✶ बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव से मुगलकालीन रीवा तक ✶
एक विस्तृत ऐतिहासिक यात्रा एवं सांस्कृतिक मीमांसा
विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की सुरम्य और मनोरम उपत्यकाओं तथा तमसा (जिसे आज टोंस के नाम से जाना जाता है), बीहड़, बिछिया जैसी जीवनदायिनी और ऐतिहासिक महत्व की नदियों के तट पर पल्लवित एवं पुष्पित हुई वीर बघेल राजवंश की गौरवशाली गाथा, भारतीय इतिहास के पन्नों में शौर्य, रणनीतिक कूटनीति, कला-प्रेम, साहित्यिक अनुराग और उदार सांस्कृतिक संरक्षण का एक अद्भुत एवं प्रेरणादायक मिश्रण प्रस्तुत करती है। यह ऐतिहासिक यात्रा पश्चिमी भारत के गुजरात प्रान्त से, जहाँ बघेलों की जड़ें सोलंकी (चालुक्य) राजवंश से जुड़ी थीं, 13वीं शताब्दी के मध्य में प्रारंभ होती है और विभिन्न चुनौतियों, संघर्षों तथा विजयों के माध्यम से मध्य भारत के हृदय स्थल, बघेलखण्ड, तक पहुँचती है। यहाँ उन्होंने न केवल एक शक्तिशाली और स्वतंत्र राज्य की स्थापना की, बल्कि मुगल काल तक पहुँचते-पहुँचते, विशेषकर अकबर के शासनकाल में, रीवा रियासत ने अपनी एक विशिष्ट, सुदृढ़ और सम्मानित पहचान भी स्थापित की। यह विस्तृत लेख बघेल राजवंश के अभ्युदय की प्रारंभिक परिस्थितियों, उनके संस्थापक शासकों के संघर्ष और सफलताओं, राज्य के क्रमिक विस्तार, गहोरा और बांधवगढ़ जैसी सामरिक महत्व की राजधानियों के उत्थान, और मुगल सम्राट अकबर के समकालीन, कला-पारखी महाराजा रामचंद्र सिंह के शासनकाल में रीवा के सांस्कृतिक स्वर्ण युग, जिसमें संगीत सम्राट तानसेन और प्रखर बुद्धि के धनी राजा बीरबल जैसी महान विभूतियों का रीवा दरबार से गहरा और अविस्मरणीय जुड़ाव रहा, का एक गहन, व्यापक और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है।

(चित्र: बघेलखंड के प्रतापी शासक के साथ अन्य राजाओं का सामूहिक चित्र।)
प्रस्तावना: विंध्य की गोद में एक राजवंश का अभ्युदय
भारत का हृदय प्रदेश, मध्य प्रदेश, अपनी गोद में न केवल विविध प्राकृतिक संपदाओं को समेटे हुए है, बल्कि यह अनेक प्राचीन सभ्यताओं, शक्तिशाली और दीर्घजीवी राजवंशों तथा समृद्ध और बहुआयामी सांस्कृतिक विरासतों का एक महत्वपूर्ण संगम स्थल भी रहा है। इसी ऐतिहासिक और गौरवशाली भूमि का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक अध्याय है बघेलखण्ड, और इसकी राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक धुरी रही है ऐतिहासिक रीवा रियासत। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की सुरम्य, वनाच्छादित और खनिज संपदा से परिपूर्ण उपत्यकाओं तथा तमसा (टोंस), बीहड़, बिछिया जैसी जीवनदायिनी और पवित्र नदियों के तट पर पल्लवित एवं पुष्पित हुई वीर बघेल राजवंश की गौरवशाली गाथा, भारतीय इतिहास के पन्नों में अदम्य शौर्य, कुशल रणनीतिक कूटनीति, कला के प्रति गहन प्रेम, साहित्यिक अनुराग और उदार सांस्कृतिक संरक्षण का एक अद्भुत, अनूठा एवं प्रेरणादायक मिश्रण प्रस्तुत करती है। यह ऐतिहासिक यात्रा पश्चिमी भारत के गुजरात प्रान्त के प्रतापी सोलंकी (चालुक्य) राजवंश की एक महत्वाकांक्षी और वीर शाखा के कुछ साहसी पुरुषों द्वारा 13वीं शताब्दी के मध्य में इस ऊबड़-खाबड़, चुनौतीपूर्ण और जनजातीय बहुल भूभाग में अपनी नवीन सत्ता की सुदृढ़ नींव रखने से प्रारंभ होती है। यह यात्रा सदियों तक चले निरंतर संघर्षों, सफल राज्य विस्तारों और अद्वितीय सांस्कृतिक उत्कर्ष के विभिन्न महत्वपूर्ण सोपानों से गुजरती हुई मुगल काल तक पहुँचती है, जहाँ रीवा रियासत ने अपनी एक विशिष्ट, स्वतंत्र और सम्मानित पहचान सफलतापूर्वक स्थापित की, जो तत्कालीन उत्तर भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती थी। यह विस्तृत लेख, प्रख्यात इतिहासकार डॉ. नृपेन्द्र सिंह परिहार के गहन शोध पत्र "बघेलखण्ड में बघेलों का अभ्युदय एवं विकास का समीक्षात्मक अध्ययन", विदुषी शोधकर्ता पुष्पा दुबे के महत्वपूर्ण शोध पत्र "बघेलखण्ड राज्य का ऐतिहासिक अध्ययन (प्रारम्भ से 1947 ई. तक)", तथा अन्य उपलब्ध पुरातात्त्विक साक्ष्यों, साहित्यिक ग्रंथों, ऐतिहासिक वृत्तांतों और वंशावलियों के सम्यक आलोक में, बघेलखण्ड में बघेल राजवंश के अभ्युदय की जटिल परिस्थितियों, उनके प्रारंभिक संस्थापक शासकों के अथक प्रयासों और संघर्षों, राज्य के क्रमिक और रणनीतिक विस्तार, गहोरा और बांधवगढ़ जैसी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण राजधानियों के उत्थान और पतन, तथा मुगल सम्राट अकबर के समकालीन, कला-पारखी और उदार शासक महाराजा रामचंद्र सिंह के गौरवशाली शासनकाल में रीवा के सांस्कृतिक स्वर्ण युग, विशेषकर भारतीय संगीत के सम्राट मियाँ तानसेन और अपनी प्रखर बुद्धि तथा हाजिरजवाबी के लिए विख्यात राजा बीरबल (महेश दास) जैसी युगांतरकारी विभूतियों के रीवा दरबार से अविस्मरणीय जुड़ाव का एक गहन, व्यापक और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है। इस आलेख का मुख्य उद्देश्य बघेलखण्ड के उस प्रारंभिक और मध्यकालीन इतिहास को उसकी समग्रता, जटिलता और बहुआयामी स्वरूप में समझना है जिसने इस क्षेत्र की नियति, इसकी सांस्कृतिक पहचान और इसके सामाजिक ताने-बाने को निर्णायक रूप से आकार दिया और इसे भारतीय इतिहास के वृहत्तर मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण तथा सम्मानजनक स्थान दिलाया।
बघेलखण्ड का इतिहास केवल युद्धों और विजयों का लेखा-जोखा मात्र नहीं है, बल्कि यह गुजरात की वीर भूमि से चलकर विंध्य की चुनौतीपूर्ण उपत्यकाओं में एक नए, स्वतंत्र और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध साम्राज्य की स्थापना और उसके अद्वितीय सांस्कृतिक उत्कर्ष की एक अत्यंत प्रेरणादायक, रोमांचक और गौरवशाली कहानी है, जो आज भी हमें अपने अतीत पर गर्व करने का अवसर प्रदान करती है।

(चित्र: बघेलखण्ड राज्य के विस्तार का एक सांकेतिक मानचित्र।)
1. बघेलों की उत्पत्ति और व्याघ्रदेव का आगमन: एक नए वंश की नींव
बघेलखण्ड में बघेल राजवंश की सत्ता की स्थापना का श्रेय पश्चिमी भारत के गुजरात प्रान्त के प्रतापी और ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण सोलंकी (चालुक्य) राजवंश की एक वीर और महत्वाकांक्षी शाखा को दिया जाता है। सोलंकी वंश अपनी वीरता, प्रशासनिक कौशल, कलात्मक संरक्षण और स्थापत्य कला के अद्भुत नमूनों (जैसे पाटन का रानी की वाव और मोढेरा का सूर्य मंदिर) के लिए भारतीय इतिहास में विख्यात रहा है।
सोलंकी वंश से संबंध:
अधिकांश प्रतिष्ठित इतिहासकार, जिनमें कर्नल जेम्स टॉड और समकालीन गजेटियर (जैसे "रीवा स्टेट गजेटियर", 1907) के लेखक शामिल हैं, इस बात पर पूर्णतः सहमत हैं कि बघेल, मूल रूप से गुजरात के सोलंकी शासकों के ही वंशज हैं। डॉ. नृपेन्द्र सिंह परिहार अपने शोध में विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों और वंशावलियों का विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बघेलखण्ड में बघेलों की स्वतंत्र सत्ता के आदि पुरुष और संस्थापक व्याघ्रदेव थे, जिन्हें लोकभाषा में 'बाघराव' के नाम से भी जाना जाता था। उन्हें गुजरात के तत्कालीन सोलंकी शासक वीर धवल (जिन्होंने 13वीं सदी के प्रारंभ में गुजरात को बाहरी आक्रमणों से सफलतापूर्वक बचाया था) का पुत्र बताया गया है। यद्यपि, संस्कृत के प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य "वीरभानुदय काव्यम्" (जिसकी रचना का श्रेय बघेल शासक भीमलदेव को दिया जाता है, या उनके संरक्षण में किसी दरबारी कवि द्वारा की गई मानी जाती है) में पौराणिक ऋषि व्याघ्रपाद मुनि को बघेलों का मूल पुरुष बताया गया है। यह संभवतः राजवंश की प्रतिष्ठा और प्राचीनता को स्थापित करने के लिए किसी पूज्यनीय ऋषि या पौराणिक व्यक्तित्व से संबंध जोड़ने की एक सामान्य मध्यकालीन प्रवृत्ति का परिचायक है। पुष्पा दुबे अपने शोध पत्र में उल्लेख करती हैं कि बघेल राजपूत, चालुक्य या सोलंकी क्षत्रियों की ही एक शाखा हैं और गुजरात के प्रसिद्ध सोलंकी राजा कर्णदेव (शासनकाल 1063-1093 ई., जिन्होंने 'कर्णावती' (अहमदाबाद) नगर बसाया) के छोटे भाई क्षेमराज के पौत्र (नाती) बाघराव या व्याघ्रदेव थे। कहा जाता है कि गुजरात के परवर्ती सोलंकी शासक भीम द्वितीय (भीमदेव द्वितीय) ने बाघराव की वीरता और सेवाओं से प्रसन्न होकर उन्हें 'बघेला' (या व्याघ्रपल्ली - बाघों का गाँव) नामक गाँव जागीर में प्रदान किया था। इसी बघेला गाँव से संबंध होने के कारण उनके वंशज 'बघेल' या 'वाघेला' कहलाए और यह नाम उनकी पारिवारिक पहचान बन गया।
गुजरात से प्रस्थान और बघेलखण्ड में आगमन:
13वीं शताब्दी के मध्य में, जब उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना हो चुकी थी और गुजरात में भी आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता तथा बाहरी आक्रमणों का संकट मंडरा रहा था, लगभग 1233-34 ई. (या विक्रम संवत् 1234) के आसपास, वीर और महत्वाकांक्षी व्याघ्रदेव (बाघराव) ने अपने कुछ निष्ठावान साथियों, साहसी सैनिकों और संभवतः अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ गुजरात से पूर्व दिशा की ओर प्रस्थान किया। उनके इस सुदूर प्रस्थान के पीछे कई संभावित कारण हो सकते हैं, जैसे तीर्थयात्रा का बहाना, नए और स्वतंत्र क्षेत्रों की खोज की महत्वाकांक्षा, गुजरात की तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता से बचाव, अथवा अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करने की उत्कट इच्छा। मार्ग में विभिन्न स्थानों पर पड़ाव डालते हुए, स्थानीय शक्तियों से संघर्ष करते हुए या उनसे मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करते हुए, और अपनी सैन्य शक्ति का निरंतर संचय करते हुए वे अंततः मध्य भारत के चित्रकूट के पवित्र और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र में पहुँचे। उस समय यह विस्तृत भूभाग किसी एक शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता के अधीन नहीं था, बल्कि यह छोटी-छोटी स्थानीय शक्तियों, विभिन्न जनजातीय प्रमुखों (जैसे भर, कोल, गोंड) और दिल्ली सल्तनत के कमजोर होते नियंत्रण तथा चंदेल एवं कल्चुरी शक्तियों के पतन के पश्चात् उत्पन्न हुई राजनीतिक शून्यता के कारण विभिन्न टुकड़ों में बंटा हुआ था।
गुजरात की तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल और नए अवसरों की तलाश ने व्याघ्रदेव जैसे अदम्य साहसी और वीर पुरुषों को अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करने तथा नवीन क्षेत्रों में अपनी पताका फहराने के लिए प्रेरित किया, जिसका एक महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम बघेलखण्ड में एक नए, स्वतंत्र और स्थायी राजवंश के रूप में सफलतापूर्वक सामने आया।
प्रारंभिक संघर्ष और गहोरा पर अधिकार:
व्याघ्रदेव ने अपनी असाधारण सैन्य कुशलता, संगठनात्मक क्षमता और दूरदर्शी कूटनीतिक कौशल का परिचय देते हुए इस बिखरी हुई और अस्थिर राजनीतिक स्थिति का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने सर्वप्रथम कालिंजर के निकट स्थित मरफा के पहाड़ी और सामरिक रूप से सुरक्षित दुर्ग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया और वहाँ "बघेलवारी" नामक एक नई बस्ती बसाई, जो उनकी प्रारंभिक शक्ति का केंद्र बनी। उनका प्रभुत्व शीघ्र ही "बघेल भवन" और "बघेलन नाला" जैसे निकटवर्ती क्षेत्रों तक विस्तृत हो गया। उन्होंने स्थानीय लोधी समुदाय (जो संभवतः गहोरा और आसपास के क्षेत्रों पर शासन कर रहे थे) को, कुछ स्थानीय ब्राह्मण गुटों, विशेषकर तिवारियों, के सहयोग से, युद्ध में पराजित किया। इस सहायता के बदले में व्याघ्रदेव ने उन तिवारियों को "अधरजिया तिवारी" (अर्थात् आधे राज्य के हिस्सेदार या सम्मानित पुरोहित) की प्रतिष्ठित पदवी और जागीरें प्रदान कीं, जो बघेल-ब्राह्मण संबंधों की प्रारंभिक कड़ी को दर्शाता है। इन प्रारंभिक विजयों और गठबंधनों के उपरांत, व्याघ्रदेव ने अंततः गहोरा (वर्तमान उत्तर प्रदेश के बाँदा-चित्रकूट जिले की सीमा पर स्थित, कर्वी के निकट एक ऐतिहासिक स्थान) को अपनी राजधानी बनाया। गहोरा यमुना और नर्मदा नदियों के बीच के उपजाऊ क्षेत्र में स्थित था और बघेलों की शक्ति का पहला महत्वपूर्ण और सुसंगठित केंद्र बना। अपनी स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने तथा स्थानीय राजपूत शक्तियों का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से, उन्होंने तरौंहा (चित्रकूट के निकट) के चंद्रावत परिहार राजपूत शासक मुकुंददेव की सुपुत्री सिंदूरमती के साथ विवाह किया, जिससे उन्हें दहेज के रूप में तरौंहा का राज्य भी प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त, उन्होंने परदवाँ और तरिहार जैसे निकटवर्ती प्रांतों को भी जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार, 13वीं शताब्दी के मध्य तक, व्याघ्रदेव ने बघेलखण्ड के एक बड़े और महत्वपूर्ण भू-भाग पर बघेलों का सुदृढ़ आधिपत्य सफलतापूर्वक स्थापित कर लिया था, जिसने एक नए और गौरवशाली राजवंश के भविष्य की नींव रखी।
2. प्रारंभिक बघेल शासक और राज्य का सुदृढ़ीकरण: गहोरा से बांधवगढ़ तक
व्याघ्रदेव द्वारा बघेलखण्ड में स्थापित नवोदित बघेल राज्य की सुदृढ़ नींव पर उनके वीर, योग्य और दूरदर्शी उत्तराधिकारियों ने एक विस्तृत, शक्तिशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बघेल साम्राज्य का निर्माण किया। प्रारंभिक बघेल शासकों ने अपनी राजधानी गहोरा से ही राज्य का कुशलतापूर्वक संचालन किया और अपने राज्य को आंतरिक तथा बाह्य चुनौतियों से सुरक्षित रखा। परन्तु, शीघ्र ही विंध्याचल की पहाड़ियों में स्थित, अभेद्य और सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण बांधवगढ़ का किला उनकी शक्ति का प्रमुख केंद्र बन गया, जिसने बघेल राज्य के विस्तार और उसकी सुरक्षा में एक निर्णायक और केंद्रीय भूमिका निभाई।
करणदेव (या कर्णदेव): बांधवगढ़ का अधिग्रहण
