✶ रीवा: औपनिवेशिक काल से आधुनिक भारत तक का ऐतिहासिक सफर ✶
बघेल राजवंश, ब्रिटिश संपर्क, स्वतंत्रता संग्राम और समकालीन विकास (भाग - 2)
विंध्य की मनोरम उपत्यकाओं में अवस्थित, ऐतिहासिक नगर रीवा, वीर बघेल राजवंश की गौरवशाली गाथाओं और समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं से ओतप्रोत है। हमारी ऐतिहासिक श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हमने बघेल राजवंश की उत्पत्ति, गुजरात से उनके चुनौतीपूर्ण प्रवासन, गहोरा और बांधवगढ़ में राज्य स्थापना, और फिर परवर्ती मुगल शासकों के साथ उनके जटिल होते संपर्कों तक की विस्तृत यात्रा का अवलोकन किया था। अब हम रीवा के इतिहास के उस महत्वपूर्ण और संक्रमणकालीन मोड़ से अपनी पड़ताल को आगे बढ़ाएंगे, जहाँ यह रियासत धीरे-धीरे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और तदुपरांत ब्रिटिश क्राउन के निर्णायक प्रभाव में आई। हम 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में रीवा की बहुस्तरीय भूमिका, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में इसके प्रबुद्ध नागरिकों और कुछ प्रगतिशील शासकों द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका, और अंततः स्वतंत्र भारत के एक अभिन्न अंग के रूप में इसके विलय तथा एक आधुनिक प्रशासनिक इकाई के रूप में समकालीन विकास की ओर इसके अग्रसर होने की व्यापक कहानी को समझेंगे।

(चित्र: रीवा की विश्व प्रसिद्ध पहचान, सफेद बाघ, जो बघेल शासकों की वन्यजीव संरक्षण विरासत का प्रतीक है।)
1. ब्रिटिश संरक्षण और संधियों का युग: बदलता राजनैतिक परिदृश्य
महाराजा अजीत सिंह के शासनकाल के अंतिम वर्षों (18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के प्रारंभ) में और उनके उत्तराधिकारियों के समय में, भारतीय उपमहाद्वीप में ईस्ट इंडिया कंपनी का राजनीतिक और सैन्य प्रभाव मध्य भारत सहित लगभग सभी क्षेत्रों में निर्णायक रूप से बढ़ रहा था। मुगल साम्राज्य के पतन और मराठा शक्ति के कमजोर होने से उत्पन्न राजनीतिक शून्य को भरने के लिए कंपनी तेजी से विस्तार कर रही थी। रीवा रियासत भी इस तीव्र गति से बदलते हुए और अनिश्चित राजनैतिक परिदृश्य के प्रभावों से अछूती नहीं रह सकी।
जय सिंह (शासनकाल: 1809-1833 ई.):
महाराजा जय सिंह का शासनकाल रीवा राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण विभाजक रेखा माना जाता है। इसी कालखंड में रीवा के बघेल राजाओं का अंग्रेजों के साथ विधिवत्, औपचारिक और संधि-आधारित संबंध स्थापित हुआ, जिसने रियासत की बाह्य नीति और संप्रभुता को स्थायी रूप से परिवर्तित कर दिया। पिंडारियों के उपद्रव और आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों के बीच, 5 अक्टूबर 1812 को, महाराजा जय सिंह ने ब्रिटिश सरकार के साथ एक महत्वपूर्ण संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के प्रावधानों के तहत, रीवा ब्रिटिश संरक्षण में एक "प्रोटेक्टेड स्टेट" या संरक्षित रियासत बन गया। इस संधि ने रीवा को आंतरिक प्रशासनिक मामलों में काफी हद तक स्वायत्तता प्रदान की, लेकिन विदेशी मामलों, सैन्य सुरक्षा और अन्य राज्यों के साथ संबंधों का नियंत्रण पूर्ण रूप से ब्रिटिशों के हाथ में चला गया। ब्रिटिश रेजिडेंट की नियुक्ति ने रियासत के आंतरिक मामलों में भी ब्रिटिश हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त किया। युवराज बाबू विश्वनाथ सिंह ने भी अपने पिता के शासनकाल में प्रशासन के कार्यों में सक्रिय सहयोग दिया और बदलते हुए राजनीतिक समीकरणों को समझने का प्रयास किया।
1812 की संधि रीवा के लिए एक युगांतकारी घटना थी, जिसने उसकी परंपरागत संप्रभुता को सीमित तो किया, परन्तु पिंडारियों जैसे बाहरी खतरों और आंतरिक अस्थिरता से एक प्रकार की सुरक्षा भी प्रदान की, यद्यपि इसकी कीमत दीर्घकालिक रूप में चुकानी पड़ी।
विश्वनाथ सिंह (शासनकाल: 1833-1854 ई.):
महाराजा जय सिंह के पश्चात् उनके पुत्र विश्वनाथ सिंह का राज्याभिषेक 1833 में हुआ। उन्होंने अपने शासनकाल में रियासत की शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करने, राजस्व संग्रह को व्यवस्थित करने और कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनेक प्रयास किए। उन्होंने स्थानीय शक्तिशाली इलाकेदारों और जागीरदारों, जो अक्सर केंद्रीय सत्ता को चुनौती देते थे, को नियंत्रित करने के लिए कठोर कदम उठाए। इसका एक प्रमुख उदाहरण मऊ के विद्रोही ठाकुर अनिरूद्ध सिंह के गढ़ को ध्वस्त करने के लिए "हनूहंकार" नामक विशाल तोप का सफलतापूर्वक प्रयोग (1835) था। उन्होंने नईगढ़ी (1844) और सेमरिया (1821) जैसे क्षेत्रों में उत्पन्न हुए उपद्रवों और अशांति को भी बलपूर्वक शांत किया। 1839 में मऊगंज और मिर्जापुर के बीच उत्पन्न सीमा विवादों को तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर मि. स्टुअर्ट द्वारा मध्यस्थता करके सुलझाया गया, जो ब्रिटिश प्रभाव के विस्तार को दर्शाता है। राजस्व व्यवस्था को आधुनिक बनाने और राज्य की आय बढ़ाने के उद्देश्य से 1843 में परमिट तथा आबकारी विभाग की स्थापना की गई, जो एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार था। उनके योग्य दीवान वंशीधर की मृत्यु के उपरांत, दीनबन्धु पाण्डेय को दीवान के महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया, जिन्होंने प्रशासनिक कार्यों में महाराजा का सहयोग किया।
