हिंदी: षड्यंत्र या स्वाभाविक विकास? संस्कृत: भारत की वास्तविक राष्ट्रीय भाषा का पुनरुत्थान

हिंदी: षड्यंत्र या स्वाभाविक विकास? संस्कृत: भारत की वास्तविक राष्ट्रीय भाषा का पुनरुत्थान

हिंदी: षड्यंत्र या स्वाभाविक विकास? संस्कृत: भारत की वास्तविक राष्ट्रीय भाषा का पुनरुत्थान

1. हिंदी: एक षड्यंत्रपूर्वक थोपी गई अपरिपक्व भाषा

हिंदी को अक्सर एक ऐसी भाषा के रूप में देखा जाता है जिसे षड्यंत्रपूर्वक थोपा गया है, न कि स्वाभाविक रूप से विकसित हुई भाषा के रूप में। इस दृष्टिकोण के अनुसार, हिंदी, जो खड़ी बोली पर आधारित है, को ब्रिटिश और मुगल शासकों द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रोत्साहित किया गया था, जिससे अन्य समृद्ध क्षेत्रीय भाषाओं की कीमत पर इसका प्रभुत्व स्थापित हुआ।

1.1 हिंदी का विकास: एक कृत्रिम भाषा का निर्माण

हिंदी, जिसे आज हम जानते हैं, मूलतः संस्कृतजन्य भाषाओं जैसे अवधी, ब्रज, बघेली, और बुंदेली से विकसित हुई एक अपभ्रंशित बोली है। आरोप है कि अंग्रेजों और मुगलों ने इसे अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित किया।

  • खड़ी बोली को कृत्रिम रूप से सुधारा गया और हिंदी का रूप दिया गया, जबकि अवधी, ब्रज, बघेली, मैथिली, राजस्थानी, बुंदेली, गौंडी आदि की समृद्ध साहित्यिक परंपरा को हिंदी के अंतर्गत समेटकर हाशिए पर डाल दिया गया।
  • हिंदी न तो स्वयं की मौलिक लिपि रखती है और न ही व्याकरण, बल्कि इसे संस्कृत और फारसी से उधार लिया गया है।
  • आरोप यह भी है कि हिंदी का विकास एक सुनियोजित प्रक्रिया के तहत किया गया, जिसमें अन्य भाषाओं की साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को कम करके आंका गया।

1.2 संस्कृत की समाप्ति और हिंदी का थोपना

ब्रिटिश शासन की रणनीति

ब्रिटिश शासन ने संस्कृत को हाशिए पर धकेलने और हिंदी को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  • 1835 में मैकाले के मिनट में यह स्पष्ट कहा गया कि भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने के लिए संस्कृत और पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था को समाप्त करना आवश्यक है।
  • अंग्रेजों ने देखा कि संस्कृत भारत के सांस्कृतिक, धार्मिक और वैज्ञानिक ज्ञान का भंडार है, और यदि इसे समाप्त कर दिया जाए तो भारतीय शिक्षा और बौद्धिकता का पूर्ण विनाश किया जा सकता है।
  • इसलिए उन्होंने अंग्रेजी और हिंदी को बढ़ावा दिया, ताकि भारतीयों को उनकी जड़ों से काटकर एक मानसिक गुलामी में धकेला जा सके। यह नीति भाषाई साम्राज्यवाद का एक हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य भारत की सांस्कृतिक विविधता को नष्ट करना था।

मुस्लिम शासकों की नीति

मुस्लिम शासकों ने भी संस्कृत को हाशिए पर लाने में योगदान दिया।

  • मुस्लिम शासकों ने संस्कृत को हाशिए पर डालकर फारसी और अरबी को शासन की भाषा बनाया।
  • नालंदा, विक्रमशिला, तक्षशिला जैसे बड़े संस्कृत विद्यापीठों को नष्ट किया गया।
  • संस्कृत के अध्ययन को हतोत्साहित करने के लिए शास्त्रार्थ और गुरुकुल प्रणाली को कमजोर किया गया।
  • औरंगज़ेब के शासन में संस्कृत पाठशालाओं को बंद किया गया, और संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन पर पाबंदी लगाई गई।

