रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन और सांस्कृतिक संगम

विंध्य की कालातीत धरोहर: रीवा रियासत का उद्भव, संघर्ष और समन्वय – एक ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक सिंहावलोकन

प्रागैतिहासिक काल से औपनिवेशिक युग तक रीवा के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य का गहन अध्ययन। प्रमुख राजवंशों (बघेल, कल्चुरी, चंदेल, सेंगर, लोधी), क्षेत्रीय शक्तियों (मराठा, मुगल) और बाह्य आक्रमणों के प्रभावों का पुरातात्विक, साहित्यिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित विस्तृत विश्लेषण।

रीवा का एक जीवंत बाजार दृश्य, जो शहर की व्यापारिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को दर्शाता है

(चित्र: रीवा का एक बाजार दृश्य, जो इस क्षेत्र की जीवंतता और वाणिज्यिक गतिविधियों का एक पहलू प्रस्तुत करता है।)

शोध एवं संपादन: आचार्य आशीष मिश्र

भारत के हृदयस्थल, मध्य प्रदेश में स्थित रीवा संभाग, विंध्याचल की प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में बसा एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी ऐतिहासिक जड़ें अत्यंत गहरी और बहुआयामी हैं। यह भूमि न केवल अपनी नैसर्गिक सुषमा, घने वनों (जिनमें विश्व प्रसिद्ध सफेद बाघों का मूल निवास भी शामिल है) और कल-कल बहती नदियों (जैसे टोंस, बीहर, महान, सोन और केन) के लिए जानी जाती है, बल्कि यह सहस्राब्दियों से प्रवाहित हो रही भारतीय सभ्यता की एक महत्वपूर्ण और जीवंत धारा की साक्षी भी रही है। रीवा का इतिहास केवल किसी एक राजवंश की गाथा नहीं, अपितु विभिन्न संस्कृतियों, जातियों और शक्तियों के संगम, संघर्ष और समन्वय की एक अनवरत कहानी है। इसकी ऐतिहासिक यात्रा प्रागैतिहासिक काल के धूमिल अतीत से प्रारंभ होती है, जब आदिमानव ने विंध्य की कंदराओं में अपने अस्तित्व के प्रथम चिह्न (शैलचित्रों और पाषाण उपकरणों के रूप में) अंकित किए, जो आज भी कैमूर की पहाड़ियों और सोन नदी घाटी में बिखरे पड़े हैं। कालांतर में, यह भूमि वैदिक ऋचाओं की पवित्र ध्वनि से गुंजायमान हुई, जैसा कि कुछ पौराणिक संदर्भों से अनुमान लगाया जा सकता है, महाजनपद काल की राजनीतिक गहमागहमी का केंद्र बनी (विशेषकर चेदि महाजनपद के प्रभाव क्षेत्र के रूप में), मौर्यों के विशाल साम्राज्य का अंग बनकर बौद्ध धर्म की शांति और करुणा का संदेश सुना (जैसा कि देउरकोठार के स्तूपों से प्रमाणित होता है), गुप्तों के स्वर्णयुग में कला और साहित्य की आभा से आलोकित हुई (बंधवगढ़ की गुप्तकालीन प्रतिमाएँ इसका प्रमाण हैं), और फिर कल्चुरी, चंदेल, प्रतिहार जैसे पराक्रमी राजपूत राजवंशों के उत्थान और पतन का मूक दर्शक बनी, जिन्होंने इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और राजनीतिक संरचना पर अमिट छाप छोड़ी।

13वीं शताब्दी के मध्य में बघेल राजपूतों का इस क्षेत्र में आगमन एक नए युग का सूत्रपात करता है, जिन्होंने आने वाली कई शताब्दियों तक यहाँ शासन किया और अंततः रीवा को अपनी राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित किया। बघेलों का शासनकाल, जो गुजरात के सोलंकी (चालुक्य) वंश से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं, न केवल राजनीतिक स्थिरता और विस्तार का साक्षी रहा, बल्कि इस दौरान कला, साहित्य, संगीत और स्थापत्य को भी भरपूर संरक्षण मिला। इसी भूमि ने संगीत सम्राट तानसेन (मूल नाम रामतनु पाण्डेय) को अपनी प्रारंभिक कर्मस्थली के रूप में देखा, जो रीवा के महाराजा रामचंद्र के दरबार की शोभा थे, और यहीं से वे मुगल सम्राट अकबर के दरबार में गए। अकबर के नवरत्नों में से एक बीरबल (महेश दास) का भी इस क्षेत्र से गहरा संबंध रहा है। तथापि, बघेलों का शासन निष्कंटक नहीं था। उन्हें निरंतर आंतरिक चुनौतियों (जैसे स्थानीय सरदारों, गोंड शासकों और जनजातीय विद्रोहों) और बाह्य आक्रमणों (जैसे दिल्ली सल्तनत के खिलजी और तुगलक शासकों, जौनपुर के शर्की सुल्तानों, मालवा के सुल्तानों, मुगलों, मराठों और पिंडारियों) का सामना करना पड़ा। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन और उसके बाद ब्रिटिश क्राउन के सीधे नियंत्रण ने रीवा की राजनीतिक स्वायत्तता को सीमित कर दिया, यद्यपि रियासत का अस्तित्व बना रहा, और महाराजाओं ने ब्रिटिश संरक्षण में शासन जारी रखा। 1857 के महासंग्राम में रीवा की भूमिका, विशेषकर महाराजा रघुराज सिंह के नेतृत्व में, जटिल और बहुस्तरीय रही, जहाँ उन्होंने ब्रिटिश सत्ता का समर्थन किया, परंतु स्थानीय स्तर पर विद्रोह की चिंगारियाँ भी फूटीं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी इस क्षेत्र में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ और अंततः 1947 में भारत की स्वतंत्रता के पश्चात रीवा रियासत का भारतीय संघ में विलय हो गया, जिसने पहले विंध्य प्रदेश (जिसकी राजधानी रीवा थी) और फिर आधुनिक मध्य प्रदेश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

यह लेख रीवा के इसी सुदीर्घ और घटनापूर्ण इतिहास के विभिन्न पहलुओं, विशेष रूप से बघेल राजवंश के पूर्ववर्ती और समकालीन शक्तियों जैसे सेंगर, कल्चुरी, लोधी, चौहान, चंदेल, मराठा और विभिन्न मुस्लिम आक्रमणकारियों के साथ उनके संबंधों, संघर्षों और समन्वयों का एक गहन ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास करेगा। हम विभिन्न साहित्यिक स्रोतों (जैसे पुराण – विशेषकर स्कंद पुराण का रेवा खंड, महाभारत, रामायण, कालिदास की रचनाएँ, बाणभट्ट का हर्षचरित, कल्हण की राजतरंगिणी, विदेशी यात्रियों के विवरण जैसे फाह्यान और ह्वेनसांग के यात्रा-वृत्तांत, वंशावलियाँ जैसे बघेल वंश वर्णनम्, समकालीन फ़ारसी और संस्कृत ग्रंथ जैसे अकबरनामा, तुजुक-ए-बाबरी), पुरातात्त्विक साक्ष्यों (जैसे अभिलेख – अशोक के शिलालेख, समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति, कल्चुरी अभिलेख, सिक्के, स्मारक, मूर्तियाँ, मृद्भांड, शैलचित्र), और आधुनिक इतिहासकारों (जैसे डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ. राजबली पाण्डेय, डॉ. ए.एल. बाशम, डॉ. आर.सी. मजूमदार, डॉ. रोमिला थापर, डॉ. हीरालाल शुक्ल, प्रो. राधेशरण श्रीवास्तव, जीतन सिंह, वी.वी. मिराशी) के शोध कार्यों का उपयोग करते हुए एक प्रामाणिक और वस्तुनिष्ठ चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। तिथियों और स्थानों को यथासंभव वर्तमान संदर्भों के साथ प्रस्तुत किया जाएगा ताकि पाठक ऐतिहासिक घटनाओं को आज के परिप्रेक्ष्य में समझ सकें।

रीवा का एक जीवंत बाजार दृश्य, जो शहर की व्यापारिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को दर्शाता है

(चित्र: रीवा का एक बाजार दृश्य, जो इस क्षेत्र की जीवंतता और वाणिज्यिक गतिविधियों का एक पहलू प्रस्तुत करता है।)

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1. प्रागैतिहासिक एवं आद्य-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: विंध्य धरा के प्रथम निवासी

रीवा और आस-पास का विंध्य क्षेत्र, अपनी भू-आकृतिक संरचना, प्रचुर जल स्रोतों और घने जंगलों के कारण, मानव सभ्यता के उषाकाल से ही आबाद रहा है। पुरातात्विक अन्वेषणों से इस क्षेत्र में पुरापाषाण काल (Paleolithic Age - लगभग 5,00,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू.), मध्यपाषाण काल (Mesolithic Age - लगभग 10,000 ई.पू. से 4,000 ई.पू.) और नवपाषाण काल (Neolithic Age - लगभग 4,000 ई.पू. से 1,000 ई.पू.) के मानव निवास के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। यह क्षेत्र मानव विकास के विभिन्न चरणों का साक्षी रहा है, जिसके चिह्न आज भी इसकी मिट्टी और शैलाश्रयों में सुरक्षित हैं।

कैमूर श्रृंखला के प्रागैतिहासिक शैलचित्र

(चित्र: कैमूर श्रृंखला के किसी शैलाश्रय में पाए गए प्रागैतिहासिक शैलचित्र का एक प्रतिरूपण, जो आदिमानव की जीवनशैली और कलात्मकता को दर्शाता है।)

पुरापाषाण काल:

सोन नदी घाटी, जो रीवा संभाग से होकर बहती है, और उसकी सहायक नदियाँ जैसे गोपद और बनास, पुरापाषाण कालीन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र रही हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर जी.आर. शर्मा के नेतृत्व में हुए व्यापक अन्वेषणों, तथा जे. डेसमंड क्लार्क और वी.डी. मिश्र जैसे विद्वानों के शोधों से पता चलता है कि यहाँ आदिमानव (संभवतः होमो इरेक्टस और बाद में होमो सेपियन्स के प्रारंभिक रूप) शिकार और खाद्य संग्रहण पर निर्भर थे। उनके द्वारा प्रयुक्त पत्थर के औजार, जैसे भारी-भरकम हस्तकुठार (Hand-axes), विदारक (Cleavers), खंडक (Choppers) और खुरचनी (Scrapers), इस क्षेत्र की विभिन्न नदी-घाटियों की प्राचीनतम बजरी परतों (gravel beds) और सतहों से प्राप्त हुए हैं। ये औजार मुख्यतः क्वार्टजाइट, चेर्ट और जैस्पर जैसे कठोर पत्थरों से बने होते थे और इनकी निर्माण तकनीक समय के साथ विकसित होती गई, जिसे एश्यूलियन (Acheulean) परंपरा के अंतर्गत रखा जाता है। सीहवल (सीधी जिला, मध्य प्रदेश, सोन नदी के किनारे, GPS: 24.54°N, 82.26°E लगभग) और पटपरा जैसे स्थल इस काल के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।

मध्यपाषाण काल:

इस काल में जलवायु अपेक्षाकृत शुष्क और गर्म हुई, जिसके साथ मानव जीवन शैली में भी बदलाव आया। बड़े शिकार की कमी और नए पारिस्थितिक तंत्र के विकास ने मानव को छोटे पशुओं, पक्षियों, मछलियों और कंद-मूल-फलों पर अधिक निर्भर बनाया। इस काल की विशेषता छोटे आकार के पत्थर के उपकरण हैं, जिन्हें माइक्रोलिथ (Microliths) या सूक्ष्म पाषाण उपकरण कहा जाता है। ये ब्लेड, पॉइंट, ट्रेपीज़, ल्यूनेट जैसे विविध आकारों में मिलते हैं और इन्हें लकड़ी या हड्डी के हत्थों में लगाकर複合 औजार (जैसे तीर, भाले, हंसिया) बनाए जाते थे। रीवा के निकट गोविंदगढ़ (जिला रीवा, मध्य प्रदेश, GPS: 24.37°N, 81.30°E), पहाड़गढ़ (जिला मुरैना, मध्य प्रदेश, यद्यपि रीवा से दूर, पर विंध्य-कैमूर क्षेत्र का प्रतिनिधि स्थल), और कैमूर श्रृंखला में स्थित अनेक शैलाश्रय (Rock Shelters) जैसे कि लिखनिया, कोहबर, भलडरिया (मिर्जापुर जिला, उ.प्र. के निकटवर्ती विंध्य क्षेत्र) से मध्यपाषाण कालीन उपकरण और महत्वपूर्ण शैलचित्र प्राप्त हुए हैं। ये शैलचित्र, जो लाल, सफेद, पीले और कभी-कभी काले गेरू से बने हैं, तत्कालीन मानव के सामाजिक, धार्मिक और कलात्मक जीवन की अमूल्य झलक प्रस्तुत करते हैं। इनमें शिकार के रोमांचक दृश्य (जैसे हिरण, भैंसे, हाथी का शिकार), पशु-पक्षी (जैसे मोर, बंदर), नृत्य करते मानव समूह, पारिवारिक जीवन के चित्र और विभिन्न ज्यामितीय आकृतियाँ प्रमुख हैं। ये कलाकृतियाँ उनके सौंदर्य बोध और प्रतीकात्मक सोच को दर्शाती हैं।

नवपाषाण काल एवं ताम्रपाषाण काल:

इस काल में मानव इतिहास में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए – कृषि और पशुपालन का प्रारंभ हुआ, जिससे स्थायी बस्तियों का विकास संभव हुआ। विंध्य क्षेत्र इस संक्रमण काल का एक महत्वपूर्ण साक्षी है। रीवा क्षेत्र में, विशेषकर बेलन नदी घाटी (जो टोंस की सहायक है) में, कोल्डीहवा (वर्तमान में प्रयागराज जिला, उत्तर प्रदेश, GPS: 24.90°N, 82.02°E) और महगड़ा (प्रयागराज जिला, उत्तर प्रदेश) जैसे स्थलों से चावल की खेती के प्राचीनतम साक्ष्यों में से एक (लगभग 6000-5000 ई.पू.) मिले हैं। यद्यपि ये स्थल उत्तर प्रदेश में हैं, पर ये विंध्य क्षेत्र की व्यापक नवपाषाणिक संस्कृति का अभिन्न अंग हैं और रीवा क्षेत्र की कृषि परंपराओं की प्राचीनता की ओर संकेत करते हैं। यहाँ से हस्तनिर्मित और चाक-निर्मित मृद्भांड (Pottery) के विभिन्न प्रकार, पत्थर की पॉलिशदार कुल्हाड़ियाँ (Polished Stone Axes), सिलबट्टे (Saddle Querns), मूसल (Pestles) और अनाज पीसने के अन्य उपकरण भी प्रचुर मात्रा में मिले हैं। पशुपालन के अंतर्गत गाय, बैल, भेड़, बकरी आदि पाले जाते थे, जिनके अस्थि अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों (Chalcolithic Cultures - लगभग 2000 ई.पू. से 700 ई.पू.) के भी कुछ प्रमाण रीवा और आस-पास के क्षेत्रों जैसे ककराहीया (रीवा जिला) से मिलते हैं, जब पत्थर के उपकरणों के साथ-साथ तांबे का भी प्रयोग सीमित मात्रा में होने लगा था। इस काल के लोग चित्रित मृद्भांडों का प्रयोग करते थे और उनकी बस्तियाँ अधिक स्थायी और संगठित होती थीं।

2. पौराणिक एवं महाकाव्य काल में रीवा क्षेत्र

भारतीय वांग्मय के प्राचीनतम ग्रंथ, जैसे पुराण और महाकाव्य (रामायण एवं महाभारत), इस क्षेत्र के प्राचीन गौरव की गाथा कहते हैं। यद्यपि इन विवरणों की शाब्दिक ऐतिहासिकता पर विद्वानों में मतभेद हो सकता है, तथापि ये ग्रंथ इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान को प्राचीन काल से स्थापित करते हैं और स्थानीय लोक परंपराओं में गहराई तक समाहित हैं।

रामायण काल:

महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में भगवान राम के वनवास काल का एक बड़ा हिस्सा दंडकारण्य और विंध्याचल के सघन वनों में व्यतीत होने का वर्णन है। यह क्षेत्र परंपरागत रूप से इसी भौगोलिक इकाई का हिस्सा माना जाता रहा है। लोकमान्यता के अनुसार, बांधवगढ़ (वर्तमान उमरिया जिला, मध्य प्रदेश, GPS: 23.71°N, 81.02°E, जो ऐतिहासिक रूप से बघेलखंड का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है) का प्रसिद्ध किला भगवान राम ने अपने अनुज लक्ष्मण को लंका विजय के उपरांत उपहार में दिया था, ताकि वे लंका पर दृष्टि रख सकें (अतः 'बंधु-गढ़' या 'भाई का किला')। रामायण में वर्णित तमसा (वर्तमान टोंस) नदी, जो रीवा शहर के पास से बहती है, के तट पर ही वाल्मीकि का आश्रम था और यहीं भगवान राम ने वनवास के प्रारंभ में पहली रात्रि व्यतीत की थी। चित्रकूट, जो रीवा से अधिक दूर नहीं है (वर्तमान चित्रकूट जिला, उत्तर प्रदेश और सतना जिला, मध्य प्रदेश में विस्तारित), भगवान राम के वनवास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने 'रामचरितमानस' में भी इन स्थलों का भक्तिपूर्ण वर्णन किया है। यद्यपि इन मान्यताओं का सीधा पुरातात्त्विक प्रमाण मिलना कठिन है, तथापि ये इस क्षेत्र की प्राचीनता और रामायणकालीन सांस्कृतिक परंपराओं से उसके गहरे जुड़ाव को सशक्त रूप से दर्शाती हैं। बांधवगढ़ में गुप्तकालीन और कल्चुरीकालीन मंदिर, गुफाएँ और भव्य प्रतिमाएँ भी मिली हैं, जो इसके निरंतर ऐतिहासिक महत्व को प्रमाणित करती हैं। डॉ. हीरालाल शुक्ल जैसे विद्वानों ने बघेलखंड के लोक साहित्य और परंपराओं में रामकथा के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन किया है।

बांधवगढ़ किले का एक दृश्य

(चित्र: बांधवगढ़ किले का एक विहंगम दृश्य, जो इसकी ऐतिहासिक और रणनीतिक महत्ता को दर्शाता है।)

महाभारत काल और चेदि महाजनपद:

महाभारत में चेदि महाजनपद का प्रमुखता से उल्लेख मिलता है, जिसके पराक्रमी और महत्वाकांक्षी राजा शिशुपाल थे। चेदि राज्य का विस्तार यमुना और नर्मदा नदियों के बीच के भूभाग, विशेषकर वर्तमान बुंदेलखंड और बघेलखंड के हिस्सों में माना जाता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. एच.सी. रायचौधरी ने अपनी कृति "Political History of Ancient India" में और डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने "India as Known to Panini" में चेदि की पहचान आधुनिक बुंदेलखंड क्षेत्र के साथ-साथ बघेलखंड के कुछ हिस्सों से की है। चेदि की राजधानी 'सुक्तिमती' या 'सोत्थिवती नगरी' का उल्लेख महाभारत में है। ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता सर अलेक्जेंडर कनिंघम (जिन्हें भारतीय पुरातत्व का जनक माना जाता है) ने अपनी रिपोर्टों ("Archaeological Survey of India Reports") में सुक्तिमती की पहचान रीवा के निकट स्थित इटहा ग्राम (वर्तमान रीवा जिला, मध्य प्रदेश, GPS: 24.53°N, 81.29°E के आस-पास) से करने का प्रयास किया था, यद्यपि इस पर सभी विद्वान एकमत नहीं हैं। शिशुपाल का भगवान कृष्ण के साथ विद्वेषपूर्ण संबंध और युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उनका वध महाभारत का एक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण प्रसंग है। यह विवरण रीवा क्षेत्र के प्राचीन राजनीतिक महत्व और तत्कालीन भारत के वृहत्तर राजनीतिक परिदृश्य में उसकी सक्रिय भूमिका को दर्शाता है।

पुराणों में उल्लेख:

विभिन्न पुराणों, जैसे स्कंद पुराण (विशेषकर इसका 'रेवा खंड' जो नर्मदा नदी और उसके आस-पास के क्षेत्रों, जिसमें बघेलखंड का दक्षिणी भाग भी आता है, की महिमा का विस्तृत वर्णन करता है), मत्स्य पुराण, वायु पुराण, ब्रह्म पुराण और विष्णु पुराण में इस क्षेत्र की नदियों (जैसे नर्मदा, सोन, टोंस/तमसा, दशार्ण/धसान, केन), पर्वतों (जैसे विंध्याचल, ऋक्ष पर्वत, मेकल पर्वत) और यहाँ शासन करने वाले कुछ प्राचीन राजवंशों (जैसे हैहय, ययाति के वंशज पुरु और यदु के वंशज) का उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, वायु पुराण और मत्स्य पुराण में कारूष और मेकल जनपदों का उल्लेख है, जो बघेलखंड के समीपवर्ती क्षेत्र थे। ये विवरण यद्यपि मुख्यतः पौराणिक और धार्मिक महत्व के हैं, तथापि वे इस क्षेत्र की भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान को अत्यंत प्राचीन काल से स्थापित करते हैं। टोंस (तमसा) नदी का उल्लेख, जैसा कि ऊपर कहा गया, पुराणों और रामायण दोनों में प्रमुखता से मिलता है, और इसे एक पवित्र नदी माना गया है। इन पौराणिक संदर्भों ने इस क्षेत्र की सांस्कृतिक चेतना को गहराई से प्रभावित किया है और अनेक स्थानीय मिथकों और लोक कथाओं को जन्म दिया है।

3. प्रारंभिक ऐतिहासिक काल: मौर्य, शुंग और नागवंश

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गंगा घाटी में हुए बौद्धिक और धार्मिक आंदोलनों के साथ-साथ महाजनपदों के उदय ने भारतीय इतिहास का एक नया अध्याय प्रारंभ किया। इस काल में राजनीतिक संरचनाएँ अधिक सुदृढ़ हुईं और बड़े साम्राज्यों की नींव पड़ी।

मौर्य साम्राज्य (लगभग 322 ई.पू. – 185 ई.पू.):

मगध के नंदों को पराजित कर चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित और उनके पौत्र सम्राट अशोक महान द्वारा विस्तारित मौर्य साम्राज्य ने पहली बार भारतीय उपमहाद्वीप के एक विशाल भूभाग को राजनीतिक एकता के सूत्र में पिरोया। रीवा क्षेत्र निश्चित रूप से मौर्य साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था। इसका सबसे पुष्ट और महत्वपूर्ण प्रमाण देउरकोठार (Deur Kothar) नामक पुरातात्त्विक स्थल से प्राप्त हुआ है, जो सिरमौर तहसील, रीवा जिला, मध्य प्रदेश में स्थित है (GPS: 24.78°N, 81.67°E)। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा किए गए उत्खनन (मुख्य रूप से डॉ. पी.के. मिश्र और उनकी टीम के निर्देशन में 1982 के बाद) से यहाँ लगभग 40 बौद्ध स्तूपों के अवशेष, विहारों की नींव और अशोककालीन ब्राह्मी लिपि में लिखे प्रस्तर अभिलेख मिले हैं। इनमें से मुख्य स्तूप, जो ईंटों से निर्मित है, का व्यास 30 मीटर से भी अधिक है और इसकी ऊंचाई भी काफी रही होगी। यहाँ से प्राप्त स्तंभ लेखों और प्रस्तर पट्टिकाओं पर अशोक की धम्म नीति के अनुरूप संदेश तथा बौद्ध संघ को दिए गए दानों का उल्लेख है। ये अभिलेख भाषा और लिपि की दृष्टि से अशोक के अन्य अभिलेखों से समानता रखते हैं। यह स्थल संभवतः एक महत्वपूर्ण बौद्ध मठ और शिक्षा केंद्र था, जो पाटलिपुत्र (पटना) को कौशाम्बी (प्रयागराज के निकट) और उज्जैन (मालवा) से जोड़ने वाले प्राचीन उत्तरापथ या दक्षिणापथ के एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग पर स्थित था। देउरकोठार से प्राप्त मौर्यकालीन उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड (Northern Black Polished Ware - NBPW) भी इस काल की पुष्टि करते हैं। इस खोज ने रीवा क्षेत्र को मौर्यकालीन मानचित्र पर प्रमुखता से स्थापित किया है।

देउरकोठार स्थित मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप

(चित्र: देउरकोठार के मौर्यकालीन बौद्ध स्तूपों का एक विहंगम दृश्य, जो सम्राट अशोक की धम्म नीति और इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रभाव को दर्शाता है।)

शुंग वंश (लगभग 185 ई.पू. – 73 ई.पू.):

अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या कर उनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने शुंग वंश की स्थापना की। यद्यपि शुंग शासक परंपरागत रूप से वैदिक (ब्राह्मण) धर्म के प्रबल समर्थक माने जाते हैं और बौद्ध ग्रंथों में उन्हें बौद्धों के प्रति असहिष्णु बताया गया है, तथापि इस काल में बौद्ध कला और स्थापत्य का विकास और विस्तार रुका नहीं। प्रसिद्ध भरहुत स्तूप (निकट सतना, मध्य प्रदेश, GPS: 24.36°N, 80.88°E) और सांची के महास्तूप (निकट भोपाल, मध्य प्रदेश) का अलंकरण, वेदिकाएँ और तोरण द्वार शुंग काल की ही देन हैं। रीवा क्षेत्र में शुंगकालीन प्रभाव के प्रत्यक्ष और स्वतंत्र प्रमाण सीमित हैं, लेकिन यह पूर्णतः संभव है कि देउरकोठार जैसे मौर्यकालीन बौद्ध स्थल शुंग काल में भी सक्रिय रहे हों और उन्हें स्थानीय संरक्षण प्राप्त रहा हो। भरहुत की कला शैली का प्रभाव आस-पास के क्षेत्रों में भी देखा जा सकता है।

नागवंशी (लगभग दूसरी से चौथी शताब्दी ईस्वी):

