✶ विंध्य धरा की प्राचीन गाथा: रीवांचल का पुरातात्त्विक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन ✶
प्रागैतिहासिक काल से मौर्योत्तर काल तक - एक विस्तृत यात्रा
मध्य भारत के हृदय स्थल में, विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की नैसर्गिक और सुरम्य उपत्यकाओं में अवस्थित रीवा अंचल, जिसे प्राचीन संस्कृत साहित्य में पवित्र 'रेवा-खंड' (नर्मदा नदी से संबंधित क्षेत्र) के नाम से भी श्रद्धापूर्वक जाना जाता है, भारतीय सभ्यता के अनेक महत्वपूर्ण, निर्णायक और गौरवशाली अध्यायों का एक मौन किन्तु मुखर साक्षी रहा है। यह विस्तृत और गहन लेख रीवा अंचल के इसी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध अतीत का एक व्यापक अध्ययन प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है। इस अध्ययन में हम प्रागैतिहासिक काल के आदिम मानव की कलात्मक अभिव्यक्तियों से लेकर मौर्योत्तर काल तक के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, कलात्मक और आर्थिक विकास के विभिन्न सोपानों का एक विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन करेंगे, जिसमें पुरातात्त्विक साक्ष्यों, साहित्यिक संदर्भों और मुद्राशास्त्रीय निष्कर्षों का समन्वय किया जाएगा।

(चित्र: विंध्याचल पर्वत श्रृंखला, जो रीवांचल की प्राचीनता और नैसर्गिक सौंदर्य का प्रतीक है।)
प्रस्तावना: विंध्य की प्राचीन धरोहर का अनावरण
मध्य भारत की गोद में, विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की नैसर्गिक और सुरम्य उपत्यकाओं में बसा ऐतिहासिक रीवा अंचल, जिसे प्राचीन संस्कृत साहित्य में पवित्र 'रेवा-खंड' (नर्मदा नदी से संबंधित वृहत्तर क्षेत्र) के नाम से भी श्रद्धापूर्वक जाना और पहचाना जाता है, भारतीय सभ्यता के अनेक महत्वपूर्ण, निर्णायक और गौरवशाली अध्यायों का एक मूक किन्तु मुखर साक्षी रहा है। इस क्षेत्र का समृद्ध और बहुआयामी इतिहास केवल यशस्वी और वीर बघेल राजवंश के लगभग सात शताब्दियों के गौरवशाली शासनकाल तक ही सीमित नहीं है, जैसा कि प्रायः सरसरी तौर पर समझा जाता है। वस्तुतः, इसकी जड़ें सुदूर प्रागैतिहासिक काल के गहन और रहस्यमय धुंधलके में विलीन हैं, जहाँ इस पावन भूमि पर आदिकालीन मानव ने अपने अस्तित्व के प्रथम पदचिह्न अंकित किए थे और अपनी कलात्मक तथा आध्यात्मिक भावनाओं को चट्टानों पर उकेरी गई अद्भुत एवं जीवंत कलाकृतियों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की थी। ये शैलाश्रय आज भी उस युग की कहानी कहते हैं। कालचक्र के निरंतर और अबाध आवर्तनों के साथ, इस पवित्र और ऐतिहासिक भूमि ने वैदिक ऋचाओं की गंभीर एवं सारगर्भित गूंज सुनी है, प्राचीन महाजनपद काल में शक्तिशाली चेदि महाजनपद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और उसके सांस्कृतिक उत्कर्ष को निकट से देखा है, चक्रवर्ती सम्राट अशोक महान के नेतृत्व में मौर्यों के विशाल और सुसंगठित साम्राज्यिक विस्तार तथा उनकी विश्व-कल्याणकारी धम्म-नीति का गहन एवं दूरगामी अनुभव किया है। इसने शुंगों की सांस्कृतिक निष्ठा, उनके कलात्मक संरक्षण और वैदिक पुनरुत्थान के प्रयासों को परखा है, स्थानीय नाग राजवंशों की क्षेत्रीय शक्ति, उनके विशिष्ट योगदान और उनकी राजनीतिक स्वायत्तता का अवलोकन किया है, महान गुप्त सम्राटों के 'स्वर्णयुग' की सांस्कृतिक आभा, उनकी प्रशासनिक उत्कृष्टता और उनके कलात्मक चरमोत्कर्ष से यह आलोकित हुई है। तत्पश्चात यह भूमि कल्चुरियों, प्रतिहारों और चंदेलों जैसे मध्यकालीन पराक्रमी और कला-प्रेमी राजवंशों के उत्थान, उनके गौरवशाली शासन, उनकी स्थापत्य कला की भव्यता और अंततः उनके पतन का यह मूक दृष्टा भी बनी है। इन विभिन्न और विविध राजवंशों ने न केवल यहाँ की राजनीतिक नियति, प्रशासनिक संरचना और सामाजिक ताने-बाने को समय-समय पर आकार दिया, बल्कि उन्होंने कला, स्थापत्य, धर्म, साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में अपनी अमिट, मूल्यवान और स्थायी विरासत भी छोड़ी है, जिसके जीवंत अवशेष आज भी इस क्षेत्र में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं और शोधकर्ताओं के लिए अध्ययन का विषय हैं। यह विस्तृत और गहन लेख रीवा अंचल के इसी गौरवशाली और बहुआयामी अतीत का एक व्यापक अध्ययन प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है। इसमें विभिन्न पुरातात्त्विक खोजों, प्राचीन अभिलेखों (शिलालेख, ताम्रपत्र, गुहालेख), विविध साहित्यिक प्रमाणों (संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश ग्रंथों), तथा महत्वपूर्ण मुद्राशास्त्रीय जानकारियों (सिक्कों के अध्ययन) के सुदृढ़ आधार पर, 13वीं शताब्दी में बघेल राजवंश के आगमन से पूर्व के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, कलात्मक और आर्थिक विकास का एक विस्तृत, समालोचनात्मक और तुलनात्मक विश्लेषण किया जाएगा। इस अध्ययन के माध्यम से हम यह देखने और समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे यह क्षेत्र विभिन्न संस्कृतियों, जातियों, धर्मों और विचारधाराओं का एक अद्भुत संगम स्थल बना और इसने भारतीय इतिहास तथा सभ्यता के निर्माण एवं विकास में क्या महत्वपूर्ण और विशिष्ट भूमिका निभाई।
रीवांचल की पावन और ऐतिहासिक भूमि, जहाँ का प्रत्येक पत्थर और प्रत्येक कण मानो स्वयं इतिहास की अनकही कहानियाँ बोलते हैं, और जहाँ की नदियाँ तथा जलधाराएँ प्राचीन गौरवशाली गाथाएँ निरंतर सुनाती हुई प्रतीत होती हैं, वास्तव में भारतीय सभ्यता और संस्कृति की एक अनमोल, अद्वितीय और अक्षुण्ण धरोहर है, जिसे सहेजना और समझना हमारा परम कर्तव्य है।
एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला
1. प्रागैतिहासिक रीवांचल: चट्टानों पर जीवन के आरंभिक निशान
रीवा अंचल की विशिष्ट भौगोलिक संरचना, जिसमें विंध्याचल और कैमूर पर्वत श्रृंखलाओं की उपस्थिति, अनेक छोटी-बड़ी नदियों का जाल, घने वन और प्रचुर प्राकृतिक संसाधन शामिल हैं, ने अत्यंत प्राचीन काल से ही मानव को यहाँ बसने और अपनी सभ्यता विकसित करने के लिए आकर्षित किया। इन पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित असंख्य प्राकृतिक शैलाश्रय (Rock Shelters) और गुफाएँ इसके प्रत्यक्ष एवं अकाट्य पुरातात्त्विक प्रमाण हैं। इन सुरक्षित आश्रय स्थलों में आदिमानव ने न केवल विषम प्राकृतिक परिस्थितियों से अपनी रक्षा की, बल्कि अपनी सूक्ष्म कलात्मक प्रतिभा, अपनी कल्पनाशीलता और अपने परिवेश के प्रति अपनी गहरी समझ का भी अद्भुत एवं जीवंत प्रदर्शन किया, जो आज भी हमें आश्चर्यचकित करता है।
पुरातात्त्विक साक्ष्य एवं विश्लेषण:
