारा लगभग दस भागों की एक व्यापक और गहन श्रृंखला प्रकाशित करने की महत्वाकांक्षी योजना है। इस श्रृंखला के प्रत्येक भाग में विभिन्न ऐतिहासिक कालखंडों, महत्वपूर्ण घटनाओं, प्रमुख शासकों, उनकी नीतियों, सांस्कृतिक विकास, सामाजिक परिवर्तनों और आर्थिक संरचना का गहन, निष्पक्ष और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा। हम आपसे, हमारे प्रबुद्ध, जिज्ञासु और इतिहास-प्रेमी पाठकों से, विनम्र अनुरोध करते हैं कि आप इस श्रृंखला के सभी भागों को धैर्यपूर्वक, मनोयोग से और आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ें, उन पर गहन चिंतन करें और अपने बहुमूल्य विचार, सारगर्भित सुझाव, तथ्यात्मक सुधार (यदि कोई हों) एवं रचनात्मक प्रतिक्रियाएं हमें अवश्य साझा करें। आपकी सक्रिय बौद्धिक सहभागिता और सकारात्मक प्रतिसाद हमारे इन शोध प्रयासों को न केवल सार्थकता और एक नवीन स्फूर्ति प्रदान करेगा, बल्कि हमें इस ऐतिहासिक वृत्तांत को और भी उन्नत, व्यापक, तथ्यात्मक रूप से सुदृढ़ और त्रुटिरहित बनाने में भी अमूल्य सहायता प्रदान करेगा।
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4. रीवा नगर की स्थापना एवं राजधानी का स्थानांतरण: एक रणनीतिक निर्णय
लगभग दो शताब्दियों से भी अधिक समय तक, सामरिक रूप से अभेद्य बंधवगढ़ का किला बघेल राजवंश की शक्ति, प्रतिष्ठा और उनकी राजधानी का प्रमुख केंद्र बना रहा। परन्तु, 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों, प्रशासनिक आवश्यकताओं के विस्तार और संभवतः कुछ अन्य तात्कालिक कारणों ने बघेल शासकों को एक नवीन, अधिक केंद्रीय और सुगम राजधानी की स्थापना की आवश्यकता का अनुभव कराया।
राजधानी स्थानांतरण के संभावित कारक:
प्रशासनिक सुगमता एवं केन्द्रीयता: बंधवगढ़ की अत्यधिक ऊँची और दुर्गम पर्वतीय स्थिति, यद्यपि सुरक्षा की दृष्टि से उत्कृष्ट थी, तथापि विस्तृत होते हुए मैदानी इलाकों में फैले राज्य के कुशल प्रशासन और संचार के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकती थी। एक ऐसे स्थान की आवश्यकता थी जो राज्य के विभिन्न भागों से अधिक सुगमता से जुड़ा हो और जहाँ से प्रशासनिक नियंत्रण अधिक प्रभावी ढंग से स्थापित किया जा सके। आर्थिक एवं व्यापारिक महत्व का उदय: तमसा (टोंस) एवं उसकी सहायक नदियों, जैसे बीहर और बिछिया, के अत्यंत उपजाऊ कछारी मैदान में एक नवीन राजधानी की स्थापना कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने, व्यापारिक गतिविधियों को केंद्रित करने और राज्य की आर्थिक समृद्धि को बढ़ाने के लिए अधिक अनुकूल सिद्ध हो सकती थी। यह क्षेत्र महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों के भी निकट स्थित था। मुगल प्रभाव एवं कूटनीतिक आवश्यकताएँ: 17वीं शताब्दी तक मुगल साम्राज्य उत्तर भारत की सर्वप्रमुख राजनीतिक शक्ति बन चुका था। मुगल दरबार के साथ निरंतर बढ़ते संपर्क, उनके बढ़ते हुए राजनीतिक प्रभुत्व और कूटनीतिक आवश्यकताओं को देखते हुए, एक अधिक सुगम, मैदानी और मुगल प्रशासनिक केंद्रों के अपेक्षाकृत निकट स्थित राजधानी रणनीतिक और कूटनीतिक दृष्टिकोण से बेहतर हो सकती थी। बंधवगढ़ की अत्यधिक सामरिक दुर्जेयता और दुर्गमता कभी-कभी मुगलों के लिए एक संभावित चुनौती या संदेह का कारण भी प्रस्तुत कर सकती थी। पानी की उपलब्धता एवं अन्य प्राकृतिक संसाधन: एक बड़ी और बढ़ती हुई राजधानी की जनसंख्या तथा प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त और नियमित जल आपूर्ति तथा अन्य आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों की सुगम निकटता भी एक नवीन राजधानी के चयन में महत्वपूर्ण कारक रहे होंगे। तमसा और उसकी सहायक नदियों का संगम क्षेत्र इस दृष्टि से उपयुक्त था। लोक प्रचलित किंवदंती: एक प्रसिद्ध लोककिंवदंती के अनुसार, महाराजा विक्रमादित्य एक शिकार यात्रा के दौरान इस क्षेत्र में आए थे, जहाँ उन्होंने देखा कि उनके शिकारी कुत्तों का एक खरगोश ने साहसपूर्वक सामना किया। इस अप्रत्याशित घटना से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस स्थान को शौर्य और भविष्य की संभावनाओं से परिपूर्ण माना और यहीं अपनी नई राजधानी बसाने का निर्णय लिया। यद्यपि यह एक लोककथा हो सकती है, तथापि यह तत्कालीन निर्णय प्रक्रिया में ऐसे प्रतीकात्मक या शगुन आधारित विचारों के महत्व को भी दर्शाती है।
स्थापना एवं विकास:
बघेल राजवंश के दूरदर्शी शासक, महाराजा विक्रमादित्य (जिन्हें कुछ ऐतिहासिक स्रोतों में विक्रमाजीत सिंह के नाम से भी जाना जाता है) द्वारा लगभग 1618 ई. के आसपास (कुछ विद्वान इसकी तिथि 1617 ई. या 1619 ई. भी बताते हैं) रीवा नगर को विधिवत रूप से बघेल राज्य की नवीन राजधानी के रूप में स्थापित किया गया। यद्यपि कुछ ऐतिहासिक वृत्तांतों में इस महत्वपूर्ण निर्णय का श्रेय उनके पूर्वज राजा वीरभान सिंह को भी दिया जाता है, या यह भी संभव है कि एक नवीन राजधानी की स्थापना की प्रक्रिया उनके शासनकाल में ही प्रारंभ हो गई हो और विक्रमादित्य ने उसे मूर्त रूप दिया हो। तमसा, बीहर और बिछिया नदियों के संगम के निकट, एक उपजाऊ और समतल भूभाग पर स्थित यह नव स्थापित नगर शीघ्र ही बघेल राज्य का प्रमुख राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक हृदय बन गया। यहाँ बघेल शासकों ने अपनी आवश्यकता और प्रतिष्ठा के अनुरूप किलों (जैसे रीवा फोर्ट का प्रारंभिक निर्माण और बाद में उसका विस्तार), भव्य महलों (जैसे मोती महल, लंबा घर), कलात्मक मंदिरों (जैसे विश्व प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर, रानी तालाब के मंदिर), सुंदर उद्यानों, चौड़े बाज़ारों और आवासीय क्षेत्रों का योजनाबद्ध तरीके से निर्माण करवाया, जिससे रीवा एक आकर्षक और जीवंत नगर के रूप में विकसित हुआ।
