✶ विंध्य धरा का बघेल गौरव: मध्यकालीन शासन, संस्कृति एवं प्रभाव ✶
बघेल राजवंश का अभ्युदय, शासन, सांस्कृतिक योगदान एवं क्षेत्रीय प्रभाव (एक विस्तृत ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सिंहावलोकन)
बघेलखण्ड का प्राचीन और समृद्ध ऐतिहासिक परिदृश्य, जो प्रागैतिहासिक काल से ही मानव सभ्यता के विभिन्न चरणों का साक्षी रहा है, अनेक शक्तिशाली राजवंशों के उत्थान-पतन और उनकी सांस्कृतिक अंतःक्रियाओं का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक, मध्य भारत की एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति, त्रिपुरी के पराक्रमी कल्चुरी राजवंश, का पतन हो चुका था। इस पतन ने इस विस्तृत और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण भूभाग में एक प्रकार की राजनीतिक शून्यता और अस्थिरता उत्पन्न कर दी थी, जिसने नई शक्तियों के उदय के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित कीं। यही वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी जिसने गुजरात के प्रतापी सोलंकी (चालुक्य) राजपूतों की एक महत्वाकांक्षी और वीर शाखा, बघेलों, के लिए इस वीरभूमि पर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया। डॉ. नृपेन्द्र सिंह परिहार द्वारा प्रणीत गहन शोध-पत्र "बघेलखण्ड में बघेलों का अभ्युदय एवं विकास का समीक्षात्मक अध्ययन" तथा अन्य महत्वपूर्ण संदर्भित ऐतिहासिक स्रोतों, पुरातात्त्विक साक्ष्यों और साहित्यिक ग्रंथों के सम्यक आलोक में, यह विस्तृत आलेख बघेल राजवंश के उद्भव की जटिल प्रक्रिया, उनके दीर्घकालीन शासनकाल की प्रमुख राजनीतिक एवं सैन्य घटनाओं, उनकी प्रशासनिक व्यवस्था, उनके द्वारा कला, संगीत, साहित्य और धर्म को दिए गए उदार संरक्षण, तथा उनके शासन का समीपस्थ क्षेत्रों (विशेषकर नवीन मऊगंज जिला, तथा कोलघारी, अतरैला, डभौरा जैसे ऐतिहासिक महत्व के ग्रामों) पर पड़े दूरगामी प्रभाव का एक गहन, समालोचनात्मक और बहुआयामी विश्लेषण प्रस्तुत करेगा। बघेलों का शासनकाल निस्संदेह रीवा और वृहत्तर बघेलखण्ड के इतिहास में एक नए और गौरवशाली युग का सूत्रपात था, जिसने इस क्षेत्र को न केवल एक विशिष्ट राजनीतिक और प्रशासनिक पहचान प्रदान की, बल्कि एक समृद्ध और जीवंत सांस्कृतिक विरासत भी सौंपी, जो आज भी इस अंचल की अस्मिता का अभिन्न अंग है।

(चित्र: बघेल वंश के आदि पुरुष व्याघ्रदेव सोलंकी का एक काल्पनिक चित्रण, जिन्होंने बघेलखण्ड में एक नए राजवंश की नींव रखी।)
बघेल राजवंश का इतिहास मात्र वंशावली या युद्धों का लेखा-जोखा नहीं, अपितु यह शौर्य, रणनीतिक कूटनीति, उदार सांस्कृतिक संरक्षण और एक विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान के निर्माण का एक ऐसा प्रेरणादायक अध्याय है, जिसने बघेलखण्ड को मध्यकालीन और परवर्ती भारत के मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण और सम्मानित स्थान दिलाया।

(चित्र: बघेलखण्ड राज्य के विस्तार का एक सांकेतिक मानचित्र, जो उनके प्रभाव क्षेत्र को दर्शाता है।)
1. बघेल वंश का उदय: उत्पत्ति, प्रारंभिक संघर्ष और सत्ता स्थापना
बघेल वंश की उत्पत्ति, अधिकांश राजपूत कुलों की भांति, गौरवशाली अतीत और पौराणिक मान्यताओं से जुड़ी हुई है। ऐतिहासिक रूप से, उन्हें गुजरात के प्रतापी सोलंकी (चालुक्य) राजपूतों से उद्भूत माना जाता है, जो मध्यकालीन भारत के एक शक्तिशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राजवंश थे। विभिन्न ऐतिहासिक ग्रंथों, वंशावलियों (भाटों और चारणों द्वारा संरक्षित) और लोकश्रुतियों में इस संबंध में कुछ भिन्नताएँ और अंतर्विरोध भी मिलते हैं, तथापि यह तथ्य लगभग सर्वमान्य है कि वे मूलतः सोलंकी कुल की ही एक महत्वपूर्ण और वीर शाखा थे, जो कालान्तर में स्वतंत्र रूप से विकसित हुई।
उत्पत्ति एवं व्याघ्रदेव:
डॉ. नृपेन्द्र सिंह परिहार अपने शोध में विभिन्न स्रोतों का विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बघेलखण्ड में बघेलों की स्वतंत्र सत्ता की स्थापना का श्रेय गुजरात के सोलंकी शासक वीर धवल (जिन्होंने गुजरात को बाहरी आक्रमणों से बचाया था) के वीर और महत्वाकांक्षी पुत्र 'बाघराव' (जिन्हें व्याघ्रदेव के नाम से अधिक जाना जाता है) को दिया जाता है। यद्यपि, संस्कृत के प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य "वीरभानुदय काव्यम्" (जिसकी रचना बघेल शासक भीमलदेव से संबद्ध है) में पौराणिक ऋषि व्याघ्रपाद मुनि को बघेलों का मूल पुरुष बताया गया है, तथापि अधिकांश ऐतिहासिक स्रोत, जिनमें कर्नल जेम्स टॉड जैसे इतिहासकार भी शामिल हैं, व्याघ्रदेव को ही बघेल वंश का आदि पुरुष और संस्थापक मानते हैं। कहा जाता है कि गुजरात के पराक्रमी सोलंकी शासक सिद्धराज जयसिंह (या कुछ स्रोतों के अनुसार कुमारपाल) ने 'बाघराव' की वीरता और सेवाओं से प्रसन्न होकर उन्हें व्याघ्रपल्ली ("बाघों का गाँव" या बघेला नामक गाँव) की जागीर प्रदान की थी। इसी व्याघ्रपल्ली से संबंध होने के कारण उनके वंशज "बघेल" या "वाघेला" कहलाए।
