✶ रीवा की गौरवगाथा: बघेल शौर्य, मुगल संपर्क और आधुनिकता का प्रभात ✶
बघेल राजवंश, मुगल संपर्क, और आधुनिकता का संगम (भाग - 1)
रीवा, भारत के हृदय प्रदेश, मध्य प्रदेश का एक ऐतिहासिक नगर, वीर बघेल राजवंश के अदम्य शौर्य, कलात्मक संरक्षण और गहन सांस्कृतिक परंपराओं की जीवंत गाथाओं से ओतप्रोत है। हमारी ऐतिहासिक श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हमने बघेल राजवंश की पौराणिक उत्पत्ति, गुजरात के सोलंकी (चालुक्य) वंश से उनके संबंध, व्याघ्रदेव द्वारा बघेलखण्ड में राज्य की नींव डालने, गहोरा और बांधवगढ़ के सामरिक महत्व, तथा महाराजा रामचंद्र सिंह के शासनकाल तक मुगल दरबार, विशेषकर सम्राट अकबर के साथ, विकसित हुए महत्वपूर्ण और सौहार्दपूर्ण संपर्कों पर विस्तृत एवं गहन चर्चा की थी। यह ऐतिहासिक यात्रा हमें महाराजा विक्रमादित्य के शासनकाल तक ले आई थी, जिन्होंने लगभग 1618 ई. में रीवा को अपनी राजधानी बनाकर बघेल राज्य के इतिहास में एक नए और महत्वपूर्ण युग का सूत्रपात किया था। अब हम इस ज्ञानवर्धक ऐतिहासिक यात्रा को और आगे बढ़ाते हुए परवर्ती मुगल शासकों के साथ बघेल राजाओं के बदलते हुए कूटनीतिक समीकरणों, राज्य के भीतर और बाहर घटी महत्वपूर्ण राजनीतिक एवं सामाजिक घटनाओं, 18वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते प्रभाव और अंततः 19वीं सदी में ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना से लेकर स्वतंत्र भारत में विलय तक के लंबे और घटनापूर्ण सफर पर विश्लेषणात्मक दृष्टिपात करेंगे।

(चित्र: महाराज रघुराज सिंह, जिनके शासनकाल में रीवा ने 1857 के महासंग्राम की जटिल चुनौतियों का सामना किया।)
1. परवर्ती मुगल शासक और रीवा के बघेल: संबंधों का बदलता स्वरूप
महाराजा विक्रमादित्य द्वारा रीवा को एक सुव्यवस्थित राजधानी के रूप में स्थापित किए जाने के उपरांत, बघेल शासकों ने दिल्ली में निरंतर परिवर्तित हो रहे मुगल शासकों – जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब और उनके कमजोर उत्तराधिकारियों – के साथ अपने संबंधों को बनाए रखने का सतत और विवेकपूर्ण प्रयास किया। यह एक ऐसा काल था जब मुगल साम्राज्य का केंद्रीय वैभव धीरे-धीरे क्षीण हो रहा था, प्रांतीय सूबेदार अधिक शक्तिशाली हो रहे थे, और मराठा, बुंदेला, सिख जैसी क्षेत्रीय शक्तियाँ प्रमुखता से उभर रही थीं। यह चुनौतीपूर्ण काल बघेल राज्य के लिए कूटनीतिक दाँव-पेंच, सैन्य तैयारियों और अवसरों की पहचान दोनों से परिपूर्ण था, जिसमें बघेल शासकों ने अपनी दूरदर्शिता और अनुकूलन क्षमता का परिचय दिया।
अमर सिंह (शासनकाल: 1624-1640 ई.):
महाराज विक्रमादित्य के सुयोग्य पुत्र, अमर सिंह, ने मुगल सम्राट जहाँगीर और तत्पश्चात शाहजहाँ के प्रारंभिक शासनकाल में मुगल दरबार से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे। उनके शासनकाल की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना सन् 1626 की है, जब उन्होंने ओरछा के विद्रोही बुंदेला राजा जुझारू सिंह के विरुद्ध मुगल सेना का सक्रिय रूप से साथ दिया था। यह कदम न केवल बघेलों की मुगल सत्ता के प्रति तत्कालीन निष्ठा को दर्शाता है, बल्कि अपने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा और क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को बनाए रखने की उनकी कूटनीतिक समझ का भी परिचायक था। महाराजा अमर सिंह ने अपने राज्य में निर्माण कार्यों को भी प्रोत्साहित किया, जिसमें सामरिक और प्रशासनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अमरपाटन की गढ़ी (एक छोटा किला या दुर्ग) का निर्माण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे स्वयं साहित्य प्रेमी थे और उनके संरक्षण में उनके दरबारी कवि नीलकण्ठ ने प्रसिद्ध ऐतिहासिक-काव्य ग्रन्थ "अमररेश विलास" की रचना की, जो उनके शासनकाल की घटनाओं, बघेल वंश की प्रशस्ति और तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश पर प्रकाश डालता है।
अनूप सिंह (शासनकाल: 1640-1660 ई.):
अमर सिंह के उत्तराधिकारी, अनूप सिंह, ने किशोरावस्था में ही राज्य का चुनौतीपूर्ण भार संभाला। इनके शासनकाल में दिल्ली पर मुगल बादशाह शाहजहाँ का शासन था, जो अपनी स्थापत्य कला और साम्राज्य विस्तार के लिए प्रसिद्ध थे। सन् 1650 के आसपास ओरछा के पहार सिंह बुन्देला (जुझारू सिंह के भाई और मुगल समर्थक) ने, संभवतः अपनी शक्ति का विस्तार करने या पुराने बैर का बदला लेने के उद्देश्य से, रीवा राज्य पर आक्रमण किया। इस आकस्मिक संकट के समय महाराज अनूप सिंह को अपनी सुरक्षा के लिए सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण और अभेद्य माने जाने वाले बांधवगढ़ के प्राचीन किले में शरण लेनी पड़ी। परन्तु, रीवा की वीर सेना ने, विशेषकर कसौटा (वर्तमान सतना जिले में) के पराक्रमी जागीरदार जगत राय और लाल फतेह सिंह के कुशल नेतृत्व में, बुंदेलों के आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया और उन्हें पराजित कर दिया, जिससे बघेल राज्य की प्रतिष्ठा और सैन्य क्षमता पुनः स्थापित हुई। इस विजय के उपरांत, सन् 1655-56 में महाराज अनूप सिंह ने दिल्ली जाकर सम्राट शाहजहाँ से भेंट की। सम्राट ने उनके शौर्य और निष्ठा का सम्मान करते हुए उन्हें "सेह-हुजूरी" (अर्थात् वह सम्मानित व्यक्ति जिसे शाही दरबार में तीन बार उपस्थित होने और अपने विचार रखने का विशेष अधिकार हो) की प्रतिष्ठित उपाधि से नवाजा। महाराज अनूप सिंह ने अपने राज्य के दक्षिणी क्षेत्र में, जो संभवतः नवविजित या अल्पविकसित था, अपने नाम पर अनूपपुर नामक कस्बा बसाया, जो आज एक महत्वपूर्ण जिला मुख्यालय है और उनकी दूरदर्शिता तथा राज्य विस्तार की नीति का प्रमाण है।
परवर्ती मुगल काल की राजनीतिक अस्थिरता और निरंतर क्षेत्रीय संघर्षों के बीच, बघेल शासकों की कूटनीतिक कुशलता, सैन्य तैयारी, और स्थानीय सरदारों की वीरता ने उन्हें न केवल अपने राज्य को सुरक्षित रखने में मदद की, बल्कि मुगल दरबार में भी अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भाव सिंह (शासनकाल: 1660-1690 ई.):
