बघेलखण्ड का परिवर्तन: मुगलकालीन स्वर्ण युग से औपनिवेशिक चुनौतियों और आधुनिक रीवा के निर्माण तक

रीवा: मुगल वैभव से आधुनिकता की ओर – एक ऐतिहासिक यात्रा

बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण (भाग - 2, अंतिम)

शोध एवं संपादन: आचार्य आशीष मिश्र

पिछली कड़ियों में हमने बघेल राजवंश के अभ्युदय से लेकर महाराजा वीरभानु तक की यात्रा की थी, जिन्होंने मुगल बादशाह हुमायूँ से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए थे, जो उस काल की राजनीतिक अस्थिरता में एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक कदम था। यह दूसरा और अंतिम भाग महाराजा रामचंद्र सिंह के शासनकाल में स्थापित सांस्कृतिक स्वर्ण युग से अपनी यात्रा आरंभ करेगा। हम रीवा के मुगलकालीन वैभव और कलात्मक पराकाष्ठा, तत्पश्चात अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन से उत्पन्न औपनिवेशिक चुनौतियों, 1857 के महासंग्राम में रीवा की जटिल भूमिका, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में स्थानीय योगदान, भारतीय संघ में विलय की प्रक्रिया और अंततः एक आधुनिक प्रशासनिक इकाई के रूप में समकालीन रीवा के निर्माण तक की विस्तृत और गहन पड़ताल करेंगे। यह आलेख न केवल राजनीतिक घटनाओं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तनों को भी समेटने का प्रयास करेगा।

संगीत सम्राट तानसेन का एक काल्पनिक चित्रण

(चित्र: संगीत सम्राट तानसेन का एक काल्पनिक चित्रण, जिनकी संगीत यात्रा का स्वर्णकाल रीवा दरबार में व्यतीत हुआ।)

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1. महाराजा रामचंद्र सिंह (1555-1592 ई.): रीवा का सांस्कृतिक स्वर्ण युग और अकबर से मैत्री

महाराजा वीरभानु के सुयोग्य पुत्र और दूरदर्शी उत्तराधिकारी, महाराजा रामचंद्र सिंह का शासनकाल (1555-1592 ई.) न केवल बघेल राजवंश अपितु समूचे मध्य भारत के इतिहास में एक सांस्कृतिक स्वर्ण युग के रूप में देदीप्यमान है। उनकी ख्याति एक अदम्य वीर योद्धा और कुशल प्रशासक के रूप में तो थी ही, किन्तु उससे भी बढ़कर वे कला, संगीत और साहित्य के एक उदार एवं पारखी संरक्षक के रूप में जाने जाते हैं, जिनके दरबार ने भारतीय संस्कृति को अमूल्य निधियाँ प्रदान कीं।

प्रशासनिक कुशलता और सैन्य उपलब्धियाँ:

1555 ई. में बांधवगढ़ की सुदृढ़ गद्दी पर आसीन होने के उपरांत महाराजा रामचंद्र सिंह ने अपनी राजनीतिक और सैन्य क्षमताओं का परिचय दिया। उन्होंने अफगान शासक इब्राहिम शाह सूर, जो दिल्ली सल्तनत के विघटन के पश्चात् पूर्वी क्षेत्रों में सक्रिय था, को सफलतापूर्वक पराजित किया। इतना ही नहीं, उन्होंने रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कालिंजर के दुर्ग को क्रय कर अपने राज्य की सीमाओं को और सुदृढ़ किया। तत्कालीन कड़ा (इलाहाबाद के समीप) के मुगल गवर्नर गाजी खाँ तन्नौरी को अपने दरबार में शरण देना उनकी बढ़ती राजनीतिक प्रतिष्ठा और स्वतंत्र निर्णय क्षमता का स्पष्ट परिचायक था, जो मुगल सत्ता के प्रारंभिक दौर में एक साहसिक कदम माना जा सकता है।

संगीत सम्राट तानसेन का रीवा दरबार में उत्कर्ष:

महाराजा रामचंद्र सिंह की कीर्ति का सबसे उज्ज्वल स्तंभ, भारतीय शास्त्रीय संगीत के महानतम नक्षत्र, मियां तानसेन (मूल नाम रामतनु पाण्डेय) को उनके द्वारा दिया गया संरक्षण है। ग्वालियर के निकट बेहट ग्राम में जन्मे और स्वामी हरिदास तथा मुहम्मद गौस जैसे गुरुओं से संगीत शिक्षा प्राप्त तानसेन को महाराज ने अपने दरबार में न केवल आश्रय दिया, अपितु उन्हें सर्वोच्च सम्मान और अपनी कला को निखारने का अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया। रीवा दरबार का शांत, कला-प्रेमी और प्रतिस्पर्धा-रहित वातावरण तानसेन की नैसर्गिक प्रतिभा के पूर्ण विकास के लिए अत्यंत उर्वर सिद्ध हुआ। यहीं उन्होंने ध्रुपद गायकी की अपनी विशिष्ट शैली को पराकाष्ठा पर पहुँचाया और अनेक नवीन राग-रागिनियों की रचना की।

रीवा का शांत और कला-प्रेमी वातावरण, महाराजा रामचंद्र सिंह के पारखी संरक्षण में, तानसेन की संगीत प्रतिभा के पूर्ण विकास और उनके संगीत सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित होने के लिए अत्यंत अनुकूल सिद्ध हुआ।
संगीत सम्राट तानसेन (बाल्यकाल काल्पनिक)

(चित्र: संगीत सम्राट तानसेन के बाल्यकाल का एक काल्पनिक चित्रण।)

तानसेन का मुगल दरबार में प्रस्थान और अकबर से मैत्री की नींव:

तानसेन की ख्याति शीघ्र ही बांधवगढ़ की सीमाओं को लांघकर तत्कालीन भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक राजधानी आगरा तक पहुँची। सन् 1562 या कुछ स्रोतों के अनुसार 1564-65 के आसपास, कला-पारखी मुगल सम्राट अकबर ने अपने एक विश्वस्त दूत जलाल खाँ कुर्ची को बांधवगढ़ भेजकर महाराजा रामचंद्र सिंह से तानसेन को मुगल दरबार में भेजने का विनम्र किन्तु आग्रहपूर्ण अनुरोध किया। यह भी कहा जाता है कि इस प्रक्रिया में अकबर के नवरत्नों में से एक, राजा बीरबल, जिनकी जड़ें भी इसी क्षेत्र से जुड़ी थीं, ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई। अपने प्रिय दरबारी रत्न को विदा करना महाराजा के लिए अत्यंत पीड़ादायक था, परन्तु मुगल सम्राट की बढ़ती शक्ति और एक व्यापक सांस्कृतिक मंच की संभावना को देखते हुए उन्होंने भारी मन से तानसेन को आगरा के लिए विदा किया। इस घटना ने, यद्यपि रीवा दरबार को एक अमूल्य निधि से वंचित किया, तथापि इसने रीवा रियासत और मुगल साम्राज्य के बीच एक स्थायी सांस्कृतिक और राजनीतिक सेतु का निर्माण किया। इसी के परिणामस्वरूप महाराजा रामचंद्र सिंह और सम्राट अकबर के बीच एक गहरी मैत्री और पारस्परिक सम्मान का संबंध स्थापित हुआ, जो बघेल राज्य की स्वायत्तता और प्रतिष्ठा के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

राजा बीरबल और रीवा का संभावित संबंध:

सम्राट अकबर के परमप्रिय नवरत्न, अपनी प्रखर बुद्धि और हाजिरजवाबी के लिए विख्यात, राजा बीरबल (मूल नाम महेश दास) का जन्म वर्तमान मध्य प्रदेश के सीधी जिले के घोघरा ग्राम में हुआ माना जाता है। यह क्षेत्र उस समय रीवा रियासत का ही एक भूभाग हो सकता था या कम से कम निकटता से संबद्ध था। उनका प्रारंभिक जीवन और शिक्षा-दीक्षा इसी विंध्य क्षेत्र में हुई। तानसेन को मुगल दरबार में भेजने के प्रकरण में उनकी मध्यस्थता की भूमिका, यदि सत्य है, तो यह रीवा दरबार से उनके पूर्व परिचय या संबंध की ओर स्पष्ट संकेत करती है। यह संपर्क बघेल राज्य के लिए मुगल दरबार में एक महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध हुआ होगा।

साहित्यिक और कलात्मक संरक्षण:

महाराजा रामचंद्र सिंह का दरबार केवल संगीत का ही केंद्र नहीं था, अपितु साहित्य, पांडित्य और अन्य विविध कलाओं का भी संगम स्थल था। उन्होंने संस्कृत और हिंदी के अनेक कवियों, विद्वानों और कलाकारों को उदारतापूर्वक संरक्षण प्रदान किया, जिससे उनके शासनकाल में बघेलखण्ड में एक जीवंत बौद्धिक और कलात्मक वातावरण का निर्माण हुआ। उनका स्वर्गवास अक्टूबर 1592 में हुआ, परन्तु उनकी सांस्कृतिक विरासत आज भी अक्षुण्ण है।

2. वीरभद्र और विक्रमादित्य: राजधानी का रीवा में स्थानांतरण

महाराजा रामचंद्र सिंह के गौरवशाली शासनकाल के पश्चात् उनके उत्तराधिकारियों ने उनके द्वारा स्थापित सांस्कृतिक और राजनीतिक परंपराओं को निष्ठापूर्वक आगे बढ़ाने का प्रयास किया, यद्यपि उत्तर भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ निरंतर परिवर्तनशील थीं और मुगल साम्राज्य का प्रभाव अधिकाधिक विस्तृत होता जा रहा था।

वीरभद्र (शासनकाल: 1592-1593 ई.):

महाराजा रामचंद्र सिंह के ज्येष्ठ पुत्र वीरभद्र एक विद्वान और कला-प्रेमी राजकुमार थे। पिता की मृत्यु के उपरांत वे बांधवगढ़ की गद्दी पर आसीन हुए। कहा जाता है कि वे दिल्ली स्थित मुगल दरबार से लौट रहे थे, जब मार्ग में पालकी टूटने से उन्हें गंभीर चोटें आईं, जिसके परिणामस्वरूप एक वर्ष से भी कम समय के संक्षिप्त शासनकाल के बाद ही उनका असामयिक स्वर्गवास हो गया। अपने अल्प शासनकाल के बावजूद, उन्होंने साहित्य के प्रति अपने अनुराग का परिचय देते हुए "कंदर्प चिंतामणि" नामक काव्य ग्रंथ की रचना की थी, जो उनकी विद्वता और रचनात्मक प्रतिभा का प्रमाण है।

विक्रमादित्य (या विक्रमजीत) (शासनकाल: 1593-1624 ई.):

वीरभद्र के असामयिक निधन के पश्चात् उनके अल्पवयस्क पुत्र विक्रमादित्य (जिन्हें विक्रमजीत भी कहा जाता है) बघेल राजवंश के उत्तराधिकारी बने। उनके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम वाली घटना बघेल राज्य की राजधानी का सामरिक रूप से सुदृढ़ किन्तु अपेक्षाकृत दुर्गम बांधवगढ़ से मैदानी और अधिक केंद्रीय स्थिति वाले रीवा नगर में स्थानांतरित किया जाना था। यह ऐतिहासिक स्थानांतरण लगभग 1618 ई. के आसपास हुआ माना जाता है। इस निर्णय के पीछे कई संभावित कारण रहे होंगे: प्रशासनिक सुविधा, बढ़ते राज्य के लिए एक अधिक केंद्रीय स्थान की आवश्यकता, व्यापारिक मार्गों पर बेहतर नियंत्रण की आकांक्षा, अथवा एक प्रसिद्ध लोककिंवदंती जिसके अनुसार एक शिकार यात्रा के दौरान उनके शिकारी कुत्तों का एक खरगोश द्वारा सामना किए जाने की घटना ने उन्हें इस स्थान के वीर्य और भविष्य की संभावनाओं से प्रभावित किया। "मासिर-उल-उमरा" जैसे समकालीन फारसी ऐतिहासिक ग्रंथों से भी राजधानी परिवर्तन की इस घटना की पुष्टि होती है। महाराज विक्रमादित्य का शासनकाल दिल्ली के मुगल सम्राट जहाँगीर के समकालीन था, और उनके समय में रीवा राज्य ने मुगल दरबार के साथ अपने संबंधों को बनाए रखा।