2. 1857 का महासंग्राम और उसके बाद का रीवा: निष्ठा और विद्रोह के स्वर
सन् 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, जिसे सिपाही विद्रोह या गदर के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय इतिहास की एक युगांतरकारी घटना थी। इसने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया, बल्कि भारतीय रियासतों के शासकों और प्रजा के भविष्य को भी गहराई से प्रभावित किया। रीवा रियासत ने इस राष्ट्रव्यापी उथल-पुथल के दौरान एक अत्यंत जटिल, विरोधाभासी और रणनीतिक भूमिका निभाई, जिसमें निष्ठा और विद्रोह के स्वर एक साथ सुनाई देते हैं।
रघुराज सिंह (शासनकाल: 1854-1880 ई.):
महाराज विश्वनाथ सिंह के सुपुत्र, रघुराज सिंह, एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी शासक थे। वे संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे और कला तथा साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। उन्होंने शतरंज के एक नवीन और जटिल स्वरूप "दशघरा शतरंज" का आविष्कार किया और भक्ति तथा नीति से परिपूर्ण “जगदीश शतक” नामक काव्य ग्रंथ की रचना भी की। उन्होंने अपने शासनकाल में गोविन्दगढ़ नगर बसाया, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और झील के लिए प्रसिद्ध हुआ, और वहाँ 'विश्वनाथ सागर' नामक विशाल तालाब खुदवाया। रीवा में लक्ष्मणबाग परिसर में भव्य मंदिरों की स्थापना भी उनके धार्मिक और कलात्मक संरक्षण का प्रमाण है। 1857 के महासंग्राम के समय, जब उत्तर और मध्य भारत के अनेक क्षेत्रों में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी, महाराज रघुराज सिंह ने एक सतर्क और कूटनीतिक रुख अपनाया। ऊपरी तौर पर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखी और अपनी सेना के लगभग 2000 सैनिक अंग्रेजों की सहायता के लिए विभिन्न संकटग्रस्त क्षेत्रों, जैसे नागौद, जबलपुर और दमोह, में भेजे। इस "वफादारी" के बदले में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा सोहागपुर (शहडोल) और अमरकण्टक का महत्वपूर्ण क्षेत्र पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया गया, तथा उन्हें के.जी.सी.एस.आई. (Knight Grand Commander of the Star of India) की प्रतिष्ठित उपाधि से भी 1864 में सम्मानित किया गया। हालांकि, स्थानीय जनश्रुतियों, लोकगाथाओं और कुछ परोक्ष ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, वे अंदर से भारतीय विद्रोहियों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे और उन्होंने ठाकुर रणमत सिंह (मनकहरी, सतना) तथा लाल श्यामशाह (कोठी, सतना) जैसे बघेलखण्ड और बुंदेलखण्ड के प्रमुख क्रांतिकारियों को अप्रत्यक्ष रूप से वित्तीय सहायता, शस्त्र और शरण प्रदान की। इन क्रांतिकारियों ने अपने सीमित संसाधनों के बावजूद ब्रिटिश सत्ता को कड़ी चुनौती दी और क्षेत्र में विद्रोह की भावना को जीवित रखा।
ठाकुर रणमत सिंह का अदम्य शौर्य, उनकी गुरिल्ला युद्धनीति और मातृभूमि के लिए उनका बलिदान आज भी बघेलखण्ड की लोकगाथाओं और जनमानस में श्रद्धापूर्वक जीवित है। वे 1857 के महासंग्राम में रीवा क्षेत्र की आम जनता की दबी हुई विद्रोही भावनाओं का एक सशक्त प्रतिनिधित्व करते हैं।

(चित्र: रीवा किले का एक द्वार, जो 1857 के महासंग्राम जैसी कई ऐतिहासिक घटनाओं का मूक साक्षी रहा है।)
प्रशासनिक और वित्तीय परिवर्तन:
1857 के संग्राम के पश्चात्, ब्रिटिश सरकार ने भारतीय रियासतों पर अपना नियंत्रण और अधिक सुदृढ़ करने की नीति अपनाई। इसी क्रम में, 1862 में रीवा में एक ब्रिटिश राजनीतिक एजेन्सी की स्थापना की गई, यद्यपि यह शीघ्र ही समाप्त कर दी गई। परन्तु, 1870-71 में स्थायी रूप से “बघेलखण्ड पोलिटिकल एजेंसी" की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय सतना में रखा गया। इस एजेंसी के माध्यम से ब्रिटिश रेजिडेंट रियासत के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा। दुर्भाग्यवश, रियासत में बढ़ते वित्तीय कुप्रबंधन, ऋण के बोझ और प्रशासनिक अव्यवस्था के कारण 1875 में महाराज रघुराज सिंह को इस शर्त पर राज्य का सम्पूर्ण प्रबंध कुछ वर्षों के लिए ब्रिटिश सरकार को सौंपना पड़ा कि उनके द्वारा स्थापित शासन प्रणाली और उनके वंशानुगत अधिकार भविष्य में भी अक्षुण्ण बने रहेंगे। यह घटना रीवा की आंतरिक स्वायत्तता में एक और महत्वपूर्ण कमी थी और इसने ब्रिटिश नियंत्रण को और अधिक सुदृढ़ करने वाला कदम सिद्ध किया।
विशेष सूचना: ऐतिहासिक श्रृंखला
यह विस्तृत संस्करण "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण भाग है जो रीवा रियासत के औपनिवेशिक काल और स्वतंत्रता की ओर बढ़ते कदमों पर केंद्रित है। इस विषय पर हमारी शोध टीम द्वारा लगभग दस भागों की एक श्रृंखला प्रकाशित करने की योजना है, जिसमें प्रत्येक पहलू का गहन और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाएगा। हम आपसे विनम्र अनुरोध करते हैं कि आप इस श्रृंखला के सभी भागों को पढ़ें, उन पर चिंतन करें और अपने बहुमूल्य विचार, सुझाव एवं प्रतिक्रियाएं हमें अवश्य साझा करें, ताकि हम इस ऐतिहासिक शोध को और भी उन्नत, व्यापक और त्रुटिरहित बना सकें। आपकी सक्रिय सहभागिता हमारे प्रयासों को सार्थक दिशा प्रदान करेगी।
ऐसे ही अन्य रोचक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक विषयों की गहन जानकारी प्राप्त करने तथा हमारे शोध प्रयासों से सक्रिय रूप से जुड़ने के लिए, कृपया हमें ईमेल करें: shriasheeshacharya@gmail.com