गोविंदगढ़ और आस-पास के क्षेत्र: गोविंदगढ़ के निकट स्थित विभिन्न शैलाश्रयों और गुफाओं में मिली चट्टान चित्रकारी (Rock Paintings), जैसा कि विभिन्न पुरातात्त्विक अध्ययनों (उदाहरणार्थ, "प्राचीन एवं पौराणिक रीवा: एक विस्तृत अध्ययन" नामक संदर्भित शोध-पत्र और अन्य समकालीन शोधों) से ज्ञात होता है, इस क्षेत्र में सुसंगठित मानव गतिविधियों को मध्यपाषाण काल (Mesolithic Period, जो लगभग 10,000 ई.पू. से 4,000 ई.पू. तक माना जाता है) तक निश्चित रूप से ले जाती है। इन प्राचीन चित्रों में तत्कालीन मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को अत्यंत सजीवता और कलात्मकता के साथ दर्शाया गया है, जैसे – आखेट के रोमांचक दृश्य (जिनमें धनुष-बाण, भाले, और अन्य आदिम हथियारों से युक्त शिकारियों को विभिन्न पशुओं का पीछा करते हुए दिखाया गया है), विविध प्रकार के पशुओं (जैसे हिरण, बारहसिंगा, सांभर, बैल, जंगली सूअर, हाथी, गैंडा, और कभी-कभी मछली तथा पक्षी भी) की यथार्थवादी या शैलीगत आकृतियाँ, सामूहिक नृत्य और उत्सवों के दृश्य (जो उनके सामाजिक जीवन और सामुदायिक भावनाओं को दर्शाते हैं), विभिन्न मानव आकृतियाँ (स्त्री-पुरुष, बच्चे, और कभी-कभी अलंकृत या मुखौटा पहने हुए मानव भी), तथा कुछ रहस्यमय ज्यामितीय चिन्ह (जैसे वृत्त, त्रिकोण, चतुर्भुज, स्वास्तिक, और सर्पिलाकार रेखाएँ) प्रमुखता से अंकित हैं। इन शैलचित्रों की शैली, उनकी विषय-वस्तु, उनके बनाने की तकनीक और उनके कालक्रम का तुलनात्मक अध्ययन भारत के अन्य प्रसिद्ध प्रागैतिहासिक स्थलों, जैसे भीमबेटका (मध्य प्रदेश, जो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है) और मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश, विशेषकर सोनभद्र और कैमूर क्षेत्र) के चित्रों से करने पर, क्षेत्रीय भिन्नताओं, समानताओं और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्रदान करता है। ये चित्र तत्कालीन मानव के सामाजिक संगठन, उनके भोजन के प्रमुख स्रोतों (आखेट, मछली पकड़ना एवं कंद-मूल-फल संग्रहण), उनके संभावित धार्मिक विश्वासों और अनुष्ठानों (जैसे पशु पूजा, प्रकृति पूजा, प्रजनन शक्ति की उपासना के संकेत), और उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति तथा सौंदर्यबोध को समझने में हमारी अमूल्य सहायता करते हैं। इन चित्रों को बनाने के लिए उन्होंने स्थानीय रूप से उपलब्ध खनिज रंगों (जैसे लाल और पीला गेरू, हिरमिजी, सफेद खड़िया, काला कोयला या मैंगनीज) का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया, जिन्हें संभवतः पशुओं की चर्बी, पौधों के रस या पानी में मिलाकर चट्टानों की सतह पर लगाया जाता था।

(चित्र: रीवा की पाषाण कालीन सभ्यता का एक प्रतीकात्मक चित्रण, जिसमें शैलाश्रय और उस युग के जीवन की झलक है।)
कैमूर पर्वत श्रृंखला के शैलाश्रय:
कैमूर पर्वत श्रृंखला, जो विंध्याचल का ही एक पूर्वी विस्तार है और रीवा अंचल का एक महत्वपूर्ण तथा विस्तृत भाग निर्मित करती है, ऐसे अनेक प्राचीन शैलाश्रयों और गुफाओं से भरी पड़ी है, जिनका अभी तक पूरी तरह से व्यवस्थित पुरातात्त्विक सर्वेक्षण और गहन वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो पाया है। रीवा जिले के गुढ़, सिरमौर, हनुमना और मऊगंज (अब नवगठित जिला) जैसी तहसीलों और उनके आसपास के क्षेत्रों में कई महत्वपूर्ण शैलाश्रय स्थल समय-समय पर प्रकाश में आए हैं, जिनमें उल्लेखनीय शैलचित्र और पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। इन अल्प-ज्ञात या अज्ञात स्थानों पर भविष्य में होने वाले सुनियोजित और वैज्ञानिक शोध न केवल प्रागैतिहासिक संस्कृतियों के कालक्रम को अधिक सटीकता से निर्धारित करने में सहायक होंगे, बल्कि उनके क्षेत्रीय विस्तार, उनकी जीवनशैली, उनकी कलात्मक परंपराओं और अन्य समकालीन संस्कृतियों के साथ उनके संभावित संपर्कों तथा आदान-प्रदान को और अधिक स्पष्ट कर सकते हैं, जिससे भारतीय प्रागितिहास के ज्ञान में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी।
कैमूर की इन रहस्यमयी और प्राचीन कंदराओं में छिपे अज्ञात शैलाश्रय, अतीत के अनगिनत अनसुलझे रहस्यों और मानव सभ्यता के प्रारंभिक अध्यायों को अपने गर्भ में अत्यंत सावधानी से छिपाए हुए हैं, जो भविष्य के धैर्यवान, कुशल और समर्पित शोधकर्ताओं की उत्सुकतापूर्ण प्रतीक्षा कर रहे हैं, ताकि वे अपने मौन को तोड़कर हमें अपने समय की कहानी सुना सकें।
पाषाण उपकरण – मानव के तकनीकी विकास के साक्षी:
इन शैलाश्रयों और उनके निकटवर्ती क्षेत्रों, विशेषकर प्रमुख नदी घाटियों (जैसे बीहर, बिछिया, महानदी, सोन और टोंस की सहायक नदियाँ) के तलछटों और प्राचीन टीलों से, मानव द्वारा निर्मित विभिन्न प्रकार के पाषाण उपकरण प्रचुर मात्रा में और विभिन्न स्तरों से प्राप्त हुए हैं। इनमें पूर्व पाषाण काल (Lower Paleolithic Period) के भारी-भरकम और अपरिष्कृत औजार (जैसे हस्तकुठार (Hand-axes), विदारक (Cleavers), खंडक (Choppers)), मध्यपाषाण काल (Mesolithic Period) के अपेक्षाकृत छोटे, सुघड़ और अधिक परिष्कृत पत्थर के औजार (जिन्हें माइक्रोलिथ्स या सूक्ष्म पाषाण उपकरण कहा जाता है – जैसे विभिन्न प्रकार के ब्लेड (Blades), पॉइंट (Points), ट्रेपीज (Trapezes), ब्यूरिन (Burins) और स्क्रेपर (Scrapers)), तथा नवपाषाण काल (Neolithic Period, जो लगभग 4,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. या उसके बाद तक माना जाता है) के घर्षित और पॉलिश किए हुए पत्थर के उपकरण, जैसे विभिन्न आकार की कुल्हाड़ियाँ (Celts), बसूले (Adzes), छेनियाँ (Chisels), मूसल (Mullers), सिलबट्टे (Saddle-querns) और रिंग-स्टोन (Ring-stones) आदि प्रमुखता से मिले हैं। ये विविध प्रकार के पाषाण उपकरण इस क्षेत्र में मानव की अत्यंत प्राचीन और निरंतर उपस्थिति तथा उनके तकनीकी विकास के विभिन्न चरणों और बदलते हुए पर्यावरण के साथ उनके अनुकूलन के अकाट्य एवं महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक प्रमाण हैं।
जनजातीय और सांस्कृतिक संबंध – अतीत से वर्तमान तक की कड़ी:
इन प्राचीन शैलाश्रयों में चित्रित कलाकृतियों, निवास स्थलों के स्वरूप और प्राप्त पाषाण उपकरणों का गहन अध्ययन करने पर इनका संबंध इस क्षेत्र के मूल निवासी माने जाने वाले ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार से संबंधित विभिन्न जनजातीय समूहों, विशेषकर कोल, गोंड, और बैगा समुदाय के सम्मानित पूर्वजों से जोड़ा जा सकता है। इन जनजातियों की समृद्ध लोककथाओं, उनके पारंपरिक कला रूपों (जैसे गोदना, भित्ति चित्र, काष्ठ शिल्प), उनके रीति-रिवाजों और उनकी विशिष्ट जीवनशैली में इन प्राचीन शैलचित्रों की विषय-वस्तु, उनके प्रतीकों और उनकी कलात्मक शैली की अद्भुत एवं आश्चर्यजनक झलक आज भी यदा-कदा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। यह निरंतरता का अध्ययन नृवंशविज्ञान (Ethnography), नृजातीय पुरातत्व (Ethnoarchaeology) और प्रागैतिहासिक पुरातत्व (Prehistoric Archaeology) के अंतर्संबंधों को समझने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अनूठा अवसर प्रदान करता है, जिससे हम अतीत और वर्तमान के बीच एक सार्थक संवाद स्थापित कर सकते हैं।
2. पौराणिक ग्रंथों में रीवांचल: 'रेवा-खंड' की पवित्र भूमि