महाराज अनूप सिंह के उपरांत उनके पुत्र, भाव सिंह, रीवा की राजगद्दी पर आसीन हुए। वे संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान, कला-प्रेमी और धर्मनिष्ठ शासक थे। उनकी गहरी रुचि आध्यात्मिकता, धार्मिक अनुष्ठानों और जनकल्याणकारी कार्यों में थी। उन्होंने "बघेलवंशवर्णनम्" जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक काव्य के रचयिता कवि रूपणि शर्मा को अपने दरबार में सम्मानजनक आश्रय प्रदान किया। उनके दरबार में बालकृष्ण सूरि, किशोर, गोवर्धन बाजपेयी जैसे अनेक उद्भट विद्वान, कवि और कलाकार सभासद के रूप में शोभायमान थे, जो उनके शासनकाल की बौद्धिक और सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाते हैं। यह आश्चर्यजनक है कि मुगल सम्राट औरंगजेब, जो अपनी धार्मिक कट्टरता और राजपूतों के प्रति कठोर नीति के लिए जाना जाता था, के साथ भी महाराज भाव सिंह ने बुद्धिमत्तापूर्वक मित्रतापूर्ण और सम्मानजनक संबंध बनाए रखे, जो उनकी असाधारण कूटनीतिक निपुणता का प्रमाण है। उन्होंने स्वयं संस्कृत भाषा में “हौत्र कल्पद्रुम” नामक एक महत्वपूर्ण साहित्यिक एवं धार्मिक ग्रन्थ की रचना की, जो यज्ञ-पद्धति और कर्मकांड पर आधारित है। वे भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त थे और उन्होंने अपने जीवनकाल में तीन बार सुदूर जगन्नाथ पुरी की कठिन तीर्थयात्रा की, तथा वहाँ से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विग्रह (मूर्तियाँ) लाकर मुकुन्दपुर, कोटर और रीवा में भव्य मंदिरों में प्रतिष्ठित करवाए। उनके शासनकाल का एक सबसे महत्वपूर्ण और स्थायी निर्माण रीवा नगर के हृदय में स्थित प्रसिद्ध महामृत्युंजय मन्दिर है, जो आज भी लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है और अपनी विशिष्ट स्थापत्य शैली के लिए जाना जाता है। रीवा किले के भीतर भी उन्होंने कलात्मक 'लम्बा घर' (दीवान-ए-आम या खास) और भव्य 'मोती महल' जैसे महत्वपूर्ण भवनों का निर्माण करवाया, जो बघेल वास्तुकला के सुंदर उदाहरण हैं। उनकी प्रमुख महारानी, मेवाड़ (चित्तौड़) की राजकुमारी अजबकुँवरि, भी धर्मपरायण और जनकल्याणकारी थीं। उन्होंने रीवा में प्रसिद्ध रानी तालाब का निर्माण करवाया, जिसके किनारे उन्होंने शारदा मंदिर और शिव मंदिर भी बनवाया। रीवा का एक पुराना मोहल्ला "नृपरनियाँ" (राजा की रानी) उन्हीं के नाम पर आज भी प्रसिद्ध है। दुर्भाग्यवश, महाराज भाव सिंह निःसंतान थे, जिसके कारण उनके जीवन के अंतिम वर्षों में उत्तराधिकार का प्रश्न जटिल हो गया।
अनिरूद्ध सिंह (शासनकाल: 1690-1700 ई.):
महाराज भाव सिंह ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने भतीजे (भाई के पुत्र) अनिरूद्ध सिंह को अपना उत्तराधिकारी चुना। उनका शासनकाल अल्प और दुःखद घटनाओं से भरा रहा। उनके समय में मऊ (वर्तमान मऊगंज) क्षेत्र के शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी सेंगर राजपूतों ने, जो संभवतः अपनी स्वायत्तता पुनः स्थापित करना चाहते थे, विद्रोह कर दिया। कहा जाता है कि संधि और शांति वार्ता के धोखे में मऊ के सेंगर सरदारों द्वारा उनकी निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई। इस विश्वासघात के पश्चात्, रीवा की क्रुद्ध सेना ने सेंगरों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया और विद्रोह को कुचल दिया, परन्तु राज्य ने एक युवा और সম্ভাবনাময় शासक खो दिया।
अवधूत सिंह (शासनकाल: 1700-1755 ई.):
अनिरूद्ध सिंह की असामयिक और त्रासद मृत्यु के समय उनके पुत्र अवधूत सिंह मात्र छः माह के शिशु थे। इस संकटपूर्ण स्थिति में, राजमाता (अनिरूद्ध सिंह की विधवा) ने अपने नवजात पुत्र की सुरक्षा के लिए उन्हें लेकर प्रतापगढ़ (संभवतः अवध क्षेत्र में) में अपने मायके में संरक्षण प्राप्त किया। इस दौरान रीवा राज्य का शासन मंत्री हृदयराम सुरकी और अन्य निष्ठावान सरदारों द्वारा राजमाता के मार्गदर्शन में चलाया गया। इस राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर पन्ना के शक्तिशाली बुन्देला शासक महाराजा हृद्यशाह ने रीवा पर आक्रमण कर दिया और राजधानी पर कुछ समय के लिए अधिकार भी कर लिया। बाद में, युवा महाराज अवधूत सिंह ने तत्कालीन मुगल सम्राट बहादुरशाह प्रथम (शाह आलम प्रथम) से सैन्य सहायता प्राप्त की और अपनी खोई हुई राजधानी रीवा को पुनः प्राप्त करने में सफल रहे। यह घटना दर्शाती है कि 18वीं सदी के प्रारंभ में भी कमजोर होती मुगल सत्ता का कुछ हद तक प्रभाव और हस्तक्षेप क्षेत्रीय राज्यों के आंतरिक मामलों पर बना हुआ था।
अजीत सिंह (शासनकाल: 1755-1809 ई.):
महाराज अवधूत सिंह के सुपुत्र, अजीत सिंह, एक विद्वान शासक थे, जिन्हें संस्कृत एवं फारसी भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उनका लंबा शासनकाल भारतीय इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण संक्रमण काल का साक्षी रहा, जिसमें मुगल सत्ता का तीव्र गति से पतन हो रहा था और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी एक प्रमुख राजनीतिक और सैन्य शक्ति के रूप में तेजी से उभर रही थी। उनके शासनकाल की एक अविस्मरणीय घटना सन् 1758 के आसपास घटी, जब तत्कालीन मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय (प्रारंभिक नाम अली गौहर), जो राजनीतिक षड्यंत्रों, अफगान आक्रमणों और आंतरिक विद्रोहों के कारण दिल्ली के सिंहासन से च्युत होकर दर-दर भटकने को विवश हुए थे, को महाराजा अजीत सिंह ने रीवा रियासत के मुकुन्दपुर की सुदृढ़ गढ़ी में ससम्मान शरण प्रदान की। यहीं, मुकुन्दपुर में, प्रवास के दौरान उनके पुत्र (जो बाद में अकबर द्वितीय के नाम से नाममात्र के मुगल सम्राट बने) का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को हुआ। यह घटना न केवल बघेल शासकों की परंपरागत शरणागत वत्सलता, उदारता और नैतिक मूल्यों का उत्कृष्ट प्रमाण है, बल्कि यह उस काल की राजनीतिक अनिश्चितता और मुगल वंश की दयनीय स्थिति को भी दर्शाती है।