बघेलखण्ड में आगमन और प्रारंभिक सत्ता स्थापना (लगभग 1233-1245 ई.):
13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, जब उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना हो चुकी थी और गुजरात में भी राजनीतिक अस्थिरता का दौर था, लगभग 1233-34 ई. के आसपास, व्याघ्रदेव ने अपने कुछ निष्ठावान साथियों और सैनिकों के साथ गुजरात से पूर्व की ओर प्रस्थान किया। वे संभवतः एक नवीन और स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित थे। मार्ग में विभिन्न स्थानों पर पड़ाव डालते हुए और अपनी शक्ति का संचय करते हुए वे अंततः चित्रकूट के पवित्र और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र में पहुँचे। उस समय यह भूभाग किसी एक केंद्रीय सत्ता के अधीन नहीं था, बल्कि छोटी-छोटी स्थानीय शक्तियों, जनजातीय प्रमुखों और अर्ध-स्वतंत्र सामंतों के अधीन विभिन्न टुकड़ों में बंटा हुआ था। व्याघ्रदेव ने अपनी सैन्य कुशलता, संगठनात्मक क्षमता और कूटनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए इस बिखरी हुई राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाया। उन्होंने कालिंजर के निकट स्थित मरफा दुर्ग (जो चंदेलों के पतन के बाद संभवतः किसी स्थानीय सरदार के अधीन था) पर सफलतापूर्वक अधिकार कर लिया और वहाँ "बघेलवारी" नामक एक नई बस्ती बसाई, जो उनकी प्रारंभिक शक्ति का केंद्र बनी। इसके पश्चात् उन्होंने भटदेश (संभवतः भाटा या भदोही का क्षेत्र) के तत्कालीन शासक से कालिंजर का महत्वपूर्ण दुर्ग छीन लिया (यद्यपि इस पर उनका अधिकार स्थायी नहीं रहा होगा)। उन्होंने मण्डीहा (वर्तमान मानिकपुर के आसपास का क्षेत्र) के रघुवंशी राजपूत शासक को भी पराजित किया और उसके राज्य पर अपना प्रभाव स्थापित किया। गहोरा (वर्तमान उत्तर प्रदेश के बाँदा-चित्रकूट जिले की सीमा पर स्थित, कर्वी के निकट) में उस समय लोधी समुदाय का शासन था; व्याघ्रदेव ने उन्हें भी युद्ध में पराजित कर अपने अधीन कर लिया। अपनी स्थिति को और सुदृढ़ करने तथा स्थानीय समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से, उन्होंने तरौंहा (चित्रकूट के निकट) के चंद्रावत परिहार राजपूत शासक मुकुन्ददेव की सुपुत्री "सिन्दूरमती" के साथ विवाह किया, जिससे उन्हें दहेज के रूप में तरौंहा का राज्य भी प्राप्त हुआ। इन प्रारंभिक विजयों और कूटनीतिक गठबंधनों के उपरांत, व्याघ्रदेव ने अंततः गहोरा को अपनी राजधानी बनाया, जो यमुना और नर्मदा के बीच के क्षेत्र में बघेलों की शक्ति का पहला महत्वपूर्ण केंद्र बना। उनका स्वर्गवास लगभग 1245 ई. के आसपास हुआ, परन्तु वे अपने पीछे एक नवोदित राज्य और एक महत्वाकांक्षी वंश की सुदृढ़ नींव छोड़ गए थे।
व्याघ्रदेव का बघेलखण्ड में सैन्य अभियानों और कूटनीतिक विवाहों के माध्यम से आगमन एवं सत्ता स्थापना, मध्यकालीन भारत में राजपूत शक्ति के प्रसार और नवीन राज्यों के उदय की एक विशिष्ट प्रक्रिया का महत्वपूर्ण उदाहरण था। इसने न केवल स्थानीय शक्तियों को एक केंद्रीय नेतृत्व में एकीकृत करने का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि एक ऐसे सुदृढ़ राज्य की नींव भी रखी जो सदियों तक अपनी स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखने में सफल रहा।
2. प्रारंभिक बघेल शासक और राज्य विस्तार (13वीं से 15वीं शताब्दी)
व्याघ्रदेव द्वारा बघेलखण्ड में स्थापित नवोदित बघेल राज्य को उनके वीर और योग्य उत्तराधिकारियों ने न केवल बाहरी आक्रमणों और आंतरिक चुनौतियों से सुरक्षित रखा, बल्कि अपनी सैन्य शक्ति, कूटनीतिक कौशल और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से उसका शनैः-शनैः विस्तार भी किया। इस काल में गहोरा के साथ-साथ सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बांधवगढ़ का किला भी बघेलों का एक प्रमुख शक्ति केंद्र बनकर उभरा, जिसने राज्य की सुरक्षा और विस्तार में निर्णायक भूमिका निभाई।
करणदेव (कर्णदेव) (लगभग 1245-1260 ई.):
व्याघ्रदेव के ज्येष्ठ पुत्र, करणदेव (जिन्हें कुछ स्रोतों में कर्णदेव भी कहा गया है), अपने पिता के उत्तराधिकारी बने और उन्होंने गहोरा को ही अपनी राजधानी बनाए रखा। उन्होंने अपने पिता द्वारा स्थापित राज्य को सुसंगठित करने का प्रयास किया। उनका विवाह त्रिपुरी के कल्चुरी राजवंश की राजकुमारी पद्मकुँवरि के साथ हुआ था। यह विवाह एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक गठबंधन था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें दहेज के रूप में विंध्याचल पर्वत श्रृंखला में स्थित, अभेद्य माना जाने वाला बांधवगढ़ का विशाल किला प्राप्त हुआ। बांधवगढ़ के किले में उन्होंने 'करणपाल दरवाजा' (करण द्वारा निर्मित द्वार) नामक एक प्रवेश द्वार का निर्माण करवाया, जो आज भी उनके नाम का स्मरण कराता है। इस महत्वपूर्ण किले के अधिपत्य से बघेलों की सैन्य शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हुई। करणदेव ने अपने राज्य का विस्तार बांधवगढ़ क्षेत्र और उसके आसपास के कैमोर पठार तक सफलतापूर्वक किया।