3. उच्च औपनिवेशिक काल में रीवा: सुधार और नियंत्रण
19वीं सदी के अंतिम दशकों और 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में, रीवा रियासत ब्रिटिश क्राउन के अधीन एक महत्वपूर्ण "प्रिंसली स्टेट" के रूप में बनी रही। इस कालखंड में, ब्रिटिश अधिकारियों के मार्गदर्शन और दबाव में, रियासत में कुछ प्रशासनिक, न्यायिक एवं ढांचागत आधुनिकीकरण के प्रयास तो हुए, यद्यपि इसके साथ ही ब्रिटिश राजनीतिक नियंत्रण भी निरंतर बढ़ता और गहराता गया, जिससे रियासत की वास्तविक स्वायत्तता उत्तरोत्तर क्षीण होती गई।
वेंकटरमण सिंह (शासनकाल: 1880-1918 ई.):
महाराज रघुराज सिंह के स्वर्गवास के उपरांत, उनके पुत्र वेंकटरमण सिंह मात्र 3 वर्ष की अल्पायु में रीवा की राजगद्दी पर आसीन हुए। उनके वयस्क होने तक, रियासत का शासन ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त सुपरिटेण्डेन्ट और एक काउंसिल ऑफ रीजेंसी द्वारा संचालित होता रहा। इस दौरान प्रशासन में ब्रिटिश तौर-तरीकों को कड़ाई से लागू किया गया। इलाकेदारों और पवाईदारों (छोटी जागीरों के धारक) के परंपरागत अधिकारों में कटौती की गई, जिससे उनकी शक्ति क्षीण हुई। भू-राजस्व व्यवस्था को सुधारने और राज्य की आय को निश्चित करने के उद्देश्य से 1881 में प्रथम विस्तृत सर्वे बन्दोबस्त करवाया गया। लगान वसूली की पुरानी ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया और एक विस्तृत रेवेन्यू मैनुअल का निर्माण किया गया, जिससे राजस्व प्रशासन में कुछ हद तक पारदर्शिता आई। प्रशासनिक सुविधा के लिए राज्य को प्रारंभ में 7 और बाद में 10 तहसीलों में विभाजित किया गया। 1903 में द्वितीय सर्वे बन्दोबस्त भी लागू किया गया।
निर्माण कार्य एवं शहरी विकास:
महाराजा वेंकटरमण सिंह के वयस्क होने और शासन की बागडोर संभालने के बाद, रीवा नगर के सौंदर्यीकरण और आधुनिकीकरण पर विशेष ध्यान दिया गया। 1908 में रीवा किले का विस्तार किया गया और उसके भीतर इंडो-सारसेनिक स्थापत्य शैली में एक भव्य “वेंकट भवन” का निर्माण करवाया गया, जिसकी अनुमानित लागत उस समय लगभग 20 लाख रुपये थी। यह भवन आज भी रीवा की स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट नमूना है। इसके अतिरिक्त, बम्बई (मुंबई) और प्रयाग (इलाहाबाद) में रियासत की कोठियों (गेस्ट हाउस) का विस्तार और नवीनीकरण किया गया। रीवा नगर में सार्वजनिक उपयोग के लिए गोला घर (अनाज भंडार), राजनिवास, कचहरी भवन, पीली कोठी (अतिथि गृह) आदि अनेक महत्वपूर्ण इमारतों का निर्माण करवाया गया, जिससे नगर का स्वरूप बदला।

(चित्र: महाराजा वेंकटरमण सिंह द्वारा निर्मित भव्य वेंकट भवन, जो रीवा की स्थापत्य विरासत का एक महत्वपूर्ण अंग है।)
सैन्य सुधार और कला-प्रेम:
महाराजा वेंकटरमण सिंह, जिन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा लेफ्टिनेंट कर्नल की मानद उपाधि भी प्रदान की गई थी, ने 1904 में रीवा स्टेट आर्मी के कमाण्डर इन चीफ का पद स्वयं संभाला। उन्होंने सेना के आधुनिकीकरण, प्रशिक्षण और अनुशासन पर बल दिया। सतना, बघऊँ और बांधवगढ़ जैसे महत्वपूर्ण स्थानों पर फौजी छावनियाँ स्थापित की गईं। वे कला और साहित्य के भी प्रेमी थे। उन्होंने रीवा में “बघेलखण्ड नाटक कम्पनी” की स्थापना को प्रोत्साहित किया, जिसने स्थानीय प्रतिभाओं को मंच प्रदान किया। उन्होंने स्वयं भक्ति और वैराग्य से ओतप्रोत "भजनावली" नामक काव्य ग्रंथ की रचना की। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सरकार को भरपूर सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की, जिसके लिए उन्हें सम्मानित भी किया गया। हालांकि, उनके लंबे शासनकाल में राज्य को तीन बार (1896-97, 1899—1900, और 1907-1908) भयानक अकालों का भी सामना करना पड़ा, जिससे प्रजा को अपार कष्ट और आर्थिक हानि उठानी पड़ी। इन अकालों के दौरान राहत कार्यों का भी आयोजन किया गया, परन्तु वे अपर्याप्त सिद्ध हुए।
4. स्वतंत्रता की ओर बढ़ते कदम और रीवा: राष्ट्रीय चेतना का उदय
20वीं सदी के प्रारंभ से ही भारत में महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन ने जोर पकड़ लिया था, और इसकी गूंज ब्रिटिश भारत के प्रांतों के साथ-साथ देशी रियासतों में भी सुनाई देने लगी थी। राष्ट्रीय चेतना का प्रसार, प्रजामंडलों का गठन और उत्तरदायी शासन की माँग रीवा जैसी रियासतों पर भी अपना प्रभाव डाल रही थी, यद्यपि यहाँ परिवर्तन की गति धीमी और नियंत्रित थी।
गुलाब सिंह (शासनकाल: 1918-1946 ई.):
महाराजा वेंकटरमण सिंह के उपरांत उनके पुत्र गुलाब सिंह रीवा के 33वें नरेश बने। वे ब्रिटिश कालीन भारत की सेंट्रल इंडिया एजेंसी के अंतर्गत आने वाली प्रमुख रियासतों में से एक के शासक थे। महाराज गुलाब सिंह एक दूरदर्शी, प्रगतिशील विचारों वाले, कुशल प्रशासक, समाज सुधारक और गहरी स्वदेशी भावना से ओतप्रोत शासक थे। वे भारत के उन गिने-चुने नरेशों में से थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन काल में ही, अन्य रियासतों से बहुत पहले, अपने राज्य में उत्तरदायी लोकप्रिय सरकार की स्थापना की साहसिक घोषणा की थी। यह उनके लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रजा के प्रति उनके समर्पण का परिचायक था। दुर्भाग्यवश, किशोरावस्था में ही उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था, जिससे उन्हें प्रारंभ से ही विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। महाराज