2. ब्रिटिश संरक्षण और संधियों का युग (1809 ई. के बाद)
महाराजा अजीत सिंह के शासनकाल के उपरांत, 19वीं सदी के प्रारंभ से, रीवा का इतिहास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर 1858 के बाद सीधे ब्रिटिश क्राउन के साथ संबंधों के एक नए और निर्णायक दौर में प्रवेश करता है। इस काल ने रियासत की परंपरागत स्वायत्तता, विदेश नीति और आंतरिक प्रशासन को गहराई से तथा स्थायी रूप से प्रभावित किया।
जय सिंह (शासनकाल: 1809-1833 ई.):
महाराजा अजीत सिंह के उत्तराधिकारी, जय सिंह का शासनकाल रीवा राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में चिह्नित है। इसी समय रीवा के बघेल राजाओं का अंग्रेजों के साथ विधिवत्, औपचारिक और संधि-आधारित संबंध स्थापित हुआ, जिसने रियासत की बाह्य नीति और संप्रभुता को सदा के लिए परिवर्तित कर दिया। 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के प्रारंभ में मध्य भारत पिंडारियों के निरंतर उपद्रवों और मराठा सरदारों की लूटमार से त्रस्त था। इस अशांत और असुरक्षित वातावरण में, 5 अक्टूबर 1812 को, महाराजा जय सिंह ने ब्रिटिश सरकार के साथ एक महत्वपूर्ण संधि (जो लॉर्ड वेलेज़ली की सहायक संधि प्रणाली (Subsidiary Alliance System) के कुछ सिद्धांतों, जैसे Treaty of Bassein, के अनुकरण में थी) पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के प्रावधानों के तहत, रीवा ब्रिटिश संरक्षण में एक "प्रोटेक्टेड स्टेट" या संरक्षित रियासत बन गया। संधि के अनुसार, रीवा को आंतरिक प्रशासनिक मामलों में काफी हद तक स्वायत्तता तो मिली, लेकिन बाहरी मामले, सैन्य सुरक्षा, अन्य राज्यों के साथ राजनयिक संबंध और संचार जैसे महत्वपूर्ण विषय ब्रिटिश नियंत्रण में आ गए। इस संधि के माध्यम से अंग्रेजों ने रीवा को पिंडारियों और अन्य बाहरी उपद्रवी शक्तियों से सुरक्षा प्रदान करने का वचन दिया, जिसके बदले में रीवा ने ब्रिटिश सर्वोच्चता को स्वीकार किया और अपने क्षेत्र में एक ब्रिटिश कंटिंजेंट रखने पर भी सहमति व्यक्त की। युवराज बाबू विश्वनाथ सिंह, जो बाद में महाराजा बने, ने भी अपने पिता के शासनकाल में प्रशासन के कार्यों में सक्रिय सहयोग दिया और इन बदलते हुए राजनीतिक समीकरणों को निकट से अनुभव किया।
1812 की वह ऐतिहासिक संधि, जिसने रीवा की विदेश नीति को अपरिवर्तनीय रूप से ब्रिटिश हितों के अधीन कर दिया, एक दोधारी तलवार के समान थी; यद्यपि इसने राज्य को पिंडारी और मराठा आक्रमणों जैसे तात्कालिक बाहरी खतरों से एक महत्वपूर्ण सीमा तक सुरक्षा कवच प्रदान किया, परन्तु दीर्घकाल में इसने रियासत की संप्रभुता और स्वतंत्र निर्णय क्षमता को गंभीर रूप से सीमित कर दिया।
विश्वनाथ सिंह (शासनकाल: 1833-1854 ई.):
महाराजा जय सिंह के पश्चात् उनके पुत्र विश्वनाथ सिंह का विधिवत् राज्याभिषेक 1833 में हुआ। उन्होंने अपने शासनकाल में रियासत की आंतरिक शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करने, राजस्व संग्रह प्रणाली को अधिक व्यवस्थित और कुशल बनाने तथा राज्य में कानून-व्यवस्था को प्रभावी ढंग से बनाए रखने के लिए अनेक महत्वपूर्ण प्रयास किए। उन्होंने स्थानीय शक्तिशाली और अक्सर विद्रोही प्रवृत्ति के इलाकेदारों तथा जागीरदारों, जो केंद्रीय सत्ता को चुनौती देते रहते थे, को नियंत्रित करने के लिए कठोरता और कूटनीति दोनों का सहारा लिया। इसका एक प्रमुख उदाहरण मऊ के विद्रोही ठाकुर अनिरूद्ध सिंह के सुदृढ़ गढ़ को ध्वस्त करने के लिए रीवा राज्य की प्रसिद्ध और विशालकाय "हनूहंकार" तोप का सफलतापूर्वक प्रयोग (1835) था, जिसने अन्य असंतुष्ट तत्वों को भी एक कड़ा संदेश दिया। उन्होंने नईगढ़ी (1844) और सेमरिया (1821) जैसे क्षेत्रों में उत्पन्न हुए उपद्रवों और स्थानीय विद्रोहों को भी प्रभावी ढंग से शांत किया, जिससे राज्य में आंतरिक शांति स्थापित हुई। 1839 में मऊगंज और ब्रिटिश नियंत्रण वाले मिर्जापुर जिले के बीच उत्पन्न जटिल सीमा विवादों को तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर मि. स्टुअर्ट द्वारा मध्यस्थता करके सुलझाया गया, जो क्षेत्र में बढ़ते ब्रिटिश राजनीतिक प्रभाव और उनके मध्यस्थ की भूमिका को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। राजस्व प्रशासन को आधुनिक बनाने और राज्य की वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से 1843 में परमिट तथा आबकारी विभाग की महत्वपूर्ण स्थापना की गई, जो वाणिज्यिक गतिविधियों को नियमित करने और राज्य की आय बढ़ाने की दिशा में एक प्रगतिशील कदम था। उनके योग्य और अनुभवी दीवान वंशीधर की मृत्यु के उपरांत, दीनबन्धु पाण्डेय को दीवान के महत्वपूर्ण और उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया, जिन्होंने प्रशासनिक एवं वित्तीय मामलों में महाराजा का कुशलतापूर्वक सहयोग किया।
विशेष सूचना: ऐतिहासिक श्रृंखला
यह विस्तृत संस्करण "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" नामक हमारी महत्वाकांक्षी ऐतिहासिक श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो विशेष रूप से बघेल राजवंश के परवर्ती मुगल शासकों के साथ जटिल होते संपर्कों और ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की ओर संक्रमण तथा उसके प्रारंभिक प्रभावों पर केंद्रित है। इस गूढ़ और बहुआयामी विषय पर हमारी समर्पित शोध टीम द्वारा लगभग दस भागों की एक विस्तृत श्रृंखला प्रकाशित करने की महत्वाकांक्षी योजना है, जिसमें प्रत्येक ऐतिहासिक कालखंड, महत्वपूर्ण घटना और व्यक्तित्व का गहन, निष्पक्ष और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाएगा। हम आपसे, हमारे प्रबुद्ध पाठकों से, विनम्र अनुरोध करते हैं कि आप इस श्रृंखला के सभी भागों को धैर्यपूर्वक पढ़ें, उन पर गहन चिंतन करें और अपने बहुमूल्य विचार, सारगर्भित सुझाव एवं रचनात्मक प्रतिक्रियाएं हमें अवश्य साझा करें, ताकि हम इस ऐतिहासिक शोध को और भी उन्नत, व्यापक, तथ्यात्मक रूप से सुदृढ़ और त्रुटिरहित बना सकें। आपकी सक्रिय बौद्धिक सहभागिता हमारे इन शोध प्रयासों को सार्थकता और एक नवीन दिशा प्रदान करेगी।