रीवा किला (मुख्य द्वार या महल परिसर)

(चित्र: रीवा किले का एक दृश्य, जो महाराजा विक्रमादित्य द्वारा राजधानी स्थानांतरण के बाद बघेल शक्ति का नया केंद्र बना।)

रीवा को राजधानी के रूप में चुनना महाराजा विक्रमादित्य का एक दूरदर्शी और रणनीतिक निर्णय था, जिसने बघेल राज्य को एक नया प्रशासनिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्र प्रदान किया और इसके भविष्य के सुनियोजित विकास की सुदृढ़ नींव रखी।

3. परवर्ती मुगल शासक और रीवा के बघेल: संबंधों का बदलता स्वरूप (17वीं-18वीं शताब्दी)

सम्राट जहाँगीर के उपरांत शाहजहाँ और फिर औरंगजेब के शासनकाल में मुगल साम्राज्य अपनी राजनीतिक और सैन्य शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचा, किन्तु साथ ही आंतरिक चुनौतियाँ और क्षेत्रीय शक्तियों का उदय भी प्रारंभ हो गया। इन बदलते हुए राजनीतिक समीकरणों का प्रभाव रीवा के बघेल शासकों के मुगल दरबार के साथ संबंधों पर भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ, जो कभी सहयोग, कभी स्वायत्तता और कभी तनाव के दौर से गुजरे।

अमर सिंह (1624-1640 ई.):

महाराजा विक्रमादित्य के पुत्र अमर सिंह ने अपने पिता की नीतियों को आगे बढ़ाया। उनके मुगल सम्राट जहाँगीर और तत्पश्चात शाहजहाँ से सामान्यतः अच्छे संबंध बने रहे। उन्होंने ओरछा के विद्रोही शासक जुझारू सिंह बुन्देला के विरुद्ध मुगल सेना का साथ देकर अपनी निष्ठा प्रदर्शित की, जिसके फलस्वरूप उन्हें मुगल दरबार में सम्मान प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा और प्रशासनिक नियंत्रण को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से अमरपाटन की गढ़ी का निर्माण करवाया, जो आज भी उनके नाम का स्मरण कराती है। उनके दरबारी कवि नीलकण्ठ द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ "अमररेश विलास" उनके शासनकाल की साहित्यिक गतिविधियों और सांस्कृतिक समृद्धि का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

अनूप सिंह (1640-1660 ई.):

अमर सिंह के उपरांत उनके पुत्र अनूप सिंह ने बघेल राज्य का कार्यभार संभाला। वे मुगल सम्राट शाहजहाँ के समकालीन थे। उनके शासनकाल में पहार सिंह बुन्देला जैसे क्षेत्रीय सरदारों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा, जिनका उन्होंने सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया। उनकी सेवाओं और निष्ठा से प्रसन्न होकर शाहजहाँ ने उन्हें "सेह-हुजूरी" (अर्थात् जिसे सम्राट के समक्ष तीन बार उपस्थित होने का सम्मान प्राप्त हो) जैसी प्रतिष्ठित उपाधि से विभूषित किया, जो मुगल दरबार में उनकी उच्च स्थिति को दर्शाता है। उन्होंने अपने नाम पर अनूपपुर नामक कस्बा बसाया, जो उनके निर्माण कार्यों और राज्य विस्तार की नीति का परिचायक है।

भाव सिंह (1660-1690 ई.):

अनूप सिंह के पुत्र भाव सिंह संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान और कला-प्रेमी शासक थे। उनके मुगल सम्राट औरंगजेब के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बने रहे, यद्यपि औरंगजेब का काल धार्मिक कट्टरता और राजपूतों के साथ तनाव के लिए भी जाना जाता है। महाराज भाव सिंह ने स्वयं संस्कृत में “हौत्र कल्पद्रुम” नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की, जो उनकी गहन विद्वता और शास्त्रीय ज्ञान का प्रमाण है। उन्होंने अपने जीवनकाल में प्रसिद्ध तीर्थ जगन्नाथ पुरी की यात्रा भी की, जो उनकी धार्मिक आस्था को दर्शाता है। उनके शासनकाल में रीवा में अनेक महत्वपूर्ण निर्माण कार्य हुए, जिनमें रीवा का प्रसिद्ध महामृत्युंजय मन्दिर (जो आज भी लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है), किले के भीतर भव्य 'लम्बा घर' और कलात्मक 'मोती महल' का निर्माण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनकी धर्मपरायण महारानी अजबकुँवरि ने भी जनकल्याण और धार्मिक कार्यों में रुचि लेते हुए रीवा में प्रसिद्ध रानी तालाब और उससे संबद्ध मंदिरों का निर्माण करवाया। दुर्भाग्यवश, महाराज भाव सिंह निःसंतान रहे, जिससे उत्तराधिकार का प्रश्न उत्पन्न हुआ।

अनिरूद्ध सिंह (1690-1700 ई.):

महाराज भाव सिंह के निःसंतान होने के कारण उनके भतीजे अनिरूद्ध सिंह को राजगद्दी प्राप्त हुई। उनका शासनकाल अल्प रहा और दुःखद रूप से समाप्त हुआ। मऊगंज क्षेत्र के शक्तिशाली सेंगर राजपूतों के विद्रोह को दबाने के प्रयास में वे धोखे से आक्रमण का शिकार हुए और वीरगति को प्राप्त हुए। यह घटना बघेल राज्य की आंतरिक चुनौतियों और क्षेत्रीय सामंतों के साथ निरंतर चलने वाले शक्ति संघर्ष को उजागर करती है।

अवधूत सिंह (1700-1755 ई.):