रीवा अंचल का नामकरण, इसकी भौगोलिक पहचान और इसकी गहन आध्यात्मिक चेतना का अटूट संबंध भारत की पवित्रतम और प्राचीनतम नदियों में से एक, नर्मदा नदी, से गहराई से जुड़ा हुआ है। नर्मदा नदी को प्राचीन भारतीय वाङ्मय, विशेषकर पुराणों और महाकाव्यों में, 'रेवा' नाम से भी प्रमुखता से जाना और पूजा जाता है। यह संपूर्ण क्षेत्र वैदिक, पौराणिक और महाकाव्यकालीन आख्यानों, कथाओं तथा किंवदंतियों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और श्रद्धास्पद स्थान रखता है, जो इसकी प्राचीनता और सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करता है।
साहित्यिक और पौराणिक साक्ष्य – अतीत के झरोखे:
नाम की उत्पत्ति और 'रेवोत्तर' की संकल्पना: जैसा कि "जिला रीवा की आधिकारिक वेबसाइट" और विभिन्न सम्मानित ऐतिहासिक तथा साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है, 'रीवा' नाम संभवतः 'रेवा' शब्द का ही एक परिवर्तित या अपभ्रंश रूप है। विभिन्न पुराणों (जैसे स्कंद पुराण, मत्स्य पुराण, वायु पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण आदि) में इस विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र को 'रेवोत्तर' (अर्थात् रेवा या नर्मदा नदी के उत्तर दिशा में स्थित भूभाग) अथवा 'रेवा-खंड' (अर्थात् रेवा नदी से संबंधित या उसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाला एक विशाल और पवित्र खंड या प्रदेश) के रूप में अत्यंत आदरपूर्वक वर्णित किया गया है। यह विशिष्ट नामकरण इस क्षेत्र की न केवल भौगोलिक अवस्थिति को दर्शाता है, बल्कि इसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान को भी नर्मदा (रेवा) नदी के साथ अभिन्न रूप से जोड़ता है, जो भारतीय संस्कृति में एक जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी देवी के रूप में पूजित है। स्कंद पुराण (रेवा-खंड) – नर्मदा की महिमा का गान: प्रसिद्ध अठारह महापुराणों में से एक, स्कंद पुराण, का एक संपूर्ण और विस्तृत खंड 'रेवा-खंड' के नाम से समर्पित है। इस महत्वपूर्ण खंड में नर्मदा नदी की पौराणिक उत्पत्ति (भगवान शिव के शरीर से निकले पसीने या 'स्वेद' से, इसी कारण इसे 'मैकलसुता' भी कहते हैं क्योंकि यह मैकल पर्वत श्रृंखला (अमरकंटक) से निकलती है), इसके विभिन्न पवित्र नामों (जैसे रेवा, नर्मदा, सोमोद्भवा, शंकरी, इंदुजा, मंदाकिनी आदि), इसके असाधारण धार्मिक महत्व, इसके दोनों तटों पर स्थित सैकड़ों प्राचीन और पवित्र तीर्थों, कुंडों, आश्रमों, और इससे जुड़ी विभिन्न प्रकार की धार्मिक क्रियाओं (जैसे स्नान, दान, श्राद्ध, तर्पण, जप, तपस्या, परिक्रमा) का अत्यंत विस्तृत, काव्यात्मक और भक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है। "भगवान शिव स्वयं इस पुण्यसलिला नदी के किनारे विभिन्न रूपों में निवास करते हैं" और "नर्मदा के हर कंकर में शंकर हैं" (जैसा कि आपके द्वारा प्रदत्त विस्तृत नोट एवं विभिन्न जनश्रुतियों में उल्लेखित है) जैसी गहन आस्था और मान्यताएँ इसे भारतीय जनमानस में अत्यंत पवित्र और पूजनीय बनाती हैं। रेवा-खंड में वर्णित अनेक प्राचीन स्थल, तीर्थ और आश्रम आज भी इस क्षेत्र में, विशेषकर नर्मदा घाटी में, श्रद्धापूर्वक पूजे जाते हैं और लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं।

(चित्र: अमरकंटक, नर्मदा नदी का उद्गम स्थल, जो रेवा-खंड का एक पवित्र तीर्थ है।)
अन्य पौराणिक संदर्भ – विंध्य की गाथाएँ:
महाभारत महाकाव्य के 'वनपर्व' में महर्षि अगस्त्य द्वारा विंध्य पर्वत के बढ़ते हुए अहंकार को अपनी तपोबल से शांत करने और उसे दक्षिण की ओर झुकने पर विवश करने का प्रसिद्ध और रोचक प्रसंग आता है, जिससे दक्षिण भारत का मार्ग आर्यों के लिए सुगम हुआ और उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान संभव हुआ। विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में विंध्य क्षेत्र को महान ऋषि-मुनियों (जैसे अगस्त्य, अत्रि, जमदग्नि, मार्कण्डेय) की तपोभूमि, यक्षों, गंधर्वों, नागों तथा विभिन्न देवताओं का प्रिय निवास स्थान और अनेक महत्वपूर्ण पौराणिक घटनाओं का साक्षी बताया गया है। आपके द्वारा संदर्भित शोध-पत्र "भाग 1: प्राचीन एवं पौराणिक रीवा: एक विस्तृत अध्ययन" में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के चौदह वर्षीय वनवास काल के दौरान इस क्षेत्र से गुजरने, उनके द्वारा चित्रकूट में निवास करने, उनके अनुज वीर लक्ष्मण द्वारा चित्रकूट के पास एक आश्रम बनाने और संभवतः 'बंधव-गिरि' (वर्तमान बंधवगढ़) की स्थापना का पौराणिक उल्लेख भी इसी समृद्ध परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऐसी मान्यता है कि बंधवगढ़ का नाम लक्ष्मण द्वारा अपने अग्रज भ्राता भगवान राम के लिए 'बांधे गए' या सुरक्षित किए गए स्थान से पड़ा है, जहाँ से वे लंका पर दृष्टि रख सकते थे। ये कथाएँ इस क्षेत्र के प्राचीन गौरव और उसके पौराणिक महत्व को और अधिक बढ़ाती हैं।
स्कंद पुराण का रेवा-खंड इस पवित्र भूमि की आध्यात्मिकता, उसकी नैसर्गिक सुंदरता और उसकी प्राचीनता का एक ऐसा मधुर और ओजस्वी गुणगान करता है, जो इसे महान ऋषियों की तपस्थली, देवताओं की प्रिय क्रीड़ास्थली और मोक्ष की कामना करने वाले श्रद्धालुओं के लिए एक परम गंतव्य के रूप में पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ प्रतिष्ठित करता है।
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व – परंपराओं का प्रवाह:
ये विभिन्न पौराणिक कथाएँ और आख्यान न केवल विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों को एक गहरी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान प्रदान करते हैं, बल्कि वे उस समय के समाज की आस्थाओं, उनके मूल्यों, उनकी तीर्थयात्रा की सुदीर्घ और महत्वपूर्ण परंपराओं, प्रकृति के विभिन्न तत्वों (जैसे नदियाँ, पर्वत, वन) के प्रति उनके गहरे सम्मान और आदर के दृष्टिकोण, तथा विभिन्न समुदायों, संस्कृतियों और विचारों के बीच होने वाले निरंतर और जीवंत सांस्कृतिक आदान-प्रदान को भी अत्यंत सजीवता के साथ दर्शाती हैं। रीवांचल का यह गहन और व्यापक पौराणिक जुड़ाव इसे भारत के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मानचित्र पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट स्थान दिलाता है, और इसके अध्ययन को और भी रोचक तथा प्रासंगिक बनाता है।
3. महाजनपद काल और सुक्तिमती की पहचान का प्रश्न:
ईसा पूर्व छठी शताब्दी का काल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन और संक्रमण का काल था। इस समय गंगा घाटी और उसके आसपास के क्षेत्रों में सोलह बड़े और शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ, जिन्हें प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रंथों में महाजनपद के नाम से जाना जाता है। यह काल भारतीय इतिहास में द्वितीय नगरीकरण, राजनीतिक केंद्रीकरण की प्रक्रिया के प्रारंभ, मुद्रा के प्रचलन में वृद्धि, व्यापार और वाणिज्य के विकास, तथा नए, प्रभावशाली और सुधारवादी धार्मिक-दार्शनिक आंदोलनों (विशेषकर बौद्ध और जैन धर्म) के उदय के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। इन सोलह महाजनपदों में से एक, चेदि महाजनपद, का संबंध भी रीवा अंचल और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों से जोड़ा जाता है, जो इस क्षेत्र के प्राचीन राजनीतिक महत्व को रेखांकित करता है।