5. बघेल शासन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं ऐतिहासिक व्यक्तित्व
बघेल राजवंश का शासनकाल, जो लगभग सात शताब्दियों तक चला, अपनी विशिष्ट राजनीतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के लिए जाना जाता है। इस लंबे दौर में अनेक ऐसे प्रतिभाशाली और दूरदर्शी शासक हुए, जिन्होंने न केवल राज्य की सीमाओं का विस्तार किया, बल्कि कला, साहित्य और धर्म को भी उदार संरक्षण प्रदान किया, जिससे बघेलखण्ड की एक अनूठी पहचान निर्मित हुई।
मुगल साम्राज्य के साथ संबंध: सहअस्तित्व, संघर्ष और सामंजस्य:
बघेल राजवंश का इतिहास मुगल साम्राज्य के साथ उनके जटिल, बहुआयामी और निरंतर बदलते रहे संबंधों से गहराई से तथा अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। राजा वीरसिंह देव (शासनकाल लगभग 1500-1540 ई.): ये लोदी काल के अंतिम और मुगल काल के प्रारंभिक दौर के एक अत्यंत महत्वपूर्ण और शक्तिशाली बघेल शासक थे, जिन्होंने अपने राज्य को सुदृढ़ किया और दिल्ली सल्तनत के साथ अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने का सफल प्रयास किया। राजा वीरभान सिंह (शासनकाल लगभग 1540-1555 ई.): ये मुगल सम्राट हुमायूँ के समकालीन थे और भारतीय इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना के साक्षी बने। उन्होंने कन्नौज के युद्ध में शेरशाह सूरी से पराजित होकर निष्कासित और असहाय जीवन व्यतीत कर रहे मुगल बादशाह हुमायूँ को अपने राज्य में न केवल सुरक्षित शरण प्रदान की, बल्कि उन्हें वित्तीय और सैन्य सहायता भी उपलब्ध कराई। यह घटना बघेल शासकों की स्वतंत्र और साहसिक विदेश नीति, उनकी शरणागत वत्सलता और उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता का एक उत्कृष्ट परिचायक है। राजा रामचंद्र सिंह (शासनकाल 1555-1592 ई.): ये मुगल सम्राट अकबर के समकालीन थे और उनके साथ इनके अत्यंत सौहार्दपूर्ण तथा सम्मानजनक संबंध थे। भारतीय संगीत के सम्राट मियाँ तानसेन (मूल नाम रामतनु पाण्डेय) इन्हीं के राजदरबार की शोभा थे, और यहीं उनकी संगीत प्रतिभा का पूर्ण विकास हुआ। तानसेन की अद्वितीय ख्याति सुनकर सम्राट अकबर ने उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल करने के लिए राजा रामचंद्र से विनम्र अनुरोध किया, जिसे महाराजा ने मुगल साम्राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों को बनाए रखने और अपनी रियासत की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु भारी मन से स्वीकार कर लिया। यह ऐतिहासिक घटना बघेल राज्य और मुगल साम्राज्य के बीच गहन सांस्कृतिक आदान-प्रदान और राजनीतिक समझ का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, यद्यपि यह परोक्ष रूप से बघेल राज्य की राजनीतिक स्वायत्तता पर मुगल प्रभाव के बढ़ने का भी एक महत्वपूर्ण संकेत है।

(चित्र: संगीत सम्राट तानसेन, जिनकी प्रतिभा रीवा दरबार में पल्लवित हुई।)
बीरबल (महेश दास) और रीवा: यद्यपि राजा बीरबल का मुख्य कार्यक्षेत्र मुगल सम्राट अकबर का दरबार था, और उनका जन्मस्थान कुछ विद्वानों के अनुसार कानपुर के निकट तिकवांपुर (अब घाटमपुर तहसील में) माना जाता है, तथापि कुछ अन्य स्थानीय परंपराएँ और ऐतिहासिक उल्लेख उन्हें किसी न किसी रूप में रीवा क्षेत्र या बघेल राजदरबार से भी जोड़ते हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि उनका जन्म वर्तमान सीधी जिले के घोघरा गाँव में हुआ था, जो उस समय बघेल राज्य का ही हिस्सा हो सकता था। यह भी संभव है कि उनके प्रारंभिक जीवन का कुछ समय बघेलखण्ड में व्यतीत हुआ हो, या उनकी कोई रिश्तेदारी इस क्षेत्र से रही हो, जिसके कारण तानसेन के प्रकरण में उन्होंने मध्यस्थ की भूमिका निभाई हो। हालांकि, इस विषय पर और अधिक ठोस तथा अकाट्य ऐतिहासिक शोध की आवश्यकता है। बाद के बघेल शासक और मुगल संबंध: महाराजा रामचंद्र सिंह के उपरांत, उनके उत्तराधिकारियों ने भी मुगल साम्राज्य के साथ विभिन्न प्रकार के संबंध बनाए रखे, जो समय और परिस्थितियों के अनुसार कभी मैत्रीपूर्ण और सहयोगात्मक, कभी औपचारिक अधीनस्थतापूर्ण, तो कभी तनावपूर्ण और संघर्षपूर्ण भी रहे। औरंगजेब जैसे कट्टर मुगल सम्राट के शासनकाल में कुछ बघेल शासकों पर इस्लाम धर्म स्वीकार करने या जजिया कर देने का दबाव भी आया, जिसका उन्होंने सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया। यह संपूर्ण दौर बघेल राज्य के लिए निरंतर कूटनीतिक चुनौतियों, राजनीतिक दबावों और अपनी स्वतंत्रता तथा सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के अथक प्रयासों से भरा रहा।
प्रशासनिक व्यवस्था:
बघेल शासकों ने अपने विस्तृत राज्य के कुशल संचालन के लिए एक परंपरागत राजतंत्रीय प्रशासनिक ढांचा विकसित किया, जिसमें राजा सर्वोच्च सत्ता का केंद्र होता था और सभी महत्वपूर्ण निर्णय उसी के द्वारा लिए जाते थे। राज्य को विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों, जैसे परगनों (जिलों के समकक्ष) और तहसीलों (उप-जिलों के समकक्ष), में विभाजित किया गया था, जिनके प्रमुख अधिकारी (जैसे आमिल, फौजदार) राजा के प्रति सीधे उत्तरदायी होते थे। राज्य में जागीरदारी प्रथा का व्यापक प्रचलन था, जिसके अंतर्गत महत्वपूर्ण राजपूत सरदारों, राजपरिवार के सदस्यों और राज्य की सेवा करने वाले अन्य विशिष्ट व्यक्तियों को भू-राजस्व वसूलने और अपने क्षेत्र में स्थानीय प्रशासन तथा कानून-व्यवस्था चलाने का अधिकार प्रदान किया जाता था। यह जागीरदारी व्यवस्था कभी-कभी राज्य की केंद्रीय शक्ति के लिए चुनौती भी बन जाती थी, जब शक्तिशाली जागीरदार स्वतंत्र रूप से व्यवहार करने लगते थे। न्याय व्यवस्था मुख्यतः परंपरागत हिंदू विधि-विधानों, धर्मशास्त्रों और स्थानीय रीति-रिवाजों पर आधारित थी, जिसमें राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था और स्थानीय स्तर पर पंचायतें तथा जातिगत पंचायतें भी न्याय प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
सांस्कृतिक विरासत एवं स्थापत्य:
मंदिर निर्माण और धार्मिक संरक्षण: बघेल शासक गहन रूप से धर्मपरायण थे और उन्होंने अपने शासनकाल में अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया तथा प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार भी किया। रीवा नगर का विश्व प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर इसका एक ज्वलंत उदाहरण है, जो भगवान शिव को समर्पित है और माना जाता है कि बघेल शासकों, विशेषकर महाराज भाव सिंह, के संरक्षण में इसका वर्तमान भव्य स्वरूप विकसित हुआ। आपके द्वारा उपलब्ध कराई गई अन्य जानकारी के अनुसार, नगर में स्थित ऐतिहासिक शारदा देवी मंदिर, तथा गुढ़ तहसील में स्थित प्राचीन कालेश्वर और कुशलेश्वर महादेव मंदिर भी इसी काल की या बघेल संरक्षण प्राप्त महत्वपूर्ण धार्मिक संरचनाएँ हैं, जो उनकी शैव और शाक्त परंपराओं में आस्था को दर्शाती हैं। साहित्य और कला को प्रोत्साहन एवं संरक्षण: बघेल राजदरबार न केवल राजनीतिक शक्ति का केंद्र था, बल्कि यह कवियों, संगीतकारों, चित्रकारों और विभिन्न कलाओं के कलाकारों के लिए एक महत्वपूर्ण आश्रय स्थल भी था। राजा रामचंद्र सिंह के दरबार में संगीत सम्राट तानसेन की उपस्थिति इसका सबसे बड़ा और विश्वविख्यात प्रमाण है। बघेल शासकों ने संस्कृत और स्थानीय बघेली भाषा दोनों में ही साहित्य रचना को प्रोत्साहित किया। "वीरभानुदय काव्यम्", "अमररेश विलास", "हौत्र कल्पद्रुम", "भजनावली", "जगदीश शतक" जैसी अनेक महत्वपूर्ण रचनाएँ बघेल शासकों या उनके दरबारी विद्वानों द्वारा रची गईं। सफेद बाघ (व्हाइट टाइगर) – रीवा की अनूठी पहचान: रीवा की अंतरराष्ट्रीय ख्याति का एक प्रमुख कारण यहाँ पाए जाने वाले दुर्लभ सफेद बाघ भी हैं। बघेल राजवंश के अंतिम शासक, महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव, ने 1951 में गोविंदगढ़ के निकट बरगड़ी के जंगल से पहले जीवित सफेद बाघ शावक 'मोहन' को पकड़ा था। उन्होंने न केवल मोहन का संरक्षण किया, बल्कि उसके वंश को आगे बढ़ाने में भी अत्यंत महत्वपूर्ण और दूरदर्शी भूमिका निभाई, जिससे रीवा "सफेद बाघों की भूमि" (Land of the White Tiger) के रूप में विश्व मानचित्र पर प्रसिद्ध हुआ। यह घटना बघेल शासकों की प्रकृति प्रेम, वन्यजीव संरक्षण के प्रति उनकी गहरी रुचि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक है।

(चित्र: महाराजा मार्तण्ड सिंह अपने प्रिय सफेद बाघ 'मोहन' के साथ, जिसने रीवा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई।)
6. समीपस्थ क्षेत्रों का इतिहास और रीवा से संबंध
रीवा राज्य का राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव केवल उसकी राजधानी तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उसकी सीमाएँ और उसका प्रभाव क्षेत्र उसके निकटवर्ती अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों तक विस्तृत था। इन क्षेत्रों का इतिहास रीवा के वृहत्तर इतिहास से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, और इन्होंने बघेल राज्य की राजनीतिक संरचना, उसकी आर्थिक समृद्धि और उसकी सांस्कृतिक विविधता में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
मऊगंज:
आपके द्वारा प्रदान की गई विस्तृत और महत्वपूर्ण जानकारी ("विस्तृत नोट जो आपने दिया") के अनुसार, मऊगंज, जो हाल ही में (अगस्त 2023 में) रीवा जिले से पृथक होकर मध्य प्रदेश के एक नए जिले के रूप में अस्तित्व में आया है, का इतिहास अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली रहा है, जो लगभग 11वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। प्रारंभिक काल में इस उपजाऊ और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र पर सेंगर वंश के पराक्रमी राजपूतों का शासन रहा, और कालांतर में, लगभग 14वीं शताब्दी के आसपास, शक्तिशाली होते हुए बघेल राजवंश ने इसे अपने विस्तृत और बढ़ते हुए बघेलखंड राज्य में सफलतापूर्वक सम्मिलित कर लिया। मऊगंज का बघेल राज्य में यह विलय उनकी कुशल राज्य विस्तार की नीति, उनकी सैन्य क्षमता और तत्कालीन क्षेत्रीय शक्तियों को अपने अधीन या आत्मसात करने की उनकी अद्भुत क्षमता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। यहाँ स्थित अनेक ऐतिहासिक स्थल, जैसे बहुती जलप्रपात (जो सेलर नदी पर स्थित है और अपनी विशाल ऊँचाई तथा प्राकृतिक सुंदरता के लिए भारत के सबसे ऊँचे जलप्रपातों में से एक माना जाता है) और नई गढ़ी का प्राचीन एवं सुदृढ़ किला (अब मऊगंज जिले का हिस्सा), इस क्षेत्र के न केवल मनोहारी प्राकृतिक सौंदर्य को, बल्कि उसकी गहन ऐतिहासिक प्राचीनता और बघेलकालीन सामरिक महत्व दोनों को ही प्रमुखता से दर्शाते हैं। यह क्षेत्र संभवतः प्राचीन और मध्यकालीन व्यापारिक मार्गों पर भी स्थित था, जिससे इसका वाणिज्यिक और आर्थिक महत्व और भी अधिक बढ़ जाता था, और यह बघेल राज्य के राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा होगा।