मौर्योत्तर काल में और गुप्तों के उदय से पूर्व मध्य भारत के विभिन्न भागों में नागवंशों का शासन एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा। इनकी कई शाखाएँ थीं, जिनमें पद्मावती (आधुनिक पवाया, ग्वालियर के निकट, मध्य प्रदेश), कांतिपुरी (जिसकी पहचान कुछ विद्वान रीवा जिले के कुठार गाँव से करते हैं, जबकि अन्य इसे मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश के निकट मानते हैं) और मथुरा प्रमुख थीं। रीवा, सतना, पन्ना जिलों और आस-पास के क्षेत्रों से नाग शासकों जैसे गणपतिनाग, नागसेन, भीमनाग, स्कंदनाग, वृहस्पतिनाग आदि के तांबे के सिक्के बड़ी संख्या में मिले हैं। इन सिक्कों पर सामान्यतः वृषभ (नंदी), त्रिशूल, सर्प और शासक के नाम ब्राह्मी लिपि में अंकित मिलते हैं, जो उनके शैव मतानुयायी होने का प्रबल संकेत देते हैं। इलाहाबाद (प्रयागराज) में स्थित समुद्रगुप्त की प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति (लगभग चौथी शताब्दी ईस्वी का मध्य) में उन नौ गणराज्यों और राजाओं का उल्लेख है जिन्हें समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के युद्ध में पराजित किया था, और इनमें 'गणपतिनाग' का नाम प्रमुखता से आता है। इतिहासकार डॉ. के.डी. बाजपेयी ने अपनी पुस्तक "History and Culture of Madhya Pradesh" और अन्य शोधपत्रों में नागों के शासन, उनके द्वारा जारी सिक्कों और उनके सांस्कृतिक योगदान पर विस्तृत प्रकाश डाला है। रीवा क्षेत्र में नागों की उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि यह गुप्तों के उदय से पूर्व एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सांस्कृतिक इकाई था।

एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला

4. गुप्त साम्राज्य और रीवा क्षेत्र (लगभग चौथी से छठी शताब्दी ईस्वी)

गुप्त काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाता है, जब कला, साहित्य, विज्ञान, दर्शन और प्रशासन के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई। चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा स्थापित इस साम्राज्य ने समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य' जैसे पराक्रमी सम्राटों के नेतृत्व में विशाल रूप धारण किया।

रीवा क्षेत्र गुप्त साम्राज्य के अधीन:

समुद्रगुप्त (शासनकाल लगभग 335-380 ई.) की दिग्विजयों, विशेषकर आर्यावर्त के राजाओं पर उनकी विजय (जैसा कि प्रयाग प्रशस्ति में वर्णित है, जिसमें नाग शासक गणपतिनाग का उल्लेख है), के परिणामस्वरूप मध्य भारत का एक बड़ा भूभाग गुप्त साम्राज्य के सीधे नियंत्रण में आ गया। चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (शासनकाल लगभग 380-415 ई.) ने इस साम्राज्य को और सुदृढ़ किया। रीवा और बघेलखंड का क्षेत्र निश्चित रूप से इस विशाल गुप्त साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था। प्रशासनिक दृष्टि से यह क्षेत्र संभवतः 'डाहल मंडल' (जो बाद में कल्चुरियों का केंद्र बना) या किसी अन्य स्थानीय प्रशासनिक इकाई के अंतर्गत रखा गया होगा। गुप्तकालीन अभिलेखों में इस क्षेत्र के स्थानीय प्रशासकों या सामंतों का उल्लेख भी मिलता है।

पुरातात्त्विक साक्ष्य:

बंधवगढ़ (जिला उमरिया, मध्य प्रदेश, GPS: 23.71°N, 81.02°E):

यद्यपि वर्तमान में यह उमरिया जिले में है, ऐतिहासिक रूप से यह बघेलखंड का हृदय स्थल रहा है और रीवा रियासत का महत्वपूर्ण भाग था। यह स्थल गुप्तकालीन कला और स्थापत्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ से गुप्तकालीन (लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी ईस्वी) तराशी हुई गुफाएँ, मंदिरों के विस्तृत अवशेष और अनेक उत्कृष्ट मूर्तियाँ मिली हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध भगवान विष्णु की विशाल शेषशायी प्रतिमा (लगभग 11 मीटर लंबी) है, जो एक ही चट्टान को काटकर बनाई गई है और गुप्त कला की भव्यता और परिष्कार का अद्भुत उदाहरण है। इसके अतिरिक्त, वराह अवतार, मत्स्य अवतार, नरसिंह अवतार और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी गुप्त कला की उत्कृष्टता को दर्शाती हैं। बंधवगढ़ से मघ शासकों (जैसे भीमसेन, पोठसिरी, भट्टदेव) के ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी के अभिलेख भी मिले हैं, जो गुप्तों से पूर्व इस क्षेत्र के राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं और गुप्त काल के लिए एक पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं।

बंधवगढ़ में शेषशायी विष्णु की गुप्तकालीन प्रतिमा

(चित्र: बंधवगढ़ में चट्टान को काटकर बनाई गई शेषशायी विष्णु की भव्य गुप्तकालीन प्रतिमा।)

खोह, भूमरा, नचना-कुठार (निकटवर्ती स्थल):

खोह (सतना जिला, म.प्र., GPS: 24.38°N, 80.75°E), भूमरा (सतना जिला, म.प्र., GPS: 24.30°N, 80.73°E) और नचना-कुठार (पन्ना जिला, म.प्र., GPS: 24.16°N, 80.37°E) जैसे स्थल, यद्यपि सीधे रीवा जिले में नहीं हैं, परन्तु इनकी भौगोलिक निकटता और कला शैली का प्रभाव रीवा क्षेत्र पर भी निश्चित रूप से पड़ा होगा। ये स्थल गुप्तकालीन मंदिर वास्तुकला (विशेषकर नागर शैली के प्रारंभिक चरण) के उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। खोह से प्राप्त गुप्तकालीन अभिलेख (जैसे महाराजा शर्वनाथ और जयनाथ के) इस क्षेत्र की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। भूमरा का शिव मंदिर और नचना का पार्वती मंदिर अपनी संरचनात्मक विशिष्टता और मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध हैं।

देउरकोठार (रीवा जिला):

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, मौर्यकालीन बौद्ध स्तूपों का गुप्त काल में भी जीर्णोद्धार और संवर्धन किया गया होगा, जो गुप्त शासकों की धार्मिक सहिष्णुता और कला के प्रति उनके संरक्षणवादी दृष्टिकोण को दर्शाता है। यहाँ से प्राप्त कुछ मृद्भांड और अन्य पुरावशेष गुप्तकालीन गतिविधियों की ओर संकेत करते हैं।

अन्य स्थल:

रीवा और आस-पास के क्षेत्रों से गुप्तकालीन सिक्के (विशेषकर स्वर्ण सिक्के जिन्हें 'दीनार' कहा जाता था और चांदी के सिक्के) यदा-कदा प्राप्त होते रहे हैं, जो तत्कालीन व्यापारिक समृद्धि और मुद्रा प्रणाली के प्रचलन का सूचक हैं। पिपरिया (सतना जिला) से भी गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष मिले हैं।

सांस्कृतिक प्रभाव:

गुप्त काल में संस्कृत भाषा और साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। कालिदास जैसे महाकवि इसी युग की देन हैं। इस क्षेत्र में भी शैव, वैष्णव और शाक्त संप्रदायों का प्रभाव बढ़ा और अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। गुप्त कला की शास्त्रीयता, संतुलन और आध्यात्मिक सौंदर्यबोध ने भारतीय कला को नई दिशा दी, जिसका प्रभाव परवर्ती राजवंशों की कला पर भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी इस काल में प्रगति हुई, और यह क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा होगा। गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था ने भी स्थानीय शासन प्रणालियों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया।

5. पूर्व-मध्यकाल: कल्चुरी, चंदेल, प्रतिहार और अन्य क्षेत्रीय शक्तियाँ (लगभग 7वीं से 12वीं शताब्दी ईस्वी)

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक विखंडन का दौर आया, जिसमें अनेक क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ। रीवा और बघेलखंड का क्षेत्र इस काल में कई महत्वपूर्ण राजवंशों के प्रभाव क्षेत्र या संघर्ष स्थली के रूप में उभरा, जिनमें कल्चुरी, चंदेल और गुर्जर-प्रतिहार प्रमुख थे।

कल्चुरी (त्रिपुरी शाखा):

उद्भव और विस्तार:

कल्चुरी, जिन्हें हैहयवंशी भी कहा जाता है, एक प्राचीन राजवंश थे जिनकी कई शाखाएँ थीं। इनमें त्रिपुरी (जबलपुर के निकट तेवर, GPS: 23.17°N, 79.80°E) के कल्चुरी सबसे शक्तिशाली और दीर्घजीवी सिद्ध हुए। उनका उदय लगभग 7वीं-8वीं शताब्दी में हुआ और उन्होंने डाहल-मंडल (जिसमें वर्तमान जबलपुर, मंडला, शहडोल, सीधी, सतना और रीवा जिले शामिल थे) पर लगभग 12वीं-13वीं शताब्दी तक शासन किया।

प्रमुख शासक और योगदान:

कोक्कल प्रथम (लगभग 850-890 ई.) इस वंश के प्रारंभिक महत्वपूर्ण शासक थे जिन्होंने राष्ट्रकूटों और चंदेलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए। युवराजदेव प्रथम (लगभग 915-945 ई.) एक महान निर्माता और विद्वानों के आश्रयदाता थे। उनके दरबार में प्रसिद्ध संस्कृत कवि राजशेखर ने कुछ समय व्यतीत किया था। युवराजदेव प्रथम की पत्नी नोहलादेवी ने बिलहरी (कटनी जिला) में एक भव्य शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। लक्ष्मणराज द्वितीय (लगभग 945-970 ई.) एक पराक्रमी शासक थे जिन्होंने बंगाल, गौड़, उड़ीसा और कोसल तक सैन्य अभियान किए। गांगेयदेव विक्रमादित्य (लगभग 1015-1041 ई.) ने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की और कल्चुरी शक्ति को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। उन्होंने चंदेलों, परमारों और पाल शासकों को पराजित किया और अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उनके पुत्र कर्णदेव (लगभग 1041-1073 ई.), जिन्हें 'त्रिकलिंगाधिपति' भी कहा जाता था, इस वंश के सबसे प्रतापी शासक माने जाते हैं। उन्होंने चंदेलों, परमारों, चालुक्यों और चोलों के विरुद्ध युद्ध किए।

रीवा क्षेत्र में कल्चुरी प्रभाव:

रीवा क्षेत्र कल्चुरी साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। गुर्गी-महसांव (गुढ़ तहसील, रीवा जिला, GPS: 24.50°N, 81.52°E के आस-पास) कल्चुरी काल में शैव धर्म, विशेषकर मत्तमयूर शैव संप्रदाय का एक बहुत बड़ा केंद्र था। यहाँ से अनेक विशाल मंदिर, मठों के अवशेष और भव्य शैव प्रतिमाएँ (जैसे नटराज, उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती विवाह, कल्याणसुंदर, अंधकासुर वध) प्राप्त हुई हैं। आचार्य प्रभावशिव और प्रशांतशिव जैसे मत्तमयूर शैव आचार्यों के अभिलेख भी यहाँ से मिले हैं, जो उनके द्वारा मठों और मंदिरों के निर्माण का उल्लेख करते हैं। चन्द्रहे (सीधी जिला, GPS: 24.36°N, 81.80°E), बैजनाथ (सिरमौर तहसील, रीवा जिला), नयागांव (रीवा जिला) और रीवा शहर के भैरवनाथ मंदिर भी कल्चुरीकालीन कला और स्थापत्य के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। वि.वि. मिराशी ने अपनी कालजयी कृति "कॉर्पस इंस्क्रिप्शनम इंडिकारम, खंड IV: इंस्क्रिप्शंस ऑफ द कल्चुरी-चेदि एरा" में कल्चुरी अभिलेखों का विस्तृत संकलन और विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जो इस क्षेत्र के इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

गुर्गी से प्राप्त कल्चुरी कालीन नटराज प्रतिमा का रेखांकन

(चित्र: गुर्गी से प्राप्त कल्चुरी कालीन नटराज शिव की भव्य प्रतिमा का एक सांकेतिक चित्रण, जो उनकी कलात्मक उत्कृष्टता को दर्शाता है।)

पतन:

12वीं शताब्दी के अंत तक चंदेलों, गहड़वालों और परमारों के निरंतर आक्रमणों तथा आंतरिक दुर्बलता के कारण कल्चुरी शक्ति क्षीण हो गई।

चंदेल (जेजाकभुक्ति):

उद्भव और प्रमुख केंद्र:

चंदेलों का उदय 9वीं शताब्दी में जेजाकभुक्ति (वर्तमान बुंदेलखंड) में हुआ। उनकी प्रारंभिक राजधानी खजुराहो (छतरपुर जिला, म.प्र., GPS: 24.85°N, 79.93°E) थी, जो अपने भव्य मंदिरों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। बाद में महोबा (उ.प्र.) और कालिंजर (बांदा जिला, उ.प्र., GPS: 25.01°N, 80.48°E) उनके महत्वपूर्ण सामरिक और राजनीतिक केंद्र बने।

प्रमुख शासक और संघर्ष:

नन्नुक इस वंश के संस्थापक माने जाते हैं। यशोवर्मन (लगभग 925-950 ई.) ने प्रतिहारों से कालिंजर का दुर्ग छीना और खजुराहो में प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया। उनके पुत्र धंगदेव (लगभग 950-1002 ई.) एक अत्यंत शक्तिशाली शासक थे जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित की और कल्चुरियों तथा अन्य पड़ोसी शक्तियों से युद्ध किए। गंडदेव और विद्याधर (लगभग 1017-1029 ई.) भी पराक्रमी शासक थे। विद्याधर ने महमूद गजनवी का सफलतापूर्वक सामना किया और कन्नौज के प्रतिहार शासक राज्यपाल को दंडित किया था।