व्याघ्रदेव के ज्येष्ठ पुत्र, करणदेव (जिन्हें कुछ ऐतिहासिक स्रोतों और वंशावलियों में कर्णदेव के नाम से भी उल्लेखित किया गया है), अपने पिता के योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध हुए और उन्होंने गहोरा को ही अपनी राजधानी बनाए रखते हुए शासन संभाला। उन्होंने अपने पिता द्वारा स्थापित राज्य को सुसंगठित करने और उसकी सीमाओं का विस्तार करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उनका विवाह त्रिपुरी के कल्चुरी (हैहय) राजवंश के तत्कालीन शासक सोमदत्त करचुलि की सुपुत्री राजकुमारी पद्मकुँवरि के साथ हुआ था। यह विवाह न केवल दो महत्वपूर्ण राजवंशों के बीच एक वैवाहिक संबंध था, बल्कि यह एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक गठबंधन भी था, जिसके परिणामस्वरूप करणदेव को दहेज के रूप में विश्व प्रसिद्ध और सामरिक दृष्टि से अभेद्य माना जाने वाला बांधवगढ़ का विशाल और ऐतिहासिक किला प्राप्त हुआ। बांधवगढ़ के किले में उन्होंने 'करणपाल दरवाजा' (अर्थात् करण द्वारा निर्मित द्वार) नामक एक भव्य प्रवेश द्वार का निर्माण करवाया, जो आज भी उनके नाम का स्मरण कराता है और उनकी स्थापत्य कला में रुचि का प्रमाण है। इतिहासकार पुष्पा दुबे के अनुसार, कर्णदेव (जिनका शासनकाल वे 1188-1203 ई. मानती हैं, जो व्याघ्रदेव के आगमन काल से कुछ पूर्व का है, अतः इस तिथि पर और शोध की आवश्यकता है) की दक्षिणी और अधिक सुरक्षित राजधानी बांधवगढ़ ही थी, जहाँ से वे अपने विस्तृत राज्य का संचालन करते थे। बांधवगढ़ के अधिग्रहण ने बघेलों की सैन्य शक्ति और राजनीतिक प्रतिष्ठा में अभूतपूर्व वृद्धि की।
सोहागदेव: राज्य का दक्षिणी विस्तार
करणदेव के उपरांत उनके पुत्र सोहागदेव (अनुमानित शासनकाल 1203-1218 ई., यद्यपि तिथियों में भिन्नता है) ने बघेल राज्य का शासन संभाला। उन्होंने अपने पिता की विस्तारवादी नीति को जारी रखते हुए राज्य का विस्तार विशेष रूप से दक्षिण दिशा की ओर किया। उन्होंने वर्तमान मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में अपने नाम पर सोहागपुर नामक एक नया नगर बसाया और वहाँ सिंचाई तथा पेयजल की सुविधा के लिए अनेक कलात्मक जलाशयों (तालाबों) का निर्माण करवाया, जो उनकी लोककल्याणकारी दृष्टि को दर्शाते हैं। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने महाभारतकालीन प्राचीन विराट नगरी (जिसकी पहचान वर्तमान शहडोल जिले के आसपास के किसी पुरातात्त्विक स्थल से की जाती है) का जीर्णोद्धार भी करवाया था, जो उनके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व के प्रति गहरे रुझान को परिलक्षित करता है।
सारंगदेव: चंदेलों से संघर्ष और 'संग्राम सिंह' की उपाधि
सोहागदेव के उपरांत उनके पुत्र सारंगदेव (अनुमानित शासनकाल 1218-1243 ई.) बघेल राजगद्दी पर आसीन हुए। उनके शासनकाल की एक महत्वपूर्ण सैन्य घटना बांधवगढ़ के किले पर चंदेलों के एक शक्तिशाली सामंत ऊदल (संभवतः प्रसिद्ध आल्हा-ऊदल के ऊदल नहीं, बल्कि उनके किसी वंशज या उसी नाम के किसी अन्य चंदेल सरदार) के आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिरोध करना था। उन्होंने न केवल इस आक्रमण को वीरतापूर्वक विफल किया, बल्कि चंदेल सामंत को युद्ध में पराजित भी किया। इस महत्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने 'संग्राम सिंह' (अर्थात् युद्ध में सिंह के समान पराक्रमी) की गौरवपूर्ण उपाधि धारण की। बांधवगढ़ किले के भीतर आज भी "ऊदल की कोठरी" नामक एक प्राचीन संरचना विद्यमान है, जो संभवतः इसी ऐतिहासिक घटना से जुड़ी हो सकती है और स्थानीय लोककथाओं का विषय है।
बांधवगढ़ का सुदृढ़ और अभेद्य दुर्ग न केवल बघेलों के लिए एक सुरक्षित सैन्य अड्डा और प्रशासनिक केंद्र था, बल्कि यह उनकी बढ़ती हुई राजनीतिक प्रतिष्ठा, उनकी अदम्य स्वतंत्रता की भावना और उनकी सैन्य शक्ति का एक ऐसा ज्वलंत प्रतीक भी बन गया, जिसने पड़ोसी राज्यों के मन में उनके प्रति भय और सम्मान दोनों उत्पन्न किया।
विलासदेव (या भिलारदेव): बिलासपुर की स्थापना
सारंगदेव के उपरांत उनके पुत्र विलासदेव (जिन्हें कुछ स्रोतों में भिलारदेव भी कहा गया है, अनुमानित शासनकाल 1243-1268 ई.) शासक बने। कहा जाता है कि उन्होंने अपने राज्य का विस्तार दक्षिण दिशा में और आगे बढ़ाते हुए वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में अपने नाम पर “बिलासपुर” शहर की नींव रखी थी। बिलासपुर आज छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख औद्योगिक और वाणिज्यिक नगर है। यद्यपि इस दावे की पुख्ता ऐतिहासिक पुष्टि के लिए और अधिक गहन शोध तथा पुरातात्त्विक साक्ष्यों की आवश्यकता है, तथापि यह बघेलों की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं और नए नगर बसाने की उनकी प्रवृत्ति को इंगित करता है।
भीमलदेव (या भीमदेव): "वीरभानुदय काव्यम्" के रचयिता
विलासदेव के उपरांत उनके पुत्र भीमलदेव (जिन्हें भीमदेव भी कहा जाता है, अनुमानित शासनकाल 1268-1283 ई.) ने बघेल राज्य का शासन संभाला। वे न केवल एक कुशल प्रशासक और वीर योद्धा थे, बल्कि संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान और प्रतिभाशाली कवि भी थे। उन्होंने बघेल वंश के गौरवशाली इतिहास, अपने पूर्वजों की वीरगाथाओं, उनकी वंशावलियों और तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश का विस्तृत और काव्यात्मक वर्णन करते हुए प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य “वीरभानुदय काव्यम्” की रचना की (या अपने संरक्षण में किसी दरबारी कवि द्वारा इसकी रचना करवाई)। यह ग्रंथ बघेल राजवंश के प्रारंभिक इतिहास, उनकी उत्पत्ति, उनके प्रमुख शासकों और उनकी उपलब्धियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण, मूल्यवान और प्रामाणिक साहित्यिक स्रोत माना जाता है। (हालांकि, प्रसिद्ध पुरालेखशास्त्री डॉ. हीरानन्द शास्त्री ने इस काव्य में वर्णित कुछ प्रारंभिक शासकों के नामों को ऐतिहासिक रूप से संदिग्ध या कल्पित भी माना है, जिस पर और अधिक शोध अपेक्षित है)।
अनिकदेव से सिंह देव तक की श्रृंखला:
भीमलदेव के पश्चात् बघेल वंश में कई अन्य शासकों का उल्लेख मिलता है, जिनके शासनकाल की घटनाओं और तिथियों के बारे में विस्तृत और सुनिश्चित जानकारी का प्रायः अभाव है। परन्तु उनके नाम विभिन्न वंशावलियों, स्थानीय ख्यातों और कुछ साहित्यिक स्रोतों में यदा-कदा मिलते हैं। इनमें अनिकदेव (जिन्हें कुछ स्थानों पर रनिकदेव भी कहा गया है, अनुमानित शासनकाल 1283-1303 ई.), उनके उपरांत वलनदेव (या बलानक देव), उनके पुत्र दलकेश्वरदेव (जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कालिंजर के महत्वपूर्ण किले पर पुनः कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया था) और फिर मलकेश्वरदेव (जिन्होंने मनगवाँ के सेंगर राजपूतों को पराजित कर उनके क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था) प्रमुख शासक बने। इनके बाद वरियारदेव (या वीरराजदेव) और फिर बल्लारदेव का शासन रहा। बल्लारदेव दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश के शक्तिशाली शासक फिरोजशाह तुगलक (शासनकाल 1351-1388 ई.) के समकालीन थे। उन्होंने "महाराजाधिराज" जैसी प्रतिष्ठित और संप्रभुतासूचक उपाधि धारण की थी, जो उनकी बढ़ती हुई शक्ति, उनके स्वतंत्र अस्तित्व और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का स्पष्ट परिचायक है। उनकी धर्मपरायण पत्नी, रानी राजला देवी, ने अपनी राजधानी गहोरा में एक विशाल और सुंदर तालाब तथा शीतला माता के एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था, जो उनकी लोककल्याणकारी भावना और धार्मिक आस्था को दर्शाता है। बल्लारदेव के बाद संभवतः उनके पुत्र सिंह देव शासक बने, जिनका चंदेलों के साथ निरंतर संघर्ष का उल्लेख मिलता है, अथवा कुछ स्रोतों के अनुसार, उनके पौत्र भैरम देव (या वीरमदेव) सीधे गद्दी पर आसीन हुए। इन शासकों के काल में बघेल राज्य ने अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए आंतरिक रूप से सुदृढ़ होने का प्रयास किया।
एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला
3. भैरम देव (वीरमदेव) से भैदचन्द्र तक: दिल्ली सल्तनत के बदलते समीकरण और बघेलों का उत्कर्ष
14वीं शताब्दी के अंत और संपूर्ण 15वीं शताब्दी के दौरान, उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। दिल्ली सल्तनत में शक्तिशाली तुगलक वंश का पतन हो चुका था, जिसके बाद अपेक्षाकृत कमजोर सैय्यद वंश और फिर अफगान मूल के लोदी वंश का उदय हुआ। इस केंद्रीय सत्ता की अस्थिरता और कमजोरी के दौर में, बघेल शासकों ने न केवल अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सफलतापूर्वक बनाए रखा, बल्कि अपनी राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक शक्ति को और अधिक सुदृढ़ भी किया, तथा पड़ोसी राज्यों के साथ अपने संबंधों को कुशलतापूर्वक साधा।
भैरम देव (या वीरमदेव) (लगभग 1360-1425 ई. या कुछ स्रोतों के अनुसार 1403-1428 ई.):
बल्लारदेव के पौत्र, भैरम देव (जिन्हें वीरमदेव के नाम से भी जाना जाता है), एक पराक्रमी, महत्वाकांक्षी और कुशल शासक सिद्ध हुए। उन्होंने अपने राज्य का विस्तार करने के लिए अनेक सैन्य अभियान किए। उन्होंने हुण्डा राज्य (संभवतः गोंडवाना क्षेत्र का कोई छोटा राज्य या कबीलाई इलाका) और नरोगढ़ (जिसकी सटीक पहचान अभी विवादित है) के सुदृढ़ किले पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। वे अपने समय की प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों, जैसे कालपी के मलिकजादा शासक, नागौद के परिहार राजपूत, मालवा के खिलजी सुल्तान, जौनपुर के शक्तिशाली शर्की सुल्तान और दिल्ली के लोदी शासकों के समकालीन थे। इन विभिन्न शक्तियों के साथ उनके संबंध समय-समय पर बदलते रहे, जिनमें कभी मैत्री, कभी तटस्थता और कभी खुला संघर्ष भी शामिल था। यह उनकी कूटनीतिक निपुणता का प्रमाण है कि वे इन जटिल परिस्थितियों में भी अपने राज्य की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रख सके।
नरहरिदेव (या नरहरदेव) (लगभग 1428-1470 ई.):
भैरम देव के उपरांत उनके पुत्र नरहरिदेव (जिन्हें कुछ स्थानों पर नरहरदेव भी कहा गया है) ने बघेल राज्य का शासन संभाला। उनके शासनकाल में प्रजा अपेक्षाकृत सुखी और समृद्ध थी, और राज्य में शांति तथा सुव्यवस्था बनी रही। कहा जाता है कि उनके राज्य का विस्तार पूर्व में पिपरी (वर्तमान सोनभद्र जिला, उत्तर प्रदेश) और दूरस्थ जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) की सीमाओं तक पहुँच गया था। यद्यपि जगन्नाथपुरी तक प्रत्यक्ष राजनीतिक नियंत्रण का दावा अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, तथापि यह उनके प्रभाव क्षेत्र के व्यापक विस्तार, उनके द्वारा की गई सफल तीर्थयात्राओं या उनके द्वारा भेजे गए सैन्य अभियानों का संकेत अवश्य देता है। वे मालवा के समकालीन सुल्तान महमूद शाह खिलजी प्रथम (शासनकाल 1436-1469 ई.) और जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह शर्की (शासनकाल 1440-1457 ई.) के साथ मैत्रीपूर्ण और सम्मानजनक कूटनीतिक संबंध बनाए रखने में सफल रहे, जिससे उनके राज्य को बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा मिली।
भीरदेव (या भैदचन्द्र) (1470-1495 ई.):
महाराज नरहरिदेव के उपरांत उनके पुत्र भीरदेव (जिन्हें भैदचन्द्र या कुछ मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा 'राजा भीट' के नाम से भी जाना जाता है) बघेल राजगद्दी पर आसीन हुए। इनके शासनकाल से बघेल राजवंश का सुस्पष्ट, अधिक विश्वसनीय और तिथियुक्त ऐतिहासिक विवरण प्राप्त होने लगता है, क्योंकि समकालीन फारसी तवारीखों और अन्य स्रोतों में उनका उल्लेख मिलने लगता है। दिल्ली का तत्कालीन सम्राट बहलोल खाँ लोदी (शासनकाल 1451-1489 ई.) उनका समकालीन था, और उसके साथ उनके संबंध सामान्यतः अच्छे बने रहे। कुछ मुस्लिम इतिहासकारों ने उन्हें 'राजा भीट' या 'पन्ना नरेश' भी लिखा है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कालिंजर के निकट स्थित पन्ना क्षेत्र पर भी उनका प्रभाव या आधिपत्य रहा होगा, जो हीरा खदानों के लिए प्रसिद्ध था। उनके राज्य का विस्तार काफी व्यापक हो चुका था, जिसमें उत्तर में अरैल (प्रयागराज के निकट) और कंतित (मिर्जापुर क्षेत्र) तक, पश्चिम में गहोरा और कालिंजर के महत्वपूर्ण दुर्ग तक, तथा दक्षिण में सरगुजा (वर्तमान छत्तीसगढ़ का एक भाग) और बांधवगढ़ का अभेद्य किला शामिल थे। यह विस्तृत और शक्तिशाली राज्य उन्हें तत्कालीन मध्य भारत के एक प्रमुख और प्रभावशाली शासक के रूप में मजबूती से स्थापित करता है।
दिल्ली सल्तनत की आंतरिक कमजोरियों और निरंतर राजनीतिक अस्थिरता का बुद्धिमत्तापूर्वक लाभ उठाते हुए, भैरम देव, नरहरिदेव और भैदचन्द्र जैसे दूरदर्शी बघेल शासकों ने न केवल अपने राज्य की स्वतंत्रता और संप्रभुता को सफलतापूर्वक बनाए रखा, बल्कि उन्होंने अपने राज्य का चतुर्दिक उल्लेखनीय विस्तार भी किया, जिससे बघेलखण्ड एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरा।
विशेष सूचना: ऐतिहासिक श्रृंखला
यह विस्तृत संस्करण "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" नामक हमारी महत्वाकांक्षी ऐतिहासिक श्रृंखला का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और आधारभूत भाग है, जो विशेष रूप से बघेल राजवंश के प्रारंभिक उत्कर्ष, उनकी राजनीतिक स्थापना, और मध्यकालीन भारत में एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उनके उदय पर केंद्रित है। इस गूढ़, बहुआयामी और विस्तृत विषय पर हमारी समर्पित शोध टीम द्वारा लगभग दस भागों की एक व्यापक और गहन श्रृंखला प्रकाशित करने की महत्वाकांक्षी योजना है। इस श्रृंखला के प्रत्येक भाग में विभिन्न ऐतिहासिक कालखंडों, महत्वपूर्ण घटनाओं, प्रमुख शासकों, उनकी नीतियों, सांस्कृतिक विकास, सामाजिक परिवर्तनों और आर्थिक संरचना का गहन, निष्पक्ष और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा। हम आपसे, हमारे प्रबुद्ध, जिज्ञासु और इतिहास-प्रेमी पाठकों से, विनम्र अनुरोध करते हैं कि आप इस श्रृंखला के सभी भागों को धैर्यपूर्वक, मनोयोग से और आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ें, उन पर गहन चिंतन करें और अपने बहुमूल्य विचार, सारगर्भित सुझाव, तथ्यात्मक सुधार (यदि कोई हों) एवं रचनात्मक प्रतिक्रियाएं हमें अवश्य साझा करें। आपकी सक्रिय बौद्धिक सहभागिता और सकारात्मक प्रतिसाद हमारे इन शोध प्रयासों को न केवल सार्थकता और एक नवीन स्फूर्ति प्रदान करेगा, बल्कि हमें इस ऐतिहासिक वृत्तांत को और भी उन्नत, व्यापक, तथ्यात्मक रूप से सुदृढ़ और त्रुटिरहित बनाने में भी अमूल्य सहायता प्रदान करेगा।
ऐसे ही अन्य रोचक, ज्ञानवर्धक और शोधपरक ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक विषयों की गहन जानकारी नियमित रूप से प्राप्त करने तथा हमारे शोध एवं संपादन प्रयासों से सक्रिय रूप से जुड़ने, उन्हें समर्थन देने और हमारी इस ज्ञान यात्रा का हिस्सा बनने के लिए, कृपया हमें ईमेल करें: shriasheeshacharya@gmail.com