मऊगंज जिले में स्थित भारत का एक सबसे ऊँचा जलप्रपात, बहुती, जो बघेलखण्ड के प्राकृतिक सौंदर्य और ऐतिहासिक गहराई का प्रतीक है।
अतरैला और डभौरा:
ये दोनों ऐतिहासिक ग्राम, जैसा कि आपके द्वारा प्रदान किए गए "विस्तृत नोट" में यथोचित रूप से उल्लेखित है, वर्तमान रीवा जिले की जवा तहसील में स्थित हैं और ये बघेल राज्य की महत्वपूर्ण ग्रामीण प्रशासनिक इकाइयों तथा सघन कृषि क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन क्षेत्रों का इतिहास रीवा के वृहत्तर और समग्र इतिहास का एक अविभाज्य अंग है। ये ग्राम बघेल राज्य की सुव्यवस्थित कृषि अर्थव्यवस्था, उसकी प्रभावी राजस्व प्रणाली और उसके कुशल ग्रामीण प्रशासन के अत्यंत महत्वपूर्ण घटक रहे होंगे। इन क्षेत्रों में आज भी प्रचलित बघेली लोकगीत, लोककथाएँ, लोकनृत्य (जैसे करमा, सैला, सुआ) और विभिन्न स्थानीय देवी-देवताओं से जुड़ी परंपराएँ तथा वार्षिक मेले बघेलकालीन जनजीवन, उनकी सामाजिक संरचना और उनकी सांस्कृतिक जीवंतता की एक मनोहारी तथा प्रामाणिक झलक प्रस्तुत करते हैं। इन ग्रामों के आसपास के क्षेत्रों में भी प्राचीन बसाहट के महत्वपूर्ण चिन्ह, पुरातात्त्विक महत्व के टीले और ऐतिहासिक अवशेष मिलने की प्रचुर संभावना है, जिनके विधिवत पुरातात्त्विक सर्वेक्षण, उत्खनन और गहन अध्ययन की आज भी महती आवश्यकता है, ताकि बघेलखण्ड के ग्रामीण इतिहास की और अधिक परतों को उजागर किया जा सके।
कोलघारी:
यह विशिष्ट नाम, जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है, कोल जनजाति, जो इस क्षेत्र की प्राचीनतम और प्रमुख जनजातीय समुदायों में से एक है, के सघन निवास वाले किसी ऐतिहासिक क्षेत्र या गाँव की ओर स्पष्ट रूप से संकेत करता है। बघेल राज्य के भीतर या उसकी सीमाओं के अत्यंत निकट स्थित ऐसे क्षेत्र राज्य और विभिन्न जनजातीय समुदायों के बीच संबंधों की जटिलताओं, उनके स्वरूप और उनकी प्रवृत्तियों (जैसे सहयोग और सह-अस्तित्व, अधीनस्थता और अधीनता, भू-अधिकारों और वन संसाधनों पर कभी-कभी होने वाले संघर्ष, या कुछ अवसरों पर जनजातीय प्रतिरोध और विद्रोह) को गहराई से समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। बघेल शासकों ने अपने शासनकाल के दौरान इन जनजातीय समुदायों के साथ विभिन्न प्रकार की नीतियाँ अपनाईं, जो समय, परिस्थितियों और संबंधित शासक की व्यक्तिगत सोच तथा राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार निरंतर बदलती रहीं। यह भी संभव है कि कोल समुदाय के लोगों ने बघेल सेना में सैनिकों के रूप में या स्थानीय प्रशासन में मार्गदर्शकों और सहायकों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो।
मऊगंज का ऐतिहासिक किला, अतरैला और डभौरा जैसे प्राचीन ग्राम, तथा कोलघारी जैसे जनजातीय महत्व के स्थल, बघेल राज्य के उस विस्तृत और विविधतापूर्ण ताने-बाने का अभिन्न हिस्सा थे, जहाँ राजकीय सत्ता की शक्ति और स्थानीय परंपराओं की जीवंतता एक साथ, कभी सामंजस्यपूर्ण तो कभी संघर्षपूर्ण रूप में, विद्यमान थीं, और जिन्होंने मिलकर इस क्षेत्र की अनूठी पहचान गढ़ी।
7. ब्रिटिश आधिपत्य और स्वतंत्रता उपरांत विलय
19वीं शताब्दी के प्रारंभ में, भारत की अधिकांश अन्य रियासतों की भाँति, ऐतिहासिक रीवा राज्य भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के निरंतर बढ़ते हुए राजनीतिक और सैन्य प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। विभिन्न जटिल राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक कारणों के चलते, 5 अक्टूबर 1812 ई. में, रीवा राज्य ने अंग्रेजों के साथ एक महत्वपूर्ण सहायक संधि (Subsidiary Alliance) पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के परिणामस्वरूप, रीवा एक ब्रिटिश संरक्षित रियासत बन गया, जिसकी विदेश नीति, रक्षा और बाह्य सुरक्षा का पूर्ण नियंत्रण अंग्रेजों के हाथ में चला गया। यद्यपि, संधि की शर्तों के अनुसार, रियासत के आंतरिक प्रशासनिक मामलों में बघेल शासकों की परंपरागत स्वायत्तता कुछ हद तक औपचारिक रूप से बनी रही, परन्तु व्यवहार में ब्रिटिश रेजिडेंट का हस्तक्षेप निरंतर बढ़ता गया। भारत की स्वतंत्रता (15 अगस्त 1947 ई.) के ऐतिहासिक अवसर के पश्चात्, सरदार वल्लभभाई पटेल के कुशल और दृढ़ नेतृत्व में भारतीय रियासतों के भारतीय संघ में शांतिपूर्ण एकीकरण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया प्रारंभ हुई। रीवा रियासत के तत्कालीन महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव ने दूरदर्शिता और राष्ट्रप्रेम का परिचय देते हुए भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय का निर्णय लिया। प्रारंभ में, रीवा रियासत नवगठित विंध्य प्रदेश (जिसमें बघेलखण्ड और बुन्देलखण्ड की 35 छोटी-बड़ी रियासतें शामिल थीं) का एक प्रमुख हिस्सा बनी, और रीवा नगर को इस नवीन प्रदेश की राजधानी बनाया गया। महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव को विंध्य प्रदेश का प्रथम और एकमात्र राजप्रमुख (संवैधानिक प्रमुख) नियुक्त किया गया। अंततः, 1 नवंबर 1956 को भारत सरकार द्वारा गठित राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर विंध्य प्रदेश का तत्कालीन मध्य भारत, भोपाल राज्य और महाकौशल क्षेत्र के कुछ हिस्सों के साथ विलय कर वर्तमान विशाल मध्यप्रदेश राज्य का निर्माण हुआ, और रीवा इसका एक महत्वपूर्ण जिला तथा संभागीय मुख्यालय के रूप में अपनी ऐतिहासिक और प्रशासनिक भूमिका आज भी सफलतापूर्वक निभाता आ रहा है।