रीवा क्षेत्र से संबंध:

यद्यपि रीवा क्षेत्र मुख्य रूप से कल्चुरियों के अधीन था, चंदेलों के साथ उनकी सीमाएँ सटी हुई थीं और दोनों के बीच निरंतर संघर्ष और कभी-कभी मैत्रीपूर्ण संबंध भी रहे। कालिंजर का दुर्ग, जो बघेलखंड की उत्तरी सीमा पर स्थित है, सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था और इस पर अधिकार के लिए चंदेलों और कल्चुरियों में कई बार युद्ध हुए। रीवा क्षेत्र में चंदेलकालीन स्वतंत्र स्थापत्य के उदाहरण कम मिलते हैं, लेकिन चंदेल कला शैली का प्रभाव निकटवर्ती क्षेत्रों के माध्यम से यहाँ भी पहुंचा होगा। डॉ. एस.के. मित्रा की पुस्तक "द अर्ली रूलर्स ऑफ खजुराहो" चंदेल इतिहास का एक मानक ग्रंथ है। चंदेलों का पतन 13वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों के कारण हुआ।

गुर्जर-प्रतिहार:

उत्थान और साम्राज्य:

गुर्जर-प्रतिहारों का उदय 8वीं शताब्दी में पश्चिमी भारत में हुआ और उन्होंने शीघ्र ही कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर उत्तरी भारत के एक विशाल भूभाग पर साम्राज्य स्थापित किया। नागभट्ट प्रथम, वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, मिहिर भोज (लगभग 836-885 ई.) और महेंद्रपाल प्रथम (लगभग 885-910 ई.) इस वंश के प्रमुख सम्राट थे। उन्होंने अरब आक्रमणकारियों को सफलतापूर्वक रोका और उत्तर भारत को एक सुदृढ़ राजनीतिक इकाई प्रदान की।

रीवा क्षेत्र पर प्रभाव:

गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की पूर्वी सीमाएँ बघेलखंड और बुंदेलखंड तक विस्तृत थीं। कल्चुरी और चंदेल प्रारंभ में संभवतः उनके सामंत रहे होंगे। मिहिर भोज के ग्वालियर प्रशस्ति जैसे अभिलेख उनके साम्राज्य विस्तार की पुष्टि करते हैं। यद्यपि रीवा क्षेत्र में प्रतिहारों के प्रत्यक्ष शासन के पुरातात्विक प्रमाण सीमित हैं, तथापि इस क्षेत्र पर उनका राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव अवश्य रहा होगा। उत्तर भारत में विकसित हो रही नागर शैली की मंदिर वास्तुकला को प्रतिहारों का भरपूर संरक्षण मिला, जिसका परोक्ष प्रभाव इस क्षेत्र की कला पर भी पड़ा। प्रतिहारों का पतन 10वीं शताब्दी के अंत और 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में राष्ट्रकूटों, पाल शासकों और उनके अपने सामंतों के विद्रोहों के कारण हुआ, जिससे चंदेलों और कल्चुरियों जैसी क्षेत्रीय शक्तियों को स्वतंत्र होने का अवसर मिला।

अन्य क्षेत्रीय शक्तियाँ (सेंगर, लोधी आदि):

इन प्रमुख राजवंशों के अतिरिक्त, इस काल में अनेक स्थानीय क्षत्रिय वंश और सरदार भी सक्रिय थे, जो या तो इन बड़ी शक्तियों के सामंत थे या स्वतंत्र रूप से छोटे-छोटे क्षेत्रों पर अधिकार रखते थे। सेंगर राजपूतों की उपस्थिति यमुना-चंबल घाटी में प्रमुख थी, लेकिन उनकी शाखाएँ पूर्व की ओर भी फैली हो सकती हैं। लोधी कृषक समुदाय से जुड़े हुए थे और समय-समय पर स्थानीय स्तर पर राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। इन छोटी शक्तियों का बघेलों के प्रारंभिक विस्तार के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी, जिनसे उन्हें संघर्ष या समन्वय करना पड़ा। इनके विषय में विस्तृत और सुसंगत जानकारी का अभाव है, और जो भी सूचना मिलती है वह मुख्यतः स्थानीय वंशावलियों या लोक परंपराओं पर आधारित होती है।

तालिका: रीवा क्षेत्र के प्रमुख पूर्व-बघेल राजवंश और संबंधित स्थल/साक्ष्य

राजवंश/काल अनुमानित समय (वर्तमान गणना) प्रमुख शासक/व्यक्तित्व संबंधित महत्वपूर्ण स्थल (वर्तमान पता) प्रमुख पुरातात्त्विक/साहित्यिक साक्ष्य
प्रागैतिहासिक काल ~5 लाख ई.पू. - 1000 ई.पू. अज्ञात आदिमानव समूह गोविंदगढ़ (रीवा), पहाड़गढ़, कैमूर श्रृंखला के शैलाश्रय, सोन-बेलन घाटी (सीहवल, पटपरा, ककराहीया), कोल्डीहवा, महगड़ा (प्रयागराज के निकट) पाषाण उपकरण (हस्तकुठार, माइक्रोलिथ), शैलचित्र (शिकार, नृत्य, पशु), चावल की खेती के प्राचीनतम साक्ष्य, मृद्भांड, पॉलिशदार कुल्हाड़ियाँ
चेदि महाजनपद ~छठी शताब्दी ई.पू. शिशुपाल इटहा (रीवा जिला, म.प्र.) - कनिंघम द्वारा संभावित सुक्तिमती नगरी महाभारत (शिशुपाल वध प्रसंग), अंगुत्तर निकाय, चेतिय जातक, पुरातात्विक सर्वेक्षण से प्राप्त मृद्भांड और प्रारंभिक ऐतिहासिक काल के अवशेष
मौर्य वंश ~322 ई.पू. - 185 ई.पू. चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक महान देउरकोठार (सिरमौर तहसील, रीवा, म.प्र. GPS: 24.78°N, 81.67°E) विशाल बौद्ध स्तूप (लगभग 40), विहार, अशोककालीन ब्राह्मी शिलालेख (स्तंभ और प्रस्तर पट्टिकाएँ), मौर्यकालीन उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड (NBPW), आहत सिक्के
शुंग वंश ~185 ई.पू. - 73 ई.पू. पुष्यमित्र शुंग भरहुत (सतना, म.प्र. - निकटवर्ती), सांची (रायसेन, म.प्र. - निकटवर्ती) भरहुत और सांची स्तूपों का अलंकरण, वेदिका, तोरण द्वार (देउरकोठार में भी शुंगकालीन गतिविधियाँ संभावित), शुंगकालीन मृद्भांड और टेराकोटा
नागवंशी ~दूसरी - चौथी शताब्दी ई. गणपतिनाग, नागसेन, भीमनाग, स्कंदनाग पद्मावती (पवाया, ग्वालियर, म.प्र.), कांतिपुरी (संभावित कुठार, रीवा के निकट या मिर्जापुर, उ.प्र.), मथुरा तांबे के सिक्के (नाग प्रतीक, नंदी, त्रिशूल, शासक का नाम), समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में गणपतिनाग का उल्लेख, पुराणों में नाग राजाओं का वर्णन
गुप्त वंश ~चौथी - छठी शताब्दी ई. समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त II विक्रमादित्य, कुमारगुप्त प्रथम बंधवगढ़ (उमरिया, म.प्र.), खोह, भूमरा, नचना-कुठार (पन्ना/सतना, म.प्र. - निकटवर्ती), देउरकोठार (रीवा), पिपरिया (सतना) स्वर्ण और चांदी के सिक्के, शेषशायी विष्णु प्रतिमा (बंधवगढ़), वराह, मत्स्य अवतार प्रतिमाएँ, गुप्तकालीन गुफाएँ और मंदिर वास्तुकला के प्रारंभिक उदाहरण, अभिलेख (उदा. खोह ताम्रपत्र), बौद्ध स्तूपों का जीर्णोद्धार, गुप्तकालीन मृद्भांड
कल्चुरी (त्रिपुरी शाखा) ~7वीं/8वीं - 12वीं/13वीं शताब्दी ई. कोक्कल प्रथम, युवराजदेव प्रथम, लक्ष्मणराज द्वितीय, गांगेयदेव, कर्णदेव गुर्गी-महसांव (गुढ़ तहसील, रीवा), चन्द्रहे (सीधी, म.प्र.), बैजनाथ (सिरमौर, रीवा), नयागांव (रीवा), त्रिपुरी (तेवर, जबलपुर), बिलहरी (कटनी) शैव मंदिर और मठों के विशाल अवशेष, भव्य शैव प्रतिमाएँ (नटराज, उमा-महेश्वर, कल्याणसुंदर), संस्कृत अभिलेख (प्रभावशिव, प्रशांतशिव का उल्लेख), मत्तमयूर शैव संप्रदाय का केंद्र, सिक्के (गांगेयदेव के), साहित्यिक उल्लेख (राजशेखर की रचनाएँ)
चंदेल ~9वीं - 13वीं शताब्दी ई. नन्नुक, यशोवर्मन, धंगदेव, गंडदेव, विद्याधर, परमर्दिदेव खजुराहो (छतरपुर, म.प्र.), महोबा (उ.प्र.), कालिंजर (बांदा, उ.प्र.), अजयगढ़ (पन्ना, म.प्र.) खजुराहो के विश्वप्रसिद्ध मंदिर, कालिंजर और अजयगढ़ के दुर्ग, चंदेलकालीन मूर्तिकला और स्थापत्य का प्रभाव, अभिलेख, चंदबरदाई का 'पृथ्वीराज रासो' (आल्हा-ऊदल का वर्णन)
गुर्जर-प्रतिहार ~8वीं - 11वीं शताब्दी ई. नागभट्ट प्रथम, वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, मिहिर भोज, महेंद्रपाल प्रथम कन्नौज (उ.प्र. - राजधानी), ग्वालियर (म.प्र. - महत्वपूर्ण केंद्र) उत्तर भारत में विस्तृत साम्राज्य, नागर शैली मंदिर वास्तुकला का विकास, अभिलेख (ग्वालियर प्रशस्ति), अरब लेखकों के विवरण, (रीवा क्षेत्र में अप्रत्यक्ष प्रभाव, संभवतः प्रारंभिक कल्चुरी और चंदेल इनके सामंत थे)
सेंगर, लोधी एवं अन्य स्थानीय सरदार पूर्व-मध्यकाल से बघेलों के आगमन तक स्थानीय प्रमुख विभिन्न छोटे गढ़ और क्षेत्र वंशावलियाँ, लोक परंपराएँ, पुरातात्विक साक्ष्य सीमित

6. बघेल राजवंश का उद्भव और स्थापना

13वीं शताब्दी के मध्य में, जब उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत अपनी जड़ें जमा रही थी और मध्य भारत में कल्चुरी जैसी प्राचीन शक्तियाँ पतन की ओर अग्रसर थीं, विंध्य क्षेत्र के राजनीतिक पटल पर एक नवीन शक्ति का उदय हुआ – बघेल राजपूत। बघेल राजवंश, जिसने आने वाली लगभग सात शताब्दियों तक रीवा और उसके आस-पास के विस्तृत भूभाग, जिसे कालांतर में बघेलखंड के नाम से जाना गया, पर शासन किया, भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान रखता है। इस राजवंश की स्थापना और प्रारंभिक विस्तार संघर्ष, कूटनीति और अनुकूल परिस्थितियों के संयोग का परिणाम था।

उत्पत्ति और प्रवासन:

बघेल राजवंश अपनी उत्पत्ति गुजरात के प्रसिद्ध सोलंकी (चालुक्य) राजपूतों से मानता है, जिनका शासन 10वीं से 13वीं शताब्दी तक गुजरात और काठियावाड़ में रहा। वंशावलियों और पारंपरिक वृत्तांतों के अनुसार, बघेलों के आदि पुरुष व्याघ्रदेव (या बाघराव) थे, जो सोलंकी शासक कुमारपाल (शासनकाल लगभग 1143-1172 ई.) अथवा भीमदेव द्वितीय (शासनकाल लगभग 1178-1240 ई.) के समकालीन और संभवतः उनके सामंत या संबंधी थे। ऐसा माना जाता है कि व्याघ्रदेव ने गुजरात के व्याघ्रपल्ली (या बघेला) नामक स्थान से अपना नाम और वंश का नाम प्राप्त किया, जिसका अर्थ 'बाघ की बस्ती' होता है। डॉ. हीरालाल शुक्ल जैसे इतिहासकारों ने बघेल वंशावलियों का गहन अध्ययन किया है, यद्यपि इन प्रारंभिक वृत्तांतों की ऐतिहासिकता पर पूर्ण सहमति नहीं है। राजनीतिक अस्थिरता, आंतरिक कलह या नए अवसरों की तलाश जैसे विभिन्न कारणों से व्याघ्रदेव के वंशजों ने पूर्व की ओर प्रस्थान किया। यह प्रवासन कई पीढ़ियों तक चला होगा, जिसमें वे विभिन्न स्थानों पर रुकते हुए और अपनी शक्ति संगठित करते हुए आगे बढ़े। उनके प्रवासन का मार्ग संभवतः मालवा और बुंदेलखंड से होकर गुजरा।