सोहागदेव (लगभग 1260-1300 ई.):
करणदेव के उपरांत उनके पुत्र सोहागदेव ने बघेल राज्य का शासन संभाला। उन्होंने राज्य के दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में विस्तार करने पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने अपने नाम पर सोहागपुर (वर्तमान शहडोल जिला) नामक एक नया नगर बसाया और वहाँ सिंचाई तथा पेयजल की सुविधा के लिए अनेक जलाशयों का निर्माण करवाया। कहा जाता है कि उन्होंने महाभारतकालीन प्राचीन विराट नगरी (संभवतः वर्तमान शहडोल के आसपास स्थित) का जीर्णोद्धार भी करवाया था, जो उनके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व के प्रति रुझान को दर्शाता है।
सारंगदेव (लगभग 1300-1320 ई.):
सोहागदेव के पश्चात् सारंगदेव बघेल राजगद्दी पर आसीन हुए। उनके शासनकाल की एक महत्वपूर्ण घटना बांधवगढ़ के किले पर चंदेलों के एक सामंत (संभवतः ऊदल या उसके वंशज) के आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिरोध करना था। उन्होंने न केवल इस आक्रमण को विफल किया बल्कि चंदेल सामंत को पराजित भी किया। बांधवगढ़ किले में आज भी "ऊदल की कोठरी" नामक एक स्थान विद्यमान है, जो इस घटना से जुड़ा हो सकता है। इस विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने "संग्राम सिंह" (युद्ध में सिंह के समान वीर) की गौरवपूर्ण उपाधि धारण की।
बांधवगढ़ के दुर्ग का बघेलों के अधिकार में आना उनके राज्य के लिए एक युगांतकारी घटना थी। इसकी अभेद्यता और सामरिक अवस्थिति ने बघेल शासकों की सैन्य कुशलता और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को एक नई उड़ान दी, जिससे राज्य को प्रारंभिक चुनौतियों से उबरने और विस्तार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विलासदेव (भिलारदेव) एवं भीमलदेव (14वीं शताब्दी का मध्य):
सारंगदेव के बाद विलासदेव (जिन्हें कुछ स्रोतों में भिलारदेव भी कहा गया है) शासक बने। कहा जाता है कि उन्होंने दक्षिण की ओर अपने राज्य का विस्तार करते हुए वर्तमान छत्तीसगढ़ में “बिलासपुर” शहर की नींव रखी थी, जो आज एक प्रमुख नगर है (यद्यपि इस दावे की पुष्टि के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है)। उनके पुत्र, भीमलदेव, संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान और कवि थे। उन्होंने बघेल वंश के इतिहास और अपने पूर्वजों की वीरगाथाओं का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य “वीरभानूदय काव्यम्” की रचना की (या अपने आश्रित कवि द्वारा करवाई), जो बघेल राजवंश के प्रारंभिक इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और विश्वसनीय साहित्यिक स्रोत माना जाता है।
अनिकदेव से बल्लारदेव तक की श्रृंखला (14वीं शताब्दी का उत्तरार्ध से 15वीं शताब्दी का प्रारंभ):
भीमलदेव के पश्चात् बघेल वंश में कई शासकों का उल्लेख मिलता है, जिनके शासनकाल की विस्तृत जानकारी का अभाव है, परन्तु उनके नाम वंशावलियों और कुछ स्थानीय स्रोतों में मिलते हैं। इनमें अनिकदेव (जिन्हें रनिकदेव भी कहा गया है), उनके उपरांत वलनदेव, उनके पुत्र दलकेश्वरदेव (जिन्होंने संभवतः कालिंजर के किले पर पुनः कुछ समय के लिए अधिकार किया था) और फिर मलकेश्वरदेव (जिन्होंने मनगवाँ के सेंगर राजपूतों को पराजित कर उनके क्षेत्र पर अधिकार किया था) प्रमुख शासक बने। इनके बाद वरियारदेव (या वीरराजदेव) और फिर बल्लारदेव का शासन रहा। बल्लारदेव दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश के शासक फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे। उन्होंने "महाराजाधिराज" जैसी प्रतिष्ठित उपाधि धारण की थी, जो उनकी बढ़ती हुई शक्ति और स्वतंत्रता का परिचायक है। उनकी धर्मपरायण पत्नी, रानी राजला देवी, ने गहोरा में एक विशाल तालाब और शीतला माता के मंदिर का निर्माण करवाया था, जो उनकी लोककल्याणकारी और धार्मिक भावना को दर्शाता है।
सिंह देव एवं भैरम देव (वीरमदेव) (लगभग 1360-1425 ई.):
बल्लारदेव के उपरांत संभवतः सिंह देव शासक बने, जिनका चंदेलों के साथ संघर्ष का उल्लेख मिलता है। बल्लारदेव के पौत्र, वीरमदेव (जिन्हें भैरम देव के नाम से भी जाना जाता है), एक पराक्रमी और महत्वाकांक्षी शासक सिद्ध हुए। उन्होंने हुण्डा राज्य (संभवतः गोंडवाना का कोई छोटा राज्य) और नरोगढ़ (अज्ञात स्थान) के किले को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। वे कालपी, नागौद, मालवा, जौनपुर सल्तनत और दिल्ली सल्तनत के समकालीन थे और इन शक्तियों के साथ उनके संबंध जटिल और परिवर्तनशील रहे होंगे।
नरहरिदेव (लगभग 1425-1470 ई.):