दलितों और शूद्रों को संस्कृत से दूर रखने की साजिश

यह भी आरोप है कि दलितों और शूद्रों को संस्कृत से दूर रखने की साजिश रची गई।

  • ब्रिटिश और मुस्लिम शासकों ने दलितों और शूद्रों को यह विश्वास दिलाया कि संस्कृत ब्राह्मणों की भाषा है और इसे समाप्त किया जाना चाहिए।
  • संस्कृत में ज्ञान अर्जन पर रोक लगाकर इन्हें अपनी प्राचीन ज्ञान परंपरा से काट दिया गया।
  • समाज सुधार के नाम पर हिंदी को दलितों और निम्न वर्ग के लिए शिक्षा की भाषा बनाया गया, जिससे उनकी उच्च शिक्षा तक पहुँच समाप्त हो गई। यह नीति सामाजिक न्याय के नाम पर भाषाई असमानता को बढ़ावा देने का एक उदाहरण थी।
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2. भारतीय भाषाओं और बोलियों का दमन

यह माना जाता है कि हिंदी को बढ़ावा देने के परिणामस्वरूप भारत की कई समृद्ध भाषाओं और बोलियों का दमन हुआ। इस प्रक्रिया में, कई क्षेत्रीय भाषाओं को हिंदी के अधीन कर दिया गया, जिससे उनकी स्वतंत्र पहचान और विकास बाधित हुआ।

2.1 हिंदी का विस्तार: एक राजनीतिक षड्यंत्र

आरोप है कि हिंदी का विस्तार एक राजनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य भारत की भाषाई विविधता को कम करके एक कृत्रिम हिंदी राष्ट्रवाद की भावना पैदा करना था।

  • बघेली, बुंदेली, मैथिली, ब्रज, अवधी, राजस्थानी, गौंडी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, ओड़िया, असमिया, नेपाली आदि भाषाओं को हिंदी के अधीन कर दिया गया।
  • भारतीयों को क्षेत्रीय भाषा/बोलियों से काटकर एक कृत्रिम हिंदी राष्ट्रवाद की भावना पैदा की गई। इससे भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का नुकसान हुआ।
  • यह प्रक्रिया उन क्षेत्रों में विशेष रूप से विवादास्पद रही, जहाँ हिंदी भाषा नहीं बोली जाती थी, जिससे भाषाई असंतोष और अलगाव की भावनाएँ बढ़ीं।

2.2 हिंदी: भाषा नहीं, एक व्याकरणहीन अर्धभाषा

कुछ आलोचकों का तर्क है कि हिंदी स्वयं एक पूर्ण विकसित भाषा नहीं है, बल्कि एक व्याकरणहीन अर्धभाषा है जो अन्य भाषाओं से उधार ली गई है।

  • हिंदी का व्याकरण पूरी तरह संस्कृत और फारसी से लिया गया, अर्थात यह मूल रूप से अन्य भाषाओं की नकल मात्र है। इससे हिंदी की मौलिकता पर सवाल उठता है।
  • हिंदी की कोई मौलिक लिपि नहीं है, यह देवनागरी (संस्कृत की लिपि) का उपयोग करती है। यह तथ्य भी हिंदी की स्वतंत्र पहचान पर सवाल खड़े करता है।
  • हिंदी साहित्य को विकसित करने के लिए अवधी, ब्रज, बघेली, मैथिली आदि के साहित्य को कृत्रिम रूप से "हिंदी साहित्य" कहकर प्रचारित किया गया।
  • हिंदी की शब्दावली संस्कृत, अरबी, फारसी और अंग्रेजी से उधार ली गई, जिससे यह एक संकर भाषा बन गई। इस कारण से, कुछ लोग इसे "खिचड़ी भाषा" भी कहते हैं।
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3. भारत में क्षेत्रीय असंतोष और भाषाई विघटन