बघेलखंड में प्रारंभिक स्थापना:

लगभग 13वीं शताब्दी के मध्य (पारंपरिक तिथि लगभग 1234 ई. या 1237 ई. के आसपास मानी जाती है), बघेलों ने वर्तमान बघेलखंड क्षेत्र में प्रवेश किया। उस समय यह क्षेत्र राजनीतिक रूप से विखंडित था। कल्चुरी शक्ति का लगभग लोप हो चुका था, और चंदेल भी दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों से कमजोर पड़ चुके थे। इस राजनीतिक शून्यता का लाभ उठाते हुए बघेलों ने अपनी स्थिति मजबूत करनी शुरू की। व्याघ्रदेव के वंशज, जिनमें प्रमुख रूप से कर्णदेव (या करण देव), सोहागदेव, और सारंगदेव के नाम वंशावलियों में मिलते हैं, ने स्थानीय भर, गोंड, लोधी और अन्य छोटे राजपूत कुलों को पराजित कर या उनसे मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित कर अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार किया। प्रारंभिक संघर्ष मुख्य रूप से उपजाऊ भूमि और सामरिक महत्व के स्थानों पर नियंत्रण के लिए था।

प्रारंभिक राजधानियाँ और केंद्र:

बघेलों ने अपनी शक्ति का प्रारंभिक केंद्र गहोरा (Gahora) को बनाया। गहोरा की सटीक स्थिति को लेकर विद्वानों में मतभेद है, लेकिन यह सामान्यतः चित्रकूट के निकट, वर्तमान उत्तर प्रदेश के बांदा जिले या मध्य प्रदेश के सतना जिले की सीमा पर स्थित माना जाता है (संभावित GPS: 25.15°N, 80.85°E के आसपास, जो कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश में राजापुर तहसील के निकट पड़ता है)। गहोरा एक सुरक्षित और सामरिक दृष्टि से उपयुक्त स्थान था, जहाँ से वे अपने नव-स्थापित राज्य का संचालन करते थे। गहोरा के किले और अन्य निर्माणों के अवशेष आज भी इस क्षेत्र के महत्व की कहानी कहते हैं।

कालांतर में, बघेलों ने बांधवगढ़ (Bandhavgarh) के सुदृढ़ और ऐतिहासिक दुर्ग पर अधिकार कर लिया, जो उनकी शक्ति का एक प्रमुख केंद्र बना। बांधवगढ़ का किला, जो अपनी नैसर्गिक सुरक्षा और अभेद्यता के लिए प्रसिद्ध था, ने बघेलों को एक सुरक्षित आधार प्रदान किया और उनके राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बांधवगढ़ न केवल एक सैन्य गढ़ था, बल्कि कला और संस्कृति का भी केंद्र बना। 'बघेल वंश वर्णनम्' जैसे ग्रंथों में इन प्रारंभिक राजधानियों और बघेल शासकों की वीरता का उल्लेख मिलता है।

शक्ति का सुदृढ़ीकरण और प्रमुख प्रारंभिक शासक:

गहोरा और बांधवगढ़ को केंद्र बनाकर बघेल शासकों ने धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार किया। इस काल के प्रमुख शासकों में वल्लनदेव (या बल्लारदेव), भीमलदेव (या वीरमदेव), और नरहरिदेव के नाम उल्लेखनीय हैं। इन शासकों ने न केवल पड़ोसी शक्तियों से अपने राज्य की रक्षा की, बल्कि अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को भी सुदृढ़ करने का प्रयास किया। वंशावलियों के अनुसार, भीमलदेव ने दिल्ली सल्तनत के शासकों के समकालीन कुछ स्थानीय मुस्लिम गवर्नरों से भी संघर्ष किया। इन प्रारंभिक शासकों ने उस नींव को मजबूत किया जिस पर आगे चलकर महाराजा रामचंद्र और वीरभद्रदेव जैसे प्रतापी शासकों ने एक विशाल और समृद्ध राज्य का निर्माण किया।

प्रारंभिक बघेल शासकों को निरंतर स्थानीय जनजातियों, विशेषकर गोंडों, से संघर्ष करना पड़ा, जो इस क्षेत्र के मूल निवासी थे और अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध थे। इन संघर्षों के साथ-साथ वैवाहिक संबंधों और समझौतों के माध्यम से भी बघेलों ने अपनी स्थिति को मजबूत किया। इस प्रकार, 13वीं से 15वीं शताब्दी का काल बघेल राजवंश की स्थापना, संघर्ष और क्रमिक सुदृढ़ीकरण का काल था, जिसने उन्हें विंध्य क्षेत्र की एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित किया। उनके द्वारा स्थापित राज्य ही आगे चलकर रीवा रियासत के रूप में विकसित हुआ, जब 17वीं शताब्दी में राजधानी बांधवगढ़ से रीवा स्थानांतरित की गई।

7. दिल्ली सल्तनत और मुगल काल में रीवा

बघेल राजवंश का शासनकाल दिल्ली सल्तनत के विभिन्न वंशों (गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोधी) और फिर शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के उत्थान और पतन का साक्षी रहा। इस लंबी अवधि के दौरान बघेल शासकों के इन केंद्रीय शक्तियों के साथ संबंध जटिल और परिवर्तनशील रहे, जो स्वायत्तता, संघर्ष, सहयोग और अधीनता के विभिन्न चरणों से गुजरे।

दिल्ली सल्तनत काल (13वीं - 16वीं शताब्दी प्रारंभ):

प्रारंभिक संपर्क और संघर्ष:

बघेलों की स्थापना के समय (लगभग 13वीं शताब्दी मध्य) दिल्ली सल्तनत उत्तर भारत में अपनी पकड़ मजबूत कर रही थी। अलाउद्दीन खिलजी (शासनकाल 1296-1316 ई.) के साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षाओं का प्रभाव मध्य भारत पर भी पड़ा। यद्यपि बघेल राज्य सीधे तौर पर खिलजी साम्राज्य का स्थायी अंग नहीं बना, तथापि खिलजी सेनाओं के अभियानों (विशेषकर मलिक काफूर के दक्षिण अभियानों के मार्ग में पड़ने वाले क्षेत्रों) का दबाव इस क्षेत्र ने भी महसूस किया होगा। बघेल वंशावलियों में सल्तनत के स्थानीय गवर्नरों या सैन्य टुकड़ियों के साथ कुछ संघर्षों का उल्लेख मिलता है, जो बघेलों की अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।

तुगलक और परवर्ती सल्तनतें:

मुहम्मद बिन तुगलक (शासनकाल 1325-1351 ई.) और फिरोज शाह तुगलक (शासनकाल 1351-1388 ई.) के काल में भी दिल्ली सल्तनत का प्रभाव मध्य भारत पर बना रहा, यद्यपि केंद्रीय सत्ता की पकड़ हमेशा एक समान नहीं थी। बघेल शासक संभवतः इस काल में अर्ध-स्वतंत्र स्थिति बनाए रखने में सफल रहे, कभी-कभी दिल्ली को सांकेतिक रूप से अधीनता स्वीकार करते हुए या खिराज (Tribute) भेजते हुए।

जौनपुर सल्तनत का प्रभाव:

14वीं शताब्दी के अंत और 15वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के कमजोर पड़ने के साथ ही जौनपुर में शर्की सुल्तानों का उदय हुआ, जिनका प्रभाव पूर्वी उत्तर प्रदेश और बघेलखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों तक फैला। बघेल शासकों को अपनी पूर्वी सीमाओं की सुरक्षा के लिए शर्कियों से भी जूझना पड़ा होगा। इब्राहिम शाह शर्की (शासनकाल 1402-1440 ई.) एक शक्तिशाली शासक था और उसने अपने राज्य का काफी विस्तार किया।

लोधी काल और बघेल शक्ति का विस्तार:

लोधी सल्तनत (1451-1526 ई.) के समय तक बघेल शासक, विशेषकर राजा वीरसिंह देव बघेल (शासनकाल लगभग 1450-1480 ई.) और उनके उत्तराधिकारियों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ़ कर लिया था। उन्होंने कालिंजर जैसे महत्वपूर्ण दुर्ग पर भी समय-समय पर अधिकार बनाए रखा। यह वह काल था जब बघेल राज्य एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभर रहा था।

मुगल काल (16वीं - 18वीं शताब्दी मध्य):

बाबर और हुमायूँ का काल:

1526 में पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोधी को पराजित कर बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली। बाबर के अभियानों का प्रभाव बघेलखंड तक भी पहुंचा। राजा वीरसिंह देव के पुत्र वीरभानु (या वीरभान सिंह बघेल) (शासनकाल लगभग 1500-1540 ई.) बाबर के समकालीन थे। उनके पुत्र माधव द्वारा रचित संस्कृत काव्य 'वीरभानूदय काव्यम्' में वीरभानु के शौर्य और तत्कालीन राजनीतिक घटनाओं का उल्लेख मिलता है, जिसमें बाबर के साथ उनके संबंधों का भी संकेत है। हुमायूँ के शासनकाल (1530-1540 और 1555-1556 ई.) में शेरशाह सूरी के उदय ने मुगल सत्ता को चुनौती दी। शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण किया और यहीं उसकी मृत्यु हुई। बांधवगढ़ का दुर्ग इस दौरान बघेलों के अधीन एक महत्वपूर्ण शक्ति केंद्र बना रहा। हुमायूँ जब शेरशाह से पराजित होकर भाग रहा था, तो कुछ समय के लिए उसे बघेल राजा वीरभानु ने अपने राज्य में शरण दी थी, जिसका उल्लेख मुगलकालीन इतिहासकारों ने भी किया है। यह घटना बघेलों की राजनीतिक दूरदर्शिता और मानवीय मूल्यों को दर्शाती है।

अकबर और महाराजा रामचंद्र:

अकबर (शासनकाल 1556-1605 ई.) के समय बघेल राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था, विशेषकर महाराजा रामचंद्र बघेल (शासनकाल लगभग 1555-1592 ई.) के नेतृत्व में। महाराजा रामचंद्र एक कलाप्रेमी, संगीतज्ञ और न्यायप्रिय शासक के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्हीं के दरबार में संगीत सम्राट तानसेन (रामतनु पाण्डेय) अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। जब अकबर ने तानसेन की ख्याति सुनी, तो उसने जलाल खान कुर्ची को भेजकर तानसेन को अपने दरबार में बुला भेजा। महाराजा रामचंद्र प्रारंभ में हिचकिचाए, परंतु अकबर की बढ़ती शक्ति और राजनीतिक यथार्थ को देखते हुए उन्होंने तानसेन को ससम्मान मुगल दरबार में भेज दिया। यह घटना बघेल-मुगल संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। अकबर ने बांधवगढ़ पर भी सैन्य अभियान भेजे। प्रारंभ में राजा रामचंद्र ने प्रतिरोध किया, परंतु अंततः उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली, यद्यपि उन्हें काफी हद तक आंतरिक स्वायत्तता प्राप्त रही। अकबर के नवरत्नों में से एक बीरबल (महेश दास) का जन्मस्थान और प्रारंभिक जीवन भी इसी क्षेत्र (संभवतः सीधी जिले के घोघरा गाँव) से जुड़ा माना जाता है, और उनके बघेल दरबार से भी संबंध रहे होंगे। टोडरमल ने बांधवगढ़ के मामले में मध्यस्थता भी की थी। अबुल फजल ने 'अकबरनामा' में इन घटनाओं का उल्लेख किया है।

महाराजा रामचंद्र के दरबार में तानसेन (काल्पनिक चित्रण)

(चित्र: महाराजा रामचंद्र के दरबार में संगीत सम्राट तानसेन का एक काल्पनिक चित्रण।)

जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब का काल:

अकबर के उत्तराधिकारियों जहाँगीर (शासनकाल 1605-1627 ई.), शाहजहाँ (शासनकाल 1628-1658 ई.) और औरंगजेब (शासनकाल 1658-1707 ई.) के काल में भी बघेल शासकों ने मुगल आधिपत्य को स्वीकारे रखा, यद्यपि उनकी स्वायत्तता का स्तर समय-समय पर बदलता रहा। महाराजा विक्रमादित्य बघेल (जिन्हें जुझार सिंह बघेल भी कहा जाता है, शासनकाल लगभग 1593-1618 ई., रामचंद्र के पुत्र) ने अकबर के अंतिम वर्षों और जहाँगीर के प्रारंभिक वर्षों में शासन किया। जहाँगीर ने उन्हें बांधवगढ़ का किला लौटा दिया था। उनके पौत्र महाराजा अनूप सिंह (शासनकाल लगभग 1640-1660 ई.) शाहजहाँ और औरंगजेब के समकालीन थे। औरंगजेब के शासनकाल में, जब मुगल साम्राज्य में धार्मिक कट्टरता बढ़ी, तब बघेल राज्य को भी दबाव का सामना करना पड़ा। अनूप सिंह को दक्षिण में मुगल अभियानों में भी भाग लेना पड़ा था। इसी काल में, लगभग 1617-18 ई. के आसपास, राजधानी को बांधवगढ़ की असुरक्षा को देखते हुए सामरिक रूप से अधिक सुरक्षित रीवा (जो पहले से एक महत्वपूर्ण नगर था) में स्थानांतरित कर दिया गया। इसके बाद यह रियासत 'रीवा रियासत' के नाम से ही जानी जाने लगी।