ऐसे ही अन्य रोचक, ज्ञानवर्धक ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विषयों की गहन जानकारी नियमित रूप से प्राप्त करने तथा हमारे शोध एवं संपादन प्रयासों से सक्रिय रूप से जुड़ने के लिए, कृपया हमें ईमेल करें: shriasheeshacharya@gmail.com
3. 1857 का महासंग्राम और उसके बाद का रीवा
सन् 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, जिसे ब्रिटिश इतिहासकारों ने प्रायः 'सिपाही विद्रोह' या 'गदर' कहकर इसके महत्व को कम करने का प्रयास किया, वास्तव में भारतीय इतिहास की एक युगांतरकारी और दूरगामी प्रभाव वाली घटना थी। इस राष्ट्रव्यापी सशस्त्र विद्रोह ने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया, बल्कि भारतीय रियासतों के शासकों, उनकी प्रजा और उनके राजनीतिक भविष्य को भी गहराई से तथा स्थायी रूप से प्रभावित किया। रीवा रियासत, जो मध्य भारत की एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक रियासत थी, ने इस उथल-पुथल भरे कालखंड के दौरान एक अत्यंत जटिल, विरोधाभासी और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें तत्कालीन शासक की निष्ठा, स्थानीय सरदारों का विद्रोह और आम जनता की भावनाएँ विभिन्न स्तरों पर अभिव्यक्त हुईं।
रघुराज सिंह (शासनकाल: 1854-1880 ई.):
महाराज विश्वनाथ सिंह के सुपुत्र, रघुराज सिंह, एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी, विद्वान और कला-प्रेमी शासक थे। उन्हें संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी भाषाओं का अच्छा ज्ञान था, और उनकी गहरी रुचि साहित्य, संगीत तथा शतरंज जैसे बौद्धिक खेलों में थी। उन्होंने शतरंज के एक नवीन और अत्यंत जटिल स्वरूप "दशघरा शतरंज" का आविष्कार किया और भक्ति तथा नीति से परिपूर्ण “जगदीश शतक” नामक उत्कृष्ट काव्य ग्रंथ की रचना भी की, जो उनकी साहित्यिक प्रतिभा का प्रमाण है। उन्होंने अपने शासनकाल में सुरम्य गोविन्दगढ़ नगर बसाया, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता, झील और आमों के लिए प्रसिद्ध हुआ, और वहाँ उन्होंने अपने पिता के नाम पर 'विश्वनाथ सागर' नामक विशाल और कलात्मक तालाब खुदवाया। रीवा नगर में उन्होंने लक्ष्मणबाग परिसर में भव्य और कलात्मक मंदिरों की स्थापना भी करवाई, जो उनके धार्मिक रुझान और कलात्मक संरक्षण का जीवंत प्रमाण हैं। 1857 के महासंग्राम के विकट समय में, जब उत्तर और मध्य भारत के अनेक क्षेत्रों में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की प्रचंड ज्वाला धधक रही थी और अनेक रियासतें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस संघर्ष में शामिल हो रही थीं, महाराज रघुराज सिंह ने एक अत्यंत सतर्क, व्यावहारिक और कूटनीतिक रुख अपनाया। ऊपरी तौर पर और औपचारिक रूप से उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी परंपरागत निष्ठा बनाए रखी और अपनी सेना के लगभग 2000 सुसज्जित सैनिक अंग्रेजों की सहायता के लिए विभिन्न संकटग्रस्त क्षेत्रों, जैसे नागौद, जबलपुर, दमोह और सागर, में भेजे। इन सैनिकों ने ब्रिटिश अधिकारियों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने और विद्रोही गतिविधियों को दबाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रदर्शित "वफादारी" और समय पर दी गई सैन्य सहायता के बदले में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा सोहागपुर (वर्तमान शहडोल जिले का भाग) और पवित्र अमरकण्टक का महत्वपूर्ण एवं विस्तृत क्षेत्र पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त, उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य की ओर से के.जी.सी.एस.आई. (Knight Grand Commander of the Star of India) की अत्यंत प्रतिष्ठित उपाधि से भी 1864 में अलंकृत किया गया। हालांकि, स्थानीय जनश्रुतियों, लोकगाथाओं, कवित्तों और कुछ परोक्ष ऐतिहासिक साक्ष्यों तथा विश्लेषणों के अनुसार, यह भी माना जाता है कि वे अंदर से भारतीय विद्रोहियों और स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे। कहा जाता है कि उन्होंने ठाकुर रणमत सिंह (मनकहरी, जिला सतना के एक वीर जमींदार) तथा लाल श्यामशाह (कोठी, जिला सतना के एक अन्य प्रमुख क्रांतिकारी) जैसे बघेलखण्ड और बुंदेलखण्ड के प्रमुख क्रांतिकारियों को अप्रत्यक्ष रूप से वित्तीय सहायता, आधुनिक शस्त्र और अपने राज्य की सीमाओं में गुप्त रूप से शरण प्रदान की। इन वीर क्रांतिकारियों ने अपने सीमित संसाधनों और कठिन परिस्थितियों के बावजूद ब्रिटिश सत्ता को कई महीनों तक कड़ी चुनौती दी और क्षेत्र में विद्रोह की भावना को निरंतर जीवित रखा।
प्रशासनिक और वित्तीय परिवर्तन:
1857 के महासंग्राम के सफलतापूर्वक दमन के पश्चात्, ब्रिटिश सरकार ने भारतीय रियासतों पर अपना राजनीतिक और प्रशासनिक नियंत्रण और अधिक सुदृढ़ तथा संस्थागत करने की नीति अपनाई। इसी व्यापक नीति के अंतर्गत, 1862 में रीवा में एक ब्रिटिश राजनीतिक एजेन्सी की अल्पकालिक स्थापना की गई, यद्यपि यह शीघ्र ही किन्हीं कारणों से समाप्त कर दी गई। परन्तु, 1870-71 में स्थायी रूप से “बघेलखण्ड पोलिटिकल एजेंसी" की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय रीवा के निकट स्थित महत्वपूर्ण नगर सतना में रखा गया। इस एजेंसी के माध्यम से ब्रिटिश रेजिडेंट रियासत के आंतरिक मामलों में भी प्रभावी ढंग से हस्तक्षेप करने लगा, जिससे महाराजा की शक्तियाँ सीमित हो गईं। दुर्भाग्यवश, रियासत में बढ़ते वित्तीय कुप्रबंधन, फिजूलखर्ची, ऋण के निरंतर बढ़ते बोझ और प्रशासनिक अव्यवस्था के कारण 1875 में महाराज रघुराज सिंह को इस अपमानजनक शर्त पर राज्य का सम्पूर्ण वित्तीय और प्रशासनिक प्रबंध कुछ वर्षों के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारियों को सौंपना पड़ा कि उनके द्वारा स्थापित परंपरागत शासन प्रणाली और उनके वंशानुगत अधिकार तथा राजकीय उपाधियाँ भविष्य में भी अक्षुण्ण बनी रहेंगी। यह घटना रीवा की आंतरिक स्वायत्तता में एक और बड़ी तथा गंभीर कटौती थी और इसने रियासत पर ब्रिटिश नियंत्रण को और अधिक प्रत्यक्ष तथा सुदृढ़ करने वाला कदम सिद्ध किया।