अनिरूद्ध सिंह की शहादत के समय उनके पुत्र अवधूत सिंह अल्पवयस्क थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर पन्ना के शक्तिशाली बुन्देला शासक हृद्यशाह ने रीवा पर आक्रमण कर दिया और राजधानी पर अधिकार कर लिया। युवा महाराज अवधूत सिंह को राज्य से पलायन करना पड़ा। बाद में, उन्होंने तत्कालीन मुगल सम्राट बहादुरशाह प्रथम (शाह आलम प्रथम) से सैन्य सहायता प्राप्त की और अपनी राजधानी रीवा को पुनः प्राप्त करने में सफल रहे। यह घटना दर्शाती है कि 18वीं सदी के प्रारंभ में भी कमजोर होती मुगल सत्ता का कुछ हद तक प्रभाव क्षेत्रीय राज्यों पर बना हुआ था।

अजीत सिंह (1755-1809 ई.):

अवधूत सिंह के पुत्र अजीत सिंह का शासनकाल मुगल सत्ता के तीव्र पतन और भारत में ब्रिटिश शक्ति के उदय का साक्षी रहा। इस संक्रमण काल में उन्होंने अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया। एक महत्वपूर्ण घटना उनके शासनकाल में तब घटी जब तत्कालीन मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय (प्रारंभिक नाम अली गौहर), जो राजनीतिक षड्यंत्रों और अस्थिरता के कारण दिल्ली से पलायन करने को विवश हुए थे, को महाराजा अजीत सिंह ने रीवा रियासत के मुकुन्दपुर की गढ़ी में ससम्मान शरण प्रदान की। यहीं, मुकुन्दपुर में, 1775 ई. में शाह आलम द्वितीय के पुत्र (जो बाद में अकबर द्वितीय के नाम से मुगल सम्राट बने) का जन्म हुआ। यह घटना बघेल राजवंश की उदारता और मुगल वंश के प्रति उनकी परंपरागत निष्ठा का प्रमाण है, यद्यपि उस समय तक मुगल सत्ता नाममात्र की रह गई थी।

एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला

4. ब्रिटिश संरक्षण, 1857 का संग्राम और रियासती भारत का अंत

19वीं शताब्दी का भारत अभूतपूर्व राजनीतिक परिवर्तनों का साक्षी बना, जिसमें मुगल साम्राज्य का पतन और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा उसके उपरांत ब्रिटिश क्राउन का भारतीय उपमहाद्वीप पर प्रभुत्व स्थापित होना प्रमुख घटनाएँ थीं। रीवा रियासत भी इन परिवर्तनों से अछूती नहीं रही और धीरे-धीरे ब्रिटिश प्रभाव क्षेत्र में आ गई, जिसने इसके राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक ढांचे को गहराई से प्रभावित किया।

जय सिंह (1809-1833 ई.) और ब्रिटिश संधि:

महाराजा अजीत सिंह के उत्तराधिकारी महाराजा जय सिंह के शासनकाल में रीवा रियासत का ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ औपचारिक संपर्क स्थापित हुआ। पिंडारी आक्रमणों और आंतरिक अस्थिरता के दौर में, 5 अक्टूबर 1812 को महाराजा जय सिंह ने ब्रिटिश सरकार के साथ एक महत्वपूर्ण सहायक संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के तहत रीवा एक ब्रिटिश संरक्षित रियासत बन गया। संधि की शर्तों के अनुसार, रियासत को आंतरिक मामलों में स्वायत्तता प्रदान की गई, परन्तु विदेशी मामले, रक्षा और संचार जैसे महत्वपूर्ण विषय ब्रिटिश नियंत्रण में चले गए। यह संधि रीवा की संप्रभुता में एक महत्वपूर्ण कमी थी, परन्तु इसने राज्य को बाहरी आक्रमणों से एक प्रकार की सुरक्षा भी प्रदान की।

विश्वनाथ सिंह (1833-1854 ई.):

महाराजा जय सिंह के बाद उनके पुत्र विश्वनाथ सिंह ने शासन संभाला। उन्होंने रियासत की शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करने और राजस्व व्यवस्था में सुधार लाने के प्रयास किए। उन्होंने स्थानीय इलाकेदारों और जागीरदारों की शक्ति को नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाए, जिसका एक उदाहरण मऊ के शक्तिशाली इलाकेदार के विद्रोह को दबाने के लिए प्रसिद्ध "हनूहंकार" तोप का प्रयोग था। 1843 में उन्होंने राज्य की आय बढ़ाने और व्यापार को नियमित करने के उद्देश्य से परमिट तथा आबकारी विभाग की स्थापना की, जो राजस्व प्रशासन के आधुनिकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

रघुराज सिंह (1854-1880 ई.) और 1857 का महासंग्राम:

महाराजा विश्वनाथ सिंह के पुत्र रघुराज सिंह एक विद्वान, कला-प्रेमी और कुशल प्रशासक थे। उनका शासनकाल भारतीय इतिहास की एक युगांतरकारी घटना – 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम – के साथ मेल खाता है। इस महासंग्राम के दौरान महाराज रघुराज सिंह ने एक अत्यंत जटिल और कूटनीतिक भूमिका निभाई। ऊपरी तौर पर उन्होंने ब्रिटिश सरकार का साथ दिया और अपनी सेना के लगभग 2000 सैनिक अंग्रेजों की सहायता के लिए भेजे, विशेषकर नागौद और जबलपुर जैसे संकटग्रस्त क्षेत्रों में। इस वफादारी के बदले में उन्हें सोहागपुर और अमरकण्टक का क्षेत्र पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुआ तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा के.जी.सी.एस.आई. (Knight Grand Commander of the Star of India) की प्रतिष्ठित उपाधि से भी सम्मानित किया गया (1864)। हालांकि, स्थानीय जनश्रुतियों और कुछ ऐतिहासिक संकेतों के अनुसार, वे अंदर से विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति रखते थे और उन्होंने ठाकुर रणमत सिंह (मनकहरी) तथा लाल श्यामशाह (कोठी) जैसे बघेलखण्ड और बुंदेलखण्ड के प्रमुख क्रांतिकारियों को अप्रत्यक्ष रूप से सहायता और प्रोत्साहन प्रदान किया, जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता को कड़ी चुनौती दी थी। उनके शासनकाल में ही गोविन्दगढ़ नगर बसाया गया और प्रसिद्ध 'विश्वनाथ सागर' तालाब का निर्माण हुआ। 1870-71 में स्थायी रूप से “बघेलखण्ड पोलिटिकल एजेंसी" (मुख्यालय सतना) की स्थापना हुई, जिससे रीवा पर ब्रिटिश राजनीतिक नियंत्रण और सघन हो गया। दुर्भाग्यवश, रियासत में बढ़ते वित्तीय कुप्रबंधन और ऋण के कारण 1875 में महाराज ने राज्य का सम्पूर्ण प्रबंध कुछ शर्तों के साथ ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया, जो रीवा की स्वायत्तता में एक और बड़ी कटौती थी।