मुगल काल में बघेल राज्य ने एक विशिष्ट पहचान बनाए रखी। वे मुगल दरबार में मनसबदार के रूप में सेवा करते थे, परंतु अपने आंतरिक मामलों में काफी हद तक स्वतंत्र थे। इस काल में कला, साहित्य और संगीत को भी संरक्षण मिलता रहा, यद्यपि मुगल संस्कृति का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।

8. मराठा और पिंडारी आक्रमण एवं रीवा रियासत का संघर्ष

18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही भारत के राजनीतिक परिदृश्य में मराठों का एक शक्तिशाली शक्ति के रूप में उदय हुआ। बघेलखंड क्षेत्र, अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, मराठों के विस्तारवादी अभियानों और बाद में पिंडारियों के विध्वंसकारी आक्रमणों से अछूता नहीं रह सका। यह काल रीवा रियासत के लिए निरंतर संघर्ष और अस्थिरता का काल था।

मराठा शक्ति का उदय और बघेलखंड पर प्रभाव:

प्रारंभिक हस्तक्षेप:

छत्रपति शिवाजी द्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य पेशवाओं के नेतृत्व में उत्तर भारत की ओर बढ़ा। बुंदेलखंड में छत्रसाल बुंदेला के उदय और उनके मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम के साथ संबंधों ने मराठों के लिए मध्य भारत में हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त किया।

नागपुर के भोंसले और सागर के मराठा सूबेदार:

बघेलखंड क्षेत्र मुख्य रूप से नागपुर के भोंसले शासकों और सागर में नियुक्त मराठा सूबेदारों (जैसे गोविंदपंत खेर/बुंदेले) के प्रभाव क्षेत्र में आया। मराठा सेनाएँ नियमित रूप से बघेलखंड और आसपास के क्षेत्रों से 'चौथ' और 'सरदेशमुखी' वसूलने के लिए अभियान करती थीं।

रीवा रियासत पर दबाव:

रीवा के बघेल शासकों, जैसे महाराजा अजीत सिंह (शासनकाल लगभग 1707-1755 ई.) और महाराजा जय सिंह (शासनकाल लगभग 1809-1835 ई., यद्यपि इनका अधिकांश शासनकाल ब्रिटिश संरक्षण में बीता, प्रारंभिक वर्ष मराठा प्रभाव के थे), को निरंतर मराठा दबाव का सामना करना पड़ा। उन्हें कई बार मराठों को भारी धनराशि देनी पड़ी और अपने क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर उनका नियंत्रण भी स्वीकार करना पड़ा। रीवा रियासत की सेनाएँ मराठा सेनाओं की तुलना में कमजोर थीं, और उन्हें अक्सर कूटनीति और समझौतों का सहारा लेना पड़ता था। यह स्थिति रियासत की आर्थिक स्थिति के लिए भी हानिकारक थी। स्थानीय सरदार और जागीरदार भी इस अस्थिरता का लाभ उठाकर केंद्रीय सत्ता को चुनौती देने लगते थे।

पिंडारी आक्रमण:

पिंडारियों का उदय:

पिंडारी मूल रूप से अनियमित सैनिक थे जो 18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में मराठा सेनाओं के सहायक के रूप में कार्य करते थे। मराठा शक्ति के कमजोर पड़ने के साथ वे स्वतंत्र हो गए और मध्य भारत में लूटमार करने लगे। अमीर खान, करीम खान, चीतू और वासिल मोहम्मद जैसे पिंडारी सरदार अपने क्रूर और विध्वंसकारी आक्रमणों के लिए कुख्यात थे।

रीवा पर पिंडारियों का कहर:

रीवा रियासत, अपनी अपेक्षाकृत कमजोर सैन्य स्थिति और भौगोलिक अवस्थिति के कारण, पिंडारियों के लिए एक आसान लक्ष्य बन गई। 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक (विशेषकर 1800-1815 ई. के बीच) पिंडारी आक्रमणों की दृष्टि से अत्यंत विनाशकारी थे। पिंडारियों के दल अचानक गांवों और कस्बों पर हमला करते, लूटपाट करते, फसलें नष्ट कर देते और निवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार करते। इससे क्षेत्र में व्यापक भय और अराजकता फैल गई। महाराजा जय सिंह के शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों में पिंडारियों का आतंक चरम पर था। रीवा का किला भी कई बार खतरे में पड़ा।

आर्थिक और सामाजिक प्रभाव:

पिंडारी आक्रमणों ने रीवा रियासत की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया। कृषि और व्यापार ठप्प हो गए, और आम लोगों का जीवन अत्यंत कठिन हो गया। इस अराजकता ने ब्रिटिश हस्तक्षेप के लिए एक पृष्ठभूमि भी तैयार की।

इस प्रकार, 18वीं और 19वीं शताब्दी का पूर्वार्ध रीवा रियासत के लिए मराठा दबाव और पिंडारी आतंक का काल था। इन बाहरी आक्रमणों ने रियासत को सैन्य और आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया, और अंततः उसे ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा।

9. ब्रिटिश संरक्षण और 1857 का महासंग्राम

19वीं शताब्दी के प्रारंभ में पिंडारी आतंक और आंतरिक अस्थिरता से जूझ रही रीवा रियासत ने, अन्य कई भारतीय रियासतों की भांति, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि कर उसके संरक्षण को स्वीकार किया। यह कदम रियासत की राजनीतिक स्वायत्तता के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था और इसके दूरगामी परिणाम हुए। 1857 के महासंग्राम में रीवा की भूमिका भी उल्लेखनीय और जटिल रही।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि (1812-1813 ई.):

पृष्ठभूमि:

पिंडारियों के निरंतर हमलों और आंतरिक विद्रोहों से त्रस्त होकर रीवा के तत्कालीन महाराजा जय सिंह (शासनकाल 1809-1835 ई.) ने ब्रिटिश संरक्षण की मांग की। ब्रिटिश भी मध्य भारत में अपने प्रभाव का विस्तार करने और पिंडारियों की शक्ति को कुचलने के लिए उत्सुक थे।

संधि की शर्तें:

1812 और 1813 में रीवा रियासत और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संधियाँ हुईं। इन संधियों के तहत, रीवा रियासत ने अपनी विदेश नीति और बाहरी शक्तियों के साथ संबंधों का नियंत्रण कंपनी को सौंप दिया। कंपनी ने रियासत की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करने और आंतरिक शांति बनाए रखने में सहायता करने का वचन दिया। रीवा को एक निश्चित धनराशि या क्षेत्र कंपनी को देना पड़ा और अपने राज्य में एक ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट की नियुक्ति को स्वीकार करना पड़ा। इस संधि ने रीवा को पिंडारी आतंक से तो काफी हद तक मुक्ति दिलाई, परंतु उसकी संप्रभुता को सीमित कर दिया।

ब्रिटिश संरक्षण में रियासत:

संधि के बाद रीवा रियासत में ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट का प्रभाव बढ़ने लगा। यद्यपि महाराजा आंतरिक मामलों में शासक बने रहे, तथापि महत्वपूर्ण प्रशासनिक और राजनीतिक निर्णयों में ब्रिटिश रेजिडेंट की सलाह या सहमति आवश्यक हो गई। अंग्रेजों ने रियासत के प्रशासन, राजस्व व्यवस्था और सैन्य संगठन में सुधार के प्रयास किए, परंतु इनका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश हितों को साधना था। महाराजा विश्वनाथ सिंह (शासनकाल 1835-1854 ई.) ने अंग्रेजों के साथ सामान्यतः सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे।

1857 का महासंग्राम और रीवा की भूमिका:

महाराजा रघुराज सिंह का शासन:

1857 के महासंग्राम के समय रीवा के शासक महाराजा रघुराज सिंह (शासनकाल 1854-1880 ई.) थे। उनका शासनकाल रीवा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण काल माना जाता है।

महाराजा रघुराज सिंह का चित्र

(चित्र: महाराजा रघुराज सिंह, रीवा रियासत।)

ब्रिटिशों का समर्थन:

जब 1857 में उत्तर और मध्य भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध व्यापक विद्रोह भड़का, तो महाराजा रघुराज सिंह ने आधिकारिक तौर पर ब्रिटिशों का साथ दिया। उन्होंने अपनी सेनाएँ ब्रिटिशों की सहायता के लिए भेजीं, विशेषकर नागौद, मैहर और आस-पास के क्षेत्रों में विद्रोही गतिविधियों को दबाने के लिए। उन्होंने कई ब्रिटिश अधिकारियों और उनके परिवारों को अपने राज्य में शरण भी दी। उनकी इस वफादारी के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पुरस्कृत भी किया, जिसमें कुछ परगने और 'स्टार ऑफ इंडिया' जैसी उपाधियाँ शामिल थीं।

जटिल परिस्थितियाँ और स्थानीय विद्रोह:

यद्यपि महाराजा ब्रिटिशों के प्रति वफादार रहे, रीवा रियासत में भी विद्रोह की चिंगारियाँ सुलग रही थीं। कई स्थानीय सरदार और आम जनता ब्रिटिश शासन से असंतुष्ट थे और विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति रखते थे। ठाकुर रणमत सिंह (जो मूलतः मनकेहरी, सतना के थे, पर उनका कार्यक्षेत्र रीवा रियासत की सीमाओं तक फैला था) एक प्रमुख विद्रोही नेता के रूप में उभरे। उन्होंने ब्रिटिश सेनाओं के विरुद्ध कई मुठभेड़ों में भाग लिया और स्थानीय लोगों को संगठित करने का प्रयास किया। महाराजा रघुराज सिंह को इन आंतरिक विद्रोहों को दबाने के लिए भी ब्रिटिशों का सहयोग लेना पड़ा। इस प्रकार, रीवा में 1857 की स्थिति काफी जटिल थी, जहाँ शासक ब्रिटिश समर्थक था, परंतु जनता का एक वर्ग और कुछ सरदार विद्रोही भावना रखते थे। इतिहासकार इस बात पर भी ध्यान आकर्षित करते हैं कि महाराजा रघुराज सिंह की ब्रिटिश भक्ति के पीछे अपने राज्य की सुरक्षा और पड़ोसी विद्रोही शक्तियों (जैसे कुंवर सिंह) से बचाव की मंशा भी हो सकती है।

1857 के बाद, रीवा रियासत पर ब्रिटिश नियंत्रण और भी सुदृढ़ हो गया। भारत सरकार अधिनियम 1858 के तहत भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन के हाथों में चला गया, और रीवा भी ब्रिटिश भारत की एक प्रमुख रियासत बनी रही।

10. औपनिवेशिक काल में सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन

1857 के महासंग्राम के बाद से लेकर भारत की स्वतंत्रता (1947) तक का काल रीवा रियासत के लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के अधीन व्यतीत हुआ। इस दौरान रियासत के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, यद्यपि इनकी गति और स्वरूप अन्य ब्रिटिश शासित प्रांतों की तुलना में भिन्न हो सकता है।

प्रशासनिक सुधार और आधुनिकीकरण:

ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट और बाद में रेजिडेंट के मार्गदर्शन में रियासत के प्रशासन में कुछ आधुनिकीकरण के प्रयास किए गए। राजस्व संग्रह प्रणाली को व्यवस्थित करने, न्याय व्यवस्था में सुधार लाने (जैसे दीवानी और फौजदारी अदालतों की स्थापना) और पुलिस बल को संगठित करने के प्रयास हुए।

महाराजा रघुराज सिंह और उनके उत्तराधिकारी महाराजा व्यंकट रमण सिंह (शासनकाल 1880-1918 ई.) के शासनकाल में इन सुधारों को आगे बढ़ाया गया। व्यंकट रमण सिंह को एक प्रगतिशील शासक माना जाता है, जिन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर ध्यान दिया। रीवा शहर का आधुनिकीकरण, सड़कों का निर्माण, और कुछ सरकारी इमारतों (जैसे प्रसिद्ध व्यंकट भवन) का निर्माण इसी काल में हुआ।

तथापि, ये सुधार काफी हद तक ऊपरी स्तर पर थे और इनका लाभ आम जनता तक सीमित मात्रा में ही पहुँच पाया। रियासत का मूल सामंती ढाँचा काफी हद तक बरकरार रहा।

आर्थिक परिवर्तन:

कृषि:

कृषि रियासत की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार बनी रही। सिंचाई के साधनों का सीमित विकास हुआ, और अधिकांश खेती मानसून पर निर्भर थी। भू-राजस्व की दरें कई बार किसानों के लिए भारी पड़ती थीं।

वन संपदा:

रीवा रियासत अपने घने वनों और वन्यजीवों के लिए प्रसिद्ध थी। सागौन, साल और अन्य कीमती लकड़ियों का व्यापार होता था, जिसका एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश सरकार या ठेकेदारों को जाता था। सफेद बाघों के लिए यह क्षेत्र विश्वविख्यात हुआ, जिनका शिकार भी एक राजसी शौक था।

उद्योग और व्यापार:

आधुनिक उद्योगों का विकास नगण्य रहा। कुछ पारंपरिक कुटीर उद्योग जैसे हथकरघा, मिट्टी के बर्तन आदि चलते रहे, परंतु वे बड़े पैमाने पर उत्पादन या प्रतिस्पर्धा करने में अक्षम थे। व्यापार मुख्यतः कृषि उपजों और वन उत्पादों तक सीमित था। रेलवे लाइनों के विस्तार (जैसे सतना तक रेलवे लाइन का पहुँचना) से व्यापार को कुछ गति मिली, परंतु इसका लाभ मुख्यतः ब्रिटिश वाणिज्यिक हितों को हुआ।