भैरम देव के पुत्र, नरहरिदेव, ने अपने पिता द्वारा विस्तारित राज्य को और सुदृढ़ किया। कहा जाता है कि उनके राज्य का विस्तार पिपरी (सोनभद्र क्षेत्र) और पूर्व में जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) की सीमाओं तक पहुँच गया था, यद्यपि यह अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, परन्तु यह उनके प्रभाव क्षेत्र के विस्तार का संकेत अवश्य देता है। उनके मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी प्रथम और जौनपुर के सुल्तान महमूद शर्की के साथ कूटनीतिक और कभी-कभी संघर्षपूर्ण संबंध रहे।
3. बघेल शासन का सुदृढ़ीकरण और मुगल काल से संबंध (15वीं शताब्दी के अंत से 17वीं शताब्दी)
पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक का काल बघेल शासकों के लिए अपनी राजनीतिक और सैन्य शक्ति को और अधिक सुदृढ़ करने, राज्य की सीमाओं का विस्तार करने, और उत्तर भारत की प्रमुख शक्तियों, विशेषकर दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश और तत्पश्चात नवोदित मुगल साम्राज्य के साथ जटिल और महत्वपूर्ण राजनीतिक तथा कूटनीतिक संबंधों का सफलतापूर्वक निर्वहन करने का काल था। इस दौर ने बघेल राज्य को मुगल काल में एक विशिष्ट और सम्मानित स्थान दिलाने की पृष्ठभूमि तैयार की।

(चित्र: कालिंजर का किला, जिस पर बघेल शासकों का प्रभाव रहा और जो उनके राज्य के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था।)
भीरदेव (भैदचन्द्र) (1470-1495 ई.):
महाराज नरहरिदेव के उपरांत उनके पुत्र भीरदेव (जिन्हें भैदचन्द्र या राजा भीट के नाम से भी जाना जाता है) बघेल राजगद्दी पर आसीन हुए। इनके शासनकाल से बघेल राजवंश का सुस्पष्ट और अधिक विश्वसनीय ऐतिहासिक विवरण प्राप्त होने लगता है। वे दिल्ली के लोदी वंश के संस्थापक सुल्तान बहलोल खाँ लोदी के समकालीन थे। समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने उन्हें अपनी रचनाओं में प्रायः 'राजा भीट' या 'पन्ना नरेश' (संभवतः कालिंजर के निकट पन्ना क्षेत्र पर भी उनका प्रभाव होने के कारण) के रूप में उल्लेखित किया है। उनके राज्य का विस्तार काफी व्यापक था, जिसमें अरैल (इलाहाबाद के निकट), कंतित (मिर्जापुर क्षेत्र), गहोरा, कालिंजर का महत्वपूर्ण दुर्ग, सरगुजा (वर्तमान छत्तीसगढ़) का कुछ भाग और बांधवगढ़ का अभेद्य किला शामिल थे। यह विस्तृत राज्य उन्हें तत्कालीन मध्य भारत के एक शक्तिशाली शासक के रूप में स्थापित करता है।
शालिवाहन देव (1495-1500 ई.):
भैदचन्द्र के पुत्र, शालिवाहन देव, का शासनकाल अल्प रहा परन्तु एक महत्वपूर्ण घटना के लिए स्मरणीय है। उन्होंने जौनपुर के अपदस्थ शर्की सुल्तान, हुसैनशाह शर्की को, जो दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी से पराजित होकर भाग रहा था, अपने राज्य में शरण दी थी। इस कृत्य से क्रुद्ध होकर दिल्ली के शक्तिशाली सुल्तान सिकन्दर लोदी ने 1499 ई. में बघेल राज्य की तत्कालीन राजधानी बांधवगढ़ पर एक विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। परन्तु, बांधवगढ़ दुर्ग की अभेद्यता और बघेल सेना के वीरतापूर्ण प्रतिरोध के कारण सिकन्दर लोदी को कई महीनों के घेरे के बाद भी सफलता नहीं मिली और उसे निराश होकर वापस लौटना पड़ा।
सिकंदर लोदी जैसे महत्वाकांक्षी और शक्तिशाली सुल्तान के आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिरोध करना न केवल बघेलों की बढ़ती हुई सैन्य शक्ति और उनके अदम्य साहस का प्रमाण था, बल्कि इसने बांधवगढ़ दुर्ग की सामरिक अभेद्यता को भी पूरे उत्तर भारत में स्थापित कर दिया।
वीरसिंह देव (1500-1540 ई.):
शालिवाहन देव के उपरांत उनके पुत्र वीरसिंह देव ने बघेल राज्य का शासन संभाला। वे एक पराक्रमी और दूरदर्शी शासक थे। उन्होंने अपने नाम पर बिरसिंहपुर (वर्तमान पाली, जिला उमरिया, जो बिरसिंहपुर पाली के नाम से प्रसिद्ध है, न कि सतना जिले का बिरसिंहपुर) नामक एक महत्वपूर्ण नगर बसाया और उसे अपनी एक प्रशासनिक इकाई बनाया। उनके शासनकाल में बघेल राज्य का विस्तार पूर्व में रतनपुर (छत्तीसगढ़), दक्षिण में गढ़ा-मण्डला (गोंडवाना राज्य की सीमा तक), पश्चिम में भरो (स्थानीय जनजातीय क्षेत्र) और उत्तर-पूर्व में छोटा नागपुर के पठारी क्षेत्रों तक हो गया था। उनके पास एक विशाल और सुसंगठित सेना थी, जिसमें विशेष रूप से प्रशिक्षित और तीव्रगामी घुड़सवार दस्ते शामिल थे, जो उनकी सैन्य सफलताओं का एक प्रमुख कारण थे। उनका विवाह उत्कल (उड़ीसा) के गजपति राजवंश की राजकुमारी कुलपालिका देवी से हुआ था, जो उनके कूटनीतिक संबंधों के विस्तार को दर्शाता है।
वीरभानु (1540-1555 ई.):