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shriasheeshacharya@gmail.comबघेल राजवंश: मुख्य अवधारणाएँ एवं व्यक्तित्व
"व्याघ्रपल्लीय उद्भव (Vyaghrapalliya Origin)": बघेल राजवंश की ऐतिहासिक उत्पत्ति पश्चिमी भारत के गुजरात प्रान्त के प्रसिद्ध चालुक्य-सोलंकी राजवंश की व्याघ्रपल्ली (जिसे वाघेला या बघेला भी कहा जाता है) नामक एक महत्वपूर्ण जागीर या प्रशासनिक इकाई से मानी जाती है, जो उनके प्रारंभिक शक्ति-केंद्र और वंश-नाम को स्पष्ट रूप से इंगित करता है।
यह प्रतिष्ठित वंशावली उन्हें भारतीय इतिहास के एक अत्यंत गौरवशाली और वीर राजपूत कुल से जोड़ती है, जिसने निःसंदेह उनके मध्य भारत में नवीन राजनीतिक उत्थान और सत्ता स्थापना में महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक सहायता प्रदान की।
"गहोरा से रीवा तक (From Gahora to Rewa)": बघेल राजवंश की राजधानियों का एक महत्वपूर्ण और रणनीतिक रूप से सोचा-समझा क्रमिक स्थानांतरण - गहोरा (प्रारंभिक और अस्थायी केंद्र), अभेद्य बंधवगढ़ (सुदृढ़ सैन्य गढ़ और दीर्घकालीन राजधानी), और अंततः तमसा तट पर स्थित रीवा (एक सुनियोजित, विकसित और अधिक केंद्रीय नगरीय केंद्र)।
यह राजधानी परिवर्तन की यात्रा उनकी निरंतर बढ़ती हुई राजनीतिक शक्ति, विस्तृत होती राज्य सीमाओं, बदलती हुई प्रशासनिक आवश्यकताओं और उनकी असाधारण रणनीतिक दूरदर्शिता का एक स्पष्ट और जीवंत प्रतीक है, जिसने राज्य के विकास को एक नई दिशा प्रदान की।
"राजा रामचंद्र सिंह एवं तानसेन": बघेल राजवंश के यशस्वी और कला-प्रेमी शासक महाराजा रामचंद्र सिंह के गौरवशाली दरबार में भारतीय संगीत के सम्राट मियाँ तानसेन का संरक्षण और उत्कर्ष, जो बाद में मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक बने और विश्वव्यापी ख्याति अर्जित की।
यह ऐतिहासिक प्रसंग न केवल बघेल राजदरबार की अद्वितीय सांस्कृतिक समृद्धि, कला-पारखिता और उदार संरक्षण नीति का एक ज्वलंत उदाहरण है, बल्कि यह तत्कालीन मुगल-बघेल कूटनीतिक संबंधों, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और राजनीतिक समझ का भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय अध्याय है।
"मुगल-बघेल संबंध (Mughal-Baghel Relations)": बघेल राजवंश और मुगल साम्राज्य के बीच लगभग तीन शताब्दियों तक चले जटिल और बहुआयामी संबंध, जो प्रारंभ में मैत्रीपूर्ण और सहयोगात्मक (जैसे हुमायूँ को शरण देना), फिर गहन सांस्कृतिक आदान-प्रदान (जैसे तानसेन का मुगल दरबार में जाना), और कालांतर में औपचारिक अधीनस्थता, राजनीतिक दबाव एवं कभी-कभी खुले संघर्ष के विभिन्न दौरों से गुजरे।
यह निरंतर परिवर्तित होता और जटिल शक्ति संबंध मध्ययुगीन तथा परवर्ती मध्ययुगीन भारत की प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों और शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता के बीच नाजुक शक्ति संतुलन, उनकी परस्पर निर्भरता और उनकी स्वायत्तता की आकांक्षाओं को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
बघेलकालीन स्थापत्य एवं धरोहर

(चित्र: रीवा स्थित विश्व प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर, जो अपनी अद्वितीय शिवलिंग आकृति और स्थापत्य कला के लिए जाना जाता है। यह मंदिर बघेल शासकों, विशेषकर महाराज भाव सिंह, के गहन धार्मिक संरक्षण और उनकी आध्यात्मिक आस्था का एक जीवंत प्रतीक है।)
बंधवगढ़ किले का ऐतिहासिक महत्व (वीडियो)
(यह वीडियो बंधवगढ़ के सुदृढ़ किले, उसके पुरातात्त्विक अवशेषों और बघेलों की प्रारंभिक राजधानी के रूप में उसके ऐतिहासिक महत्व को अत्यंत रोचक और प्रभावी ढंग से दर्शाता है।)
अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)
बघेल राजवंश और रीवा राज्य के गौरवशाली तथा विस्तृत इतिहास का गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित प्रकार के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यह विस्तृत सूची एक गंभीर और समर्पित शोध यात्रा के लिए एक प्रारंभिक तथा दिशा-निर्देशात्मक बिंदु प्रदान करती है:
प्रमुख ऐतिहासिक ग्रंथ एवं वृत्तांत (पारंपरिक एवं समकालीन):
- **"एकात्रा बान्धवगढ़ माहात्म्य"** या संबंधित स्थानीय पुराण और माहात्म्य ग्रंथ: ये पारंपरिक स्रोत बघेल वंश की पौराणिक उत्पत्ति, उनके कुलदेवता, बांधवगढ़ क्षेत्र के प्राचीन महत्व और प्रारंभिक इतिहास पर महत्वपूर्ण पारंपरिक एवं स्थानीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। इनके आलोचनात्मक अध्ययन से महत्वपूर्ण संकेत मिल सकते हैं।
- **"वीरभानुदय काव्यम्"**: बघेल शासक भीमलदेव द्वारा स्वयं रचित (अथवा उनके संरक्षण में किसी अज्ञात दरबारी कवि द्वारा रचित) यह महत्वपूर्ण संस्कृत महाकाव्य बघेल वंश के प्रारंभिक इतिहास, उनकी विस्तृत वंशावली, प्रमुख शासकों की वीरगाथाओं और तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक तथा राजनीतिक परिवेश का एक अत्यंत मूल्यवान और प्रामाणिक साहित्यिक स्रोत माना जाता है (यद्यपि इसके कुछ अंशों की ऐतिहासिकता पर कुछ विद्वानों में मतभेद भी है, और इसके रचनाकाल तथा लेखक पर और अधिक शोध की आवश्यकता है)।