अकाल और गरीबी:

अनियमित वर्षा और पिछड़ी कृषि तकनीकों के कारण अकाल की समस्या बनी रहती थी, जिससे आम जनता को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। गरीबी और बेरोजगारी व्यापक थी।

सामाजिक परिवर्तन:

शिक्षा:

शिक्षा के क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई। महाराजा व्यंकट रमण सिंह ने रीवा में दरबार कॉलेज (जो बाद में ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय बना) की स्थापना की, जो उच्च शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना। स्कूलों की संख्या में भी वृद्धि हुई, परंतु शिक्षा का प्रसार मुख्यतः शहरी क्षेत्रों और उच्च वर्गों तक सीमित रहा। महिला शिक्षा की स्थिति विशेष रूप से पिछड़ी हुई थी।

व्यंकट भवन, रीवा

(चित्र: महाराजा व्यंकट रमण सिंह द्वारा निर्मित व्यंकट भवन, रीवा, औपनिवेशिक काल की वास्तुकला का उदाहरण।)

स्वास्थ्य:

चिकित्सा सुविधाओं का अभाव था। कुछ अस्पताल और डिस्पेंसरियां खोली गईं, परंतु वे अपर्याप्त थीं। महामारियाँ (जैसे प्लेग, हैजा) अक्सर फैलती थीं और बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु का कारण बनती थीं।

समाज सुधार:

समाज में परंपरागत रूढ़ियाँ और कुरीतियाँ (जैसे बाल विवाह, छुआछूत) व्याप्त थीं। समाज सुधार आंदोलनों का प्रभाव इस क्षेत्र में सीमित रहा।

जाति व्यवस्था:

जाति व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ थी और सामाजिक संबंधों को गहरे तक प्रभावित करती थी।

सांस्कृतिक जीवन:

राजसी संरक्षण:

बघेल शासकों ने परंपरागत रूप से कला, साहित्य और संगीत को संरक्षण दिया था, यद्यपि औपनिवेशिक काल में यह संरक्षण पहले जैसा भव्य नहीं रह गया था। फिर भी, स्थानीय संगीत शैलियों (जैसे बघेलखंडी लोक संगीत) और कलाओं को सीमित स्तर पर प्रोत्साहन मिलता रहा।

वास्तुकला:

इस काल में कुछ नई इमारतें बनीं, जिनमें यूरोपीय वास्तुकला का प्रभाव देखा जा सकता है, जैसे व्यंकट भवन और गोविंदगढ़ का किला (जिसे ग्रीष्मकालीन आवास के रूप में विकसित किया गया)।

भाषा और साहित्य:

हिंदी (विशेषकर बघेली बोली) आम जनता की भाषा थी। कुछ स्थानीय कवि और लेखक हुए, परंतु राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले साहित्यकारों का अभाव रहा।

औपनिवेशिक काल में रीवा रियासत ने धीरे-धीरे आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाए, परंतु यह प्रक्रिया धीमी और असमान थी। ब्रिटिश संरक्षण ने बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा तो प्रदान की, परंतु इसने रियासत के आंतरिक विकास को भी अपने हितों के अनुरूप ढाला।

11. स्वतंत्रता संग्राम और रीवा का विलय

20वीं शताब्दी में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की लहर पूरे देश में फैल गई, और रीवा रियासत भी इससे अछूती नहीं रही। यद्यपि रियासतों में स्वतंत्रता आंदोलन का स्वरूप ब्रिटिश शासित प्रांतों से कुछ भिन्न था, तथापि राष्ट्रीय चेतना का संचार यहाँ भी हुआ और अंततः भारत की स्वतंत्रता के पश्चात रीवा रियासत का भारतीय संघ में विलय हो गया।

राष्ट्रीय चेतना का उदय और प्रारंभिक गतिविधियाँ:

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव धीरे-धीरे रीवा रियासत तक भी पहुँचा। समाचार पत्रों, राष्ट्रवादी साहित्य और बाहर से आने वाले नेताओं के माध्यम से लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी।

प्रारंभ में, रियासत के भीतर राजनीतिक गतिविधियाँ सीमित थीं, क्योंकि रियासती शासन किसी भी प्रकार के विरोध को दबाने का प्रयास करता था। छात्रों, वकीलों और कुछ प्रबुद्ध नागरिकों ने छोटे-छोटे समूहों में संगठित होना शुरू किया और सामाजिक सुधार तथा नागरिक अधिकारों की मांग उठाई।

प्रजा मंडल आंदोलन:

रियासतों में स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य स्वरूप प्रजा मंडल आंदोलनों के रूप में सामने आया। इन आंदोलनों का उद्देश्य रियासतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना और नागरिक अधिकारों की प्राप्ति था।

रीवा में भी रीवा राज्य प्रजा मंडल का गठन हुआ, यद्यपि इसे शासकों और ब्रिटिश अधिकारियों के विरोध का सामना करना पड़ा। पं. शम्भूनाथ शुक्ल, कैप्टन अवधेश प्रताप सिंह, यादवेन्द्र सिंह जैसे नेता इस क्षेत्र में सक्रिय रहे। उन्होंने किसानों, मजदूरों और आम जनता की समस्याओं को उठाया और रियासती कुशासन के विरुद्ध आवाज बुलंद की।

1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान रीवा में भी विरोध प्रदर्शन और हड़तालें हुईं, यद्यपि उन्हें सख्ती से दबा दिया गया। कई राष्ट्रवादी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

स्वतंत्रता और रियासतों का विलय:

15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता के साथ ही भारतीय रियासतों के भविष्य का प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया। सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में रियासती मंत्रालय ने रियासतों के भारतीय संघ में विलय की प्रक्रिया प्रारंभ की।

रीवा के तत्कालीन शासक महाराजा मार्तंड सिंह जुदेव (शासनकाल 1946-1995 ई., यद्यपि वास्तविक शासनिक अधिकार 1947 के बाद समाप्त हो गए) ने परिवर्तित राजनीतिक परिस्थितियों को समझा। उन्होंने भारत सरकार के साथ विलय पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसके तहत रक्षा, विदेश मामले और संचार जैसे विषय भारतीय संघ को सौंप दिए गए।

विंध्य प्रदेश का गठन और मध्य प्रदेश में विलय:

प्रारंभ में, बघेलखंड और बुंदेलखंड की 35 छोटी-बड़ी रियासतों को मिलाकर 1948 में विंध्य प्रदेश नामक एक नए राज्य का गठन किया गया। रीवा को इस नए राज्य की राजधानी बनाया गया। महाराजा मार्तंड सिंह कुछ समय के लिए इसके राजप्रमुख भी रहे।

विंध्य प्रदेश 'भाग-ख' राज्य के रूप में भारतीय संघ का हिस्सा बना। यहाँ भी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ प्रारंभ हुईं और विधानसभा के चुनाव हुए।

1 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर विंध्य प्रदेश का विलय तत्कालीन मध्य भारत, भोपाल राज्य और महाकोशल क्षेत्र के कुछ हिस्सों को मिलाकर नए मध्य प्रदेश राज्य में कर दिया गया। इस प्रकार, रीवा रियासत का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया और यह विशाल मध्य प्रदेश का एक महत्वपूर्ण संभाग बन गया।

विलय के बाद, रीवा ने आधुनिक भारत के विकास में अपनी भूमिका निभाई। महाराजा मार्तंड सिंह ने राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाई और सांसद भी रहे। रीवा आज भी अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है।

12. पुरातात्त्विक साक्ष्य और स्मारक: रीवा की धरोहर

रीवा और उसके आस-पास का बघेलखंड क्षेत्र पुरातात्त्विक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर औपनिवेशिक युग तक के विभिन्न कालखंडों के स्मारक, अवशेष और पुरावशेष इस क्षेत्र के गौरवशाली अतीत की कहानी कहते हैं।

प्रागैतिहासिक स्थल:

शैलचित्र और पाषाण उपकरण: कैमूर की पहाड़ियाँ और सोन, टोंस, बीहर नदियों की घाटियाँ पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण कालीन संस्कृतियों के महत्वपूर्ण केंद्र रही हैं। गोविंदगढ़, पहाड़गढ़, लिखनिया, कोहबर जैसे स्थलों पर शैलाश्रयों में गेरू से बने शिकार, नृत्य, पशु-पक्षियों और ज्यामितीय आकृतियों के सुंदर शैलचित्र मिलते हैं। विभिन्न स्थलों से पत्थर के औजार (हस्तकुठार, माइक्रोलिथ, पॉलिशदार कुल्हाड़ियाँ) भी प्राप्त हुए हैं।

मौर्यकालीन अवशेष:

देउरकोठार (सिरमौर तहसील, रीवा): यह रीवा का सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थल है। यहाँ से लगभग 40 बौद्ध स्तूपों के अवशेष, विहारों की नींव और अशोककालीन ब्राह्मी लिपि में लिखे प्रस्तर अभिलेख मिले हैं, जो इस क्षेत्र के मौर्यकालीन महत्व को प्रमाणित करते हैं। यह स्थल प्राचीन व्यापारिक मार्ग पर स्थित एक प्रमुख बौद्ध केंद्र था।

गुप्तकालीन एवं पूर्व-मध्यकालीन कला:

बंधवगढ़ (उमरिया जिला, ऐतिहासिक बघेलखंड): गुप्तकालीन शेषशायी विष्णु की विशाल प्रतिमा, वराह और मत्स्य अवतार की मूर्तियाँ, और गुप्तकालीन गुफाएँ यहाँ की प्रमुख धरोहर हैं। बाद में यह कल्चुरी और बघेल शासकों का भी महत्वपूर्ण केंद्र रहा, और किले के भीतर अनेक मंदिर और जलाशय विद्यमान हैं।

गुर्गी-महसांव (गुढ़ तहसील, रीवा): यह कल्चुरी काल में मत्तमयूर शैव संप्रदाय का एक विशाल केंद्र था। यहाँ से अनेक मंदिरों के भग्नावशेष, विशाल शैव प्रतिमाएँ (नटराज, उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती विवाह, अंधकासुर वध), और शैव आचार्यों के अभिलेख प्राप्त हुए हैं। यह स्थल कल्चुरी कला और शैव धर्म के अध्ययन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

चन्द्रहे (सीधी जिला), बैजनाथ (सिरमौर, रीवा), नयागांव (रीवा): ये स्थल भी कल्चुरीकालीन मंदिरों और मूर्तियों के लिए जाने जाते हैं।

बघेलकालीन स्थापत्य:

रीवा का किला: टोंस और बीहर नदियों के संगम के निकट स्थित यह किला बघेलों की राजधानी रीवा का प्रमुख केंद्र था। यद्यपि इसका निर्माण और विस्तार कई चरणों में हुआ, वर्तमान स्वरूप मुख्यतः 17वीं शताब्दी और उसके बाद का है। किले के भीतर शाही महल, दरबार हॉल, मंदिर और अन्य संरचनाएँ हैं, जिनमें बघेल वास्तुकला की झलक मिलती है।

रीवा का किला

(चित्र: रीवा किले का एक दृश्य, बघेल स्थापत्य का उदाहरण।)

गोविंदगढ़ का किला और झील (रीवा से लगभग 13 किमी): इसे बघेल महाराजाओं के ग्रीष्मकालीन आवास के रूप में विकसित किया गया था। झील के किनारे बना यह किला और उसके आस-पास का सुंदर परिदृश्य दर्शनीय है। यहीं पर विश्व का पहला जीवित सफेद बाघ 'मोहन' पकड़ा गया था।

व्यंकट भवन (रीवा शहर): महाराजा व्यंकट रमण सिंह द्वारा निर्मित यह भव्य इमारत यूरोपीय और भारतीय वास्तुकला का सुंदर मिश्रण प्रस्तुत करती है। यह रीवा के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है।

अन्य स्मारक: बघेल काल में अनेक मंदिरों, तालाबों और बावलियों का निर्माण करवाया गया, जो आज भी रियासत के विभिन्न भागों में देखे जा सकते हैं। लक्ष्मण बाग परिसर (रीवा) में अनेक मंदिर हैं।

संग्रहालय:

रीवा पुरातत्व संग्रहालय: यहाँ इस क्षेत्र से प्राप्त पुरावशेषों, मूर्तियों, सिक्कों और अभिलेखों का संग्रह है, जो शोधकर्ताओं और इतिहास प्रेमियों के लिए महत्वपूर्ण है।

ये पुरातात्त्विक स्थल और स्मारक रीवा की समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के जीवंत प्रमाण हैं। इनके संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपने गौरवशाली अतीत से परिचित हो सकें।

13. साहित्यिक स्रोत और वंशावलियाँ

रीवा रियासत और बघेलखंड क्षेत्र के इतिहास के पुनर्निर्माण में साहित्यिक स्रोतों और वंशावलियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये स्रोत न केवल राजनीतिक घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं, बल्कि तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन की भी झलक प्रस्तुत करते हैं।

प्राचीन भारतीय साहित्य:

पुराण और महाकाव्य: जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, रामायण (तमसा नदी, चित्रकूट, बांधवगढ़ के संदर्भ), महाभारत (चेदि महाजनपद), और विभिन्न पुराण (स्कंद पुराण का 'रेवा खंड', वायु पुराण, मत्स्य पुराण) इस क्षेत्र की प्राचीनता और पौराणिक मान्यताओं से इसके जुड़ाव को दर्शाते हैं।