वीरसिंह देव के सुयोग्य पुत्र, वीरभानु, एक विद्वान और न्यायप्रिय शासक के रूप में विख्यात हुए। उन्हें तर्कशास्त्र, वेदान्त दर्शन, पुराणों और दण्डनीति (राजनीति शास्त्र) का गहन ज्ञान था। उनके शासनकाल में बघेल राज्य की सीमाएँ उत्तर में प्रयाग (इलाहाबाद) से लेकर दक्षिण में अमरकंटक की पवित्र पहाड़ियों तक, और पश्चिम में पन्ना से लेकर पूर्व में मिर्जापुर की सीमाओं तक विस्तृत थीं। उनके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना मुगल बादशाह हुमायूँ को, जो कन्नौज के युद्ध में शेरशाह सूरी से पराजित होकर निष्कासित जीवन व्यतीत कर रहे थे, सहायता और शरण प्रदान करना था। इस घटना का विस्तृत उल्लेख हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम द्वारा रचित प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ "हुमायूँनामा" में मिलता है, जो बघेल शासकों की शरणागत वत्सलता और राजनीतिक सूझबूझ का प्रमाण है।
रामचन्द्र (1555-1592 ई.):
वीरभानु के पुत्र, महाराजा रामचन्द्र, बघेल राजवंश के सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली शासकों में से एक हुए। वे मुगल सम्राट अकबर के समकालीन थे और उनके साथ उनके मैत्रीपूर्ण तथा सम्मानजनक संबंध थे। उन्होंने अफगान सरदार इब्राहिम शाह सूर को पराजित कर अपनी सैन्य क्षमता का परिचय दिया। उन्होंने कालिंजर का महत्वपूर्ण दुर्ग क्रय कर (या जीतकर) अपने राज्य में मिलाया। कड़ा-मानिकपुर के विद्रोही मुगल सूबेदार गाजी खाँ तन्नौरी को शरण देना उनके राजनीतिक साहस और स्वतंत्र निर्णय क्षमता को दर्शाता है। उनके दरबार की सबसे बड़ी विभूति भारतीय संगीत के सम्राट मियाँ तानसेन (मूल नाम रामतनु पाण्डेय) थे, जिन्हें महाराजा रामचन्द्र ने अपने दरबार में सर्वोच्च स्थान और संरक्षण प्रदान किया था। बाद में, सम्राट अकबर के विशेष अनुरोध और राजा बीरबल की मध्यस्थता से, महाराजा ने भारी मन से तानसेन को मुगल दरबार में भेजा था। इस घटना ने बघेल राज्य और मुगल साम्राज्य के बीच एक स्थायी सांस्कृतिक और राजनीतिक सेतु का निर्माण किया। अकबर के नवरत्नों में से एक, राजा बीरबल (मूल नाम महेश दास), का जन्म भी वर्तमान सीधी जिले के घोघरा गाँव में हुआ माना जाता है, जो उस समय बघेल राज्य का ही हिस्सा हो सकता था, और उनका रीवा दरबार से गहरा जुड़ाव था।
वीरभद्र (1592-1593 ई.):
महाराजा रामचन्द्र के पुत्र वीरभद्र का शासनकाल अत्यंत अल्प रहा। वे एक विद्वान राजकुमार थे और उन्होंने "कंदर्प चिंतामणि" नामक ग्रंथ की रचना भी की थी। दिल्ली स्थित मुगल दरबार से लौटते समय मार्ग में पालकी टूटने से उन्हें गंभीर चोटें आईं, जिसके परिणामस्वरूप एक वर्ष से भी कम समय के संक्षिप्त शासनकाल के बाद ही उनका असामयिक स्वर्गवास हो गया।
विक्रमादित्य (1593-1624 ई.):
वीरभद्र के असामयिक निधन के पश्चात् उनके अल्पवयस्क पुत्र विक्रमादित्य (जिन्हें कुछ स्रोतों में विक्रमजीत भी कहा गया है) बघेल राजवंश के उत्तराधिकारी बने। उनकी अल्पायु के कारण कुछ समय तक राज्य का प्रशासन मुगल हाकिमों (अधिकारियों) के अधीन रहा। सन् 1597 में सम्राट अकबर द्वारा उन्हें दिल्ली दरबार में बुलाया गया, जहाँ उनकी योग्यता और निष्ठा से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें विधिवत् रूप से उनके पैतृक राज्य का शासक स्वीकार कर लिया और राज्य उन्हें वापस सौंप दिया गया। उनके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम वाली घटना बघेल राज्य की राजधानी का सामरिक रूप से सुदृढ़ किन्तु अपेक्षाकृत दुर्गम बांधवगढ़ से मैदानी और अधिक केंद्रीय स्थिति वाले रीवा नगर में स्थानांतरित किया जाना था। यह ऐतिहासिक स्थानांतरण लगभग 1618 ई. के आसपास हुआ माना जाता है। इसके पीछे प्रशासनिक सुविधा, बढ़ते राज्य के लिए एक अधिक केंद्रीय स्थान की आवश्यकता, व्यापारिक मार्गों पर बेहतर नियंत्रण की आकांक्षा, अथवा एक प्रसिद्ध लोककिंवदंती (जिसके अनुसार एक शिकार यात्रा के दौरान उनके शिकारी कुत्तों का एक खरगोश द्वारा सामना किए जाने की घटना ने उन्हें इस स्थान के वीर्य और भविष्य की संभावनाओं से प्रभावित किया) जैसे कई कारण हो सकते हैं। महाराज विक्रमादित्य का शासनकाल दिल्ली के मुगल सम्राट जहाँगीर के समकालीन था, और उनके समय में रीवा राज्य ने मुगल दरबार के साथ अपने संबंधों को बनाए रखा।
एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला
विशेष सूचना: ऐतिहासिक श्रृंखला
यह विस्तृत संस्करण "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" नामक हमारी महत्वाकांक्षी ऐतिहासिक श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो विशेष रूप से बघेल राजवंश के मध्यकालीन उत्कर्ष, उनके गौरवशाली शासनकाल, उनकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और मुगल साम्राज्य के साथ उनके जटिल तथा बहुआयामी संबंधों पर केंद्रित है। इस गूढ़ और विस्तृत विषय पर हमारी समर्पित शोध टीम द्वारा लगभग दस भागों की एक व्यापक श्रृंखला प्रकाशित करने की महत्वाकांक्षी योजना है, जिसमें प्रत्येक ऐतिहासिक कालखंड, महत्वपूर्ण घटना, प्रमुख व्यक्तित्व और सांस्कृतिक विकास का गहन, निष्पक्ष और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाएगा। हम आपसे, हमारे प्रबुद्ध और जिज्ञासु पाठकों से, विनम्र अनुरोध करते हैं कि आप इस श्रृंखला के सभी भागों को धैर्यपूर्वक और मनोयोग से पढ़ें, उन पर गहन चिंतन करें और अपने बहुमूल्य विचार, सारगर्भित सुझाव, तथ्यात्मक सुधार (यदि कोई हों) एवं रचनात्मक प्रतिक्रियाएं हमें अवश्य साझा करें, ताकि हम इस ऐतिहासिक शोध को और भी उन्नत, व्यापक, तथ्यात्मक रूप से सुदृढ़ और त्रुटिरहित बना सकें। आपकी सक्रिय बौद्धिक सहभागिता और सकारात्मक प्रतिसाद हमारे इन शोध प्रयासों को सार्थकता और एक नवीन स्फूर्ति प्रदान करेगी।