गुलाब सिंह महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों, जैसे स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग, अस्पृश्यता निवारण (हरिजनोद्धार), शिक्षा का प्रसार, और ग्राम सुधार, से गहरे प्रभावित थे। उन्होंने इन कार्यक्रमों को अपने राज्य में पूरी निष्ठा और उत्साह के साथ लागू करने का प्रयास किया। उन्होंने “पढ़िये-पढ़ाइये" (शिक्षा के महत्व पर बल) और "रिमहाई गजी (देशी खद्दर) घर–घर में सजी” (स्वदेशी वस्त्रों के उपयोग को प्रोत्साहन) जैसे नारों को लोकप्रिय बनाया और स्वयं भी स्वदेशी का पालन करते थे। उनके इन राष्ट्रवादी और सुधारवादी कदमों के कारण वे स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश राजनीतिक विभाग और स्थानीय ब्रिटिश अधिकारियों के कोपभाजन बन गए, जो रियासतों में किसी भी प्रकार की राजनीतिक जागृति को संदेह की दृष्टि से देखते थे। ब्रिटिश सरकार ने उनके ऊपर विभिन्न मनगढ़ंत आरोप लगाकर मुकदमा चलाया और 1942 से 1946 के बीच उन्हें बार-बार अपमानित करने तथा उनकी शक्तियों को सीमित करने की चेष्टा की। परन्तु, यह महाराज गुलाब सिंह का दृढ़ आत्मबल, नैतिक साहस और सत्याग्रह की भावना ही थी कि उनके ऊपर ब्रिटिश सरकार कोई भी गंभीर आरोप सिद्ध नहीं कर पाई। अंततः, निरंतर ब्रिटिश दबाव और राजनीतिक षड्यंत्रों के कारण, उन्हें 31 जनवरी 1946 को अपने पुत्र युवराज मार्तण्ड सिंह के पक्ष में राजगद्दी छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। इसके पश्चात् महाराज गुलाब सिंह व्यथित मन से रीवा छोड़कर बम्बई (मुंबई) चले गए, जहाँ उन्होंने अपना शेष जीवन व्यतीत किया।
महाराज गुलाब सिंह का शासनकाल रीवा के इतिहास में राष्ट्रीय चेतना के उदय, सामाजिक सुधारों की एक साहसिक पहल और प्रजातांत्रिक मूल्यों के प्रति एक रियासती शासक की प्रतिबद्धता का एक महत्वपूर्ण और प्रेरक अध्याय था, यद्यपि उन्हें इसके लिए ब्रिटिश सत्ता के निरंतर कोप और षड्यंत्रों का भी सामना करना पड़ा।
5. स्वतंत्र भारत में विलय और आधुनिक रीवा का उदय
15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के साथ ही देशी रियासतों के भविष्य का प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया। सरदार वल्लभभाई पटेल के कुशल नेतृत्व में अधिकांश रियासतों के भारतीय संघ में शांतिपूर्ण विलय की प्रक्रिया प्रारंभ हुई, जिसमें रीवा रियासत ने भी एक महत्वपूर्ण और सकारात्मक भूमिका निभाई।
मार्तण्ड सिंह (शासनकाल: 1946-1948, राजप्रमुख और उसके बाद):
महाराजा गुलाब सिंह के पुत्र, महाराज मार्तण्ड सिंह का जन्म गोविन्दगढ़ किले के सुरम्य दरिया महल में 15 मार्च 1923 को हुआ था। उन्होंने डेली कॉलेज (इंदौर), मेयो कॉलेज (अजमेर) जैसी प्रतिष्ठित राजकुमारों की शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त की थी और देहरादून में इंडियन सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) का गहन प्रशिक्षण भी प्राप्त किया था, जिसने उन्हें आधुनिक प्रशासन और कूटनीति की बारीकियों से परिचित कराया। 6 फरवरी, 1946 को उनका विधिवत् राज्याभिषेक हुआ, एक ऐसे संक्रमणकालीन दौर में जब भारत स्वतंत्रता और विभाजन की ओर तेजी से बढ़ रहा था। 15 अगस्त 1947 को भारत स्वाधीन हुआ। नव स्वतंत्र भारत की संविधान सभा के लिए रीवा रियासत से दो प्रतिनिधि भेजे गए: राजा शिव बहादुर सिंह (शासक द्वारा मनोनीत) और लाल यादवेन्द्र सिंह (निर्वाचित)। महाराज मार्तण्ड सिंह ने बदलते हुए राजनीतिक परिदृश्य को समझा और सरदार पटेल के आवाहन पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए रीवा रियासत के भारतीय संघ में विलय के प्रपत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर कर दिए। उन्होंने रीवा राज्य के लिए एक नए, प्रगतिशील संविधान की भी घोषणा की, जो आंशिक रूप से संसदात्मक शासन प्रणाली पर आधारित था, और लाल यशवन्त सिंह के नेतृत्व में एक अंतरिम मंत्रिमण्डल का गठन भी किया गया।

(चित्र: महाराजा मार्तण्ड सिंह अपने प्रिय सफेद बाघ 'मोहन' के साथ, जिसने रीवा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई।)
विन्ध्य प्रदेश का निर्माण:
रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत, 4 अप्रैल 1948 को बघेलखण्ड और बुन्देलखण्ड की 35 छोटी-बड़ी रियासतों को मिलाकर एक नई प्रशासनिक इकाई “विन्ध्य प्रदेश” के निर्माण की विधिवत घोषणा की गई। रीवा को इस नवीन प्रदेश की राजधानी बनाया गया और रीवा के महाराज मार्तण्ड सिंह को विन्ध्य प्रदेश का राज प्रमुख (संवैधानिक प्रमुख) नियुक्त किया गया। लोकप्रिय नेता कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के नेतृत्व में पहले निर्वाचित मंत्रिमण्डल का गठन हुआ। बाद में, भारत सरकार द्वारा गठित राज्य पुनर्गठन आयोग (फजल अली आयोग) की सिफारिशों के अनुसार, 1 नवम्बर 1956 को विन्ध्य प्रदेश, तत्कालीन मध्य भारत, भोपाल राज्य और महाकौशल क्षेत्र के कुछ हिस्सों को मिलाकर वर्तमान विशाल मध्यप्रदेश राज्य का निर्माण हुआ, और रीवा इसका एक महत्वपूर्ण संभाग और जिला मुख्यालय बना।
सफेद बाघ और विरासत:
महाराज मार्तण्ड सिंह को न केवल एक प्रगतिशील शासक के रूप में, बल्कि विश्व को 'सफेद शेर' (व्हाइट टाइगर) का अद्वितीय उपहार प्रदान करने का भी श्रेय जाता है। सन् 1951 में उन्होंने गोविंदगढ़ के निकट सीधी जिले के बरगड़ी जंगल से एक सफेद बाघ शावक को पकड़ा था, जिसका नाम उन्होंने 'मोहन' रखा। मोहन विश्वभर के चिड़ियाघरों और सफारी पार्कों में पाए जाने वाले अधिकांश सफेद शेरों का पूर्वज माना जाता है। यह खोज रीवा को अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर ले आई। उन्होंने बांधवगढ़ के समृद्ध वन्यजीव अभ्यारण्य को एक राष्ट्रीय उद्यान बनाने हेतु सन् 1967-68 में भारत सरकार से सक्रिय रूप से माँग की थी और वन्यजीव संरक्षण, विशेषकर बाघों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की भी पुरजोर अपील की थी। यह उनकी दूरदर्शिता और पर्यावरण तथा वन्यजीव संरक्षण के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
6. स्वतंत्र भारत में रीवा का विकास और समकालीन पहचान
स्वतंत्रता के पश्चात्, रीवा मध्य प्रदेश राज्य का एक महत्वपूर्ण संभाग और जिला मुख्यालय बन गया। पिछले सात दशकों में इसने शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, अधोसंरचना और पर्यटन सहित विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है, यद्यपि विकास की यात्रा अभी भी जारी है और अनेक चुनौतियाँ विद्यमान हैं।
शिक्षा और संस्कृति:
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में, रीवा में अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय की स्थापना एक मील का पत्थर सिद्ध हुई, जिसने इस संपूर्ण विंध्य क्षेत्र के युवाओं के लिए उच्च शिक्षा और शोध के द्वार खोले। इसके अतिरिक्त, अनेक शासकीय एवं अशासकीय महाविद्यालय, एक शासकीय इंजीनियरिंग कॉलेज, एक मेडिकल कॉलेज (श्याम शाह चिकित्सा महाविद्यालय) और अन्य व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान भी स्थापित हुए, जिनसे शिक्षा का प्रसार हुआ है। सांस्कृतिक दृष्टि से, तानसेन संगीत समारोह का वार्षिक आयोजन रीवा की समृद्ध संगीत परंपरा को न केवल जीवित रखे हुए है, बल्कि देश भर के प्रतिष्ठित कलाकारों और संगीत प्रेमियों को आकर्षित भी करता है। बघेली भाषा, जो इस क्षेत्र की प्रमुख लोकभाषा है, और इससे जुड़ी समृद्ध लोक कलाएँ, जैसे करमा, सैला, सुआ, विदेसिया नृत्य, तथा आल्हा, पंडवानी जैसी लोकगाथाएँ आज भी ग्रामीण अंचलों में जीवंत हैं और क्षेत्र की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग हैं। इन लोक परंपराओं के संरक्षण और संवर्धन के प्रयास भी किए जा रहे हैं।

(चित्र: संगीत सम्राट तानसेन का एक काल्पनिक चित्रण, जिनकी संगीत परंपरा आज भी रीवा में आयोजित समारोहों के माध्यम से जीवित है।)
आर्थिक विकास:
आर्थिक दृष्टि से, रीवा और आसपास का क्षेत्र प्रचुर खनिज संपदा, विशेषकर उच्च गुणवत्ता वाले चूना पत्थर (लाइमस्टोन) और कोयले से समृद्ध है। इसी के आधार पर यहाँ सीमेंट उद्योग (जैसे जेपी सीमेंट का विशाल प्लांट) का तेजी से विकास हुआ है, जो न केवल राज्य की औद्योगिक प्रगति में योगदान दे रहा है, बल्कि स्थानीय स्तर पर रोजगार का एक प्रमुख स्रोत भी है। अन्य खनिज आधारित लघु एवं मध्यम उद्योगों का भी धीरे-धीरे विकास हो रहा है। कृषि आज भी इस क्षेत्र की अधिकांश जनसंख्या की आजीविका का मुख्य आधार है, जिसमें गेहूं, चावल, विभिन्न प्रकार की दालें और तिलहन प्रमुख फसलें हैं। सिंचाई सुविधाओं के विस्तार और आधुनिक कृषि तकनीकों को अपनाने से कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई है। हाल के वर्षों में, रीवा ने सौर ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में भी विश्व मानचित्र पर अपनी पहचान बनाई है; यहाँ स्थापित एशिया का सबसे बड़ा 750 मेगावाट का रीवा अल्ट्रा मेगा सोलर पावर प्लांट भारत की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है और स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में एक मील का पत्थर है।

(चित्र: आधुनिक रीवा की शक्ति का प्रतीक, रीवा अल्ट्रा मेगा सोलर पावर प्लांट।)
पर्यटन:
पर्यटन की दृष्टि से रीवा और समूचे विंध्य क्षेत्र में अपार संभावनाएँ हैं। यहाँ अनेक ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक महत्व के स्थल हैं, जैसे रीवा का किला (जिसमें दर्शनीय वेंकट भवन और अन्य प्राचीन महल स्थित हैं), गोविन्दगढ़ का किला और सुरम्य झील, ऐतिहासिक रानी तालाब, और प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर जो बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक न होते हुए भी अत्यंत प्रतिष्ठित है। इसके अतिरिक्त, यह क्षेत्र अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य से भी भरपूर है; विंध्य की हरी-भरी पहाड़ियों से उद्गमित होने वाली नदियों द्वारा निर्मित अनेक मनोरम और विशाल जलप्रपात जैसे चचाई (भारत के सबसे ऊंचे जलप्रपातों में से एक), केवटी, बहुती और पूर्वा जलप्रपात पर्यटकों और प्रकृति प्रेमियों के लिए प्रमुख आकर्षण का केंद्र हैं। वन्यजीव प्रेमियों के लिए महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव व्हाइट टाइगर सफारी एवं चिड़ियाघर, मुकुंदपुर एक अनूठा गंतव्य है, जहाँ विश्व प्रसिद्ध सफेद बाघों के साथ-साथ अन्य दुर्लभ वन्यजीवों को उनके प्राकृतिक आवास के निकट देखने का अवसर मिलता है। विश्व प्रसिद्ध बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, जो बाघों के असाधारण घनत्व के लिए जाना जाता है, भी रीवा से अपेक्षाकृत निकट है और पर्यटकों को आकर्षित करता है।
समीपस्थ क्षेत्र और नवीन प्रशासनिक इकाइयाँ:
प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण, विकास को गति देने और स्थानीय आकांक्षाओं को पूरा करने के उद्देश्य से समय-समय पर नई प्रशासनिक इकाइयों का गठन किया जाता रहा है। इसी क्रम में, मऊगंज को अगस्त 2023 में रीवा जिले से पृथक कर मध्य प्रदेश के 53वें जिले के रूप में आधिकारिक मान्यता दी गई है। ऐतिहासिक नईगढ़ी का किला और प्रसिद्ध बहुती जलप्रपात अब नवगठित मऊगंज जिले का हिस्सा हैं। कोलगढ़ी (कोल जनजाति का ऐतिहासिक केंद्र), अतरैला, डभौरा जैसे ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्र रीवा संभाग की व्यापक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था, विशिष्ट सामाजिक संरचना और समृद्ध सांस्कृतिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण और अविभाज्य हिस्सा बने हुए हैं, जहाँ स्थानीय लोक परंपराएँ आज भी जीवंत हैं।
एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला
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📜यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।
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shriasheeshacharya@gmail.comरीवा का संक्रमण काल: मुख्य घटनाएँ एवं परिवर्तन
"1812 की संधि": महाराजा जय सिंह और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संपन्न हुई यह संधि, रीवा को ब्रिटिश संरक्षण में ले आई, जिससे उसकी बाह्य स्वायत्तता सीमित हो गई और आंतरिक मामलों में भी ब्रिटिश हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त हुआ।
यह संधि रीवा के इतिहास में एक निर्णायक और दूरगामी प्रभाव वाला मोड़ थी, जिसने सदियों पुरानी परंपरागत राज व्यवस्था के अवसान और एक नवीन औपनिवेशिक युग के अपरिहार्य सूत्रपात को चिह्नित किया।
"1857 का महासंग्राम": महाराजा रघुराज सिंह की इस राष्ट्रव्यापी विद्रोह के प्रति जटिल और बहुस्तरीय भूमिका, जिसमें ऊपरी तौर पर अंग्रेजों का साथ देने के साथ-साथ क्रांतिकारियों को अप्रत्यक्ष समर्थन और सहानुभूति प्रदान करने की प्रबल जनश्रुतियाँ और ऐतिहासिक संकेत मिलते हैं।
ठाकुर रणमत सिंह जैसे स्थानीय वीर नायकों ने अपने अदम्य साहस और बलिदान से ब्रिटिश सत्ता को कड़ी चुनौती दी, जो तत्कालीन जनभावनाओं और स्वतंत्रता की आकांक्षा का प्रबल प्रतीक बने, और उनकी गाथाएँ आज भी लोकमानस में जीवित हैं।
"वेंकट भवन": महाराजा वेंकटरमण सिंह द्वारा रीवा किले के भीतर इंडो-सारसेनिक शैली में निर्मित यह भव्य महल, न केवल तत्कालीन रीवा में आधुनिक स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, बल्कि यह बघेल शासकों की कलाप्रियता, दूरदर्शिता और शहरी विकास के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का भी एक जीवंत मिसाल है।
यह ऐतिहासिक इमारत आज भी रीवा की वास्तुकला का एक अनुपम नमूना, एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर और शहर की पहचान का अभिन्न अंग है।
"महाराज गुलाब सिंह का सुधार": उनके द्वारा राज्य में उत्तरदायी सरकार की साहसिक घोषणा, स्वदेशी आंदोलन को सक्रिय समर्थन, और महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों (जैसे हरिजनोद्धार, शिक्षा प्रसार) का निष्ठापूर्वक क्रियान्वयन, उनकी प्रगतिशील और राष्ट्रवादी सोच को दर्शाता है।
उनके ये साहसिक प्रयास रीवा में राष्ट्रीय चेतना के जागरण, सामाजिक सुधारों की एक नई लहर और प्रजातांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पण के अग्रदूत बने, यद्यपि इसके लिए उन्हें ब्रिटिश सत्ता का कोप भी झेलना पड़ा।
"विन्ध्य प्रदेश का निर्माण": स्वतंत्रता उपरांत, महाराजा मार्तण्ड सिंह के दूरदर्शी और सहयोगी नेतृत्व में बघेलखण्ड और बुन्देलखण्ड की विभिन्न रियासतों का सफलतापूर्वक एकीकरण कर, एक नवीन प्रशासनिक इकाई 'विन्ध्य प्रदेश' का उदय हुआ, जिसकी राजधानी रीवा बनी।
यह ऐतिहासिक घटना न केवल रीवा के भारतीय संघ में शांतिपूर्ण और सम्मानजनक विलय का प्रतीक थी, बल्कि यह एक वृहत्तर और एकीकृत भारत के निर्माण तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इस क्षेत्र की सक्रिय सहभागिता का भी महत्वपूर्ण प्रारंभ थी।
रीवा की ऐतिहासिक और आधुनिक पहचान

(चित्र: रीवा स्थित भव्य वेंकट भवन, महाराजा वेंकटरमण सिंह द्वारा निर्मित। यह इमारत बघेलकालीन स्थापत्य और रीवा के शाही अतीत का एक शानदार प्रतीक है। साभार: rewa.nic.in)
सफेद बाघ की धरती: मुकुंदपुर (वृत्तचित्र अंश)
(यह एक प्लेसहोल्डर वीडियो है। महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव व्हाइट टाइगर सफारी, मुकुंदपुर, या रीवा के अद्वितीय वन्यजीव और जैव विविधता पर किसी जानकारीपूर्ण और आकर्षक वृत्तचित्र का YouTube VIDEO_ID यहाँ डाला जा सकता है।)
अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)
रीवा के औपनिवेशिक काल, स्वतंत्रता संग्राम में इसकी विशिष्ट भूमिका और आधुनिक भारत में इसके विलय तथा समकालीन विकास के इतिहास का गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित प्रकार के स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं:
रियासती एवं ब्रिटिश कालीन दस्तावेज़:
- **रीवा राज्य के प्रशासनिक रिकॉर्ड:** विभिन्न बघेल शासकों के समय के राजकीय फरमान (आदेश), महत्वपूर्ण पत्राचार (जैसे मुगल दरबार या ब्रिटिश अधिकारियों के साथ), विस्तृत भू-राजस्व रिकॉर्ड (बंदोबस्त रिपोर्टें), न्याय व्यवस्था से संबंधित दस्तावेज़ (न्यायालयीन निर्णय), और अन्य शासकीय आलेख जो राज्य अभिलेखागार (जैसे मध्य प्रदेश राज्य अभिलेखागार, भोपाल) में संरक्षित हो सकते हैं।