ऐतिहासिक साक्ष्य और विवेचन – सुक्तिमती की खोज:
सुक्तिमती की अवस्थिति – एक अनसुलझी पहेली: महाभारत महाकाव्य (विशेषकर सभा पर्व में) और प्राचीन बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय में चेदि महाजनपद का प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। महाभारत के अनुसार, चेदि महाजनपद की वैभवशाली राजधानी 'सुक्तिमती' (या शुक्तिमती) का उल्लेख है, जो सुक्तिमती (या शुक्तिमती) नामक एक पवित्र नदी के तट पर स्थित थी। आपके द्वारा संदर्भित शोध-पत्र "भाग 1: प्राचीन एवं पौराणिक रीवा: एक विस्तृत अध्ययन" के अनुसार, कुछ प्रतिष्ठित विद्वान और इतिहासकार (जैसे एफ.ई. पार्जिटर, जिन्होंने प्राचीन भारतीय भूगोल पर महत्वपूर्ण कार्य किया है, और डॉ. हेमचंद्र रायचौधरी, जो प्राचीन भारतीय राजनीतिक इतिहास के विशेषज्ञ थे) यह मानते हैं कि चेदि महाजनपद की राजधानी सुक्तिमती के पुरातात्त्विक अवशेष वर्तमान रीवा जिले के भीरा या इताहा गाँव के पास या उनके निकटवर्ती क्षेत्र में कहीं दबे हो सकते हैं। ये गाँव रीवा नगर से लगभग 18-20 किलोमीटर उत्तर-पूर्व दिशा में, केन नदी (जिसे कुछ विद्वान प्राचीन शुक्तिमती नदी से समीकृत करते हैं, यद्यपि यह विवादास्पद है) के आस-पास स्थित हैं। हालांकि, सुक्तिमती की निश्चित और सर्वमान्य पहचान अभी भी इतिहासकारों, पुरातत्वविदों और भाषाविदों के बीच गहन शोध और गंभीर विमर्श का विषय बनी हुई है। इसके लिए और अधिक व्यापक, सुनियोजित तथा वैज्ञानिक पुरातात्त्विक खोजों, उत्खननों और विभिन्न साहित्यिक तथा अभिलेखीय साक्ष्यों के तुलनात्मक अध्ययनों की महती आवश्यकता है। कुछ अन्य विद्वान सुक्तिमती की अवस्थिति को वर्तमान बुंदेलखंड के किसी अन्य स्थान (जैसे बांदा जिले के आसपास) पर भी मानते हैं।
पुरातात्त्विक खोज की संभावनाएँ और महत्व:
यदि भविष्य में भीरा, इताहा या उनके आसपास के किसी अन्य संभावित पुरातात्त्विक स्थल पर व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से खुदाई की जाती है, और वहाँ से प्रारंभिक ऐतिहासिक काल (अर्थात् लगभग 600 ई.पू. से 300 ई.पू. या उसके बाद तक) की एक सुविकसित शहरी बसावट के स्पष्ट प्रमाण, किलेबंदी के अवशेष (जैसे परकोटा, खाई, बुर्ज), उस काल की विशिष्ट प्रकार की मृद्भांड परंपरा (जैसे उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड - Northern Black Polished Ware or NBPW, जो उस काल की एक प्रमुख पुरातात्त्विक विशेषता है), प्राचीनतम भारतीय सिक्के अर्थात् आहत मुद्राएँ (Punch-marked coins), विभिन्न प्रकार के धातु उपकरण, टेराकोटा की वस्तुएँ, और अन्य महत्वपूर्ण सांस्कृतिक वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में मिलती हैं, तो उस स्थल के प्राचीन सुक्तिमती नगरी के साथ संबंध को और अधिक पुरातात्त्विक बल तथा प्रामाणिकता प्राप्त होगी। इस क्षेत्र में व्यापक और गहन पुरातात्त्विक अन्वेषण की अपार और रोमांचक संभावनाएं आज भी विद्यमान हैं, जो भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय पर नवीन प्रकाश डाल सकती हैं।
व्यापारिक मार्ग और आर्थिक गतिविधियाँ:
यह भी उल्लेखनीय है कि रीवा और उसके आसपास का क्षेत्र प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों पर स्थित था। संभवतः यह उस प्रसिद्ध दक्षिणापथ (दक्षिण की ओर जाने वाला मार्ग) की एक महत्वपूर्ण शाखा या उससे जुड़ा हुआ क्षेत्र रहा होगा, जो उत्तर भारत के प्रमुख व्यापारिक और राजनीतिक केंद्रों, जैसे कौशाम्बी (वत्स महाजनपद की राजधानी, इलाहाबाद के निकट), काशी, और मगध (पाटलिपुत्र), को मध्य, दक्षिण और पश्चिम भारत के विभिन्न भागों से जोड़ता था। यदि सुक्तिमती नगरी इस क्षेत्र में स्थित थी, तो यह निश्चित रूप से इस व्यापक और जीवंत व्यापारिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण पड़ाव, विनिमय केंद्र और प्रशासनिक नगर रही होगी, जिससे इसकी आर्थिक समृद्धि, सामरिक महत्ता और सांस्कृतिक विविधता में और अधिक वृद्धि हुई होगी।
विशेष सूचना: ऐतिहासिक श्रृंखला
यह विस्तृत संस्करण "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" नामक हमारी महत्वाकांक्षी ऐतिहासिक श्रृंखला का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और आधारभूत भाग है, जो विशेष रूप से इस गौरवशाली क्षेत्र के प्राचीनतम इतिहास, उसकी प्रागैतिहासिक संस्कृतियों, पौराणिक संदर्भों एवं मौर्योत्तर काल तक के प्रारंभिक राजवंशों पर केंद्रित है। इस गूढ़, बहुआयामी और विस्तृत विषय पर हमारी समर्पित शोध टीम द्वारा लगभग दस भागों की एक व्यापक और गहन श्रृंखला प्रकाशित करने की महत्वाकांक्षी योजना है। इस श्रृंखला के प्रत्येक भाग में विभिन्न ऐतिहासिक कालखंडों, महत्वपूर्ण घटनाओं, प्रमुख शासकों, उनकी नीतियों, सांस्कृतिक विकास, सामाजिक परिवर्तनों और आर्थिक संरचना का गहन, निष्पक्ष और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा। हम आपसे, हमारे प्रबुद्ध, जिज्ञासु और इतिहास-प्रेमी पाठकों से, विनम्र अनुरोध करते हैं कि आप इस श्रृंखला के सभी भागों को धैर्यपूर्वक, मनोयोग से और आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ें, उन पर गहन चिंतन करें और अपने बहुमूल्य विचार, सारगर्भित सुझाव, तथ्यात्मक सुधार (यदि कोई हों) एवं रचनात्मक प्रतिक्रियाएं हमें अवश्य साझा करें। आपकी सक्रिय बौद्धिक सहभागिता और सकारात्मक प्रतिसाद हमारे इन शोध प्रयासों को न केवल सार्थकता और एक नवीन स्फूर्ति प्रदान करेगा, बल्कि हमें इस ऐतिहासिक वृत्तांत को और भी उन्नत, व्यापक, तथ्यात्मक रूप से सुदृढ़ और त्रुटिरहित बनाने में भी अमूल्य सहायता प्रदान करेगा।
ऐसे ही अन्य रोचक, ज्ञानवर्धक और शोधपरक ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक विषयों की गहन जानकारी नियमित रूप से प्राप्त करने तथा हमारे शोध एवं संपादन प्रयासों से सक्रिय रूप से जुड़ने, उन्हें समर्थन देने और हमारी इस ज्ञान यात्रा का हिस्सा बनने के लिए, कृपया हमें ईमेल करें: shriasheeshacharya@gmail.com
4. मौर्यकालीन रीवांचल: बौद्ध धर्म के प्रसार के केंद्र – देउरकोठार
भारत के प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य, मौर्य वंश, के महानतम शासक चक्रवर्ती सम्राट अशोक (शासनकाल लगभग 268-232 ई.पू.) ने कलिंग युद्ध की विभीषिका के पश्चात् बौद्ध धर्म को न केवल व्यक्तिगत रूप से अंगीकार किया, बल्कि उसे राजकीय संरक्षण भी प्रदान किया और उसके शांति, अहिंसा तथा करुणा के संदेश का प्रसार भारतीय उपमहाद्वीप तथा विदेशों में दूर-दूर तक पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ किया। रीवा अंचल भी उनके इन लोक-कल्याणकारी और धर्म-प्रचारक प्रयासों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और जीवंत साक्षी है, जिसका सबसे प्रमुख और अकाट्य पुरातात्त्विक प्रमाण देउरकोठार का अद्वितीय और विस्तृत पुरातात्त्विक स्थल है, जो मौर्यकालीन बौद्ध कला, स्थापत्य और धार्मिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था।