महाराज रघुराज सिंह का शासनकाल 1857 के महासंग्राम की जटिलताओं, ब्रिटिश सर्वोच्चता के बढ़ते दबाव और रियासती स्वायत्तता को बनाए रखने की कशमकश के बीच संतुलन साधने का एक कठिन और चुनौतीपूर्ण प्रयास था।

वेंकटरमण सिंह (1880-1918 ई.):

महाराज रघुराज सिंह के पश्चात् उनके अल्पायु पुत्र वेंकटरमण सिंह गद्दी पर बैठे। उनके वयस्क होने तक रियासत का शासन ब्रिटिश सुपरिटेंडेंट द्वारा संचालित होता रहा, जिसने ब्रिटिश प्रशासनिक तौर-तरीकों को और मजबूती से स्थापित किया। उनके शासनकाल में कई महत्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार हुए, जिनमें प्रथम सर्वे बन्दोबस्त (1881), लगान की ठेकेदारी प्रथा की समाप्ति और एक विस्तृत रेवेन्यू मैनुअल का निर्माण शामिल है। राज्य को तहसीलों में विभाजित किया गया। शहरी विकास की दृष्टि से भी यह काल महत्वपूर्ण रहा; भव्य “वेंकट भवन” (जो आज भी रीवा की शान है), गोला घर, कचहरी और पीली कोठी जैसी इमारतों का निर्माण हुआ। उन्होंने सेना के आधुनिकीकरण पर भी ध्यान दिया और “बघेलखण्ड नाटक कम्पनी” की स्थापना कर कला और संस्कृति को प्रोत्साहन दिया। स्वयं उन्होंने "भजनावली" नामक भक्ति काव्य की रचना की। प्रथम विश्वयुद्ध में उन्होंने अंग्रेजों को सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की। तथापि, उनके शासनकाल में राज्य को तीन बार (1896-97, 1899—1900, और 1907-1908) भयानक अकालों का भी सामना करना पड़ा, जिससे प्रजा को भारी कष्ट हुआ।

वेंकट भवन

(चित्र: महाराजा वेंकटरमण सिंह द्वारा निर्मित भव्य वेंकट भवन, जो रीवा के आधुनिक वास्तुशिल्प का प्रतीक है।)

गुलाब सिंह (1918-1946 ई.):

महाराज वेंकटरमण सिंह के पुत्र महाराज गुलाब सिंह एक प्रगतिशील, राष्ट्रवादी और सुधारवादी विचारों के शासक थे। वे महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों से गहरे प्रभावित थे और उन्होंने अपने राज्य में स्वदेशी को बढ़ावा दिया, हरिजनोद्धार के कार्य किए और शिक्षा के प्रसार पर बल दिया। वे भारत के उन गिने-चुने नरेशों में से थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन काल में ही अपने राज्य में उत्तरदायी लोकप्रिय सरकार की स्थापना की साहसिक घोषणा की थी। उनके नारे जैसे “पढ़िये-पढ़ाइये" और "रिमहाई गजी (देशी खद्दर) घर–घर में सजी” उनकी राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना को दर्शाते हैं। उनके इन राष्ट्रवादी और सुधारवादी कदमों के कारण वे स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन बने। ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके विरुद्ध विभिन्न आरोप लगाकर मुकदमा चलाया और उन्हें अपमानित करने तथा पद से हटाने की चेष्टा की। परन्तु महाराज गुलाब सिंह ने आत्मबल और सत्याग्रह की भावना से इन षड्यंत्रों का सामना किया। अंततः, ब्रिटिश दबाव के कारण उन्हें 31 जनवरी 1946 को अपने पुत्र युवराज मार्तण्ड सिंह के पक्ष में राजगद्दी छोड़ने पर विवश होना पड़ा, जिसके पश्चात् वे रीवा छोड़कर बम्बई चले गए।

मार्तण्ड सिंह (1946-1948 शासक, तदुपरांत राजप्रमुख):

महाराज गुलाब सिंह के पुत्र, महाराजा मार्तण्ड सिंह बघेल राजवंश के अंतिम शासक सिद्ध हुए। उनका राज्याभिषेक 6 फरवरी, 1946 को हुआ, एक ऐसे समय में जब भारत स्वतंत्रता की दहलीज पर खड़ा था। उन्होंने डेली कॉलेज (इंदौर), मेयो कॉलेज (अजमेर) जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त की थी और देहरादून में आई.सी.एस. का प्रशिक्षण भी लिया था, जिसने उन्हें बदलते समय की चुनौतियों के लिए तैयार किया। 15 अगस्त 1947 को भारत स्वाधीन हुआ। रीवा रियासत से संविधान सभा के लिए दो प्रतिनिधि भेजे गए: राजा शिव बहादुर सिंह (मनोनीत) और लाल यादवेन्द्र सिंह (निर्वाचित)। महाराजा मार्तण्ड सिंह ने सरदार वल्लभभाई पटेल के आवाहन पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए रीवा रियासत के भारतीय संघ में विलय के प्रपत्र पर हस्ताक्षर किए। 4 अप्रैल 1948 को बघेलखण्ड और बुन्देलखण्ड की 35 रियासतों को मिलाकर एक नई प्रशासनिक इकाई “विन्ध्य प्रदेश” के निर्माण की घोषणा की गई, और रीवा के महाराज मार्तण्ड सिंह को इस नवीन प्रदेश का राजप्रमुख बनाया गया। कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के नेतृत्व में पहले मंत्रिमण्डल का गठन हुआ। बाद में, राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के अनुसार 1 नवम्बर 1956 को विन्ध्य प्रदेश का तत्कालीन मध्य भारत, भोपाल राज्य और महाकौशल क्षेत्र के साथ विलय कर वर्तमान मध्य प्रदेश राज्य का निर्माण हुआ। महाराजा मार्तण्ड सिंह को विश्व को 'सफेद शेर' का अद्वितीय उपहार प्रदान करने का श्रेय भी जाता है। सन् 1951 में उन्होंने गोविंदगढ़ के निकट सीधी जिले के बरगड़ी जंगल से पहले जीवित सफेद बाघ शावक 'मोहन' को पकड़ा था, जो आज विश्वभर के चिड़ियाघरों में पाए जाने वाले अधिकांश सफेद शेरों का पूर्वज माना जाता है। उन्होंने बांधवगढ़ के जंगलों को एक राष्ट्रीय उद्यान बनाने हेतु सन् 1967-68 में भारत सरकार से सक्रिय रूप से माँग की थी और बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगाने की भी पुरजोर अपील की थी, जो उनकी वन्यजीव संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