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4. रीवा राजधानी के बघेल शासक और रियासती दौर (17वीं से 20वीं शताब्दी)
रीवा को एक सुव्यवस्थित राजधानी के रूप में स्थापित करने के बाद, बघेल शासकों ने आगामी तीन शताब्दियों तक मुगल साम्राज्य की घटती-बढ़ती शक्ति, मराठाओं के उत्थान और उनके आक्रमणों, तथा अंततः ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के क्रमिक प्रसार और स्थापना के चुनौतीपूर्ण दौर में अपने राज्य के अस्तित्व और अपनी रियासत की आंतरिक स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए निरंतर संघर्ष और कूटनीतिक प्रयास किए। यह लंबा और घटनापूर्ण दौर अनेक राजनीतिक उतार-चढ़ावों, सैन्य संघर्षों, प्रशासनिक सुधारों, सांस्कृतिक उपलब्धियों और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं से भरा रहा, जिसने रीवा रियासत के चरित्र और भविष्य को निर्णायक रूप से गढ़ा।

(चित्र: रीवा रियासत के प्रतापी शासकों का एक प्रतीकात्मक चित्रण, जिन्होंने सदियों तक राज्य का नेतृत्व किया।)
अमर सिंह (1624-1640 ई.):
महाराज विक्रमादित्य के उपरांत उनके पुत्र अमर सिंह ने रीवा की राजगद्दी संभाली। उनके मुगल सम्राट जहाँगीर और तत्पश्चात शाहजहाँ के साथ सामान्यतः अच्छे और सम्मानजनक संबंध बने रहे। उन्होंने ओरछा के विद्रोही बुंदेला शासक जुझारू सिंह के विरुद्ध मुगल सेना का साथ देकर अपनी निष्ठा प्रदर्शित की थी, जिसके फलस्वरूप उन्हें मुगल दरबार में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा और प्रशासनिक नियंत्रण को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से अमरपाटन (वर्तमान सतना जिला) नामक स्थान पर एक सुदृढ़ गढ़ी (छोटा किला) और एक विशाल तालाब का निर्माण करवाया, जो आज भी उनके नाम का स्मरण कराते हैं। वे साहित्य और कला के भी संरक्षक थे, और उनके दरबारी कवि नीलकण्ठ द्वारा रचित प्रसिद्ध ऐतिहासिक-काव्य ग्रन्थ "अमररेश विलास" उनके शासनकाल की घटनाओं, बघेल वंश की प्रशस्ति और तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है।
अनूप सिंह (1640-1660 ई.):
अमर सिंह के उपरांत उनके पुत्र अनूप सिंह अल्पायु में ही गद्दी पर बैठे। उनके शासनकाल में मुगल बादशाह शाहजहाँ का शासन था। उनके प्रारंभिक वर्षों में, ओरछा के पहार सिंह बुन्देला (जुझारू सिंह के भाई और मुगल समर्थक) ने, संभवतः अपनी शक्ति का विस्तार करने या पुराने बैर का बदला लेने के उद्देश्य से, रीवा राज्य पर आक्रमण किया। इस आकस्मिक संकट के समय युवा महाराज अनूप सिंह को अपनी सुरक्षा के लिए सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण और अभेद्य माने जाने वाले बांधवगढ़ के प्राचीन किले में शरण लेनी पड़ी। परन्तु, रीवा की वीर सेना ने, स्थानीय सरदारों और जागीरदारों के सहयोग से, बुंदेलों के आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया और उन्हें पराजित कर दिया। इस विजय के उपरांत, महाराज अनूप सिंह ने दिल्ली जाकर सम्राट शाहजहाँ से भेंट की। सम्राट ने उनके शौर्य और निष्ठा का सम्मान करते हुए उन्हें "सेह-हुजूरी” (अर्थात् वह सम्मानित व्यक्ति जिसे शाही दरबार में तीन बार उपस्थित होने और अपने विचार रखने का विशेष अधिकार हो) की प्रतिष्ठित उपाधि से नवाजा। महाराज अनूप सिंह ने अपने राज्य के दक्षिणी क्षेत्र में, जो संभवतः नवविजित या अल्पविकसित था, अपने नाम पर अनूपपुर नामक एक नया कस्बा बसाया, जो आज एक महत्वपूर्ण जिला मुख्यालय है और उनकी दूरदर्शिता तथा राज्य विस्तार की नीति का प्रमाण है।
भाव सिंह (1660-1690 ई.):
महाराज अनूप सिंह के उपरांत उनके पुत्र, भाव सिंह, रीवा की राजगद्दी पर आसीन हुए। वे संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान, कला-प्रेमी और अत्यंत धर्मनिष्ठ शासक थे। उनकी गहरी रुचि आध्यात्मिकता, धार्मिक अनुष्ठानों, साहित्यिक गतिविधियों और जनकल्याणकारी कार्यों में थी। उन्होंने "बघेलवंशवर्णनम्" जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक काव्य के रचयिता कवि रूपणि शर्मा को अपने दरबार में सम्मानजनक आश्रय प्रदान किया। उनके दरबार में बालकृष्ण सूरि, किशोर, गोवर्धन बाजपेयी जैसे अनेक उद्भट विद्वान, कवि और कलाकार सभासद के रूप में शोभायमान थे, जो उनके शासनकाल की बौद्धिक और सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाते हैं। यह आश्चर्यजनक है कि मुगल सम्राट औरंगजेब, जो अपनी धार्मिक कट्टरता और राजपूतों के प्रति कठोर नीति के लिए जाना जाता था, के साथ भी महाराज भाव सिंह ने बुद्धिमत्तापूर्वक मित्रतापूर्ण