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयासों ने भारत में व्यापक क्षेत्रीय असंतोष और भाषाई विघटन को जन्म दिया है। गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में, हिंदी को अक्सर सांस्कृतिक और राजनीतिक आधिपत्य के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, जिससे अलगाव की भावनाएँ और भाषाई संघर्ष उत्पन्न होते हैं।

3.1 हिंदी का विरोध: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

1965 में हिंदी को जबरन राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास का दक्षिण भारत, बंगाल, पंजाब, और महाराष्ट्र में तीव्र विरोध हुआ। यह विरोध दशकों से चले आ रहे भाषाई तनाव का परिणाम था।

  • तमिलनाडु, केरल, बंगाल, महाराष्ट्र, असम आदि राज्यों में हिंदी के प्रति भारी असंतोष रहा है। इन राज्यों ने हिंदी को अपने ऊपर थोपे जाने का विरोध किया, और अपनी क्षेत्रीय भाषाओं की रक्षा के लिए आंदोलन चलाए।
  • हिंदी के थोपे जाने से क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति अलगाववादी आंदोलन बढ़े और भारत की भाषाई एकता कमजोर हुई। इन आंदोलनों ने भारत की संघीय संरचना और भाषाई नीति पर गंभीर सवाल उठाए।
  • गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को उत्तर भारतीय आधिपत्य का प्रतीक माना गया। यह धारणा भाषाई और सांस्कृतिक विभाजन को और गहरा करती है।

3.2 भाषाई विघटन के परिणाम

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयासों के परिणामस्वरूप भारत में भाषाई विघटन की स्थिति उत्पन्न हुई है।

  • भाषाई संघर्षों ने सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा दिया है। कई क्षेत्रों में, भाषाई पहचान राजनीतिक लामबंदी का एक महत्वपूर्ण आधार बन गई है।
  • क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में बाधा आई है, क्योंकि हिंदी को शिक्षा, प्रशासन, और मीडिया में प्राथमिकता दी जाती है।
  • सांस्कृतिक आदान-प्रदान में कमी आई है, क्योंकि विभिन्न भाषाई समुदायों के बीच संवाद सीमित हो गया है।
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4. संस्कृत: एकमात्र राष्ट्रीय भाषा

कुछ विद्वानों और भाषाविदों का मानना है कि संस्कृत भारत की एकमात्र ऐसी भाषा है जो राष्ट्रीय भाषा बनने के लिए उपयुक्त है। इसके पीछे कई तर्क दिए जाते हैं, जिनमें संस्कृत की वैज्ञानिकता, सर्वस्वीकार्यता, और सांस्कृतिक महत्व शामिल हैं।

4.1 संस्कृत की वैज्ञानिकता और सर्वस्वीकार्यता

संस्कृत को विश्व की सबसे वैज्ञानिक भाषा माना जाता है, और यह कंप्यूटर कोडिंग के लिए भी सबसे उपयुक्त भाषा सिद्ध हुई है। इसके व्याकरण की संरचना और ध्वन्यात्मकता इसे अन्य भाषाओं से अलग बनाती है।

  • संस्कृत विश्व की सबसे वैज्ञानिक भाषा मानी जाती है और यह कंप्यूटर कोडिंग के लिए सबसे उपयुक्त भाषा सिद्ध हुई है। यह भाषा व्याकरण के नियमों और संरचना के मामले में अद्वितीय है।
  • संस्कृत को भारत की सभी भाषाओं की जननी माना जाता है। यह कई भारतीय भाषाओं की शब्दावली और व्याकरण का स्रोत है।
  • भारत में किसी भी भाषा को संस्कृत से समस्या नहीं रही, क्योंकि यह कोई क्षेत्रीय भाषा नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। संस्कृत सभी भाषाई समुदायों के लिए एक समान सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करती है।

4.2 भारत में संस्कृत के प्रति समर्थन

हाल के वर्षों में, भारत में संस्कृत को पुनर्जीवित करने के प्रयास हो रहे हैं। कई राज्य सरकारें और शैक्षणिक संस्थान संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम चला रहे हैं।