1857 का वह राष्ट्रव्यापी महासंग्राम रीवा रियासत और उसके शासक महाराज रघुराज सिंह के लिए एक दोहरी और अत्यंत कठिन चुनौती लेकर आया – एक ओर ब्रिटिश सर्वोच्चता के प्रति अपनी औपचारिक निष्ठा को बनाए रखने का दबाव, तो दूसरी ओर अपने राज्य की आंतरिक स्वतंत्रता, अपनी प्रजा की भावनाओं और राष्ट्रीय अस्मिता की आकांक्षा के बीच एक नाजुक और खतरनाक संतुलन साधने का दुष्कर प्रयास।
4. उच्च औपनिवेशिक काल में रीवा और आधुनिकता की ओर कदम
19वीं सदी के अंतिम दशकों और 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में, रीवा रियासत ब्रिटिश क्राउन के सीधे अधीन एक महत्वपूर्ण और बड़ी "प्रिंसली स्टेट" (देशी रियासत) के रूप में अपनी पहचान बनाए रही। इस कालखंड में, ब्रिटिश अधिकारियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष मार्गदर्शन, निरीक्षण और कभी-कभी दबाव में, रियासत में कुछ महत्वपूर्ण प्रशासनिक, न्यायिक, भू-राजस्व एवं ढांचागत आधुनिकीकरण के प्रयास तो हुए, जिनका उद्देश्य शासन को अधिक व्यवस्थित और राजस्व को अधिक सुनिश्चित बनाना था। यद्यपि इसके साथ ही, ब्रिटिश राजनीतिक नियंत्रण भी निरंतर बढ़ता और गहराता गया, जिससे रियासत की वास्तविक स्वायत्तता और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता उत्तरोत्तर क्षीण होती गई और वह ब्रिटिश साम्राज्य की व्यापक व्यवस्था का एक अंग बनकर रह गई।
वेंकटरमण सिंह (शासनकाल: 1880-1918 ई.):
महाराज रघुराज सिंह के स्वर्गवास के उपरांत, उनके पुत्र वेंकटरमण सिंह मात्र 3 वर्ष की अल्पायु में रीवा की राजगद्दी पर आसीन हुए। उनके वयस्क होने तक, लगभग दो दशकों तक, रियासत का शासन ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त एक अनुभवी सुपरिटेण्डेन्ट और एक काउंसिल ऑफ रीजेंसी (संरक्षक परिषद) द्वारा कुशलतापूर्वक संचालित होता रहा। इस लंबी अवधि के दौरान प्रशासन में ब्रिटिश प्रशासनिक और वित्तीय तौर-तरीकों को कड़ाई से और व्यवस्थित रूप से लागू किया गया। परंपरागत रूप से शक्तिशाली और अर्ध-स्वतंत्र रहे इलाकेदारों और पवाईदारों (छोटी-छोटी वंशानुगत जागीरों के धारक) के अनेक परंपरागत अधिकारों में कटौती की गई, जिससे उनकी शक्ति और प्रभाव में काफी कमी आई और केंद्रीय सत्ता मजबूत हुई। भू-राजस्व व्यवस्था को सुधारने, भूमि का वैज्ञानिक सर्वेक्षण करने और राज्य की आय को निश्चित तथा नियमित करने के उद्देश्य से 1881 में प्रथम विस्तृत सर्वे बन्दोबस्त (First Regular Land Revenue Settlement) करवाया गया। लगान वसूली की पुरानी और शोषणकारी ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया और रैयतवाड़ी या महालवाड़ी जैसी प्रणालियों को लागू करने का प्रयास किया गया। एक विस्तृत और सुपरिभाषित रेवेन्यू मैनुअल (राजस्व संहिता) का निर्माण किया गया, जिससे राजस्व प्रशासन में कुछ हद तक नियमबद्धता और पारदर्शिता आई। प्रशासनिक सुविधा और बेहतर नियंत्रण के लिए राज्य को प्रारंभ में 7 और बाद में 10 तहसीलों में पुनर्गठित किया गया। 1903 में द्वितीय सर्वे बन्दोबस्त भी सफलतापूर्वक लागू किया गया, जिससे भू-राजस्व व्यवस्था और सुदृढ़ हुई।
निर्माण कार्य और शहरी विकास:
महाराजा वेंकटरमण सिंह के वयस्क होने और शासन की पूर्ण बागडोर संभालने के बाद, रीवा नगर के सौंदर्यीकरण, आधुनिकीकरण और नागरिक सुविधाओं के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। 1908 में रीवा किले का जीर्णोद्धार और विस्तार किया गया और उसके भीतर तत्कालीन यूरोपीय और भारतीय स्थापत्य शैलियों के मनोहारी मिश्रण (इंडो-सारसेनिक शैली) में एक भव्य और कलात्मक “वेंकट भवन” का निर्माण करवाया गया, जिसकी अनुमानित लागत उस समय लगभग 20 लाख रुपये थी। यह तिमंजिला भवन आज भी रीवा की स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट और दर्शनीय नमूना है तथा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर है। इसके अतिरिक्त, बम्बई (अब मुंबई) और प्रयाग (अब प्रयागराज) जैसे महत्वपूर्ण शहरों में रियासत की कोठियों (अतिथि गृहों और संपर्क कार्यालयों) का विस्तार और नवीनीकरण किया गया। रीवा नगर में सार्वजनिक उपयोग और प्रशासनिक दक्षता के लिए गोला घर (अनाज के सुरक्षित भंडारण हेतु), राजनिवास (महाराजा का निवास), कचहरी भवन (न्यायालय और प्रशासनिक कार्यालय), पीली कोठी (वरिष्ठ अधिकारियों और अतिथियों का निवास) आदि अनेक महत्वपूर्ण और उपयोगी इमारतों का निर्माण करवाया गया, जिससे नगर के स्वरूप और संरचना में उल्लेखनीय परिवर्तन आया।
सैन्य सुधार और कला-प्रेम:
महाराजा वेंकटरमण सिंह, जिन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा लेफ्टिनेंट कर्नल की मानद सैन्य उपाधि भी प्रदान की गई थी, ने 1904 में रीवा स्टेट आर्मी के कमाण्डर इन चीफ का पद स्वयं संभाला। उन्होंने सेना के आधुनिकीकरण, नवीनतम शस्त्रों की उपलब्धता, सैनिकों के नियमित प्रशिक्षण और अनुशासन पर विशेष बल दिया। सतना, बघऊँ और बांधवगढ़ जैसे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण स्थानों पर फौजी छावनियाँ स्थापित की गईं और उनका सुदृढ़ीकरण किया गया। वे कला, साहित्य और संगीत के भी बड़े प्रेमी और संरक्षक थे। उन्होंने रीवा में “बघेलखण्ड नाटक कम्पनी” की स्थापना को प्रोत्साहित किया, जिसने स्थानीय प्रतिभाओं को एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान किया और अनेक सामाजिक तथा पौराणिक नाटकों का मंचन किया। उन्होंने स्वयं भी भक्ति और वैराग्य की भावनाओं से ओतप्रोत "भजनावली" नामक गेय काव्य ग्रंथ की रचना की, जो उनकी साहित्यिक अभिरुचि और आध्यात्मिक झुकाव का परिचायक है। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के विनाशकारी काल में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करते हुए ब्रिटिश सरकार को भरपूर सैन्य, वित्तीय और साजो-सामान की सहायता प्रदान की, जिसके लिए उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा अनेक सम्मान और धन्यवाद प्राप्त हुए। हालांकि, उनके लंबे और घटनापूर्ण शासनकाल में राज्य को तीन बार (1896-97 में भीषण सूखा, 1899—1900 में प्लेग और अकाल, तथा 1907-1908 में पुनः अकाल) भयानक प्राकृतिक आपदाओं और अकालों का भी सामना करना पड़ा, जिससे प्रजा को अपार कष्ट, भुखमरी और आर्थिक हानि उठानी पड़ी। इन विनाशकारी अकालों के दौरान सरकारी स्तर पर राहत कार्यों का भी आयोजन किया गया, परन्तु वे प्रभावित जनसंख्या की विशालता और संकट की गंभीरता को देखते हुए प्रायः अपर्याप्त सिद्ध हुए।
एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला
निष्कर्ष (भाग - 1): संक्रमण और अनुकूलन का युग
महाराज विक्रमादित्य द्वारा रीवा को एक सुव्यवस्थित और सुरक्षित राजधानी बनाए जाने के उपरांत से लेकर 19वीं सदी के मध्य में ब्रिटिश आधिपत्य के निर्णायक रूप से सुदृढ़ होने तक का कालखंड बघेल राजवंश और समग्र रीवा रियासत के लिए निरंतर राजनीतिक परिवर्तन, गंभीर बाह्य एवं आंतरिक चुनौतियों और इन परिस्थितियों के प्रति सफलतापूर्वक अनुकूलन स्थापित करने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण युग था। परवर्ती मुगल शासकों की कमजोर होती केंद्रीय सत्ता के बीच अपनी स्वायत्तता को बनाए रखना, बुंदेलों और मराठों जैसी शक्तिशाली क्षेत्रीय शक्तियों के आक्रामक विस्तारवाद का सफलतापूर्वक सामना करना, और अंततः एक नवीन, सुसंगठित और महत्वाकांक्षी औपनिवेशिक शक्ति (ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी) के साथ जटिल संधिबद्ध संबंधों में बंधना, बघेल शासकों की असाधारण राजनीतिक दूरदर्शिता, कूटनीतिक सूझबूझ और सैन्य तैयारियों की कठिन परीक्षा थी। इस चुनौतीपूर्ण काल में भी, महामृत्युंजय मंदिर और रानी तालाब जैसे महत्वपूर्ण धार्मिक एवं जनकल्याणकारी निर्माण कार्य संपन्न हुए, तथा संस्कृत एवं स्थानीय भाषाओँ में साहित्य और विभिन्न कलाओं को भी यथोचित संरक्षण प्राप्त होता रहा, जो बघेल शासकों की सांस्कृतिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है। 1812 की ऐतिहासिक संधि ने रीवा की बाह्य संप्रभुता और स्वतंत्र विदेश नीति को औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया, परंतु आंतरिक प्रशासन के अधिकांश क्षेत्रों में बघेल शासकों का परंपरागत नियंत्रण काफी हद तक बना रहा। 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम इस क्षेत्र के साथ-साथ संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक निर्णायक और युगांतरकारी मोड़ सिद्ध हुआ, जिसके दूरगामी परिणामों के फलस्वरूप ब्रिटिश नियंत्रण और अधिक प्रत्यक्ष, संस्थागत और प्रभावी हो गया। इसके उपरांत, ब्रिटिश मॉडल पर आधारित प्रशासनिक सुधारों और तथाकथित आधुनिकीकरण के विभिन्न प्रयासों ने रीवा को शनैः-शनैः एक नए युग में प्रवेश कराया, यद्यपि इसकी एक बड़ी कीमत रियासत की निरंतर घटती हुई राजनीतिक स्वतंत्रता और बढ़ता हुआ ब्रिटिश हस्तक्षेप था। यह लम्बी और घटनापूर्ण ऐतिहासिक यात्रा हमें महाराज गुलाब सिंह और महाराजा मार्तण्ड सिंह के प्रगतिशील एवं राष्ट्रवादी शासनकाल तथा अंततः स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में रीवा के सम्मानजनक विलय की महत्वपूर्ण और प्रेरक कहानी की ओर ले जाती है, जिसकी विस्तृत और गहन चर्चा इस श्रृंखला की अगली कड़ी (भाग-2) में की जाएगी।
रीवा का इतिहास वास्तव में परिवर्तन और निरंतरता की एक ऐसी सम्मोहक और प्रेरणादायक कहानी है, जहाँ सदियों पुरानी परंपराओं ने आधुनिकता की चुनौतियों और अवसरों के साथ कदम मिलाया और समय के साथ एक नई, जीवंत और प्रगतिशील पहचान सफलतापूर्वक गढ़ी।
रीवा का परवर्ती मध्यकाल: प्रमुख व्यक्तित्व एवं घटनाक्रम
"महाराज भाव सिंह (1660-1690 ई.)": एक अत्यंत विद्वान, धर्मपरायण और कला-संरक्षक शासक, जिन्होंने रीवा के प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर एवं ऐतिहासिक रानी तालाब जैसे महत्वपूर्ण जनकल्याणकारी और धार्मिक संरचनाओं का निर्माण करवाया, तथा स्वयं "हौत्र कल्पद्रुम" नामक महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथ के रचयिता थे।
उनका शासनकाल रीवा के इतिहास में एक उल्लेखनीय सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं धार्मिक नवजागरण का प्रतीक माना जाता है, जिसने क्षेत्र की आध्यात्मिक और बौद्धिक विरासत को समृद्ध किया।
"शाह आलम द्वितीय को शरण": महाराजा अजीत सिंह द्वारा तत्कालीन संकटग्रस्त और राज्यहीन मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को मुकुन्दपुर की गढ़ी में ससम्मान आश्रय देना, बघेल राजवंश की परंपरागत शरणागत-वत्सलता, उदारता और भारतीय संस्कृति के उच्च नैतिक मूल्यों के प्रति उनकी गहरी आस्था का एक ज्वलंत परिचायक है।
यह ऐतिहासिक घटना न केवल बघेल शासकों के मानवीय दृष्टिकोण को दर्शाती है, बल्कि भारतीय इतिहास के एक अत्यंत उथल-पुथल भरे काल में रीवा की महत्वपूर्ण और साहसिक भूमिका को भी प्रमुखता से रेखांकित करती है।
"1812 की संधि": महाराजा जय सिंह द्वारा तत्कालीन राजनीतिक विवशताओं और पिंडारियों के निरंतर भय के कारण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ सहायक संधि पर हस्ताक्षर करना, जिसके परिणामस्वरूप रीवा औपचारिक रूप से ब्रिटिश संरक्षण के अंतर्गत आ गया।
इस दूरगामी प्रभाव वाली संधि ने रीवा की परंपरागत विदेश नीति, सैन्य स्वतंत्रता और राजनीतिक स्वायत्तता को गहराई से तथा स्थायी रूप से प्रभावित किया, और इसे ब्रिटिश साम्राज्य की व्यापक व्यवस्था का एक अंग बना दिया।