और सम्मानजनक संबंध बनाए रखे, जो उनकी असाधारण कूटनीतिक निपुणता का प्रमाण है। उन्होंने स्वयं संस्कृत भाषा में “हौत्र कल्पद्रुम” नामक एक महत्वपूर्ण साहित्यिक एवं धार्मिक ग्रन्थ की रचना की, जो यज्ञ-पद्धति और कर्मकांड पर आधारित है तथा उनकी गहन विद्वता और शास्त्रीय ज्ञान को दर्शाता है। वे भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त थे और उन्होंने अपने जीवनकाल में तीन बार सुदूर जगन्नाथ पुरी की कठिन तीर्थयात्रा की, तथा वहाँ से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विग्रह (मूर्तियाँ) लाकर मुकुन्दपुर, कोटर और रीवा में भव्य मंदिरों में प्रतिष्ठित करवाए। उनके शासनकाल का एक सबसे महत्वपूर्ण और स्थायी निर्माण रीवा नगर के हृदय में स्थित प्रसिद्ध महामृत्युंजय मन्दिर है, जो आज भी लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है और अपनी विशिष्ट स्थापत्य शैली तथा पौराणिक महत्व के लिए जाना जाता है। रीवा किले के भीतर भी उन्होंने कलात्मक 'लम्बा घर' (दीवान-ए-आम या खास) और भव्य 'मोती महल' जैसे महत्वपूर्ण भवनों का निर्माण करवाया, जो बघेल वास्तुकला के सुंदर उदाहरण हैं। उनकी प्रमुख महारानी, मेवाड़ (चित्तौड़) की सिसोदिया राजकुमारी अजबकुँवरि, भी अत्यंत धर्मपरायण और जनकल्याणकारी थीं। उन्होंने रीवा में प्रसिद्ध रानी तालाब का निर्माण करवाया, जिसके किनारे उन्होंने शारदा मंदिर और शिव मंदिर भी बनवाया, जो आज भी नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं। रीवा का एक पुराना मोहल्ला "नृपरनियाँ" (राजा की रानी) उन्हीं के नाम पर आज भी प्रसिद्ध है। दुर्भाग्यवश, महाराज भाव सिंह निःसंतान थे, जिसके कारण उनके जीवन के अंतिम वर्षों में उत्तराधिकार का प्रश्न जटिल हो गया और राज्य में कुछ समय के लिए अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो गई।
महाराज भाव सिंह का शासनकाल रीवा के इतिहास में न केवल राजनीतिक स्थिरता और प्रशासनिक कुशलता का काल था, बल्कि यह धार्मिक सहिष्णुता, गहन सांस्कृतिक समृद्धि, साहित्यिक उत्कर्ष और अद्वितीय स्थापत्य कला के विकास का भी एक ऐसा प्रतीक है, जिसका ज्वलंत प्रमाण विश्व प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर और ऐतिहासिक रानी तालाब आज भी पूरी जीवंतता के साथ देते हैं।
अनिरूद्ध सिंह (1690-1700 ई.):
महाराज भाव सिंह ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने भतीजे (भाई यशवन्त सिंह के पुत्र) अनिरूद्ध सिंह को अपना विधिवत् उत्तराधिकारी चुना था। उनका शासनकाल अल्प रहा और दुःखद घटनाओं से भरा रहा। उनके समय में मऊ (वर्तमान मऊगंज) क्षेत्र के शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी सेंगर राजपूतों ने, जो संभवतः अपनी खोई हुई स्वायत्तता पुनः प्राप्त करना चाहते थे या बघेल सत्ता को चुनौती देना चाहते थे, विद्रोह कर दिया। कहा जाता है कि संधि और शांति वार्ता के धोखे में मऊ के सेंगर सरदारों द्वारा उनकी निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई, जब वे निहत्थे थे। इस विश्वासघात और नृशंस हत्या के पश्चात्, रीवा की क्रुद्ध सेना ने सेंगरों पर भीषण आक्रमण कर उन्हें पराजित किया और विद्रोह को कठोरतापूर्वक कुचल दिया, परन्तु राज्य ने एक युवा और সম্ভাবনাময় शासक को असमय ही खो दिया, जिससे राज्य में पुनः अस्थिरता का संकट उत्पन्न हो गया।
अवधूत सिंह (1700-1755 ई.):
अनिरूद्ध सिंह की असामयिक और त्रासद मृत्यु के समय उनके पुत्र अवधूत सिंह मात्र छः माह के नवजात शिशु थे। इस अत्यंत संकटपूर्ण और विषम परिस्थिति में, राजमाता (अनिरूद्ध सिंह की विधवा रानी) ने अपने नवजात पुत्र की सुरक्षा और प्राणरक्षा के लिए उन्हें लेकर प्रतापगढ़ (संभवतः अवध क्षेत्र में स्थित उनका मायका) में अपने पितृ-परिवार के पास संरक्षण प्राप्त किया। इस दौरान रीवा राज्य का शासन मंत्री हृदयराम सुरकी और अन्य निष्ठावान बघेल सरदारों तथा अधिकारियों द्वारा राजमाता के कुशल मार्गदर्शन और परामर्श से चलाया गया। इस राजनीतिक अस्थिरता और नेतृत्वविहीनता का लाभ उठाकर पन्ना के तत्कालीन शक्तिशाली बुन्देला शासक महाराजा हृदे शाह (हृद्यशाह) ने रीवा पर आक्रमण कर दिया और राजधानी पर कुछ समय के लिए अधिकार भी कर लिया। बाद में, युवा महाराज अवधूत सिंह ने, वयस्क होने पर, तत्कालीन मुगल सम्राट बहादुरशाह प्रथम (जिन्हें शाह आलम प्रथम के नाम से भी जाना जाता है) से सैन्य सहायता प्राप्त की और अपनी खोई हुई राजधानी रीवा को बुंदेलों के आधिपत्य से पुनः प्राप्त करने में अंततः सफल रहे। यह घटना दर्शाती है कि 18वीं सदी के प्रारंभ में भी, यद्यपि मुगल सत्ता काफी कमजोर हो चुकी थी, तथापि उसका कुछ हद तक राजनीतिक प्रभाव और हस्तक्षेप क्षेत्रीय राज्यों के आंतरिक मामलों तथा शक्ति संतुलन पर बना हुआ था।
अजीत सिंह (1755-1809 ई.):