- **मुगलकालीन फारसी तवारीखें और समकालीन वृत्तांत**: शेख अबुल फजल कृत "अकबरनामा" (तीन खंडों में) एवं "आईन-ए-अकबरी": इन विश्व प्रसिद्ध और अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथों में बघेल शासकों (विशेषकर महाराजा रामचंद्र सिंह) और मुगल दरबार के साथ उनके जटिल तथा बहुआयामी संबंधों, संगीत सम्राट तानसेन के रीवा दरबार से मुगल दरबार में आगमन, और अकबरकालीन उत्तर भारतीय राजनीति, प्रशासन तथा संस्कृति का विस्तृत एवं विश्वसनीय उल्लेख मिलता है। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी कृत "मुंतखब-उत-तवारीख": यह ग्रंथ भी समकालीन घटनाओं, विशेषकर अकबर के शासनकाल की नीतियों, धार्मिक बहसों और महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रमों पर एक वैकल्पिक, यद्यपि कभी-कभी आलोचनात्मक और व्यक्तिपरक, दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। ख्वाजा निज़ामुद्दीन अहमद कृत "तबकात-ए-अकबरी": इसमें भी अकबर से पहले के सुल्तानों और प्रारंभिक मुगल शासकों के काल की उत्तर भारत की विभिन्न राजनीतिक शक्तियों, उनके आपसी संबंधों और महत्वपूर्ण घटनाओं का मूल्यवान विवरण प्राप्त होता है। "हुमायूँनामा": मुगल बादशाह हुमायूँ की विदुषी बहन, राजकुमारी गुलबदन बेगम द्वारा फारसी भाषा में रचित यह अद्वितीय आत्मकथात्मक ग्रंथ (जिसमें कन्नौज के युद्ध (1540 ई.) में शेरशाह सूरी से बुरी तरह पराजित होकर निष्कासित और संकटपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे मुगल बादशाह हुमायूँ को बघेल शासक राजा वीरभानु द्वारा अपने राज्य में सुरक्षित शरण और अमूल्य सैन्य तथा वित्तीय सहायता प्रदान करने की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना का अत्यंत मार्मिक, विश्वसनीय और प्रामाणिक उल्लेख है)।
- **स्थानीय ख्यातें, वंशावलियाँ, लोकगाथाएँ और प्रशासनिक दस्तावेज़**: विभिन्न स्थानीय इतिहासकारों, राजपुरोहितों, कवियों, भाटों और चारणों द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी अत्यंत सावधानीपूर्वक संकलित और संरक्षित की गई मौखिक तथा लिखित ऐतिहासिक सामग्री, जो बघेल राजवंश के स्थानीय परिप्रेक्ष्य, उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं, उनके पारिवारिक संबंधों, उनके द्वारा किए गए दान-पुण्य और महत्वपूर्ण स्थानीय घटनाओं पर विशिष्ट तथा अक्सर अनदेखा किया गया प्रकाश डालती हैं। इनमें सनद (आज्ञापत्र), परवाने (आदेश), रुक्के (लिखित संदेश) और विभिन्न प्रकार की बहियाँ (लेखा-जोखा पुस्तकें) जैसे प्रशासनिक दस्तावेज़ भी शामिल हो सकते हैं, यदि वे आज भी किसी निजी या राजकीय संग्रह में उपलब्ध हों।
आधुनिक शोध एवं प्रकाशन:
/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */ 1. सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". प्रयाग: यूनियन प्रेस (यह ग्रंथ रीवा दरबार द्वारा संभवतः 19वीं सदी के अंत या 20वीं सदी के प्रारंभ में प्रकाशित करवाया गया था और यह रियासतकालीन इतिहास, विस्तृत वंशावलियों, प्रमुख घटनाओं, प्रशासनिक व्यवस्था, भू-राजस्व प्रणाली और स्थानीय परंपराओं का एक पारंपरिक लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण और विस्तृत स्रोत माना जाता है)। 2. शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी। (यह पुस्तक बघेलखण्ड क्षेत्र की विशिष्ट भाषाई संरचना, विभिन्न बोलियों, उनके व्याकरण, लोक साहित्य के विविध रूपों, लोक कलाओं, रीति-रिवाजों और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर एक मानक, गहन और अकादमिक कृति है)। 3. श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी। (यह पुस्तक विंध्य पर्वत श्रृंखला के आसपास के संपूर्ण क्षेत्र के व्यापक ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझने हेतु एक अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है, जिसमें बघेलखण्ड का भी विस्तृत विवेचन है)। 4. Luard, Major C.E. (1907). "Rewah State Gazetteer". Calcutta: Superintendent Government Printing, India. (यह ब्रिटिश कालीन गजेटियर Central India State Gazetteer Series, Vol. IV का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो तत्कालीन रीवा रियासत का विस्तृत भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक विवरण अत्यंत प्रामाणिकता और सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत करता है)। 5. Wills, C.U. (1919). "The Raj-Gond Maharajas of the Satpura Hills: A Local History". Nagpur: Government Press. (यह पुस्तक मध्य भारत की अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्तियों, जैसे गोंड राजवंश, और उनके उदय तथा शासन प्रणाली के संदर्भ में बघेलों के साथ तुलनात्मक अध्ययन हेतु उपयोगी हो सकती है)। 6. Sinha, Surajit. (Ed.). (1987). "Tribal Polities and State Systems in Pre-Colonial Eastern and North Eastern India". Calcutta: Centre for Studies in Social Sciences, K.P. Bagchi & Company. (यह संपादित ग्रंथ भारत के विभिन्न भागों में जनजातीय राजनीतिक संरचनाओं और मुख्यधारा के राजपूत तथा अन्य राज्यों के बीच जटिल संबंधों, उनकी राजनीतिक प्रणालियों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर महत्वपूर्ण सैद्धांतिक एवं तुलनात्मक अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है)। 7. Gordon, Stewart. (1993). "The Marathas 1600–1818". Cambridge: Cambridge University Press. (यह पुस्तक The New Cambridge History of India series का एक महत्वपूर्ण भाग है; यह बघेलों की समकालीन और कभी-कभी प्रतिद्वंद्वी प्रमुख शक्ति, मराठों, के उदय, विस्तार और पतन तथा मध्ययुगीन एवं परवर्ती मध्ययुगीन भारत की जटिल और परिवर्तनशील राजनीतिक गतिशीलता के गहन संदर्भ में अत्यंत उपयोगी है)। 