महाराजा मार्तण्ड सिंह के साथ सफेद बाघ 'मोहन'

(चित्र: महाराजा मार्तण्ड सिंह विश्व के प्रथम जीवित पकड़े गए सफेद बाघ 'मोहन' के साथ, जिसने रीवा को अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाई।)

5. स्वातंत्र्योत्तर रीवा: विकास और समकालीन पहचान

स्वतंत्र भारत में विलय के पश्चात् रीवा नवगठित मध्य प्रदेश का एक महत्वपूर्ण संभाग और जिला मुख्यालय बन गया। इसने स्वतंत्रता के बाद के दशकों में शिक्षा, संस्कृति, उद्योग, कृषि और पर्यटन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, यद्यपि विकास की चुनौतियाँ भी बनी हुई हैं।

शिक्षा और संस्कृति:

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में रीवा में अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय की स्थापना एक मील का पत्थर साबित हुई, जिसने इस क्षेत्र के युवाओं को उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान किए। अनेक शासकीय एवं अशासकीय महाविद्यालय, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज और अन्य व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान भी स्थापित हुए। सांस्कृतिक दृष्टि से, तानसेन संगीत समारोह का आयोजन रीवा की समृद्ध संगीत परंपरा को जीवित रखे हुए है और देश भर के कलाकारों को आकर्षित करता है। बघेली भाषा, जो इस क्षेत्र की प्रमुख लोकभाषा है, और इससे जुड़ी लोक कलाएँ जैसे करमा, सैला, सुआ नृत्य तथा लोकगाथाएँ आज भी ग्रामीण अंचलों में जीवंत हैं और क्षेत्र की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग हैं।

आर्थिक विकास:

आर्थिक दृष्टि से, रीवा और आसपास का क्षेत्र खनिज संपदा से समृद्ध है, विशेषकर चूना पत्थर, जिसके आधार पर यहाँ सीमेंट उद्योग (जैसे जेपी सीमेंट प्लांट) का विकास हुआ है, जो रोजगार का एक प्रमुख स्रोत है। अन्य खनिज आधारित लघु एवं मध्यम उद्योगों का भी धीरे-धीरे विकास हो रहा है। कृषि आज भी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है, जिसमें गेहूं, चावल, दालें और तिलहन प्रमुख फसलें हैं। हाल के वर्षों में, रीवा ने सौर ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण पहचान बनाई है; यहाँ स्थापित विशाल सौर ऊर्जा संयंत्र भारत की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है।

रीवा अल्ट्रा मेगा सोलर प्लांट (एरियल व्यू)

(चित्र: आधुनिक रीवा की पहचान, विशाल रीवा अल्ट्रा मेगा सोलर प्लांट का एक विहंगम दृश्य।)

पर्यटन:

पर्यटन की दृष्टि से रीवा में अपार संभावनाएँ हैं। यहाँ अनेक ऐतिहासिक स्थल हैं, जैसे रीवा किला (जिसमें वेंकट भवन और अन्य महल स्थित हैं), गोविन्दगढ़ का किला और झील, रानी तालाब, और प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर। इसके अतिरिक्त, यह क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्य से भी भरपूर है; विंध्य की पहाड़ियों से उद्गमित होने वाली नदियों द्वारा निर्मित अनेक मनोरम जलप्रपात जैसे चचाई, केवटी, बहुती और पूर्वा जलप्रपात पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं। वन्यजीव प्रेमियों के लिए महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव व्हाइट टाइगर सफारी एवं चिड़ियाघर, मुकुंदपुर एक प्रमुख गंतव्य है, जहाँ सफेद बाघों के साथ-साथ अन्य वन्यजीवों को उनके प्राकृतिक आवास के निकट देखने का अवसर मिलता है। विश्व प्रसिद्ध बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान भी रीवा से अपेक्षाकृत निकट है, जो बाघों के घनत्व के लिए जाना जाता है।

नवीन प्रशासनिक इकाइयाँ:

प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण और विकास को गति देने के उद्देश्य से समय-समय पर नई प्रशासनिक इकाइयों का गठन किया गया है। इसी क्रम में, मऊगंज को अगस्त 2023 में रीवा जिले से पृथक कर एक नए जिले के रूप में मान्यता दी गई है। नईगढ़ी का ऐतिहासिक किला और प्रसिद्ध बहुती जलप्रपात अब मऊगंज जिले का हिस्सा हैं। कोलगढ़ी, अतरैला, डभौरा जैसे ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्र रीवा संभाग की व्यापक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण हिस्सा बने हुए हैं।

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यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।

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रीवा का मुगलकाल से आधुनिकता तक का सफर: मुख्य मील के पत्थर

"महाराजा रामचंद्र सिंह (1555-1592 ई.)": रीवा का सांस्कृतिक स्वर्ण युग, संगीत सम्राट तानसेन और प्रज्ञावान बीरबल का महत्वपूर्ण जुड़ाव, मुगल सम्राट अकबर के साथ सौहार्दपूर्ण मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित होना।

उनका शासनकाल कला, संगीत की ध्रुपद शैली, साहित्य के विविध रूपों और उदारवादी संरक्षण का एक ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसने बघेलखण्ड की सांस्कृतिक पहचान को स्थायी रूप से समृद्ध किया।