(चित्र: देउरकोठार के मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप, जो अशोक की धम्म-नीति के प्रतीक हैं।)
देउरकोठार का पुरातात्त्विक महत्व – अतीत के स्वर्णिम पृष्ठ:
अवस्थिति एवं खोज का इतिहास: यह अत्यंत महत्वपूर्ण और राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त पुरातात्त्विक स्थल, जैसा कि आपके द्वारा संदर्भित शोध-पत्र "भाग 1: प्राचीन एवं पौराणिक रीवा: एक विस्तृत अध्ययन" में यथोचित रूप से वर्णित है, वर्तमान मध्य प्रदेश के रीवा जिले की सिरमौर तहसील के अंतर्गत आने वाली तेहन ग्राम पंचायत के देउरकोठार नामक गाँव में, रीवा-इलाहाबाद (अब प्रयागराज) राष्ट्रीय राजमार्ग (NH-30) से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर, एक शांत और सुरम्य प्राकृतिक परिवेश में स्थित है। इस महत्वपूर्ण स्थल की पुरातात्त्विक खोज सर्वप्रथम 1982 में स्थानीय निवासियों और कुछ शौकिया पुरातत्वविदों द्वारा की गई थी। इसके उपरांत, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India - ASI) ने इसके महत्व को पहचानते हुए यहाँ कई चरणों में व्यवस्थित और वैज्ञानिक उत्खनन कार्य करवाया, जिससे मौर्यकालीन इतिहास और बौद्ध धर्म के प्रसार से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्रकाश में आईं। वास्तुकला और अभिलेखीय साक्ष्य – अशोक की धम्म-नीति के प्रतीक: देउरकोठार के उत्खनन से तीन बड़े आकार के, गोलाकार और ठोस ईंटों से बने बौद्ध स्तूपों के अवशेष प्राप्त हुए हैं (जिनमें से एक को मुख्य स्तूप माना गया है, जिसका व्यास लगभग 30 मीटर और वर्तमान अवशिष्ट ऊँचाई लगभग 9 मीटर है)। इन मुख्य स्तूपों के अतिरिक्त, लगभग 46 छोटे आकार के पत्थर के स्तूप भी मिले हैं, जिन्हें संभवतः मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाए गए 'वोटिव स्तूप' या मन्नत के स्तूप कहा जाता है। यहाँ से एक संभावित चैत्य गृह (बौद्ध प्रार्थना सभा भवन) और बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए बने विहारों की आधार संरचनाएँ भी प्रकाश में आई हैं। परन्तु, इस स्थल का सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक पुरातात्त्विक साक्ष्य अशोककालीन ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में खुदा हुआ छह पंक्तियों का एक प्रस्तर स्तंभ-अभिलेख (या शिलालेख) है, जो एक टूटे हुए स्तंभ के टुकड़े पर उत्कीर्ण है। यह सभी अकाट्य प्रमाण इस स्थल के मौर्य काल, विशेषकर सम्राट अशोक के समय, में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और सक्रिय बौद्ध केंद्र होने की असंदिग्ध रूप से पुष्टि करते हैं। यह अभिलेख संभवतः बौद्ध संघ में किसी प्रकार की फूट या मतभेद को रोकने, अनुशासन बनाए रखने, अथवा बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों (जैसे त्रिरत्न – बुद्ध, धम्म, संघ) के व्यापक प्रचार-प्रसार से संबंधित हो सकता है, जैसा कि सम्राट अशोक के अन्य प्रमुख स्तंभ और शिला अभिलेखों (जैसे सारनाथ, साँची, कौशाम्बी के लघु स्तंभ लेख) में भी पाया जाता है। अन्य महत्वपूर्ण पुरावशेष – तत्कालीन जीवन की झलक: देउरकोठार के उत्खनन से स्तूपों और अभिलेखों के अतिरिक्त अन्य अनेक महत्वपूर्ण पुरावशेष भी प्राप्त हुए हैं, जो तत्कालीन भौतिक संस्कृति, व्यापारिक संबंधों और धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालते हैं। इनमें मौर्यकालीन विशिष्ट चमकदार उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड (Northern Black Polished Ware - NBPW), आहत मुद्राएँ (Punch-marked coins - जो भारत के प्राचीनतम सिक्के माने जाते हैं और मौर्यकाल में व्यापक रूप से प्रचलित थे), विभिन्न प्रकार की टेराकोटा (पकाई हुई मिट्टी) की कलात्मक वस्तुएँ (जैसे मानव और पशु आकृतियाँ), विविध प्रकार के मनके (मोती, जो संभवतः कीमती पत्थरों, कांच या मिट्टी से बने होते थे) और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएँ शामिल हैं। यहाँ स्थित कुछ प्राकृतिक गुफाएँ भी मिली हैं, जिनका उपयोग संभवतः बौद्ध भिक्षुओं द्वारा वर्षा ऋतु में अस्थायी निवास (जिसे 'वर्षावास' कहा जाता था) के लिए या ध्यान-साधना के लिए किया जाता रहा होगा।
देउरकोठार के विशाल और शांत स्तूप तथा उन पर उत्कीर्ण प्राचीन अभिलेख, चक्रवर्ती सम्राट अशोक की लोक-कल्याणकारी धम्म नीति, उनकी धार्मिक सहिष्णुता और मध्य भारत में बौद्ध धर्म के व्यापक विस्तार के जीवंत एवं मूक साक्षी हैं, जो हमें अतीत के गौरव का स्मरण कराते हैं।
ऐतिहासिक संदर्भ और गहन विश्लेषण:
देउरकोठार के पुरातात्त्विक स्थल की खोज ने न केवल रीवा अंचल के प्राचीन इतिहास को समृद्ध किया है, बल्कि इसने मौर्य साम्राज्य की पूर्वी और दक्षिणी सीमाओं, उसके प्रशासनिक नियंत्रण की गहराई, और उसके सांस्कृतिक प्रभाव के विस्तार को समझने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह स्थल संभवतः उस प्राचीन और महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग (जो संभवतः उत्तरापथ की एक शाखा थी) पर स्थित एक महत्वपूर्ण धार्मिक, प्रशासनिक और वाणिज्यिक केंद्र रहा होगा, जो उत्तर भारत के प्रमुख नगरों जैसे उज्जैन, विदिशा, कौशाम्बी, सारनाथ और पाटलिपुत्र को दक्षिण और पश्चिम भारत से जोड़ता था। सम्राट अशोक द्वारा यहाँ इतने विशाल स्तूपों का निर्माण करवाना और महत्वपूर्ण अभिलेख स्थापित करवाना बौद्ध धर्म के प्रति उनकी गहरी निष्ठा, उनके द्वारा अपनाई गई 'धम्म-विजय' (अर्थात् शस्त्रों द्वारा विजय के स्थान पर धर्म और नैतिकता द्वारा विजय) की अनूठी नीति, और उनके साम्राज्य में शांति, सद्भाव तथा नैतिक आचरण के प्रसार के उनके अथक प्रयासों का एक स्पष्ट और अकाट्य प्रमाण है। यह स्थल न केवल धार्मिक आस्था और उपासना का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, बल्कि यह मौर्यकालीन कला, स्थापत्य की भव्यता और उस युग के उत्कृष्ट अभियांत्रिकी कौशल का भी एक अद्वितीय एवं प्रभावशाली उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो आज भी शोधकर्ताओं और पर्यटकों को समान रूप से आकर्षित करता है।
5. मौर्योत्तर काल, गुप्त-वाकाटक युग और प्रारंभिक राजवंशों का उदय
मौर्य साम्राज्य के पतन (लगभग 185 ई.पू.) के उपरांत, शुंग, कण्व, सातवाहन और कुषाण जैसी विभिन्न महत्वपूर्ण शक्तियों का उदय हुआ, जिनका प्रभाव मध्य भारत के विभिन्न भागों पर अलग-अलग समय में और अलग-अलग मात्रा में रहा। यद्यपि रीवा अंचल से इन राजवंशों के प्रत्यक्ष और स्पष्ट पुरातात्त्विक साक्ष्य अभी तक सीमित मात्रा में ही प्राप्त हुए हैं, तथापि यह क्षेत्र पूर्णतः उपेक्षित नहीं रहा होगा और इन शक्तिशाली साम्राज्यों के सांस्कृतिक तथा व्यापारिक प्रभाव यहाँ तक अवश्य ही पहुँचे होंगे, विशेषकर उन व्यापारिक मार्गों के माध्यम से जो इस क्षेत्र से होकर गुजरते थे। तत्पश्चात, भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाने वाला गुप्त काल (लगभग चौथी से छठी शताब्दी ईस्वी) और उनके समकालीन तथा दक्षिण में शक्तिशाली वाकाटक राजवंश के शासनकाल में कला, साहित्य, विज्ञान, दर्शन और स्थापत्य का जो अभूतपूर्व और चहुंमुखी विकास हुआ, उसकी गूंज और उसका प्रभाव रीवांचल की भूमि पर भी स्पष्ट रूप से सुनाई देती है, जिसके अनेक महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक प्रमाण आज भी विद्यमान हैं।
