अतिथि शिक्षकों के अंतहीन संघर्ष और स्थायीकरण की अधूरी आस पर
- आचार्य आशीष मिश्रकविता पाठ:
एक "स्थायी" जब भी आता, अतिथि बाहर द्वार है,
ये व्यवस्था किस क़दर की, सोचकर धिक्कार है!
"अनुबंध" तो शब्द ही झूठा, छलावा एक जाल है,
जब चाहा तुमने निकाला, हर घड़ी हड़ताल है!
पोटली में ज्ञान लेकर, दर-ब-दर हम घूमते,
और तुम्हारे ही इशारों पर, यहाँ नित हम झूमते!
जो बने थे भाग्य-विधाता, वे ही अब यमराज हैं,
न्याय की उम्मीद किससे, जब वही सरताज हैं!
खून-पसीना एक करके, सींचते जब हम चमन,
एक झटके में उजाड़ा, कैसा ये निर्मम दमन!
"शिक्षक भर्ती में पचास प्रतिशत," वो भी एक मज़ाक है,
असलियत में तो हमारे, ज़ख्म पर ये ख़ाक है!
महापंचायत के वो वादे, याद हैं या भूल गए?
आँसुओं से लिखे खत भी, धूल में क्या घुल गए?
सड़कों पर उतरे तो लाठी, घर में बस बेबसी मिली,
अब तो लड़ने के सिवा, कोई राह न हमें भली मिली!
हर सुबह ये डर सताता, आज बच पाएँगे क्या?
या किसी के एक हुकुम पर, फिर हटाए जाएँगे क्या?
पेट पर लातों का मंज़र, रोज़ ही हम देखते,
और तुम महलों में बैठे, बस हुकुम ही फेंकते!
ये जो चुप्पी साध बैठे, बुद्धिजीवी हर शहर,
क्या तुम्हारी भी ज़मीरों पर, जम गया है कोई क़हर?
अब न कोई रहम की आशा, ना कोई गुहार है,
अतिथि के इस सीने में अब, बस धधकता अंगार है!
ये जो सड़कों पर उतरकर, हक़ की हम आवाज़ देते हैं,
जान लो ये अग्नि-ज्वाला, अब नया आगाज़ देते हैं!
झूठ के बाज़ार में सच, कब तलक यूँ बिकता रहेगा,
अतिथि का ये मौन क्रंदन, कब तलक यूँ रिसता रहेगा?
रोक सको तो रोक लो अब, ये क़दम ना रुक पाएँगे,
या तो अपना हक़ मिलेगा, या यहीं फना हो जाएँगे!
बच्चों का भविष्य गढ़ते, ख़ुद भविष्य-विहीन हैं,
इस व्यवस्था के सितम से, आज हम ग़मगीन हैं!
अब लहू में है उबाल, और साँस में तूफ़ान है,
अतिथि शिक्षक उठ खड़ा है, देख ले ये शान है!
ये बगावत सिर्फ़ हक़ की, ये लड़ाई ज़ोर की,
अब न सोएगी ये दुनिया, सुन ले आह ये घनघोर की!
सत्ता के मद में जो भूले, न्याय का हर पाठ हो,
याद रखना इस बगावत का, विकट परिणाम हो!