"रीवा राजधानी का स्थानांतरण (लगभग 1618 ई.)": महाराजा विक्रमादित्य द्वारा सामरिक रूप से महत्वपूर्ण बांधवगढ़ से प्रशासनिक एवं वाणिज्यिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त रीवा को नई राजधानी के रूप में विकसित करना, एक युगांतकारी और दूरदर्शी निर्णय था।

इस रणनीतिक निर्णय ने बघेल राज्य के भावी विकास, प्रशासनिक सुदृढ़ीकरण और एक नवीन सांस्कृतिक केंद्र के रूप में उभरने को एक नई, प्रगतिशील दिशा प्रदान की।

"ब्रिटिश संधि (1812 ई.)": महाराजा जय सिंह द्वारा तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के दबाव में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ सहायक संधि पर हस्ताक्षर करना, जिससे रीवा औपचारिक रूप से ब्रिटिश संरक्षण में आ गया।

यह संधि रीवा की परंपरागत राजनीतिक स्वायत्तता के क्रमशः क्षीण होने और भारतीय उपमहाद्वीप में विस्तृत होते औपनिवेशिक युग के अपरिहार्य प्रारंभ का एक महत्वपूर्ण द्योतक थी।

"विन्ध्य प्रदेश का निर्माण (1948 ई.)": स्वतंत्रता उपरांत, महाराजा मार्तण्ड सिंह के प्रगतिशील नेतृत्व में बघेलखण्ड और बुन्देलखण्ड की विभिन्न रियासतों का एकीकरण कर 'विन्ध्य प्रदेश' नामक नवीन प्रशासनिक इकाई का गठन।

यह ऐतिहासिक घटना स्वतंत्र भारत में रीवा और अन्य सहयोगी रियासतों के शांतिपूर्ण विलय तथा एक वृहत्तर लोकतांत्रिक भारत के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण और सकारात्मक कदम था।

"सफेद बाघ 'मोहन' (1951 ई.)": महाराजा मार्तण्ड सिंह द्वारा विश्व के पहले जीवित पकड़े गए सफेद बाघ 'मोहन' की खोज, जिसने रीवा को वन्यजीव संरक्षण और जैव-विविधता के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर एक विशिष्ट पहचान दिलाई।

यह अद्वितीय खोज न केवल रीवा की समृद्ध प्राकृतिक विरासत का प्रमाण है, बल्कि यह बघेल शासकों की वन्यजीवों के प्रति संवेदनशीलता और संरक्षण के प्रति उनकी दूरगामी प्रतिबद्धता का भी प्रतीक है।

रीवा की ऐतिहासिक विरासत: एक दृश्य

वेंकट भवन का एक और मनोहारी दृश्य

(चित्र: रीवा स्थित भव्य वेंकट भवन, जो रियासतकालीन वास्तुकला और आधुनिक विकास का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करता है।)

आधुनिक रीवा: एक झलक (वृत्तचित्र)

(यह एक प्लेसहोल्डर वीडियो है। आधुनिक रीवा के विकास, पर्यटन स्थलों, सौर ऊर्जा संयंत्र, विश्वविद्यालय या इसके जीवंत सांस्कृतिक जीवन पर किसी जानकारीपूर्ण वृत्तचित्र का YouTube VIDEO_ID यहाँ डाला जा सकता है।)

अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)

रीवा के मुगलकालीन, औपनिवेशिक और आधुनिक इतिहास के गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन के लिए निम्नलिखित प्रकार के स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं:

समकालीन एवं परवर्ती ऐतिहासिक ग्रंथ:

  • **मुगलकालीन फारसी तवारीखें:** अबुल फजल कृत "अकबरनामा" एवं "आईन-ए-अकबरी" (अकबरकालीन रीवा और तानसेन के संदर्भ में), अब्दुल कादिर बदायूंनी कृत "मुंतखब-उत-तवारीख", निज़ामुद्दीन अहमद कृत "तबकात-ए-अकबरी", इनायत खाँ कृत "शाहजहाँनामा", मुहम्मद काज़िम कृत "आलमगीरनामा" (परवर्ती मुगल शासकों के साथ रीवा के संबंधों पर प्रकाश डाल सकते हैं)।
  • **बघेल दरबारी साहित्य एवं स्थानीय इतिहास:** कवि गंगाधर मिश्र कृत "वीरभानुदय काव्यम्" (महाराजा वीरभानु के समय का महत्वपूर्ण स्रोत), नीलकंठ कृत "अमररेश विलास" (महाराजा अमर सिंह पर), स्वयं महाराजा भाव सिंह द्वारा रचित "हौत्र कल्पद्रुम", महाराजा वेंकटरमण सिंह कृत "भजनावली", रघुराज सिंह कृत "जगदीश शतक" (ये ग्रंथ तत्कालीन साहित्यिक, सांस्कृतिक और धार्मिक प्रवृत्तियों को दर्शाते हैं)।
  • **ब्रिटिश कालीन प्रशासनिक रिपोर्टें एवं गजेटियर:** Luard, C.E. (1907). "Rewah State Gazetteer" (विस्तृत जानकारी का भंडार); Aitchison, C.U. "A Collection of Treaties, Engagements and Sanads relating to India and Neighbouring Countries" (संधियों के लिए); विभिन्न वर्षों की "Reports on the Administration of the Rewa State" (प्रशासनिक परिवर्तनों का लेखा-जोखा)।

स्वतंत्रता संग्राम एवं एकीकरण संबंधित दस्तावेज़:

  • भारत की संविधान सभा की बहसों (Constituent Assembly Debates) में रीवा तथा विंध्य प्रदेश के प्रतिनिधियों द्वारा उठाए गए मुद्दे और उनके योगदान।
  • विन्ध्य प्रदेश के गठन, प्रशासन और अंततः मध्य प्रदेश में विलय से संबंधित सरकारी अधिसूचनाएँ, राजपत्र (Gazettes) और राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्टें।
  • स्वतंत्रता सेनानियों (जैसे ठाकुर रणमत सिंह, लाल श्यामशाह) और राष्ट्रवादी नेताओं (जैसे कप्तान अवधेश प्रताप सिंह, पं. शम्भूनाथ शुक्ल) के संस्मरण, जीवनियाँ, पत्र-व्यवहार और उनसे संबंधित स्थानीय ऐतिहासिक आख्यान तथा शोध। महाराज गुलाब सिंह के राष्ट्रवादी प्रयासों और ब्रिटिश सरकार के साथ उनके संघर्षों का दस्तावेजीकरण।