गुप्तकालीन प्रभाव – कला और प्रशासन का उत्कर्ष:
बंधवगढ़ – वैष्णव धर्म और कला का केंद्र: बंधवगढ़ (वर्तमान उमरिया जिला, जो ऐतिहासिक रूप से रीवा रियासत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग रहा है) का प्राचीन किला और उसके आसपास का क्षेत्र गुप्तकाल में वैष्णव धर्म और कला का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनकर उभरा। यहाँ स्थित प्राचीन गुफाओं में उत्कीर्ण शेषशायी विष्णु (क्षीरसागर में अनंतनाग पर शयन करते हुए भगवान विष्णु की अत्यंत भव्य और कलात्मक मूर्ति), वराह अवतार (पृथ्वी का उद्धार करते हुए भगवान विष्णु के वराह रूप की विशाल प्रतिमा), मत्स्य अवतार और अन्य वैष्णव देवी-देवताओं तथा अवतारों की कलात्मक प्रतिमाएँ गुप्तकालीन मूर्तिकला शैली (विशेष रूप से मथुरा, एरण और उदयगिरि की कला शैलियों से प्रभावित) के उत्कृष्ट और प्रभावशाली उदाहरण हैं। यहाँ से कुछ महत्वपूर्ण अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं, जो गुप्तकाल या उसके परवर्ती समय के माने जाते हैं, और जो इस क्षेत्र में वैष्णव धर्म की व्यापक लोकप्रियता, गुप्तकालीन कला के प्रसार, तथा स्थानीय शासकों या सामंतों की गतिविधियों पर प्रकाश डालते हैं। सुपिया अभिलेख – गुप्त प्रशासन का प्रमाण: रीवा जिले के सुपिया नामक ग्राम से प्राप्त स्कन्दगुप्त का महत्वपूर्ण प्रस्तर स्तंभ अभिलेख (जो गुप्त संवत 141 = 460-61 ईस्वी का है) इस क्षेत्र पर गुप्त सम्राटों के प्रत्यक्ष और प्रभावी प्रशासनिक नियंत्रण का एक अकाट्य तथा महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक प्रमाण है। यह अभिलेख न केवल गुप्त वंशावली (घटोत्कच से लेकर स्कंदगुप्त तक) पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है, बल्कि उस समय की प्रशासनिक इकाइयों (जैसे 'आटविक राज्य' या जंगली प्रदेशों का प्रशासन) और स्थानीय अधिकारियों की नियुक्ति के बारे में भी बहुमूल्य जानकारी प्रदान करता है। परिव्राजक महाराज – गुप्तों के सामंत: गुप्त सम्राटों के सामंत के रूप में, परिव्राजक महाराज वंश के शासक डभाल (या डाहल, जो बघेलखण्ड क्षेत्र का ही प्राचीन नाम माना जाता है) और उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन कर रहे थे। उनके अनेक महत्वपूर्ण ताम्रपत्र अभिलेख (जैसे खोह, मझगवां, बेतूल आदि स्थानों से प्राप्त) इस क्षेत्र से प्रचुर मात्रा में मिले हैं। इन ताम्रपत्रों में महाराजा हस्तिन, महाराजा संक्षोभ और महाराजा जयनाथ जैसे शासकों के नाम, उनकी उपाधियाँ, उनके द्वारा किए गए विभिन्न भूमिदानों का विस्तृत उल्लेख, और तत्कालीन भू-राजस्व प्रणाली, धार्मिक स्थिति (विशेषकर ब्राह्मण धर्म और वैष्णव तथा शैव संप्रदायों का प्रभाव), सामाजिक संरचना तथा प्रशासनिक व्यवस्था को समझने में अत्यंत महत्वपूर्ण सहायता मिलती है।
कल्चुरी, प्रतिहार और चंदेल युगीन सांस्कृतिक धरोहर – मध्यकालीन वैभव:
गुर्गी पुरास्थल – शैव धर्म का प्रमुख केंद्र: जैसा कि आपके द्वारा संदर्भित शोध-पत्र "भाग 1: प्राचीन एवं पौराणिक रीवा: एक विस्तृत अध्ययन" में विस्तार से उल्लेखित है, गुर्गी (जो रीवा शहर से लगभग 35 किलोमीटर पश्चिम दिशा में स्थित है) कल्चुरी राजवंश (जिनका शासन लगभग 6ठी से 12वीं शताब्दी ईस्वी तक मध्य भारत पर रहा) के समय का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और विशाल शैव धार्मिक तथा कलात्मक स्थापत्य कला का केंद्र रहा है। यहाँ से प्राप्त कैलाशेश्वर महादेव मंदिर (जो अब खंडहर अवस्था में है) के भव्य अवशेष, भगवान भैरव की एक विशाल और रौद्र मुद्रा में आदमकद प्रतिमा, गणेश, कार्तिकेय और अन्य विभिन्न देवी-देवताओं की कलात्मक मूर्तियाँ कल्चुरी कला की क्षेत्रीय विशेषताओं (विशेष रूप से उनकी राजधानी त्रिपुरी के निकट विकसित हुई शैली) को प्रमुखता से दर्शाती हैं। यह स्थल शैव धर्म के एक अत्यंत प्रभावशाली और तपस्वी मत्तमयूर संप्रदाय का एक प्रमुख तथा सक्रिय केंद्र था, जहाँ अनेक प्रसिद्ध शैवाचार्यों (जैसे प्रभावशिव, प्रशांतशिव) ने निवास किया और शैव दर्शन तथा साहित्य का विकास किया। भैरव बाबा मंदिर (गुढ़) – लोक आस्था का प्रतीक: गुढ़ तहसील (रीवा जिला) में स्थित भैरव बाबा की लगभग 10वीं-11वीं शताब्दी की एक विशाल और अद्वितीय लेटी हुई (शयन मुद्रा में) प्रस्तर प्रतिमा (जैसा कि आपके विस्तृत नोट और News18 Hindi के संदर्भ से ज्ञात होता है), संभवतः कल्चुरी या चंदेल काल की एक महत्वपूर्ण कलाकृति है। यह इस क्षेत्र में शैव धर्म के अंतर्गत, विशेषकर तंत्र साधना से जुड़े, भैरव उपासना की व्यापक लोकप्रियता और उस समय की बड़ी आकार की तथा प्रभावशाली मूर्तियाँ बनाने की कलात्मक प्रवृत्ति का एक महत्वपूर्ण प्रमाण है। यह आज भी स्थानीय लोक आस्था का एक प्रमुख केंद्र है। चंदेल और प्रतिहार प्रभाव – सीमावर्ती संस्कृतियों का संगम: रीवा अंचल का विस्तृत भूभाग उत्तर भारत की दो अन्य प्रमुख मध्यकालीन राजपूत शक्तियों – चंदेल (जिनका मुख्य शासन क्षेत्र जेजाकभुक्ति अर्थात् वर्तमान बुंदेलखंड था, और जिनकी राजधानियाँ कालिंजर, महोबा और खजुराहो थीं) और गुर्जर-प्रतिहार (जिनकी प्रारंभिक राजधानी उज्जैन और बाद में कन्नौज थी) – की सीमाओं पर स्थित होने के कारण इन शक्तिशाली राजवंशों के सांस्कृतिक, कलात्मक और राजनीतिक प्रभाव से भी पूर्णतः अछूता नहीं रहा। इन विभिन्न राजवंशों के बीच होने वाले निरंतर राजनीतिक संघर्षों, वैवाहिक संबंधों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रभाव इस सीमावर्ती क्षेत्र की कला, स्थापत्य और सामाजिक संरचना पर भी अवश्य ही पड़ा होगा। इन राजवंशों की विशिष्ट वास्तुकला और मूर्तिकला की कुछ विशेषताएँ यहाँ के अन्य, अभी तक पूरी तरह से प्रकाश में न आए, पुरास्थलों और कलाकृतियों से प्राप्त हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ विद्वान और कला इतिहासकार रीवा शहर के निकट स्थित ऐतिहासिक लक्ष्मण बाग के कुछ मंदिरों के प्रारंभिक निर्माण चरण को प्रतिहार या चंदेलकालीन कलात्मक प्रभाव से भी जोड़कर देखते हैं, यद्यपि इस पर और अधिक गहन शोध की आवश्यकता है।
महान गुप्त सम्राटों, दूरदर्शी वाकाटक नरेशों, शक्तिशाली कल्चुरी शासकों, वीर प्रतिहार राजाओं और कला-प्रेमी चंदेलों - इन सभी यशस्वी राजवंशों ने रीवांचल की पावन भूमि पर अपनी कला, अपने स्थापत्य, अपनी संस्कृति और अपनी प्रशासनिक व्यवस्था की एक ऐसी अमिट और स्थायी छाप छोड़ी, जो आज भी हमें न केवल उनके गौरवशाली अतीत का स्मरण कराती है, बल्कि हमें अपनी इस समृद्ध विरासत पर गर्व करने का अवसर भी प्रदान करती है।
आप सभी को निमंत्रण है! हमारी ऐतिहासिक यात्रा में शामिल हों!