8. त्रिपाठी, राम प्रसाद. "हिस्ट्री ऑफ कन्नौज टू द मोस्लेम कॉन्क्वेस्ट"। (यह ग्रंथ उत्तरी भारत की पूर्व-मध्यकालीन और सल्तनत कालीन शक्तियों, उनके राजनीतिक संघर्षों और सांस्कृतिक परिवर्तनों के व्यापक संदर्भ में बघेलों के उदय को समझने में सहायक हो सकता है)। 9. पटेल, डॉ. प्रीति. "बघेलखण्ड का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (प्रारम्भ से सल्तनत काल तक)" (यह किसी विशिष्ट शोध प्रबंध या पुस्तक का उदाहरण हो सकता है, जिसके संबंधित अध्याय बघेलों के प्रारंभिक काल पर प्रकाश डाल सकते हैं)। 10. विभिन्न भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों के इतिहास, पुरातत्व, मानवशास्त्र, समाजशास्त्र और भाषा विज्ञान विभागों द्वारा समय-समय पर प्रकाशित प्रतिष्ठित अकादमिक शोध-पत्र, विशेषज्ञतापूर्ण जर्नल (जैसे Journal of Indian History, The Indian Historical Review, Epigraphia Indica, Man in India, Contributions to Indian Sociology आदि) एवं महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय संगोष्ठियों की कार्यवाहियाँ।
पुरातात्त्विक एवं अभिलेखीय साक्ष्य:
- बांधवगढ़, गहोरा, मरफा, रीवा किला, गुर्गी, देउर कोठार, भरहुत (निकटवर्ती महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल) आदि पुरातात्त्विक स्थलों से प्राप्त विभिन्न कालों के स्थापत्य कला के अवशेष (जैसे किलों की दीवारें, प्रवेश द्वार, महल, मंदिर, स्तूप, विहार, बावड़ियाँ), किलेबंदी के विस्तृत और जटिल निशान, प्राचीन व्यापारिक और सैन्य मार्ग, जल प्रबंधन प्रणालियाँ (जैसे तालाब, नहरें, बांध), विभिन्न देवी-देवताओं की प्रस्तर एवं धातु की मूर्तियाँ (हिन्दू, जैन, बौद्ध परंपराओं से संबंधित), विशिष्ट प्रकार के अलंकृत एवं सादे मृद्भांड, आम लोगों के दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, अस्त्र-शस्त्र, आभूषण, और अन्य महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक तथा ऐतिहासिक पुरावशेष।
- बघेल शासकों द्वारा अपने शासनकाल में समय-समय पर जारी किए गए विभिन्न प्रकार के सिक्के (यदि वे पुरातात्त्विक उत्खनन या निजी संग्रहों में उपलब्ध हों और उनकी पहचान तथा तिथि निर्धारण सुनिश्चित किया जा सके, जो उनकी तत्कालीन आर्थिक स्थिति, व्यापारिक संबंधों और राजनीतिक संप्रभुता का महत्वपूर्ण संकेत देते हैं) और विभिन्न भाषाओं (मुख्यतः संस्कृत, परन्तु बाद के काल में फारसी और हिन्दी का भी व्यापक प्रयोग हुआ) में लिखे गए ताम्रपत्र (जो सामान्यतः भूमि अनुदान, महत्वपूर्ण राजकीय घोषणाओं, संधि-पत्रों, और वंशावलियों से संबंधित होते हैं), शिलालेख (जो मंदिरों की दीवारों, बावड़ियों के घाटों, किलों के प्रवेश द्वारों, विजय स्तंभों और मूर्तियों के आधार पर उत्कीर्ण मिलते हैं), और अन्य महत्वपूर्ण अभिलेखीय तथा पुरालेखीय सामग्री।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान रीवा रियासत से संबंधित विभिन्न प्रशासनिक रिकॉर्ड, पोलिटिकल एजेंटों का पत्राचार, गोपनीय रिपोर्टें, संधियाँ, समझौते, भू-राजस्व बंदोबस्त के विस्तृत दस्तावेज़, रियासत के विभिन्न भागों के मानचित्र और महत्वपूर्ण सर्वेक्षण रिपोर्टें जो भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India), नई दिल्ली एवं मध्य प्रदेश राज्य अभिलेखागार, भोपाल में व्यापक रूप से संरक्षित हैं और शोधकर्ताओं के लिए अध्ययन हेतु उपलब्ध हैं।
निष्कर्ष: बघेल शौर्य और सांस्कृतिक विरासत की अमिट छाप
बघेल राजवंश ने, अपनी स्थापना से लेकर भारतीय संघ में विलय होने तक के लगभग सात शताब्दियों के सुदीर्घ और घटनापूर्ण शासनकाल में, रीवा क्षेत्र के इतिहास, उसकी संस्कृति, उसकी सामाजिक संरचना और उसके राजनीतिक ताने-बाने को एक नवीन, विशिष्ट, स्थायी और गौरवशाली दिशा प्रदान की। पश्चिमी भारत के गुजरात की चुनौतीपूर्ण और प्रतिस्पर्धी राजनीतिक परिस्थितियों से विस्थापित होकर, बघेलों के वीर और दूरदर्शी पूर्वजों, विशेषकर व्याघ्रदेव और उनके प्रारंभिक उत्तराधिकारियों ने, न केवल मध्य भारत की तत्कालीन स्थानीय शक्तियों, जैसे लोध, भर और कोल समुदायों, के साथ प्रारंभिक संघर्षों का सफलतापूर्वक और वीरतापूर्वक सामना किया, बल्कि उन्होंने समय-समय पर उनके साथ आवश्यक सहयोग, रणनीतिक गठजोड़ और राजनीतिक सामंजस्य भी स्थापित किया। उन्होंने गहोरा जैसे अल्पज्ञात स्थान से अपनी राजनीतिक यात्रा का शुभारंभ किया, बंधवगढ़ जैसे प्राकृतिक रूप से अभेद्य और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण दुर्ग को अपनी शक्ति का सुदृढ़ केंद्र बनाया, और अंततः तमसा, बीहर तथा बिछिया नदियों के संगम पर स्थित रीवा नगर को एक सुनियोजित, भव्य और स्थायी राजधानी के रूप में विकसित कर एक ऐसे सुदृढ़, विस्तृत और दीर्घजीवी राज्य की सफलतापूर्वक स्थापना की, जिसने सदियों तक न केवल अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता को अक्षुण्ण बनाए रखा, बल्कि अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान भी निर्मित की। महाराजा रामचंद्र सिंह जैसे प्रतापी, कला-प्रेमी और उदार शासकों के संरक्षण और प्रोत्साहन में, भारतीय संगीत के सम्राट मियाँ तानसेन तथा अपनी प्रखर बुद्धि और हाजिरजवाबी के लिए विख्यात राजा बीरबल जैसी असाधारण राष्ट्रीय विभूतियों के माध्यम से, रीवा की सांस्कृतिक ख्याति, उसकी बौद्धिक प्रतिष्ठा और उसकी कलात्मक उत्कृष्टता भारतीय उपमहाद्वीप में दूर-दूर तक फैली। मुगल