- **ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंसी के रिकॉर्ड:** बघेलखण्ड पोलिटिकल एजेंसी (मुख्यालय सतना) की वार्षिक रिपोर्टें, पॉलिटिकल एजेंटों का रीवा दरबार और ब्रिटिश सरकार के उच्चाधिकारियों के साथ हुआ पत्राचार, विभिन्न समझौतों और सनदों के मूल मसौदे, जो राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India), नई दिल्ली में उपलब्ध हो सकते हैं।
- **संधि-पत्र:** ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश क्राउन के साथ रीवा रियासत द्वारा की गई विभिन्न संधियों (जैसे 1812 की सहायक संधि) के मूल या प्रमाणित दस्तावेज़, जो आर्काइवल संग्रहों का हिस्सा हैं।
- **गजेटियर और सांख्यिकीय रिपोर्टें:** Luard, C.E. (1907). "Rewah State Gazetteer" (Central India State Gazetteer Series का भाग, जो तत्कालीन रीवा रियासत का विस्तृत भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक विवरण प्रस्तुत करता है); Imperial Gazetteer of India (Central India Provincial Series) के संबंधित खंड; विभिन्न जनगणना रिपोर्टें और आर्थिक सर्वेक्षण।
स्वतंत्रता संग्राम एवं एकीकरण संबंधित दस्तावेज़:
- भारत की संविधान सभा की बहसों (Constituent Assembly Debates) में रीवा तथा विंध्य प्रदेश के मनोनीत और निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा उठाए गए महत्वपूर्ण मुद्दे, उनके भाषण और रियासतों के भविष्य पर उनके विचार।
- विन्ध्य प्रदेश के गठन, प्रशासन और अंततः मध्य प्रदेश में विलय से संबंधित महत्वपूर्ण सरकारी अधिसूचनाएँ, विधानसभा की कार्यवाही, राजपत्र (Gazettes) और राज्य पुनर्गठन आयोग (फजल अली आयोग) की विस्तृत रिपोर्टें तथा सिफारिशें।
- स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों (जैसे ठाकुर रणमत सिंह, लाल श्यामशाह, पं. शम्भूनाथ शुक्ल, कप्तान अवधेश प्रताप सिंह) के संस्मरण, जीवनियाँ, उपलब्ध पत्र-व्यवहार, और उनसे संबंधित समकालीन समाचार पत्रों की कतरनें या स्थानीय ऐतिहासिक आख्यान तथा शोध।
आधुनिक शोध एवं प्रकाशन:
/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */ 1. सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". (रियासती काल के इतिहास, वंशावलियों और महत्वपूर्ण घटनाओं का एक पारंपरिक लेकिन महत्वपूर्ण स्रोत) 2. शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". (इस क्षेत्र की भाषाई और सांस्कृतिक विरासत पर एक मानक कृति) 3. श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". (विंध्य क्षेत्र के व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने हेतु उपयोगी) 4. मेनन, वी.पी. "The Story of the Integration of the Indian States". (भारतीय रियासतों के विलय पर एक आधिकारिक और विस्तृत ग्रंथ) 5. कोप्लैंड, इयान. "The Princes of India in the Endgame of Empire, 1917-1947". (ब्रिटिश साम्राज्य के अंतिम दौर में भारतीय रियासतों की राजनीतिक स्थिति और शासकों की भूमिका पर गहन विश्लेषण) 6. चौधरी, एस.बी. "Civil Rebellion in the Indian Mutinies, 1857-1859". (1857 के महासंग्राम में नागरिक विद्रोहों के संदर्भ में, जिसमें रीवा क्षेत्र की घटनाओं का भी उल्लेख हो सकता है) 7. शर्मा, जगदीश शरण. "India Since the Advent of the British: A Chronology". (ब्रिटिश काल की महत्वपूर्ण घटनाओं का तिथिक्रमानुसार विवरण) 8. राज्य पुनर्गठन आयोग (फजल अली कमीशन) की रिपोर्ट, 1955. (विंध्य प्रदेश के मध्य प्रदेश में विलय के संदर्भ में निर्णायक दस्तावेज) 9. अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा द्वारा प्रकाशित विभिन्न शोध-पत्र, जर्नल एवं ऐतिहासिक मोनोग्राफ, जो स्थानीय इतिहास और संस्कृति पर केंद्रित हो सकते हैं।
निष्कर्ष: विरासत और आधुनिकता का संगम
रीवा का इतिहास, बघेल राजवंश के पराक्रमी और कला-प्रेमी शासकों द्वारा स्थापित एक सुदृढ़ राज्य की गुजरात के तटों से चलकर विंध्य की उपजाऊ और सुरक्षित पहाड़ियों में अपनी गहरी जड़ें जमाने की एक लंबी, चुनौतीपूर्ण और घटनापूर्ण यात्रा का वृत्तांत है। संस्थापक व्याघ्रदेव के प्रारंभिक संघर्षों और राज्य-स्थापना के प्रयासों से लेकर मुगल काल की सांस्कृतिक समृद्धि, जिसमें तानसेन और बीरबल जैसी असाधारण विभूतियों का रीवा दरबार से गहरा जुड़ाव रहा, और फिर ब्रिटिश संरक्षण में एक महत्वपूर्ण रियासत के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने तक, रीवा ने भारतीय इतिहास के अनेक महत्वपूर्ण उतार-चढ़ाव देखे और उनसे सफलतापूर्वक सामंजस्य स्थापित किया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इसकी जटिल और बहुस्तरीय भूमिका, 20वीं सदी में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय चेतना का क्रमिक उदय, और अंततः महाराजा मार्तण्ड सिंह के दूरदर्शी नेतृत्व में स्वतंत्र भारत के अभिन्न अंग के रूप में विन्ध्य प्रदेश के राजप्रमुख के तौर पर एकीकरण, इस क्षेत्र की अदम्य जीवंतता, अनुकूलन क्षमता और राष्ट्रीय मुख्यधारा से जुड़ने की आकांक्षा को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। महाराजा मार्तण्ड सिंह द्वारा विश्व को सफेद बाघ 'मोहन' की अद्वितीय भेंट ने रीवा को अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव मानचित्र पर एक विशिष्ट और स्थायी पहचान दिलाई। आज का आधुनिक रीवा न केवल अपनी समृद्ध ऐतिहासिक धरोहरों, भव्य किलों, प्राचीन