4. लोदी सुल्तानों से संघर्ष और महाराजा रामचंद्र सिंह के युग की पृष्ठभूमि
15वीं शताब्दी के अंत और 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में, जब दिल्ली में लोदी वंश का शासन अपने चरमोत्कर्ष पर था, बघेल शासकों को अपनी स्वतंत्रता और राज्य की सीमाओं की रक्षा के लिए लोदी सुल्तानों की महत्वाकांक्षी और विस्तारवादी नीति का सामना करना पड़ा। यह काल बघेल राज्य के लिए सैन्य चुनौतियों और कूटनीतिक कौशल की परीक्षा का दौर था, जिसने भविष्य के मुगल-बघेल संबंधों की महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि भी तैयार की।

(चित्र: मुगल बादशाह हुमायूं, जिन्हें संकट के समय महाराजा वीरभानु ने शरण दी थी।)
शालिवाहन देव (1495-1500 ई.):
महाराज भीरदेव (भैदचन्द्र) के उपरांत उनके पुत्र शालिवाहन देव बघेल राजगद्दी पर आसीन हुए। उनके अल्प शासनकाल में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम वाली घटना घटी। जौनपुर के पराजित और निष्कासित शर्की सुल्तान, हुसैनशाह शर्की, जिन्हें दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी ने अपदस्थ कर दिया था, को महाराज भीरदेव ने अपने शासनकाल के अंतिम वर्षों में बांधवगढ़ के सुदृढ़ किले में राजनीतिक शरण दी थी। इस कृत्य से दिल्ली का शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी सुल्तान सिकंदर लोदी (शासनकाल 1489-1517 ई.) अत्यंत क्रुद्ध हो गया। उसने इसे अपनी सत्ता को चुनौती के रूप में देखा और बघेल राज्य को दंडित करने का निश्चय किया। सन् 1498-99 ई. के आसपास (कुछ स्रोतों में तिथि भिन्न हो सकती है), सिकंदर लोदी ने एक विशाल और सुसज्जित सेना के साथ बघेल राज्य की तत्कालीन राजधानी बांधवगढ़ पर भीषण चढ़ाई कर दी। उसने कई वर्षों तक (कुछ विवरणों के अनुसार लगभग सात वर्षों तक) दुर्ग को घेरे रखा और उसे जीतने के अनेक प्रयास किए, परन्तु बांधवगढ़ दुर्ग की प्राकृतिक सुरक्षा, उसकी अभेद्य किलेबंदी और बघेल सेना के वीरतापूर्ण तथा कुशल प्रतिरोध के कारण वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। इसी लंबे घेराबंदी के दौरान या इसके तुरंत बाद महाराज भीरदेव का स्वर्गवास हो गया था और शालिवाहन देव ने विषम परिस्थितियों में गद्दी संभाली थी। अंततः, सिकंदर लोदी को निराश और हताश होकर बिना बांधवगढ़ जीते ही वापस दिल्ली लौटना पड़ा। यह घटना बघेलों की सैन्य शक्ति और उनके आत्मविश्वास का एक महत्वपूर्ण प्रमाण है।
वीरसिंह देव (1500-1540 ई.):
शालिवाहन देव के पश्चात् उनके पुत्र वीरसिंह देव बघेल राजवंश के एक महान, प्रतापी और अत्यंत प्रभावशाली शासक हुए। उन्होंने अपने पिता और पूर्वजों द्वारा स्थापित राज्य की सीमाओं का न केवल सफलतापूर्वक संरक्षण किया, बल्कि उसका चतुर्दिक उल्लेखनीय विस्तार भी किया। उन्होंने अपने नाम पर बिरसिंहपुर (वर्तमान पाली, जिला उमरिया, जो बिरसिंहपुर पाली के नाम से प्रसिद्ध है, न कि सतना जिले का बिरसिंहपुर, जैसा कि कुछ स्थानों पर भ्रमवश उल्लेख मिलता है) नामक एक महत्वपूर्ण नगर बसाया और उसे अपने राज्य की एक प्रमुख प्रशासनिक तथा सैन्य इकाई बनाया। उनके कुशल नेतृत्व में बघेल राज्य का विस्तार पूर्व में रतनपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़ का एक ऐतिहासिक क्षेत्र) तक, दक्षिण में गढ़ा-मंडला (गोंडवाना राज्य की सीमाओं तक), पश्चिम में भरो (स्थानीय जनजातीय क्षेत्र) और उत्तर-पूर्व में छोटा नागपुर के पठारी क्षेत्रों तक हो गया था। उनके पास एक विशाल, सुसंगठित और अनुशासित सेना थी, जिसमें विशेष रूप से प्रशिक्षित और युद्ध-कुशल हस्तिदल (हाथियों की सेना) और तीव्रगामी तथा मारक क्षमता वाले घुड़सवार दस्ते प्रमुख थे, जो उनकी निरंतर सैन्य सफलताओं का एक प्रमुख कारण थे। उनका विवाह उत्कल (प्राचीन उड़ीसा) के प्रतापी गजपति राजवंश की राजकुमारी कुलपालिका देवी के साथ हुआ था, जो न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी, बल्कि यह उनके राज्य के बढ़ते हुए राजनीतिक प्रभाव और दूरस्थ शक्तिशाली राजवंशों के साथ उनके कूटनीतिक संबंधों के विस्तार को भी स्पष्ट रूप से दर्शाती है।
वीरभानु (1540-1555 ई.):
महाराज वीरसिंह देव के सुयोग्य पुत्र, वीरभानु, अपने पिता की भांति ही अत्यंत प्रतापी, वीर, विद्यानुरागी, कला-प्रेमी और गुणवान शासक के रूप में विख्यात हुए। उनके शासनकाल में बघेल राज्य अपनी शक्ति, समृद्धि और सांस्कृतिक उत्कर्ष के चरम पर पहुँच गया था। उनके समय में राज्य की सीमाएँ उत्तर में गहोरा और प्रयाग (इलाहाबाद) के निकटवर्ती क्षेत्रों तक, दक्षिण में नर्मदा नदी और अमरकंटक की पवित्र पहाड़ियों तक, पश्चिम में पन्ना और कालिंजर के महत्वपूर्ण क्षेत्रों तक तथा पूर्व में मिर्जापुर की सीमाओं तक विस्तृत थीं। वे स्वयं एक उच्च कोटि के विद्वान थे और उन्हें तर्कशास्त्र, वेदान्त दर्शन, विभिन्न पुराणों, धर्मशास्त्रों और दण्डनीति (राजनीति शास्त्र तथा शासन कला) का गहन और व्यापक ज्ञान था। उनके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटना मुगल बादशाह हुमायूँ के साथ उनके मैत्रीपूर्ण संबंध और संकट के समय उन्हें दी गई अमूल्य सहायता थी। जब कन्नौज के युद्ध (1540 ई.) में शेरशाह सूरी से बुरी तरह पराजित होकर हुमायूँ निष्कासित और असहाय जीवन व्यतीत कर रहा था, तब महाराजा वीरभानु ने न केवल उसे अपने राज्य में सुरक्षित शरण प्रदान की, बल्कि उसे वित्तीय और सैन्य सहायता भी उपलब्ध कराई। इस महत्वपूर्ण घटना का विस्तृत और प्रामाणिक उल्लेख हुमायूँ की बहन, गुलबदन बेगम द्वारा फारसी में रचित प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ "हुमायूँनामा" में मिलता है। यह घटना बघेल शासकों की शरणागत वत्सलता, उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता और मानवीय मूल्यों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता का एक ज्वलंत प्रमाण है, जिसने भविष्य के मुगल-बघेल सौहार्दपूर्ण संबंधों की एक अत्यंत सुदृढ़ और स्थायी नींव रखी।
महाराजा वीरभानु द्वारा संकटग्रस्त मुगल बादशाह हुमायूँ को अपने राज्य में सुरक्षित शरण और अमूल्य सहायता प्रदान करना, न केवल बघेल राजवंश की परंपरागत शरणागत-वत्सलता और उदारता का एक उत्कृष्ट उदाहरण था, बल्कि यह उनकी असाधारण राजनीतिक दूरदर्शिता और भविष्य की संभावनाओं को पहचानने की अद्भुत क्षमता को भी दर्शाता है। इस मैत्रीपूर्ण कृत्य ने ही भविष्य के सौहार्दपूर्ण और स्थायी मुगल-बघेल संबंधों की एक अत्यंत महत्वपूर्ण और मजबूत पृष्ठभूमि निर्मित की।
इस प्रकार, लोदी वंश के अंतिम और मुगल साम्राज्य के प्रारंभिक काल में, बघेल शासकों ने अपनी बुद्धिमत्ता, वीरता और कूटनीतिक कौशल के बल पर न केवल अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सफलतापूर्वक बनाए रखा, बल्कि अपनी राजनीतिक शक्ति, सैन्य क्षमता और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा में भी उल्लेखनीय वृद्धि की। महाराजा वीरभानु के गौरवशाली शासनकाल ने उस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को निर्मित किया जिसमें उनके सुयोग्य पुत्र और उत्तराधिकारी, महाराजा रामचंद्र सिंह, ने रीवा रियासत को सांस्कृतिक, कलात्मक और राजनीतिक उत्कर्ष के एक ऐसे अभूतपूर्व शिखर पर पहुँचाया, जिसकी विस्तृत और रोचक चर्चा इस श्रृंखला की अगली महत्वपूर्ण कड़ी (भाग-2) में की जाएगी। यह काल बघेलखण्ड के इतिहास में एक ऐसे मजबूत नींव के पत्थर के समान है, जिस पर भविष्य में एक भव्य, कलात्मक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इमारत का निर्माण होना था, और जिसने रीवा को भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट और सम्मानित स्थान दिलाया।