📜यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।
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shriasheeshacharya@gmail.comविंध्य धरा की प्राचीन गाथा: महत्वपूर्ण झलकियाँ
प्रमुख कालखंड एवं तिथियाँ (अनुमानित):
पूर्व पाषाणकाल (लगभग 5,00,000 – 50,000 ई.पू.), मध्य पाषाणकाल (लगभग 10,000 – 4,000 ई.पू.), नवपाषाण काल (लगभग 4,000 – 1,500 ई.पू.), करुष जनपद काल (महाकाव्य काल से ~6ठी श. ई.पू.), मौर्य साम्राज्य (~322 – 185 ई.पू.), मघ शासक (~100 – 350 ई.), गुप्त साम्राज्य (~320 – 550 ई.), कल्चुरी शासन (~650 – 1212 ई.)।
महत्वपूर्ण व्यक्ति एवं राजवंश:
आदिमानव, करुष जनपद के शासक, सम्राट अशोक (मौर्य), महाराज भीमसेन (मघ), समुद्रगुप्त (गुप्त), महाराजा हस्तिन (परिव्राजक), युवराजदेव प्रथम (कल्चुरी), तथा कनिंघम, कार्लाइल, काकबर्न, वर्मा जैसे पुरातत्ववेत्ता।
प्रमुख पुरातात्त्विक स्थल एवं उनका महत्व:
देउरकोठार (मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप), गिंजा पहाड़ (प्रागैतिहासिक शैलाश्रय एवं मघ अभिलेख), सुपिया (स्कंदगुप्त का अभिलेख), गुर्गी (कल्चुरीकालीन शैव मठ), बान्धवगढ़ (गुप्तकालीन गुफाएँ व मूर्तियाँ), भरहुत (शुंगकालीन स्तूप अवशेष)।
ऐतिहासिक घटनाएँ एवं विवेचन:
कृषि आधारित ग्रामीण सभ्यताओं का विकास, छोटे जनपदों का बड़े साम्राज्यों (मौर्य, गुप्त) में विलय, फिर क्षेत्रीय शक्तियों (मघ, कल्चुरी) का उदय। बौद्ध, वैष्णव, शैव धर्मों का क्रमिक उत्कर्ष और कला-स्थापत्य का विकास, जो बघेल राजवंश के उदय की पृष्ठभूमि तैयार करता है।
पुरातात्त्विक स्थल: एक चित्रमय झलक

(चित्र: देउरकोठार बौद्ध स्तूप परिसर का एक विहंगम दृश्य, साभार: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण/विकिमीडिया कॉमन्स। यह महत्वपूर्ण स्थल चक्रवर्ती सम्राट अशोक के काल से सम्बंधित है और यहाँ से महत्वपूर्ण ब्राह्मी अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं।)
बंधवगढ़ की प्राचीनता (वीडियो उदाहरण)
(यह एक उदाहरण वीडियो है जो बंधवगढ़ के किले की ऐतिहासिकता, उसकी पुरातात्त्विक संपदा और उसके रणनीतिक महत्व को दर्शाता है।)
अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ
रीवांचल के प्राचीन और गौरवशाली इतिहास का गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित प्रकार के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यह सूची केवल सांकेतिक है और विस्तृत तथा गंभीर शोध कार्य के लिए अनेक अन्य विशिष्ट विद्वानों के मौलिक कार्यों, पुरातात्विक रिपोर्टों, शोध-पत्रों और अभिलेखीय सामग्री का अवलोकन किया जाना नितांत आवश्यक है:
प्राथमिक पुरातात्त्विक स्रोत:
- विभिन्न कालखंडों के पाषाणकालीन उपकरण जो रीवा, सीधी, सतना, शहडोल, सिंगरौली और नवगठित मऊगंज जिलों की प्रमुख नदी घाटियों तथा विभिन्न शैलाश्रयों और गुफाओं से प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं।
- चित्रकूट, मझगवां, गोविंदगढ़, गिंजा पहाड़, गड्डी, बदवार, खन्दो, जलदर आदि महत्वपूर्ण स्थलों के शैलाश्रयों में उकेरे गए प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल के शैल चित्र तथा उत्कीर्णन।
- देउरकोठार के विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप, बौद्ध विहारों की संरचनाएँ, मौर्यकालीन प्रस्तर स्तंभों के खंडित भाग एवं उन पर उत्कीर्ण अशोककालीन ब्राह्मी लिपि के महत्वपूर्ण अभिलेख।
- बान्धवगढ़ और उसके आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त मघ राजवंश के शासकों के विशिष्ट सिक्के एवं बान्धवगढ़ तथा गिंजा (भरहुत के निकट) से प्राप्त उनके महत्वपूर्ण प्रस्तर अभिलेख।
- गुप्तकालीन महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक साक्ष्य, जैसे सुपिया (रीवा जिला) एवं शंकरपुर (सीधी जिला) से प्राप्त प्रस्तर अभिलेख, परिव्राजक महाराजाओं के विभिन्न ताम्रपत्र अभिलेख, तथा बान्धवगढ़ की विश्व प्रसिद्ध गुप्तकालीन कलात्मक गुफाएँ एवं उनमें उत्कीर्ण भव्य मूर्तियाँ।
- कल्चुरी शासकों के शासनकाल से संबंधित गुर्गी, रीवा नगर, बान्धवगढ़, लाल पहाड़ (भरहुत के निकट), आल्हाघाट (अमरकंटक के पास) आदि महत्वपूर्ण स्थलों से प्राप्त विभिन्न प्रस्तर अभिलेख, ताम्रपत्र, स्वर्ण, रजत एवं ताम्र सिक्के, तथा विशाल और कलात्मक मंदिरों के खंडहर एवं मूर्तियाँ।
साहित्यिक स्रोत (प्राचीन एवं मध्यकालीन):
- **वैदिक साहित्य:** ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, कौषीतकि उपनिषद आदि प्राचीन ग्रंथ।
- **रामायण एवं महाभारत (महाकाव्य):** जिनमें मध्य भारत के विभिन्न जनपदों, स्थानों, और रेवा नदी (नर्मदा) के पौराणिक तथा भौगोलिक महत्व का विस्तृत संदर्भ है।
- **पुराण:** विशेष रूप से स्कंद पुराण (रेवा-खंड), मत्स्य पुराण, वायु पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण आदि।
- **बौद्ध ग्रंथ:** अंगुत्तर निकाय (चेदि महाजनपद का उल्लेख), दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, जातक कथाएँ आदि।
- **जैन ग्रंथ:** आवश्यक सूत्र, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, भगवती सूत्र, कल्पसूत्र आदि।
- **अन्य संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य:** कालिदास की रचनाएँ, बाणभट्ट का हर्षचरित, बिल्हण का विक्रमांकदेवचरित, राजशेखर का काव्यमीमांसा आदि।
- **विदेशी यात्रियों के विवरण:** मेगस्थनीज, फाह्यान, ह्वेनसांग, और इत्सिंग के यात्रा वृत्तांत।
महत्वपूर्ण शोध-पत्र एवं ग्रंथ (उदाहरण):
/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */ 1. सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". प्रयाग: यूनियन प्रेस। 2. शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी। 3. श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी। 4. पटेल, डॉ. प्रीति. "बघेलखण्ड का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (प्रारम्भ से 13वीं शताब्दी तक)"। 5. परिहार, डॉ. नृपेन्द्र सिंह. "बघेलखण्ड की कला एवं पुरातत्व"। 6. वर्मा, प्रो. राधाकान्त द्वारा रीवा के प्रागितिहास पर प्रकाशित विभिन्न शोध लेख एवं मोनोग्राफ। 7. मिराशी, वा.वि. "कार्पस इंस्क्रिप्शनम इंडिकेरम, भाग IV: इंस्क्रिप्शन्स ऑफ द कल्चुरी-चेदि एरा"। 8. कनिंघम, अलेक्जेंडर. "आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट्स"। 9. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की वार्षिक रिपोर्टें और उत्खनन प्रतिवेदन। 10. मध्य प्रदेश राज्य पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय निदेशालय द्वारा प्रकाशित 'पुरातन' पत्रिका। 11. "Imperial Gazetteer of India, Provincial Series, Central India"। 12. विभिन्न अकादमिक शोध पत्रिकाएँ जैसे Epigraphia Indica, Indian Archaeology: A Review, Puratattva, आदि।