आधुनिक शोध एवं प्रकाशन:

/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */
1.  सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". (रियासती इतिहास और वंशावलियों का विस्तृत वर्णन)
2.  शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". (सांस्कृतिक और भाषाई अध्ययन)
3.  श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". (क्षेत्रीय इतिहास का व्यापक अवलोकन)
4.  परिहार, डॉ. नृपेन्द्र सिंह. "बघेलखण्ड में बघेलों का अभ्युदय एवं विकास का समीक्षात्मक अध्ययन" (शोध पत्र)। (शैक्षणिक शोध)
5.  दुबे, पुष्पा. "बघेलखण्ड राज्य का ऐतिहासिक अध्ययन (प्रारम्भ से 1947 ई. तक)" (शोध पत्र)। (विस्तृत कालखंड का अध्ययन)
6.  मुखर्जी, देबराती, बंदोपाध्याय, शांतनु, एवं मट्टू, अजय कुमार. "Upper Gondwana Succession of the Rewa Basin, Madhya Pradesh: A Reappraisal". (भूवैज्ञानिक और पुरा-पर्यावरणीय संदर्भ के लिए)
7.  मेनन, वी.पी. "The Story of the Integration of the Indian States". (रियासतों के विलय पर आधिकारिक ग्रंथ)
8.  कोप्लैंड, इयान. "The Princes of India in the Endgame of Empire, 1917-1947". (रियासतों की राजनीति पर गहन विश्लेषण)
9.  राज्य पुनर्गठन आयोग (फजल अली आयोग) की रिपोर्ट, 1955. (विंध्य प्रदेश के विलय के संदर्भ में)
10. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) तथा मध्य प्रदेश राज्य पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय निदेशालय द्वारा प्रकाशित रिपोर्टें, पत्रिकाएँ एवं मोनोग्राफ।

निष्कर्ष: एक गौरवशाली अतीत से उज्ज्वल भविष्य की ओर

रीवा का इतिहास, बघेल राजवंश के संस्थापक वीर व्याघ्रदेव के साहसिक गुजरात से प्रवासन और गहोरा-मरफा में प्रथम राज्य स्थापना से लेकर, बांधवगढ़ के अभेद्य दुर्ग पर आधिपत्य, महाराजा रामचंद्र सिंह के सांस्कृतिक उत्कर्ष, विक्रमादित्य द्वारा रीवा को राजधानी बनाना, मुगल साम्राज्य के उत्थान-पतन का साक्षी बनना, ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के साथ जटिल संबंधों का निर्वहन, 1857 के महासंग्राम की अग्निपरीक्षा, स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीय चेतना का संचार, महाराजा मार्तण्ड सिंह के दूरदर्शी नेतृत्व में भारतीय संघ में सम्मानजनक विलय, और तत्पश्चात एक आधुनिक जिले तथा संभागीय मुख्यालय के रूप में इसके निरंतर बहुआयामी विकास तक, एक अत्यंत समृद्ध, घटनापूर्ण और प्रेरणादायक ऐतिहासिक यात्रा रही है। बघेल राजवंश ने न केवल एक विशाल और शक्तिशाली राज्य का कुशलतापूर्वक संचालन किया, बल्कि कला के विविध रूपों, विशेषतः ध्रुपद संगीत, साहित्य की विभिन्न विधाओं और भव्य स्थापत्य कला को भी उदारतापूर्वक संरक्षण प्रदान किया, जिसकी प्रतिध्वनि आज भी इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत में सुनाई देती है। महाराजा रामचंद्र सिंह के शासनकाल में संगीत सम्राट तानसेन और प्रज्ञावान बीरबल जैसी असाधारण विभूतियों का रीवा से गहन जुड़ाव इस रियासत के अद्वितीय सांस्कृतिक उत्कर्ष का जीवंत प्रमाण है। मुगल काल की राजनीतिक चुनौतियों, ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के बढ़ते दबावों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की राष्ट्रीय आकांक्षाओं के मध्य रीवा ने अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखा। आज का रीवा अपने उस गौरवशाली अतीत की सुदृढ़ नींव पर एक उज्ज्वल, प्रगतिशील और समृद्ध भविष्य की ओर आत्मविश्वास के साथ अग्रसर है। इसकी अमूल्य ऐतिहासिक धरोहरें, मनोहारी प्राकृतिक सौंदर्य, जीवंत सांस्कृतिक परंपराएँ और विकास की अपरिमित संभावनाएँ इसे न केवल मध्य प्रदेश बल्कि सम्पूर्ण भारत के मानचित्र पर एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान दिलाती हैं। यह ऐतिहासिक यात्रा यह दर्शाती है कि कैसे एक राजवंश ने एक विस्तृत भू-भाग की नियति को सदियों तक आकार दिया और कैसे समय के थपेड़ों के साथ परिवर्तित और विकसित होते हुए भी अपनी मौलिक विरासत को सहेज कर रखा जा सकता है। रीवा का इतिहास हमें यह महत्वपूर्ण शिक्षा देता है कि अतीत केवल स्मरण का विषय नहीं, अपितु प्रेरणा का एक शाश्वत स्रोत होता है और भविष्य सतत सृजन, नवाचार और सामूहिक प्रयास की एक अंतहीन प्रक्रिया है।

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यह प्रस्तुति "बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण (भाग-2)" ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए है। सामग्री का उपयोग गैर-व्यावसायिक, शैक्षिक, और शोधपरक गतिविधियों के लिए, शोध एवं संपादन: "आचार्य आशीष मिश्र" (acharyaasheeshmishra.blogspot.com) के उचित श्रेय के साथ किया जा सकता है।

अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर बघेलखण्ड स्वर्णयुग, औपनिवेशिक काल, तथा आधुनिक रीवा लेबल देखें।

© रीवा का अतीत, भारत का गौरव। अन्वेषण जारी रखें। अभिजित पियूष संगठन की ओर से आचार्य आशीष मिश्र।

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