पीड़ा की एक झलक

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आक्रोश की आवाज़ (वीडियो)
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कविता पाठ: स्वर और भाव निर्देशन - "अतिथि का आक्रोश-नाद"
१. कविता का मर्म:
यह कविता "अतिथि का आक्रोश-नाद" अतिथि शिक्षकों के वर्षों से चले आ रहे शोषण, उनकी अनिश्चितता, झूठे आश्वासनों से उपजी गहरी पीड़ा और अब उस पीड़ा के आक्रोश में बदलने की कहानी है। यह उनके मौन क्रंदन और अब उस क्रंदन के एक निर्णायक संघर्ष-नाद में परिवर्तित होने का चित्रण है। प्रत्येक पंक्ति में उनकी व्यथा, उनका रोष और न्याय की उनकी अडिग मांग झलकनी चाहिए।
२. गायन/वाचन शैली:
- आवाज में पीड़ा मिश्रित दृढ़ता: कविता की शुरुआत में आवाज में एक गहरी पीड़ा, थकान और व्यवस्था के प्रति उपेक्षा का भाव हो, जो धीरे-धीरे आक्रोश और दृढ़ता में बदले।
- प्रारंभिक पंक्तियाँ: "एक 'स्थायी' जब भी आता..." को एक व्यंग्यात्मक और दुखद स्वर में शुरू करें, जैसे एक कड़वी सच्चाई को स्वीकार करते हुए।
- fiery-word वाले शब्द: इन शब्दों पर विशेष जोर दें। ये शब्द या तो पीड़ा को उभारते हैं या आक्रोश को। "द्वार", "धिक्कार", "जाल", "हड़ताल" जैसे शब्दों में व्यवस्था की क्रूरता दिखनी चाहिए।
- हुंकार की पंक्तियाँ (
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वाली): ये पंक्तियाँ सीधे व्यवस्था पर प्रहार करती हैं। इन्हें पढ़ते समय आवाज में चुनौती और आक्रोश का भाव हो। - बोल्ड की गई पंक्तियाँ (
.am-strong-emphasis
वाली): ये पंक्तियाँ कविता के महत्वपूर्ण मोड़ या कटु सत्य हैं। इन्हें पढ़ते समय आवाज में अधिक गंभीरता और ठहराव हो, जैसे किसी गहरी सच्चाई को उजागर कर रहे हों। - भावों का उतार-चढ़ाव: "महापंचायत के वो वादे..." जैसी पंक्तियों में निराशा और छले जाने का भाव। "सड़कों पर उतरे तो लाठी..." में पीड़ा और विवशता। "अतिथि के इस सीने में अब, बस धधकता अंगार है!" में प्रचंड रोष।
- गति: कविता की गति शुरुआत में मध्यम-धीमी हो सकती है, जो पीड़ा को दर्शाए, और जैसे-जैसे आक्रोश बढ़ता है, गति थोड़ी तेज हो सकती है।
- अंतिम पंक्तियाँ: "सत्ता के मद में जो भूले..." से लेकर अंत तक आवाज में एक खुली चेतावनी, एक भविष्यवाणी और एक अटूट संकल्प का भाव होना चाहिए। यह एक निर्णायक आह्वान हो।
३. कोड बॉक्स: कविता और निर्देशन
नीचे दिए गए बॉक्स में पूरी कविता और उसके गायन/वाचन के लिए महत्वपूर्ण निर्देश दिए गए हैं। आप इसे आंदोलन के पर्चों, सोशल मीडिया पोस्ट या अन्य सामग्री के लिए कॉपी कर सकते हैं।
कविता: अतिथि का आक्रोश-नाद (रचयिता: आचार्य आशीष मिश्र) [प्रारंभ: व्यंग्यात्मक, दुखद स्वर, पीड़ा] एक "स्थायी" जब भी आता, अतिथि बाहर द्वार है, [हुंकार: व्यवस्था पर प्रहार] ये व्यवस्था किस क़दर की, सोचकर धिक्कार है! "अनुबंध" तो शब्द ही झूठा, छलावा एक जाल है, जब चाहा तुमने निकाला, हर घड़ी हड़ताल है! पोटली में ज्ञान लेकर, दर-ब-दर हम घूमते, और तुम्हारे ही इशारों पर, यहाँ नित हम झूमते! [गंभीरता, कटु सत्य] **जो बने थे भाग्य-विधाता, वे ही अब यमराज हैं,** **न्याय की उम्मीद किससे, जब वही सरताज हैं!