निष्कर्ष: विंध्य धरा की अमिट विरासत
उपर्युक्त विस्तृत और गहन विवेचन से यह पूर्णतः स्पष्ट होता है कि रीवा अंचल का प्राचीन इतिहास अत्यंत समृद्ध, विविधतापूर्ण, बहुआयामी और कई महत्वपूर्ण तथा अनसुलझी परतों वाला है, जो आज भी इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के लिए गहन शोध तथा अन्वेषण का एक आकर्षक विषय बना हुआ है। प्रागैतिहासिक काल के आदिम मानव द्वारा चट्टानों पर अत्यंत कलात्मकता से उकेरी गई रहस्यमयी और जीवंत शैलचित्र कला से लेकर, प्राचीन पौराणिक तथा वैदिक कथाओं में श्रद्धापूर्वक वर्णित 'रेवा-खंड' की पवित्र और आध्यात्मिक भूमि, महाजनपद काल की उदीयमान राजनीतिक चेतना और नगरीकरण की प्रारंभिक झलकियाँ, चक्रवर्ती मौर्य सम्राट अशोक महान द्वारा बौद्ध धर्म के शांति और करुणा के संदेश के प्रसार के जीवंत पुरातात्त्विक प्रमाण (जैसा कि देउरकोठार के स्तूपों और अभिलेखों से प्रमाणित होता है), गुप्तकालीन कलात्मक उत्कृष्टता, प्रशासनिक सुव्यवस्था और सांस्कृतिक चरमोत्कर्ष की अविस्मरणीय धरोहर, तथा तत्पश्चात कल्चुरी, चंदेल और प्रतिहार जैसे मध्यकालीन शक्तिशाली और कला-प्रेमी राजवंशों द्वारा स्थापित भव्य मंदिर, मठ, किले और अन्य स्थापत्य के नमूने – ये सभी इस ऐतिहासिक भूभाग के गौरवशाली, विविधतापूर्ण और घटनापूर्ण अतीत के अत्यंत महत्वपूर्ण तथा अमूल्य अध्याय हैं। इस क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना की गहराई को ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार से संबंधित प्राचीन कोल जनजाति और प्रारंभिक ऐतिहासिक काल के महत्वपूर्ण लोध (या लोधी) तथा भर समुदायों की निरंतर उपस्थिति और उनके योगदान और अधिक बढ़ाते हैं तथा इसे एक विशिष्ट चरित्र प्रदान करते हैं। यह समृद्ध और बहुआयामी धरोहर न केवल इस विशिष्ट क्षेत्र के प्राचीन इतिहास के वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ पुनर्निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति के व्यापक तथा समग्र संदर्भ में भी अपना एक विशिष्ट, अद्वितीय और सम्मानजनक स्थान रखती है। 13वीं शताब्दी में बघेल राजवंश का उदय इसी उर्वर, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध पृष्ठभूमि पर हुआ, जिसने इस प्राचीन विरासत को न केवल आत्मसात किया, बल्कि उसे एक नई दिशा, एक नई पहचान और एक नई ऊर्जा भी प्रदान की, जिससे रीवा का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हुआ। रीवांचल का यह प्राचीन अतीत हमें यह महत्वपूर्ण शिक्षा और प्रेरणा देता है कि कैसे विभिन्न संस्कृतियों, विभिन्न जातियों, विभिन्न धर्मों और विभिन्न राजनीतिक शक्तियों ने इस पावन भूमि को समय-समय पर आकार दिया और एक ऐसी अमिट, मूल्यवान तथा प्रेरणास्पद विरासत छोड़ी जो आज भी न केवल गहन शोध और गंभीर अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय है, बल्कि यह हमारी सामूहिक चेतना और सांस्कृतिक गौरव का एक अभिन्न अंग भी है।
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2024 आचार्य आशीष मिश्र (शोध एवं संपादन)। सर्वाधिकार सुरक्षित।
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अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर प्राचीन रीवा, बघेलखण्ड पुरातत्व, तथा पौराणिक इतिहास लेबल देखें।
हमारी विस्तृत लेख श्रृंखला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास"
इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की विभिन्न कड़ियों, राजवंशों के उत्थान-पतन, सांस्कृतिक विकास और ऐतिहासिक महत्व को और गहराई से जानने के लिए हमारी श्रृंखला के इन महत्वपूर्ण लेखों को अवश्य पढ़ें। यह सूची निरंतर अपडेट होती रहेगी जैसे-जैसे नए शोध और लेख प्रकाशित होंगे:
भाग I: बघेलखण्ड का प्राचीन इतिहास: आदिम संस्कृति से राजवंशों के उदय तक
बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य। आदिम संस्कृति से राजवंशों के उत्थान तक – एक गहन पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का प्रारंभिक इतिहास: वनवासी सभ्यता, प्राचीन राजवंश और बहु-सांस्कृतिक विरासत (प्रागैतिहासिक से मौर्योत्तर)
रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत। एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का आरंभिक इतिहास: वनवासी संस्कृतियाँ, प्राचीन राजवंश और बहुआयामी सांस्कृतिक धरोहर
विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम। इस लेख में प्रारंभिक काल की गहन पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग II: बघेल राजवंश का उदय: गहोरा से रीवा तक राज्य स्थापना, प्रशासन और सांस्कृतिक विरासत
बघेल राजवंश का अभ्युदय और रीवा राज्य की स्थापना। एक राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक मीमांसा (गहोरा से रीवा तक)। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव के आगमन से मुगलकालीन रीवा तक का ऐतिहासिक सफर
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव से मुगलकालीन रीवा तक। एक विस्तृत ऐतिहासिक यात्रा एवं सांस्कृतिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का मध्यकालीन उत्कर्ष: बघेल राजवंश का शासन, सांस्कृतिक योगदान और क्षेत्रीय प्रभाव
विंध्य धरा का बघेल गौरव: मध्यकालीन शासन, संस्कृति एवं प्रभाव। बघेल राजवंश का अभ्युदय, शासन, सांस्कृतिक योगदान एवं क्षेत्रीय प्रभाव। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन और सांस्कृतिक संगम
विंध्य की विरासत: बघेल-सेंगर संपर्क और रीवा का सांस्कृतिक ताना-बाना। रीवा का गौरवशाली इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन, और सांस्कृतिक संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग III: रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, मुगलकालीन संबंध और आधुनिकता की ओर
रीवा की गौरवगाथा: बघेल शौर्य, मुगल संपर्क और आधुनिकता का प्रभात। बघेल राजवंश, मुगल संपर्क, और आधुनिकता का संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का परिवर्तन: मुगलकालीन स्वर्ण युग से औपनिवेशिक चुनौतियों और आधुनिक रीवा के निर्माण तक
रीवा: मुगल वैभव से आधुनिकता की ओर – एक ऐतिहासिक यात्रा। बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 1)
रीवा: औपनिवेशिक काल से आधुनिक भारत तक का ऐतिहासिक सफर। बघेल राजवंश, ब्रिटिश संपर्क, स्वतंत्रता संग्राम और समकालीन विकास। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 2)
रियासत के भारतीय संघ में विलय की विस्तृत और निर्णायक कहानी, स्वतंत्रता उपरांत विकास और चुनौतियाँ। (लेबल: प्राचीन रीवा)
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