"महाराज रघुराज सिंह और 1857": भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी अत्यंत जटिल और विवादास्पद भूमिका, जिसमें एक ओर ब्रिटिश सरकार के प्रति औपचारिक निष्ठा और सैन्य सहायता प्रदान करना, तो दूसरी ओर स्थानीय क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को अप्रत्यक्ष समर्थन और सहानुभूति देने की प्रबल जनश्रुतियाँ और ऐतिहासिक संकेत मिलते हैं।
उनका यह द्वैधपूर्ण कार्यकाल रीवा के इतिहास में एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण, गहन विश्लेषण की अपेक्षा रखने वाला और इतिहासकारों के बीच आज भी विवादास्पद माना जाने वाला अध्याय है।
"वेंकट भवन का निर्माण": महाराजा वेंकटरमण सिंह द्वारा रीवा किले के परिसर में इंडो-सारसेनिक स्थापत्य शैली में निर्मित यह भव्य और कलात्मक महल, जो न केवल तत्कालीन रीवा में आधुनिक स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण था, बल्कि यह बघेल शासकों की दूरदर्शिता, कलाप्रियता और सुनियोजित शहरी विकास की ओर बढ़ते कदमों का भी एक महत्वपूर्ण प्रारंभ था।
यह ऐतिहासिक और आकर्षक भवन आज भी रीवा की वास्तुकला का एक अनुपम नमूना, एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर और शहर की पहचान का एक अभिन्न अंग है।
बघेलकालीन रीवा की झलकियाँ

(चित्र: रीवा स्थित ऐतिहासिक रानी तालाब और उसके किनारे बने कलात्मक मंदिर, जिनका निर्माण महारानी अजबकुँवरि (महाराज भाव सिंह की पत्नी) द्वारा करवाया गया था। यह स्थल आज भी रीवा की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। साभार: rewa.nic.in)
रीवा का ऐतिहासिक किला (वृत्तचित्र अंश)
(यह एक प्लेसहोल्डर वीडियो है। रीवा के ऐतिहासिक किले, उसके विभिन्न महलों, दरवाजों, या बघेलकालीन इतिहास और स्थापत्य पर किसी जानकारीपूर्ण और आकर्षक वृत्तचित्र का YouTube VIDEO_ID यहाँ डाला जा सकता है।)
आप सभी को निमंत्रण है! हमारी ऐतिहासिक यात्रा में शामिल हों!
📜यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।
अपने विचार साझा करें!
नीचे दिए गए टिप्पणी बॉक्स में अपने अनमोल विचार अवश्य लिखें। आपकी टिप्पणियाँ इस चर्चा को और समृद्ध करेंगी!
अधिक जानकारी, गहन चर्चा या हमारे आगामी लेखों से अवगत रहने के लिए, इस पते पर ईमेल करें:
shriasheeshacharya@gmail.comअध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)
रीवा के परवर्ती बघेल शासकों, उनके मुगल संपर्कों, मराठा और बुंदेला शक्तियों के साथ उनके संबंधों, तथा ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के प्रारंभिक चरण के इतिहास का गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित प्रकार के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं:
समकालीन एवं परवर्ती ऐतिहासिक ग्रंथ:
- **मुगलकालीन फारसी तवारीखें:** (विशेष रूप से जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब, और परवर्ती मुगल शासकों के शासनकाल से संबंधित) जैसे अब्दुल हमीद लाहौरी कृत "पादशाहनामा", इनायत खाँ कृत "शाहजहाँनामा", मुहम्मद काज़िम शिराज़ी कृत "आलमगीरनामा", भीमसेन सक्सेना कृत "नुस्खा-ए-दिलकुशा", सआदत यार खान 'रंगीन' कृत "नादिर-उश-शाह" या "तारीख-ए-मुहम्मदी"। इन ग्रंथों में बघेल शासकों के मुगल दरबार से संबंधों, सैन्य अभियानों में उनकी भूमिका, और उन्हें प्राप्त मनसब तथा उपाधियों का उल्लेख मिल सकता है।
- **बघेल दरबारी साहित्य एवं वंशावलियाँ:** कवि नीलकण्ठ कृत "अमररेश विलास" (महाराजा अमर सिंह के समय का), स्वयं महाराजा भाव सिंह द्वारा रचित "हौत्र कल्पद्रुम" (धार्मिक एवं साहित्यिक महत्व का), महाराजा वेंकटरमण सिंह कृत "भजनावली" (भक्ति काव्य), महाराजा रघुराज सिंह कृत “जगदीश शतक” (नीति और भक्ति काव्य)। इसके अतिरिक्त, "बघेलवंशवर्णनम्" जैसी वंशावलीपरक रचनाएँ।
- **मराठा और बुंदेला इतिहास से संबंधित ग्रंथ तथा पत्र-व्यवहार:** जिनमें रीवा रियासत के साथ उनके राजनीतिक, सैन्य या कूटनीतिक संबंधों का यदा-कदा उल्लेख प्राप्त हो सकता है, जैसे विभिन्न पेशवा दफ्तर के रिकॉर्ड या बुंदेला राजाओं के ऐतिहासिक विवरण।
- **ब्रिटिश कालीन प्रशासनिक रिपोर्टें, गजेटियर एवं पत्राचार:** Luard, C.E. (1907). "Rewah State Gazetteer". (Central India State Gazetteer Series का एक महत्वपूर्ण भाग, जो रीवा रियासत का तत्कालीन विस्तृत भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक विवरण प्रस्तुत करता है)। Aitchison, C.U. "A Collection of Treaties, Engagements and Sanads relating to India and Neighbouring Countries". (इसमें रीवा रियासत द्वारा ब्रिटिश सरकार के साथ की गई विभिन्न संधियों और समझौतों का आधिकारिक पाठ मिल सकता है)। विभिन्न वर्षों की "Reports on the Administration of the Rewa State" (ये रिपोर्टें रियासत के आंतरिक प्रशासन, राजस्व, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास कार्यों पर प्रकाश डालती हैं)। भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India, New Delhi) में संरक्षित विदेश और राजनीतिक विभाग (Foreign and Political Department) के रिकॉर्ड, जिनमें बघेलखण्ड एजेंसी और रीवा रियासत से संबंधित महत्वपूर्ण पत्राचार, रिपोर्टें और गोपनीय दस्तावेज़ शामिल हो सकते हैं।
आधुनिक शोध एवं प्रकाशन:
/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */ 1. सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". प्रयाग: यूनियन प्रेस। (रियासती इतिहास, वंशावलियों, प्रमुख घटनाओं और स्थानीय परंपराओं का एक पारंपरिक लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण और विस्तृत स्रोत)। 2. शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी। (इस क्षेत्र की विशिष्ट भाषाई, साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत पर एक मानक और गहन अकादमिक कृति)। 3. श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी। (विंध्य क्षेत्र के व्यापक ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक परिप्रेक्ष्य को समझने हेतु एक उपयोगी संदर्भ ग्रंथ)। 4. द्विवेदी, हरिहर निवास. "मध्य भारत का इतिहास" (विभिन्न खंड)। ग्वालियर: विद्या मंदिर प्रकाशन। (मध्य भारत की रियासतों के संदर्भ में उपयोगी)। 5. बरुआ, एस.एन. (शोधकर्ता का नाम). "Political and Cultural History of the Rewa State (Baghelkhand) from earliest times to 1947". (यह एक काल्पनिक उदाहरण है, परन्तु इस प्रकार के पीएचडी शोध-प्रबंध या मोनोग्राफ विश्वविद्यालयों में उपलब्ध हो सकते हैं)। 6. मिश्र, सुरेश (संपादक). "बघेलखण्ड: इतिहास एवं संस्कृति"। (यह भी एक काल्पनिक उदाहरण है, इस प्रकार के संपादित ग्रंथ विभिन्न विद्वानों के लेखों का संग्रह हो सकते हैं)। 7. विभिन्न भारतीय विश्वविद्यालयों के इतिहास, पुरातत्व और मानवशास्त्र विभागों द्वारा प्रकाशित शोध-पत्र, जर्नल एवं संगोष्ठी कार्यवाहियाँ (जैसे Proceedings of the Indian History Congress, Journal of the Epigraphical Society of India, आदि)। 8. गुप्ता, परमेश्वरी लाल. "Coins". नई दिल्ली: नेशनल बुक ट्रस्ट। (रियासतकालीन मुद्राओं और मुद्राशास्त्रीय अध्ययन के संदर्भ में उपयोगी)।
अन्य स्रोत:
- रीवा राजपरिवार के निजी अभिलेखागार में संरक्षित महत्वपूर्ण दस्तावेज़, पत्र-व्यवहार, फरमान, और वंशावलियाँ (यदि शोधकर्ताओं के लिए सुलभ हों)।
- स्थानीय किंवदंतियाँ, लोकगाथाएँ, लोकगीत (जैसे आल्हा, फाग, सोहर), और मौखिक परंपराएँ (इनका सावधानीपूर्वक और विश्लेषणात्मक उपयोग ऐतिहासिक साक्ष्यों की पुष्टि या पूरक जानकारी के रूप में किया जा सकता है)।
- पुरातात्त्विक स्थल जैसे रीवा का किला, गोविंदगढ़ का किला, बांधवगढ़, महामृत्युंजय मंदिर, रानी तालाब, देउर कोठार आदि के स्थापत्य अवशेष, अभिलेख, मूर्तियाँ और अन्य पुरावशेष, जो तत्कालीन कला, धर्म और सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालते हैं।
कॉपीराइट एवं उपयोग अधिकार
2024 आचार्य आशीष मिश्र (शोध एवं संपादन)। सर्वाधिकार सुरक्षित।
यह प्रस्तुति "रीवा का गौरवशाली इतिहास: बघेल राजवंश, मुगल संपर्क, और आधुनिकता का संगम (भाग-1)" ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए है। सामग्री का उपयोग गैर-व्यावसायिक, शैक्षिक, और शोधपरक गतिविधियों के लिए, शोध एवं संपादन: "आचार्य आशीष मिश्र" (acharyaasheeshmishra.blogspot.com) के उचित श्रेय के साथ किया जा सकता है।
अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर रीवा इतिहास, बघेल राजवंश, तथा मुगल काल लेबल देखें।
हमारी विस्तृत लेख श्रृंखला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास"
इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की विभिन्न कड़ियों, राजवंशों के उत्थान-पतन, सांस्कृतिक विकास और ऐतिहासिक महत्व को और गहराई से जानने के लिए हमारी श्रृंखला के इन महत्वपूर्ण लेखों को अवश्य पढ़ें। यह सूची निरंतर अपडेट होती रहेगी जैसे-जैसे नए शोध और लेख प्रकाशित होंगे:
भाग I: बघेलखण्ड का प्राचीन इतिहास: आदिम संस्कृति से राजवंशों के उदय तक
बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य। आदिम संस्कृति से राजवंशों के उत्थान तक – एक गहन पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवांचल का प्राचीन इतिहास: प्रागैतिहासिक संस्कृति, पौराणिक आख्यान और मौर्योत्तर कालीन धरोहर
विंध्य धरा की प्राचीन गाथा: रीवांचल का पुरातात्त्विक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन। प्रागैतिहासिक काल से मौर्योत्तर काल तक। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का प्रारंभिक इतिहास: वनवासी सभ्यता, प्राचीन राजवंश और बहु-सांस्कृतिक विरासत (प्रागैतिहासिक से मौर्योत्तर)
रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत। एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का आरंभिक इतिहास: वनवासी संस्कृतियाँ, प्राचीन राजवंश और बहुआयामी सांस्कृतिक धरोहर
विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम। इस लेख में प्रारंभिक काल की गहन पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग II: बघेल राजवंश का उदय: गहोरा से रीवा तक राज्य स्थापना, प्रशासन और सांस्कृतिक विरासत
बघेल राजवंश का अभ्युदय और रीवा राज्य की स्थापना। एक राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक मीमांसा (गहोरा से रीवा तक)। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव के आगमन से मुगलकालीन रीवा तक का ऐतिहासिक सफर
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव से मुगलकालीन रीवा तक। एक विस्तृत ऐतिहासिक यात्रा एवं सांस्कृतिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का मध्यकालीन उत्कर्ष: बघेल राजवंश का शासन, सांस्कृतिक योगदान और क्षेत्रीय प्रभाव
विंध्य धरा का बघेल गौरव: मध्यकालीन शासन, संस्कृति एवं प्रभाव। बघेल राजवंश का अभ्युदय, शासन, सांस्कृतिक योगदान एवं क्षेत्रीय प्रभाव। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन और सांस्कृतिक संगम
विंध्य की विरासत: बघेल-सेंगर संपर्क और रीवा का सांस्कृतिक ताना-बाना। रीवा का गौरवशाली इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन, और सांस्कृतिक संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का परिवर्तन: मुगलकालीन स्वर्ण युग से औपनिवेशिक चुनौतियों और आधुनिक रीवा के निर्माण तक
रीवा: मुगल वैभव से आधुनिकता की ओर – एक ऐतिहासिक यात्रा। बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 1)
रीवा: औपनिवेशिक काल से आधुनिक भारत तक का ऐतिहासिक सफर। बघेल राजवंश, ब्रिटिश संपर्क, स्वतंत्रता संग्राम और समकालीन विकास। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 2)
रियासत के भारतीय संघ में विलय की विस्तृत और निर्णायक कहानी, स्वतंत्रता उपरांत विकास और चुनौतियाँ। (लेबल: प्राचीन रीवा)
सभी लेख देखें: प्राचीन रीवा श्रृंखला
"रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" श्रृंखला के सभी प्रकाशित लेखों को एक स्थान पर पाएं और इस ऐतिहासिक यात्रा में हमारे साथ बने रहें।