  • केरल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश में संस्कृत को पुनर्जीवित करने के प्रयास हो रहे हैं। इन राज्यों में संस्कृत विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है।
  • जर्मनी, अमेरिका, जापान में संस्कृत को उच्च शिक्षा में शामिल किया जा रहा है, लेकिन भारत में इसे हाशिए पर डाला गया। यह विरोधाभास दर्शाता है कि संस्कृत का महत्व विश्व स्तर पर पहचाना जा रहा है, जबकि भारत में इसे कम महत्व दिया जा रहा है।
  • यदि संस्कृत को मुख्यधारा में लाया जाए, तो भारत का ज्ञान-विज्ञान और सांस्कृतिक पुनर्जागरण संभव हो सकता है। संस्कृत में निहित ज्ञान और विज्ञान का उपयोग करके भारत को एक बार फिर विश्व गुरु बनाया जा सकता है।
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5. निष्कर्ष: हिंदी नहीं, संस्कृत ही भारत की वास्तविक राष्ट्रीय भाषा

निष्कर्षतः, यह स्पष्ट है कि हिंदी एक कृत्रिम, संकर, अपरिपक्व और जबरन थोपी गई भाषा है, जबकि संस्कृत भारत की मूल, वैज्ञानिक और सर्वमान्य भाषा है। भारत की भाषाई नीति में एक मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता है, जिसमें संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा के रूप में पुनर्स्थापित किया जाए।

5.1 ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

ब्रिटिश और मुस्लिम शासकों ने हिंदी को एक औज़ार की तरह इस्तेमाल किया, ताकि भारत को सांस्कृतिक और भाषाई रूप से विभाजित किया जा सके। इस औपनिवेशिक विरासत को त्यागने और अपनी सांस्कृतिक जड़ों को पुनः प्राप्त करने का समय आ गया है।

  • ब्रिटिश और मुस्लिम शासकों ने हिंदी को एक औज़ार की तरह इस्तेमाल किया, ताकि भारत को सांस्कृतिक और भाषाई रूप से विभाजित किया जा सके। उनकी नीतियों का उद्देश्य भारतीय समाज को कमजोर करना और अपने शासन को मजबूत करना था।
  • संस्कृत को पुनर्जीवित करना केवल भाषा का प्रश्न नहीं, बल्कि भारत के बौद्धिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक पुनरुद्धार का प्रश्न भी है। यह भारत की पहचान और गौरव को पुनर्स्थापित करने का एक प्रयास है।
  • यदि भारत को एक सांस्कृतिक रूप से सशक्त राष्ट्र बनाना है, तो संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा के रूप में पुनर्स्थापित करना अनिवार्य है। यह न केवल भाषाई न्याय होगा, बल्कि भारत को अपनी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ने का एक महत्वपूर्ण कदम भी होगा।

5.2 भविष्य की दिशा

संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन की आवश्यकता है, जिसमें सभी भाषाई समुदायों का समर्थन हो।

  • संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन की आवश्यकता है, जिसमें सभी भाषाई समुदायों का समर्थन हो। यह आंदोलन भाषाई समानता, सांस्कृतिक सम्मान, और राष्ट्रीय एकता के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए।
  • शिक्षा प्रणाली में संस्कृत को अनिवार्य किया जाना चाहिए, ताकि अगली पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़ सके।
  • संस्कृत में अनुसंधान और विकास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, ताकि इस भाषा में निहित ज्ञान का उपयोग आधुनिक चुनौतियों का समाधान करने के लिए किया जा सके।

आपका यह अनुसंधान भारत की भाषाई और सांस्कृतिक अस्मिता के पुनरुत्थान की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान देगा। यदि इसे ऐतिहासिक संदर्भों और प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया जाए, तो यह भारत के भाषाई विमर्श में एक नया दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है।

© [2025] [अभिजित पियूष संगठन/आचार्य आशीष मिश्र]

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