** खून-पसीना एक करके, सींचते जब हम चमन, एक झटके में उजाड़ा, कैसा ये निर्मम दमन! "शिक्षक भर्ती में पचास प्रतिशत," वो भी एक मज़ाक है, असलियत में तो हमारे, ज़ख्म पर ये ख़ाक है! [निराशा, छले जाने का भाव] महापंचायत के वो वादे, याद हैं या भूल गए? आँसुओं से लिखे खत भी, धूल में क्या घुल गए? [पीड़ा, विवशता, आक्रोश का उदय] **सड़कों पर उतरे तो लाठी, घर में बस बेबसी मिली,** **अब तो लड़ने के सिवा, कोई राह न हमें भली मिली!** हर सुबह ये डर सताता, आज बच पाएँगे क्या? या किसी के एक हुकुम पर, फिर हटाए जाएँगे क्या? पेट पर लातों का मंज़र, रोज़ ही हम देखते, और तुम महलों में बैठे, बस हुकुम ही फेंकते! [समाज और बुद्धिजीवियों से प्रश्न] **ये जो चुप्पी साध बैठे, बुद्धिजीवी हर शहर,** **क्या तुम्हारी भी ज़मीरों पर, जम गया है कोई क़हर?** [प्रचंड रोष] अब न कोई रहम की आशा, ना कोई गुहार है, अतिथि के इस सीने में अब, बस धधकता अंगार है! ये जो सड़कों पर उतरकर, हक़ की हम आवाज़ देते हैं, जान लो ये अग्नि-ज्वाला, अब नया आगाज़ देते हैं! [व्यवस्था से सवाल] **झूठ के बाज़ार में सच, कब तलक यूँ बिकता रहेगा,** **अतिथि का ये मौन क्रंदन, कब तलक यूँ रिसता रहेगा?** [दृढ़ संकल्प, चुनौती] रोक सको तो रोक लो अब, ये क़दम ना रुक पाएँगे, या तो अपना हक़ मिलेगा, या यहीं फना हो जाएँगे! बच्चों का भविष्य गढ़ते, ख़ुद भविष्य-विहीन हैं, इस व्यवस्था के सितम से, आज हम ग़मगीन हैं! [अंतिम हुंकार, आत्मविश्वास] अब लहू में है उबाल, और साँस में तूफ़ान है, अतिथि शिक्षक उठ खड़ा है, देख ले ये शान है! [निर्णायक लड़ाई का ऐलान] **ये बगावत सिर्फ़ हक़ की, ये लड़ाई ज़ोर की,** **अब न सोएगी ये दुनिया, सुन ले आह ये घनघोर की!** [खुली चेतावनी] सत्ता के मद में जो भूले, न्याय का हर पाठ हो, याद रखना इस बगावत का, विकट परिणाम हो! © आचार्य आशीष मिश्र --- गायन/वाचन निर्देश --- आवाज: पीड़ा मिश्रित दृढ़ता, जो धीरे-धीरे आक्रोश में बदले। गति: प्रारंभ में मध्यम-धीमी, फिर आक्रोश के साथ तेज। भाव: व्यथा, रोष, निराशा, छलावा, और अंत में अटूट संकल्प व चेतावनी। fiery-word वाले शब्द: इन शब्दों पर विशेष जोर, पीड़ा या आक्रोश को उभारते हुए। हुंकार की पंक्तियाँ (.am-hunkar-line वाली): इन्हें चुनौती और आक्रोश के साथ। बोल्ड पंक्तियाँ (.am-strong-emphasis वाली): इन्हें अधिक गंभीरता और ठहराव के साथ, कटु सत्य की तरह।
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© आचार्य आशीष मिश्र। सर्वाधिकार सुरक्षित।
यह कविता "अतिथि का आक्रोश-नाद" अतिथि शिक्षकों के न्यायपूर्ण संघर्ष, उनके स्थायीकरण की मांग और उनके साथ हुए अन्याय को समर्पित है। इस कविता का उपयोग अतिथि शिक्षकों से संबंधित आंदोलनों, जागरूकता अभियानों, शैक्षिक कार्यक्रमों, और उनके समर्थन में किसी भी अहिंसक एवं सकारात्मक गतिविधियों के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है।
अधिकार पत्र: मैं, आचार्य आशीष मिश्र, अतिथि शिक्षकों को यह अधिकार प्रदान करता हूँ कि वे इस कविता का स्वतंत्र रूप से उपयोग, पाठ, गायन, प्रसारण और प्रचार-प्रसार कर सकते हैं, बशर्ते इसके मूल भाव और रचयिता के नाम "आचार्य आशीष मिश्र" को बनाए रखा जाए। इसका व्यावसायिक उपयोग बिना पूर्व अनुमति के वर्जित है। अतिथि शिक्षकों की पीड़ा और उनका संघर्ष हम सभी का सरोकार है, और यह रचना उसी भावना को समर्पित है। (Pen icon or handshake)
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