मंदिरों और मनोहारी जलप्रपातों के लिए जाना जाता है, बल्कि यह शिक्षा, स्वास्थ्य, सीमेंट उद्योग, सौर ऊर्जा उत्पादन और पर्यटन के क्षेत्र में भी निरंतर प्रगति कर रहा है। मऊगंज जैसे नए जिलों का गठन इस क्षेत्र की विकास यात्रा और प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण का एक नवीन अध्याय है। बघेलखण्ड की यह ऐतिहासिक भूमि, अपनी विशिष्ट बघेली संस्कृति, लोक परंपराओं और प्राकृतिक सौंदर्य को सँजोए हुए, आधुनिक, आत्मनिर्भर और प्रगतिशील भारत के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। इसकी गहन और बहुआयामी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, जैसा कि विभिन्न समकालीन वृत्तांतों, शोध पत्रों और पुरातात्त्विक साक्ष्यों में वर्णित है, अपने आंचल में भारतीय इतिहास और संस्कृति की अनेक अनमोल विशेषताओं को समेटे हुए है और यह अपने आप में अत्यंत समृद्ध, ज्ञानवर्धक और भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्पद है। यह यात्रा अतीत के गौरव को वर्तमान की प्रगति से सफलतापूर्वक जोड़ती है और भविष्य के लिए एक सुदृढ़ एवं आशावादी नींव रखती है।
कॉपीराइट एवं उपयोग अधिकार
2024 आचार्य आशीष मिश्र (शोध एवं संपादन)। सर्वाधिकार सुरक्षित।
यह प्रस्तुति "रीवा: औपनिवेशिक काल से आधुनिक भारत तक का सफर (भाग-2)" ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए है। सामग्री का उपयोग गैर-व्यावसायिक, शैक्षिक, और शोधपरक गतिविधियों के लिए, शोध एवं संपादन: "आचार्य आशीष मिश्र" (acharyaasheeshmishra.blogspot.com) के उचित श्रेय के साथ किया जा सकता है।
अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर रीवा रियासत, औपनिवेशिक भारत, तथा आधुनिक रीवा लेबल देखें।
हमारी विस्तृत लेख श्रृंखला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास"
इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की विभिन्न कड़ियों, राजवंशों के उत्थान-पतन, सांस्कृतिक विकास और ऐतिहासिक महत्व को और गहराई से जानने के लिए हमारी श्रृंखला के इन महत्वपूर्ण लेखों को अवश्य पढ़ें। यह सूची निरंतर अपडेट होती रहेगी जैसे-जैसे नए शोध और लेख प्रकाशित होंगे:
भाग I: बघेलखण्ड का प्राचीन इतिहास: आदिम संस्कृति से राजवंशों के उदय तक
बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य। आदिम संस्कृति से राजवंशों के उत्थान तक – एक गहन पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवांचल का प्राचीन इतिहास: प्रागैतिहासिक संस्कृति, पौराणिक आख्यान और मौर्योत्तर कालीन धरोहर
विंध्य धरा की प्राचीन गाथा: रीवांचल का पुरातात्त्विक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन। प्रागैतिहासिक काल से मौर्योत्तर काल तक। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का प्रारंभिक इतिहास: वनवासी सभ्यता, प्राचीन राजवंश और बहु-सांस्कृतिक विरासत (प्रागैतिहासिक से मौर्योत्तर)
रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत। एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का आरंभिक इतिहास: वनवासी संस्कृतियाँ, प्राचीन राजवंश और बहुआयामी सांस्कृतिक धरोहर
विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम। इस लेख में प्रारंभिक काल की गहन पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग II: बघेल राजवंश का उदय: गहोरा से रीवा तक राज्य स्थापना, प्रशासन और सांस्कृतिक विरासत
बघेल राजवंश का अभ्युदय और रीवा राज्य की स्थापना। एक राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक मीमांसा (गहोरा से रीवा तक)। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव के आगमन से मुगलकालीन रीवा तक का ऐतिहासिक सफर
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव से मुगलकालीन रीवा तक। एक विस्तृत ऐतिहासिक यात्रा एवं सांस्कृतिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का मध्यकालीन उत्कर्ष: बघेल राजवंश का शासन, सांस्कृतिक योगदान और क्षेत्रीय प्रभाव
विंध्य धरा का बघेल गौरव: मध्यकालीन शासन, संस्कृति एवं प्रभाव। बघेल राजवंश का अभ्युदय, शासन, सांस्कृतिक योगदान एवं क्षेत्रीय प्रभाव। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन और सांस्कृतिक संगम
विंध्य की विरासत: बघेल-सेंगर संपर्क और रीवा का सांस्कृतिक ताना-बाना। रीवा का गौरवशाली इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन, और सांस्कृतिक संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग III: रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, मुगलकालीन संबंध और आधुनिकता की ओर
रीवा की गौरवगाथा: बघेल शौर्य, मुगल संपर्क और आधुनिकता का प्रभात। बघेल राजवंश, मुगल संपर्क, और आधुनिकता का संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का परिवर्तन: मुगलकालीन स्वर्ण युग से औपनिवेशिक चुनौतियों और आधुनिक रीवा के निर्माण तक
रीवा: मुगल वैभव से आधुनिकता की ओर – एक ऐतिहासिक यात्रा। बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 2)
रियासत के भारतीय संघ में विलय की विस्तृत और निर्णायक कहानी, स्वतंत्रता उपरांत विकास और चुनौतियाँ। (लेबल: प्राचीन रीवा)
सभी लेख देखें: प्राचीन रीवा श्रृंखला
"रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" श्रृंखला के सभी प्रकाशित लेखों को एक स्थान पर पाएं और इस ऐतिहासिक यात्रा में हमारे साथ बने रहें।