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📜यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।
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shriasheeshacharya@gmail.comबघेलखण्ड का उत्कर्ष: मुख्य पड़ाव एवं व्यक्तित्व
"व्याघ्रदेव (बाघराव)": बघेल वंश के महान संस्थापक और आदि पुरुष, जिन्होंने 13वीं शताब्दी में गुजरात से प्रस्थान कर बघेलखण्ड की चुनौतीपूर्ण भूमि पर विजय प्राप्त की, गहोरा को अपनी प्रारंभिक राजधानी बनाया, स्थानीय लोधी शासकों को पराजित किया, और एक नए, स्वतंत्र तथा स्थायी राजवंश की सुदृढ़ नींव रखी।
उनका अदम्य साहस, उनकी दूरदर्शिता, उनकी संगठनात्मक क्षमता और उनकी रणनीतिक कुशलता एक नए और गौरवशाली राजवंश के सफल अभ्युदय का ज्वलंत प्रतीक बनी, जिसने मध्य भारत के इतिहास को एक नई दिशा प्रदान की।
"करणदेव एवं बांधवगढ़": व्याघ्रदेव के सुपुत्र, जिन्होंने कल्चुरी राजकुमारी से विवाह कर दहेज में सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण और अभेद्य बांधवगढ़ का किला प्राप्त किया, वहाँ 'करणपाल दरवाजा' जैसे निर्माण करवाए, और राज्य को एक नई सैन्य तथा प्रशासनिक सुदृढ़ता प्रदान की।
बांधवगढ़ का यह ऐतिहासिक दुर्ग शीघ्र ही बघेल शक्ति का एक प्रमुख और अजेय केंद्र बन गया, साथ ही यह उनकी बढ़ती हुई प्रतिष्ठा और एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक तथा धार्मिक गतिविधियों के स्थल के रूप में भी विकसित हुआ।
"वीरभानु एवं हुमायूँ": महाराजा वीरभानु द्वारा संकट और पराजय के समय असहाय मुगल बादशाह हुमायूँ को अपने राज्य में न केवल सुरक्षित शरण प्रदान करना, बल्कि उन्हें वित्तीय और सैन्य सहायता भी उपलब्ध कराना, जो बघेल शासकों की असाधारण राजनीतिक समझ, उनकी मानवीय संवेदना और भविष्य की संभावनाओं को पहचानने की उनकी अद्भुत क्षमता का एक उत्कृष्ट परिचायक है।
यह ऐतिहासिक और मैत्रीपूर्ण घटना भविष्य के सौहार्दपूर्ण और स्थायी मुगल-बघेल संबंधों के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक पृष्ठभूमि तैयार करती है, जिसका लाभ बघेल राज्य को अकबर के शासनकाल में विशेष रूप से मिला।
"लोदी-बघेल संघर्ष": दिल्ली के शक्तिशाली लोदी सुल्तान, विशेषकर सिकंदर लोदी, द्वारा बघेल राज्य की बढ़ती हुई शक्ति को नियंत्रित करने और बांधवगढ़ जैसे महत्वपूर्ण दुर्ग पर अधिकार करने का महत्वाकांक्षी प्रयास, तथा बघेल शासकों (विशेषकर भीरदेव और शालिवाहन देव) द्वारा अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा के लिए किया गया वीरतापूर्ण तथा सफल प्रतिरोध।
यह चुनौतीपूर्ण संघर्ष बघेल राज्य की सुदृढ़ सैन्य शक्ति, उनके अदम्य साहस, बांधवगढ़ दुर्ग की अभेद्यता और अपनी स्वतंत्रता तथा अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
बघेलकालीन विरासत के प्रतीक

(चित्र: बंधवगढ़ किले का एक विहंगम और मनोहारी दृश्य, जो अपनी प्राकृतिक सुरक्षा, ऐतिहासिक महत्व और पुरातात्त्विक अवशेषों के लिए विख्यात है। यह किला बघेलों की प्रारंभिक शक्ति, उनके संघर्षों और उनके गौरवशाली अतीत का एक मूक साक्षी है। साभार: Wikimedia Commons)
रीवा का ऐतिहासिक महत्व (वृत्तचित्र खंड)
(यह एक प्लेसहोल्डर वीडियो है। बघेल राजवंश के इतिहास, उनकी प्रमुख राजधानियों जैसे गहोरा, बांधवगढ़, रीवा, उनके महत्वपूर्ण शासकों, उनके सांस्कृतिक योगदान, या रीवा के पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक स्थलों पर किसी जानकारीपूर्ण और आकर्षक वृत्तचित्र का YouTube VIDEO_ID यहाँ डाला जा सकता है।)
अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)
बघेल राजवंश के उदय, उनके क्रमिक विकास, राजनीतिक उत्कर्ष, सांस्कृतिक योगदान और उनके शासनकाल के विभिन्न पहलुओं का गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित प्रकार के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यह सूची एक विस्तृत और गंभीर शोध यात्रा के लिए एक प्रारंभिक तथा दिशा-निर्देशात्मक बिंदु प्रदान करती है:
प्रमुख ऐतिहासिक ग्रंथ एवं वृत्तांत (पारंपरिक एवं समकालीन):
- **"एकात्रा बान्धवगढ़ माहात्म्य"** या संबंधित स्थानीय पुराण और माहात्म्य ग्रंथ: ये पारंपरिक स्रोत बघेल वंश की पौराणिक उत्पत्ति, उनके कुलदेवता, बांधवगढ़ क्षेत्र के प्राचीन महत्व और प्रारंभिक इतिहास पर महत्वपूर्ण पारंपरिक एवं स्थानीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
- **"वीरभानुदय काव्यम्"**: बघेल शासक भीमलदेव द्वारा स्वयं रचित (अथवा उनके संरक्षण में किसी अज्ञात दरबारी कवि द्वारा रचित) यह महत्वपूर्ण संस्कृत महाकाव्य बघेल वंश के प्रारंभिक इतिहास, उनकी विस्तृत वंशावली, प्रमुख शासकों की वीरगाथाओं और तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक तथा राजनीतिक परिवेश का एक अत्यंत मूल्यवान और प्रामाणिक साहित्यिक स्रोत माना जाता है (यद्यपि इसके कुछ अंशों की ऐतिहासिकता पर कुछ विद्वानों में मतभेद भी है)।
- **मुगलकालीन फारसी तवारीखें और समकालीन वृत्तांत**: शेख अबुल फजल कृत "अकबरनामा" (तीन खंडों में) एवं "आईन-ए-अकबरी": इन विश्व प्रसिद्ध ग्रंथों में बघेल शासकों (विशेषकर महाराजा रामचंद्र सिंह) और मुगल दरबार के साथ उनके जटिल तथा बहुआयामी संबंधों, संगीत सम्राट तानसेन के रीवा दरबार से मुगल दरबार में आगमन, और अकबरकालीन उत्तर भारतीय राजनीति तथा संस्कृति का विस्तृत एवं विश्वसनीय उल्लेख मिलता है। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी कृत "मुंतखब-उत-तवारीख": यह ग्रंथ भी समकालीन घटनाओं, विशेषकर अकबर के शासनकाल की नीतियों और धार्मिक बहसों पर एक महत्वपूर्ण, यद्यपि कभी-कभी आलोचनात्मक, दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। ख्वाजा निज़ामुद्दीन अहमद कृत "तबकात-ए-अकबरी": इसमें भी अकबर से पहले के सुल्तानों और प्रारंभिक मुगल शासकों के काल की उत्तर भारत की विभिन्न राजनीतिक शक्तियों और घटनाओं का महत्वपूर्ण विवरण प्राप्त होता है। "हुमायूँनामा": मुगल बादशाह हुमायूँ की विदुषी बहन, राजकुमारी गुलबदन बेगम द्वारा फारसी भाषा में रचित यह अद्वितीय आत्मकथात्मक ग्रंथ (जिसमें कन्नौज के युद्ध में शेरशाह सूरी से पराजित होकर निष्कासित और संकटपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे मुगल बादशाह हुमायूँ को बघेल शासक राजा वीरभानु द्वारा अपने राज्य में सुरक्षित शरण और अमूल्य सहायता प्रदान करने की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना का अत्यंत मार्मिक और प्रामाणिक उल्लेख है)।