साम्राज्य की अपार राजनीतिक और सैन्य शक्ति तथा उसके द्वारा प्रस्तुत निरंतर और गंभीर चुनौतियों का साहसपूर्वक सामना करते हुए, और बाद में ब्रिटिश औपनिवेशिक संरक्षण की जटिल तथा बंधनकारी परिस्थितियों में रहते हुए भी, बघेल शासकों ने अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान, अपनी परंपरागत प्रशासनिक व्यवस्था और अपनी रियासत की आंतरिक स्वायत्तता को काफी हद तक बनाए रखने का प्रशंसनीय और सफल प्रयास किया। आज का आधुनिक और प्रगतिशील रीवा अपने प्राचीन, मध्यकालीन और रियासती काल के गौरवशाली तथा बहुआयामी इतिहास की समृद्ध और अमूल्य धरोहर को अत्यंत गर्व के साथ सहेजे हुए समकालीन विकास और उन्नति की ओर तेजी से अग्रसर है। नवगठित मऊगंज जिला तथा अतरैला, डभौरा जैसे ऐतिहासिक महत्व के क्षेत्र इसी वृहत्तर और अविभाज्य ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण और जीवंत हिस्सा हैं, जो बघेलखंड की समग्र, विविधतापूर्ण और जीवंत पहचान को और अधिक समृद्ध तथा गहराई प्रदान करते हैं। बघेलों का शासनकाल निस्संदेह रीवा के इतिहास का एक स्वर्णिम और प्रेरणादायक अध्याय है, जो उनकी असाधारण राजनीतिक दूरदर्शिता, उनके अदम्य सैन्य कौशल, कला और संस्कृति के प्रति उनके गहरे अनुराग, तथा विषम और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बीच भी अपनी मौलिक अस्मिता और स्वतंत्रता को सफलतापूर्वक बनाए रखने की उनकी अद्भुत क्षमता का एक ज्वलंत, मुखर और मूक साक्षी है। उनकी यह अविस्मरणीय और गौरवशाली गाथा आज भी हमें अपने अतीत से सीखने, वर्तमान को सँवारने, भविष्य के प्रति आशावान रहने और क्षेत्रीय इतिहास के गहन, निष्पक्ष तथा व्यापक अध्ययन के महत्व को समझने की निरंतर प्रेरणा देती है।
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2024 आचार्य आशीष मिश्र (शोध एवं संपादन)। सर्वाधिकार सुरक्षित।
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अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर बघेल राजवंश, रीवा राज्य, तथा मध्यकालीन भारत लेबल देखें।
हमारी विस्तृत लेख श्रृंखला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास"
इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की विभिन्न कड़ियों, राजवंशों के उत्थान-पतन, सांस्कृतिक विकास और ऐतिहासिक महत्व को और गहराई से जानने के लिए हमारी श्रृंखला के इन महत्वपूर्ण लेखों को अवश्य पढ़ें। यह सूची निरंतर अपडेट होती रहेगी जैसे-जैसे नए शोध और लेख प्रकाशित होंगे:
भाग I: बघेलखण्ड का प्राचीन इतिहास: आदिम संस्कृति से राजवंशों के उदय तक
बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य। आदिम संस्कृति से राजवंशों के उत्थान तक – एक गहन पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवांचल का प्राचीन इतिहास: प्रागैतिहासिक संस्कृति, पौराणिक आख्यान और मौर्योत्तर कालीन धरोहर
विंध्य धरा की प्राचीन गाथा: रीवांचल का पुरातात्त्विक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन। प्रागैतिहासिक काल से मौर्योत्तर काल तक। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का प्रारंभिक इतिहास: वनवासी सभ्यता, प्राचीन राजवंश और बहु-सांस्कृतिक विरासत (प्रागैतिहासिक से मौर्योत्तर)
रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत। एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का आरंभिक इतिहास: वनवासी संस्कृतियाँ, प्राचीन राजवंश और बहुआयामी सांस्कृतिक धरोहर
विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम। इस लेख में प्रारंभिक काल की गहन पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव के आगमन से मुगलकालीन रीवा तक का ऐतिहासिक सफर
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव से मुगलकालीन रीवा तक। एक विस्तृत ऐतिहासिक यात्रा एवं सांस्कृतिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का मध्यकालीन उत्कर्ष: बघेल राजवंश का शासन, सांस्कृतिक योगदान और क्षेत्रीय प्रभाव
विंध्य धरा का बघेल गौरव: मध्यकालीन शासन, संस्कृति एवं प्रभाव। बघेल राजवंश का अभ्युदय, शासन, सांस्कृतिक योगदान एवं क्षेत्रीय प्रभाव। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन और सांस्कृतिक संगम
विंध्य की विरासत: बघेल-सेंगर संपर्क और रीवा का सांस्कृतिक ताना-बाना। रीवा का गौरवशाली इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन, और सांस्कृतिक संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग III: रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, मुगलकालीन संबंध और आधुनिकता की ओर
रीवा की गौरवगाथा: बघेल शौर्य, मुगल संपर्क और आधुनिकता का प्रभात। बघेल राजवंश, मुगल संपर्क, और आधुनिकता का संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का परिवर्तन: मुगलकालीन स्वर्ण युग से औपनिवेशिक चुनौतियों और आधुनिक रीवा के निर्माण तक
रीवा: मुगल वैभव से आधुनिकता की ओर – एक ऐतिहासिक यात्रा। बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 1)
रीवा: औपनिवेशिक काल से आधुनिक भारत तक का ऐतिहासिक सफर। बघेल राजवंश, ब्रिटिश संपर्क, स्वतंत्रता संग्राम और समकालीन विकास। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 2)
रियासत के भारतीय संघ में विलय की विस्तृत और निर्णायक कहानी, स्वतंत्रता उपरांत विकास और चुनौतियाँ। (लेबल: प्राचीन रीवा)
सभी लेख देखें: प्राचीन रीवा श्रृंखला
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