बौद्ध और जैन ग्रंथ: बौद्ध ग्रंथ 'अंगुत्तर निकाय' में सोलह महाजनपदों की सूची में चेदि महाजनपद का उल्लेख मिलता है, जिसका प्रभाव क्षेत्र बघेलखंड तक विस्तृत था। इसी प्रकार, जैन ग्रंथों में भी इस क्षेत्र से संबंधित कुछ संदर्भ मिल सकते हैं, विशेषकर व्यापारिक मार्गों और प्रारंभिक बस्तियों के संबंध में।

संस्कृत काव्य और ऐतिहासिक ग्रंथ:

'वीरभानूदय काव्यम्': बघेल राजकुमार माधव द्वारा 16वीं शताब्दी में रचित यह संस्कृत महाकाव्य, उनके पिता और तत्कालीन बघेल शासक वीरभानु (या वीरभान सिंह) के जीवन और शौर्य का विस्तृत वर्णन करता है। इसमें बाबर और हुमायूँ के साथ बघेलों के संबंधों, शेरशाह सूरी के उदय और तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल का जीवंत चित्रण मिलता है। यह बघेल इतिहास के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण समकालीन स्रोत है।

'बघेल वंश वर्णनम्': यह ग्रंथ बघेल राजवंश की वंशावली और उनके प्रमुख शासकों की उपलब्धियों का विवरण प्रस्तुत करता है। यद्यपि इसमें अतिशयोक्ति और पौराणिक तत्वों का समावेश हो सकता है, तथापि यह राजवंश की उत्पत्ति, प्रवासन और प्रारंभिक स्थापना के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। इसकी कई पांडुलिपियाँ उपलब्ध हैं।

कल्चुरी और चंदेल अभिलेख: यद्यपि ये सीधे बघेलों से संबंधित नहीं हैं, तथापि इन राजवंशों के संस्कृत में लिखे अभिलेख (जैसे गुर्गी और चन्द्रहे से प्राप्त कल्चुरी अभिलेख) बघेलों के आगमन से पूर्व इस क्षेत्र की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। इनमें तत्कालीन शैव आचार्यों, मठों और मंदिरों के निर्माण का उल्लेख मिलता है।

फारसी तवारीखें (मुगलकालीन इतिहास ग्रंथ):

'अकबरनामा' और 'आइन-ए-अकबरी' (अबुल फजल): इन ग्रंथों में मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल की घटनाओं का विस्तृत वर्णन है, जिसमें बघेल शासक महाराजा रामचंद्र, संगीत सम्राट तानसेन के मुगल दरबार में आगमन, और बांधवगढ़ के मुगल अभियानों का उल्लेख मिलता है। ये ग्रंथ बघेल-मुगल संबंधों को समझने के लिए प्राथमिक स्रोत हैं।

'तुजुक-ए-जहाँगीरी' (जहाँगीर की आत्मकथा): इसमें जहाँगीर के शासनकाल की घटनाओं का वर्णन है, जिसमें बघेल रियासत से संबंधित कुछ संदर्भ मिल सकते हैं।

अन्य मुगलकालीन इतिहासकारों जैसे बदायूँनी, निज़ामुद्दीन अहमद की रचनाओं में भी यदा-कदा बघेलखंड क्षेत्र या यहाँ के शासकों का उल्लेख मिलता है।

स्थानीय वंशावलियाँ, ख्यात और लोक साहित्य:

बघेल राजवंश की विस्तृत वंशावलियाँ (Genealogies) स्थानीय भाटों और चारणों द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रखी गईं। यद्यपि इनमें ऐतिहासिक सटीकता का अभाव हो सकता है, तथापि ये शासकों के क्रम, उनके शासनकाल की अनुमानित अवधि और कुछ प्रमुख घटनाओं के बारे में महत्वपूर्ण संकेत प्रदान करती हैं।

बघेलखंड क्षेत्र का लोक साहित्य, जिसमें लोकगीत, लोकगाथाएँ (जैसे आल्हा-ऊदल की कथाओं का स्थानीय रूपांतरण), और किंवदंतियाँ शामिल हैं, भी ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तित्वों की धुंधली स्मृतियाँ सँजोए हुए हैं। ये तत्कालीन सामाजिक मूल्यों, विश्वासों और जनमानस की भावनाओं को समझने में सहायक हो सकते हैं।

रामचरितमानस और संत साहित्य:

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस' (रचना काल लगभग 1574 ई., अकबर और महाराजा रामचंद्र के समकालीन) यद्यपि एक धार्मिक महाकाव्य है, तथापि यह तत्कालीन उत्तर भारत और मध्य भारत के सामाजिक-धार्मिक परिदृश्य को दर्शाता है। तुलसीदास का अधिकांश जीवन चित्रकूट के आस-पास व्यतीत हुआ, जो बघेलखंड के निकट है। उनके काव्य का इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना पर गहरा प्रभाव पड़ा।

कबीर (15वीं शताब्दी) और अन्य भक्तिकालीन संतों की वाणियों और शिक्षाओं का प्रभाव भी बघेलखंड सहित मध्य भारत में व्यापक था। ये संत सामाजिक समानता और आडंबरहीन भक्ति का संदेश देते थे, जिसका स्थानीय जनजीवन पर प्रभाव पड़ा होगा।

ब्रिटिशकालीन रिपोर्टें, गजेटियर और यात्रा वृत्तांत:

19वीं और 20वीं शताब्दी में ब्रिटिश अधिकारियों, सर्वेक्षकों और विद्वानों द्वारा तैयार की गई रिपोर्टें, जिला गजेटियर (जैसे 'रीवा स्टेट गजेटियर') और यात्रा वृत्तांत इस क्षेत्र के तत्कालीन इतिहास, भूगोल, समाज और अर्थव्यवस्था के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। अलेक्जेंडर कनिंघम की 'आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट्स' में इस क्षेत्र के कई पुरातात्त्विक स्थलों का प्रारंभिक सर्वेक्षण और विवरण मिलता है।

इन साहित्यिक स्रोतों का समालोचनात्मक अध्ययन और पुरातात्त्विक साक्ष्यों के साथ उनका मिलान करके ही रीवा रियासत और बघेलखंड के इतिहास का एक संतुलित और प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत किया जा सकता है।

14. निष्कर्ष: समन्वय और निरंतरता की गाथा

रीवा और बघेलखंड का इतिहास, प्रागैतिहासिक काल की धूमिल गहराइयों से लेकर आधुनिक भारत के उदय तक, एक असाधारण और बहुआयामी यात्रा का साक्षी है। विंध्य की इन कालातीत उपत्यकाओं ने मानव सभ्यता के प्रत्येक चरण को न केवल देखा है, बल्कि उसे आत्मसात भी किया है। आदिमानव के शैलाश्रयों से लेकर मौर्यकालीन बौद्ध स्तूपों तक, कल्चुरीकालीन भव्य शैव मंदिरों से लेकर बघेलकालीन किलों और महलों तक, यह भूमि विभिन्न संस्कृतियों, राजवंशों और विचारधाराओं के संगम, संघर्ष और अंततः समन्वय की एक जीवंत प्रयोगशाला रही है।

बघेल राजवंश, जो लगभग सात शताब्दियों तक इस क्षेत्र का भाग्य विधाता रहा, ने न केवल राजनीतिक स्थिरता प्रदान की, बल्कि कला, साहित्य और संगीत को भी उदारतापूर्वक संरक्षण दिया। महाराजा रामचंद्र के दरबार में तानसेन का होना इस रियासत की सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है। तथापि, बघेलों का शासन निष्कंटक नहीं था। उन्हें दिल्ली सल्तनत, मुगल साम्राज्य, मराठों और पिंडारियों जैसे शक्तिशाली बाह्य आक्रमणों का निरंतर सामना करना पड़ा, जिससे उनकी राजनीतिक स्वायत्तता और आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई। इन चुनौतियों के बावजूद, उन्होंने अपनी पहचान और सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने का अथक प्रयास किया।

1857 के महासंग्राम में रीवा की भूमिका जटिल रही, जो तत्कालीन भारतीय रियासतों की दुविधाओं को प्रतिबिंबित करती है। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में, रियासत ने आधुनिकता की ओर कदम तो बढ़ाए, परंतु यह परिवर्तन बाहरी नियंत्रण और औपनिवेशिक हितों से निर्देशित था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ और अंततः रीवा रियासत का भारतीय संघ में विलय हो गया, जिसने आधुनिक मध्य प्रदेश के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

पुरातात्त्विक धरोहर की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत समृद्ध है। देउरकोठार के अशोककालीन स्तूप, गुर्गी-महसांव के कल्चुरीकालीन मंदिर और बंधवगढ़ की गुप्तकालीन प्रतिमाएँ भारतीय कला और स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ये स्मारक न केवल अतीत के गौरव का बखान करते हैं, बल्कि शोधकर्ताओं और इतिहासकारों के लिए ज्ञान के अमूल्य स्रोत भी हैं। साहित्यिक स्रोत, चाहे वे संस्कृत काव्य हों, फारसी तवारीखें हों या स्थानीय वंशावलियाँ, इस क्षेत्र के इतिहास के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं।

अंततः, रीवा का इतिहास केवल राजाओं और युद्धों की कहानी नहीं है, बल्कि यह विभिन्न जातियों, समुदायों और संस्कृतियों के बीच निरंतर संवाद और सह-अस्तित्व की गाथा भी है। यह विंध्य की उस कालातीत धरोहर का प्रतीक है जो आज भी अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जीवंतता के साथ विद्यमान है, और हमें अपने अतीत को समझने तथा भविष्य को सँवारने की प्रेरणा देती है। इस क्षेत्र के गहन और बहुआयामी अध्ययन की आज भी महती आवश्यकता है ताकि इसकी अनकही कहानियों को प्रकाश में लाया जा सके और इसकी विरासत को भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित किया जा सके।

15. संदर्भ ग्रंथ सूची (उदाहरण)

रीवा रियासत और बघेलखंड के इतिहास के गहन अध्ययन के लिए निम्नलिखित संदर्भ ग्रंथ एवं स्रोत महत्वपूर्ण हो सकते हैं। यह एक सांकेतिक सूची है और विस्तृत शोध के लिए प्रत्येक तथ्य का विशिष्ट संदर्भ आवश्यक होगा।

/* --- प्रमुख संदर्भ ग्रंथ (सांकेतिक सूची) --- */
1.  अग्रवाल, वासुदेव शरण. "इंडिया एज नोन टू पाणिनि". लखनऊ: लखनऊ विश्वविद्यालय, 1953.
2.  अबुल फजल. "अकबरनामा". (अनु. एच. बेवरिज). कोलकाता: एशियाटिक सोसाइटी.
3.  कनिंघम, अलेक्जेंडर. "आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट्स". (विभिन्न खंड).
4.  शुक्ल, हीरालाल. "बघेल वंश वर्णनम्: एक अध्ययन". भोपाल: मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी.
5.  शुक्ल, हीरालाल. "मध्यप्रदेश का इतिहास एवं संस्कृति".
6.  पाण्डेय, राजबली. "विक्रमादित्य ऑफ उज्जयिनी". बनारस: शताब्दी समारोह समिति, 1960.
7.  बाजपेयी, के.डी. "हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ मध्य प्रदेश". अहमदाबाद: प्रकाशन गृह, 1984.
8.  मिराशी, वासुदेव विष्णु. "कॉर्पस इंस्क्रिप्शनम इंडिकारम, खंड IV: इंस्क्रिप्शंस ऑफ द कल्चुरी-चेदि एरा". ऊटाकामुंड: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, 1955.
9.  मित्रा, एस.के. "द अर्ली रूलर्स ऑफ खजुराहो". कलकत्ता: फर्मा के.एल. मुखोपाध्याय, 1958.
10. रायचौधरी, हेमचंद्र. "पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एंशिएंट इंडिया". कलकत्ता: कलकत्ता विश्वविद्यालय, (विभिन्न संस्करण).
11. सिंह, जीतन. "रीवा का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास". (अप्रकाशित शोध प्रबंध या स्थानीय प्रकाशन).
12. श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "बघेलखंड का इतिहास".
13. तिवारी, शंकर. "मध्य प्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रंथ". भोपाल: मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी.
14. माधव. "वीरभानूदय काव्यम्". (संपादित और अनूदित).
15. विभिन्न जिला गजेटियर (रीवा, सतना, सीधी, शहडोल, उमरिया).
16. जर्नल ऑफ द एपिग्राफिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया, इंडियन आर्कियोलॉजी - ए रिव्यू, और अन्य संबंधित शोध पत्रिकाएँ।

इस प्रकार, यह लेख रीवा रियासत के उद्भव, संघर्ष और समन्वय की ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक यात्रा का एक सिंहावलोकन प्रस्तुत करने का प्रयास करता है, जो प्रागैतिहासिक काल से लेकर औपनिवेशिक युग और उसके बाद तक फैला हुआ है।

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यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।

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अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर रीवा रियासत, बघेलखंड इतिहास, तथा प्राचीन भारत लेबल देखें।

© रीवा का अतीत, भारत का गौरव। अन्वेषण जारी रखें।अभिजित पियूष संगठन की ओर से आचार्य आशीष मिश्र।

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