- **"बघेल वंश वर्णनम्"**: कवि रूपणि शर्मा द्वारा संस्कृत में रचित यह काव्य ग्रंथ (जो महाराजा भाव सिंह के दरबारी कवि थे और जिन्होंने बघेल वंश की विस्तृत वंशावली और प्रमुख शासकों की उपलब्धियों का वर्णन किया है)।
- **"अमररेश विलास"**: कवि नीलकण्ठ द्वारा रचित यह काव्य ग्रंथ (जो महाराजा अमर सिंह के दरबारी कवि थे और जिन्होंने अपने आश्रयदाता शासक की प्रशंसा में इसकी रचना की)।
- **"हौत्र कल्पद्रुम"**: स्वयं महाराजा भाव सिंह द्वारा संस्कृत में रचित यह महत्वपूर्ण साहित्यिक एवं धार्मिक ग्रन्थ (जो यज्ञ-पद्धति और कर्मकांड पर आधारित है तथा उनकी गहन विद्वता को दर्शाता है)।
- **"भजनावली"**: महाराजा वेंकटरमण सिंह द्वारा रचित भक्तिपूर्ण पदों और भजनों का यह संग्रह (जो उनकी आध्यात्मिक अभिरुचि का परिचायक है)।
- **"जगदीश शतक"**: महाराजा रघुराज सिंह द्वारा रचित नीति और भक्ति से ओतप्रोत यह काव्य ग्रन्थ।
- स्थानीय भाटों, चारणों और जागाओं द्वारा संरक्षित मौखिक और लिखित ख्यातें, वंशावलियाँ, लोकगाथाएँ, प्रशासनिक दस्तावेज़ (जैसे सनद, परवाने, रुक्के) और बहियाँ।
आधुनिक शोध एवं प्रकाशन:
/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */ 1. सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". प्रयाग: यूनियन प्रेस (यह ग्रंथ रीवा दरबार द्वारा प्रकाशित करवाया गया था और यह रियासतकालीन इतिहास, विस्तृत वंशावलियों, प्रमुख घटनाओं, प्रशासनिक व्यवस्था और स्थानीय परंपराओं का एक पारंपरिक लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण और विस्तृत स्रोत माना जाता है)। 2. शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी। (यह पुस्तक बघेलखण्ड क्षेत्र की विशिष्ट भाषाई संरचना, बोलियों, लोक साहित्य, लोक कलाओं और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर एक मानक, गहन और अकादमिक कृति है)। 3. श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी। (यह पुस्तक विंध्य क्षेत्र के व्यापक ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझने हेतु एक अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है)। 4. Luard, Major C.E. (1907). "Rewah State Gazetteer". Calcutta: Superintendent Government Printing, India. (यह ब्रिटिश कालीन गजेटियर Central India State Gazetteer Series, Vol. IV का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो तत्कालीन रीवा रियासत का विस्तृत भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक विवरण अत्यंत प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करता है)। 5. परिहार, डॉ. नृपेन्द्र सिंह. "बघेलखण्ड में बघेलों का अभ्युदय एवं विकास का समीक्षात्मक अध्ययन" (यह संभवतः एक पीएच.डी. शोध पत्र या उसी पर आधारित कोई महत्वपूर्ण अकादमिक प्रकाशन हो सकता है, जो बघेल राजवंश के उदय और विकास पर केंद्रित है)। 6. दुबे, पुष्पा. "बघेलखण्ड राज्य का ऐतिहासिक अध्ययन (प्रारम्भ से 1947 ई. तक)" (यह भी संभवतः एक पीएच.डी. शोध पत्र या उसी पर आधारित कोई महत्वपूर्ण प्रकाशन हो सकता है, जो बघेलखण्ड के दीर्घकालीन इतिहास का व्यापक अध्ययन प्रस्तुत करता है)। 7. तिवारी, डॉ. सुमन. "बघेलखण्ड के सेंगरों का सांस्कृतिक अनुशीलन" (यह शोध पत्र बघेलखण्ड क्षेत्र की अन्य महत्वपूर्ण राजपूत शक्तियों, जैसे सेंगर, और उनके बघेलों के साथ संबंधों तथा सांस्कृतिक योगदान के संदर्भ में अत्यंत उपयोगी हो सकता है)। 8. Wills, C.U. (1919). "The Raj-Gond Maharajas of the Satpura Hills: A Local History". Nagpur: Government Press. (यह पुस्तक मध्य भारत की अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्तियों, जैसे गोंड, और उनके उदय तथा शासन प्रणाली के संदर्भ में तुलनात्मक अध्ययन हेतु उपयोगी हो सकती है)। 9. Sinha, Surajit. (Ed.). (1987). "Tribal Polities and State Systems in Pre-Colonial Eastern and North Eastern India". Calcutta: Centre for Studies in Social Sciences. (यह संपादित ग्रंथ जनजातीय राज्यों और मुख्यधारा के राजपूत राज्यों के बीच संबंधों, उनकी राजनीतिक संरचनाओं और सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर महत्वपूर्ण सैद्धांतिक अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है)। 10. Gordon, Stewart. (1993). "The Marathas 1600–1818". Cambridge: Cambridge University Press. (The New Cambridge History of India series का भाग; यह पुस्तक बघेलों की समकालीन और पड़ोसी प्रमुख शक्ति, मराठों, और मध्ययुगीन तथा परवर्ती मध्ययुगीन भारत की जटिल राजनीतिक गतिशीलता के संदर्भ में अत्यंत उपयोगी है)। 11. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India - ASI) की विभिन्न वार्षिक रिपोर्टें, उत्खनन रिपोर्टें, मोनोग्राफ एवं अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशन (जो बांधवगढ़, गहोरा, मरफा, रीवा किला, देउर कोठार आदि महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थलों के उत्खनन, संरक्षण और अध्ययन के संदर्भ में अत्यंत प्रामाणिक और उपयोगी जानकारी प्रदान करते हैं)। 12. विभिन्न भारतीय विश्वविद्यालयों (जैसे अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा; इलाहाबाद विश्वविद्यालय; बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय; जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली; अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) के इतिहास, पुरातत्व, मानवशास्त्र और भाषा विज्ञान विभागों द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठित अकादमिक शोध-पत्र, जर्नल (जैसे Journal of Indian History, The Indian Historical Review, Epigraphia Indica, Man in India) एवं महत्वपूर्ण संगोष्ठी कार्यवाहियाँ।
पुरातात्त्विक एवं अभिलेखीय साक्ष्य:
- बांधवगढ़, गहोरा, मरफा, रीवा किला, गुर्गी, देउर कोठार, भरहुत (निकटवर्ती महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल) आदि पुरातात्त्विक स्थलों से प्राप्त विभिन्न कालों के स्थापत्य कला के अवशेष (जैसे किले, महल, मंदिर, बावड़ियाँ, प्रवेश द्वार), किलेबंदी के विस्तृत निशान, प्राचीन व्यापारिक और सैन्य मार्ग, जल प्रबंधन प्रणालियाँ (जैसे तालाब, नहरें), विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ (हिन्दू, जैन, बौद्ध), विशिष्ट प्रकार के मृद्भांड, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, अस्त्र-शस्त्र, और अन्य महत्वपूर्ण पुरावशेष।
- बघेल शासकों द्वारा समय-समय पर जारी किए गए सिक्के (यदि वे उपलब्ध हों और उनकी पहचान सुनिश्चित की जा सके, जो उनकी आर्थिक स्थिति और संप्रभुता का संकेत देते हैं) और विभिन्न भाषाओं (मुख्यतः संस्कृत, परन्तु बाद में फारसी और हिन्दी का भी प्रयोग) में लिखे गए ताम्रपत्र (जो भूमि अनुदान, महत्वपूर्ण घोषणाओं, संधि-पत्रों आदि से संबंधित होते हैं), शिलालेख (जो मंदिरों, बावड़ियों, किलों, विजय स्तंभों पर उत्कीर्ण मिलते हैं), और अन्य महत्वपूर्ण अभिलेखीय सामग्री।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान रीवा रियासत से संबंधित विभिन्न प्रशासनिक रिकॉर्ड, पोलिटिकल एजेंटों का पत्राचार, गोपनीय रिपोर्टें, संधियाँ, समझौते, भू-राजस्व बंदोबस्त के दस्तावेज़, मानचित्र और सर्वेक्षण रिपोर्टें जो भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India), नई दिल्ली एवं मध्य प्रदेश राज्य अभिलेखागार, भोपाल में व्यापक रूप से संरक्षित हैं और शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध हैं।
- भारत और विदेश के विभिन्न प्रतिष्ठित संग्रहालयों (जैसे रीवा महाराज का निजी संग्रहालय (यदि शोध के लिए सुलभ हो), गोविंदगढ़ किला संग्रहालय, इलाहाबाद संग्रहालय, राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली, इंडियन म्यूजियम कोलकाता, सालारजंग म्यूजियम हैदराबाद, ब्रिटिश म्यूजियम लंदन, विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम लंदन) में संरक्षित बघेलकालीन अस्त्र-शस्त्र, शाही वस्त्र, राजसी आभूषण, लघु चित्रकला की पांडुलिपियाँ, दैनिक उपयोग की कलात्मक वस्तुएँ एवं अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथा कलात्मक पुरावशेष।
निष्कर्ष: बघेल शौर्य, कूटनीति और सांस्कृतिक विरासत की अमिट छाप
बघेल राजवंश ने, अपनी स्थापना से लेकर भारतीय संघ में विलय तक, रीवा क्षेत्र के इतिहास, संस्कृति और सामाजिक ताने-बाने को एक नवीन, विशिष्ट और स्थायी दिशा प्रदान की। गुजरात की चुनौतीपूर्ण राजनीतिक परिस्थितियों से विस्थापित होकर, व्याघ्रदेव और उनके वीर उत्तराधिकारियों ने न केवल स्थानीय शक्तियों, जैसे लोध और भरों, के साथ प्रारंभिक संघर्षों का सफलतापूर्वक सामना किया, बल्कि उनके साथ समय-समय पर सहयोग और सामंजस्य भी स्थापित करते हुए, गहोरा से अपनी राजनीतिक यात्रा का शुभारंभ किया। उन्होंने बांधवगढ़ जैसे अभेद्य दुर्ग को अपनी शक्ति का केंद्र बनाया और अंततः रीवा को एक सुनियोजित राजधानी के रूप में विकसित कर एक सुदृढ़, विस्तृत और दीर्घजीवी राज्य की स्थापना की, जिसने सदियों तक अपनी पहचान बनाए रखी। महाराजा रामचंद्र सिंह जैसे प्रतापी, कला-प्रेमी और दूरदर्शी शासकों के संरक्षण में, संगीत सम्राट तानसेन और प्रज्ञावान बीरबल जैसी असाधारण विभूतियों के माध्यम से, रीवा की सांस्कृतिक ख्याति और बौद्धिक प्रतिष्ठा भारतीय उपमहाद्वीप में दूर-दूर तक फैली। मुगल साम्राज्य की अपार शक्ति और उसके द्वारा प्रस्तुत निरंतर चुनौतियों का साहसपूर्वक सामना करते हुए, और बाद में ब्रिटिश औपनिवेशिक संरक्षण की जटिल परिस्थितियों में रहते हुए भी, बघेल शासकों ने अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान, अपनी प्रशासनिक व्यवस्था और अपनी रियासत की आंतरिक स्वायत्तता को काफी हद तक बनाए रखने का सराहनीय प्रयास किया। आज का आधुनिक रीवा अपने प्राचीन, मध्यकालीन और रियासती काल के गौरवशाली इतिहास की समृद्ध और बहुआयामी धरोहर को गर्व के साथ सहेजे हुए समकालीन विकास और प्रगति की ओर तेजी से अग्रसर है। नवगठित मऊगंज जिला तथा अतरैला, डभौरा जैसे ऐतिहासिक महत्व के क्षेत्र इसी वृहत्तर और अविभाज्य ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो बघेलखंड की समग्र और जीवंत पहचान को और अधिक समृद्ध तथा विविधतापूर्ण बनाते हैं। बघेलों का शासनकाल निस्संदेह रीवा के इतिहास का एक स्वर्णिम और प्रेरणादायक अध्याय है, जो उनकी असाधारण राजनीतिक दूरदर्शिता, उनके अदम्य सैन्य कौशल, कला और संस्कृति के प्रति उनके गहरे अनुराग, तथा विषम परिस्थितियों के बीच भी अपनी अस्मिता और स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने की उनकी अद्भुत क्षमता का एक ज्वलंत और मूक साक्षी है। उनकी यह अविस्मरणीय गौरवगाथा आज भी हमें अपने अतीत से सीखने, वर्तमान को सँवारने और भविष्य के प्रति आशावान रहने की प्रेरणा देती है, तथा क्षेत्रीय इतिहास के गहन अध्ययन और उसके महत्व को प्रमुखता से रेखांकित करती है।
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हमारी विस्तृत लेख श्रृंखला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास"
इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की विभिन्न कड़ियों, राजवंशों के उत्थान-पतन, सांस्कृतिक विकास और ऐतिहासिक महत्व को और गहराई से जानने के लिए हमारी श्रृंखला के इन महत्वपूर्ण लेखों को अवश्य पढ़ें। यह सूची निरंतर अपडेट होती रहेगी जैसे-जैसे नए शोध और लेख प्रकाशित होंगे:
भाग I: बघेलखण्ड का प्राचीन इतिहास: आदिम संस्कृति से राजवंशों के उदय तक
बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य। आदिम संस्कृति से राजवंशों के उत्थान तक – एक गहन पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवांचल का प्राचीन इतिहास: प्रागैतिहासिक संस्कृति, पौराणिक आख्यान और मौर्योत्तर कालीन धरोहर
विंध्य धरा की प्राचीन गाथा: रीवांचल का पुरातात्त्विक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन। प्रागैतिहासिक काल से मौर्योत्तर काल तक। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का प्रारंभिक इतिहास: वनवासी सभ्यता, प्राचीन राजवंश और बहु-सांस्कृतिक विरासत (प्रागैतिहासिक से मौर्योत्तर)
रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत। एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का आरंभिक इतिहास: वनवासी संस्कृतियाँ, प्राचीन राजवंश और बहुआयामी सांस्कृतिक धरोहर
विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम। इस लेख में प्रारंभिक काल की गहन पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग II: बघेल राजवंश का उदय: गहोरा से रीवा तक राज्य स्थापना, प्रशासन और सांस्कृतिक विरासत
बघेल राजवंश का अभ्युदय और रीवा राज्य की स्थापना। एक राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक मीमांसा (गहोरा से रीवा तक)। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का मध्यकालीन उत्कर्ष: बघेल राजवंश का शासन, सांस्कृतिक योगदान और क्षेत्रीय प्रभाव
विंध्य धरा का बघेल गौरव: मध्यकालीन शासन, संस्कृति एवं प्रभाव। बघेल राजवंश का अभ्युदय, शासन, सांस्कृतिक योगदान एवं क्षेत्रीय प्रभाव। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन और सांस्कृतिक संगम
विंध्य की विरासत: बघेल-सेंगर संपर्क और रीवा का सांस्कृतिक ताना-बाना। रीवा का गौरवशाली इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन, और सांस्कृतिक संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग III: रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, मुगलकालीन संबंध और आधुनिकता की ओर
रीवा की गौरवगाथा: बघेल शौर्य, मुगल संपर्क और आधुनिकता का प्रभात। बघेल राजवंश, मुगल संपर्क, और आधुनिकता का संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का परिवर्तन: मुगलकालीन स्वर्ण युग से औपनिवेशिक चुनौतियों और आधुनिक रीवा के निर्माण तक
रीवा: मुगल वैभव से आधुनिकता की ओर – एक ऐतिहासिक यात्रा। बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 1)
रीवा: औपनिवेशिक काल से आधुनिक भारत तक का ऐतिहासिक सफर। बघेल राजवंश, ब्रिटिश संपर्क, स्वतंत्रता संग्राम और समकालीन विकास। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 2)
रियासत के भारतीय संघ में विलय की विस्तृत और निर्णायक कहानी, स्वतंत्रता उपरांत विकास और चुनौतियाँ। (लेबल: प्राचीन रीवा)
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