महाराज अवधूत सिंह के सुपुत्र, अजीत सिंह, एक विद्वान और कूटनीतिज्ञ शासक थे, जिन्हें संस्कृत एवं फारसी भाषाओं का अच्छा ज्ञान था, जो तत्कालीन राजसी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग था। उनका लंबा शासनकाल भारतीय इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण और उथल-पुथल भरे संक्रमण काल का साक्षी रहा, जिसमें मुगल सत्ता का तीव्र गति से पतन हो रहा था, मराठा शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर थी, और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी एक प्रमुख राजनीतिक और सैन्य शक्ति के रूप में तेजी से अपने पैर पसार रही थी। उनके शासनकाल की एक अविस्मरणीय और ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण घटना सन् 1758 के आसपास घटी, जब तत्कालीन मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय (जिनका प्रारंभिक नाम अली गौहर था), जो राजनीतिक षड्यंत्रों, अफगान आक्रमणों (अहमद शाह अब्दाली) और अपने ही वजीरों की गद्दारी के कारण दिल्ली के सिंहासन से च्युत होकर वस्तुतः एक राज्यहीन और असहाय स्थिति में दर-दर भटकने को विवश हुए थे, को महाराजा अजीत सिंह ने रीवा रियासत के मुकुन्दपुर की सुदृढ़ गढ़ी में ससम्मान और सुरक्षित शरण प्रदान की। यहीं, मुकुन्दपुर में, उनके प्रवास के दौरान उनके पुत्र (जो बाद में अकबर द्वितीय के नाम से दिल्ली के नाममात्र के मुगल सम्राट बने) का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को हुआ था। यह ऐतिहासिक घटना न केवल बघेल शासकों की परंपरागत शरणागत वत्सलता, उनकी उदारता और प्राचीन भारतीय नैतिक मूल्यों के प्रति उनकी गहरी आस्था का एक उत्कृष्ट और जीवंत प्रमाण है, बल्कि यह उस काल की चरम राजनीतिक अनिश्चितता और मुगल वंश की दयनीय तथा पतनशील स्थिति को भी स्पष्ट रूप से दर्शाती है।
जय सिंह (1809-1833 ई.) एवं विश्वनाथ सिंह (1833-1854 ई.):
महाराजा अजीत सिंह के उपरांत उनके पुत्र जय सिंह रीवा की राजगद्दी पर बैठे। उनके शासनकाल में ही रीवा रियासत का ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ औपचारिक और संधिबद्ध संबंध प्रारंभ हुआ (1812 की सहायक संधि)। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी, महाराजा विश्वनाथ सिंह, ने अपने शासनकाल में रियासत की आंतरिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने, राजस्व प्रणाली में सुधार लाने और स्थानीय शक्तिशाली इलाकेदारों (जैसे मऊगंज और नईगढ़ी के विद्रोही ठाकुर) को नियंत्रित करने पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने राज्य की आय बढ़ाने और व्यापार को नियमित करने के उद्देश्य से परमिट तथा आबकारी विभाग की भी स्थापना की, जो एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार था।
रघुराज सिंह (1854-1880 ई.):
महाराजा विश्वनाथ सिंह के सुपुत्र, रघुराज सिंह, एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी, विद्वान (संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी के ज्ञाता) और कला-प्रेमी शासक थे। उन्होंने शतरंज के एक नवीन और जटिल स्वरूप "दशघरा शतरंज" का आविष्कार किया और भक्ति तथा नीति से परिपूर्ण “जगदीश शतक” नामक काव्य ग्रंथ की रचना भी की। उन्होंने रीवा में लक्ष्मणबाग परिसर में भव्य मंदिरों की स्थापना करवाई। उन्होंने अपने शासनकाल में सुरम्य गोविन्दगढ़ नगर बसाया और वहाँ 'विश्वनाथ सागर' नामक विशाल तालाब खुदवाया। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विकट समय में, उन्होंने ऊपरी तौर पर ब्रिटिश सरकार का साथ दिया और अपनी सेना अंग्रेजों की सहायता के लिए भेजी, जिसके बदले में उन्हें सोहागपुर और अमरकण्टक का क्षेत्र तथा के.जी.सी.एस.आई. की उपाधि मिली। हालांकि, स्थानीय जनश्रुतियों और कुछ परोक्ष ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, वे अंदर से भारतीय विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति रखते थे और उन्होंने ठाकुर रणमत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को अप्रत्यक्ष रूप से सहायता भी प्रदान की थी। दुर्भाग्यवश, रियासत में बढ़ते वित्तीय कुप्रबंधन के कारण 1875 में उन्हें राज्य का सम्पूर्ण प्रबंध कुछ शर्तों के साथ ब्रिटिश सरकार को सौंपना पड़ा।
वेंकटरमण सिंह (1880-1918 ई.):
महाराज रघुराज सिंह के उपरांत उनके अल्पायु पुत्र वेंकटरमण सिंह गद्दी पर बैठे। उनके वयस्क होने तक रियासत का शासन ब्रिटिश सुपरिटेण्डेन्ट द्वारा संचालित होता रहा। उनके शासनकाल में राज्य का प्रथम विस्तृत सर्वे बन्दोबस्त करवाया गया। रीवा नगर के सौंदर्यीकरण और आधुनिकीकरण पर विशेष ध्यान दिया गया; भव्य “वेंकट भवन”, गोला घर, राजनिवास, कचहरी भवन, पीली कोठी जैसी इमारतों का निर्माण हुआ। उन्होंने रीवा स्टेट आर्मी का आधुनिकीकरण किया और “बघेलखण्ड नाटक कम्पनी” की स्थापना को प्रोत्साहित किया। स्वयं उन्होंने "भजनावली" नामक भक्ति काव्य की रचना की। प्रथम विश्वयुद्ध में उन्होंने अंग्रेजों को भरपूर सहायता प्रदान की।
गुलाब सिंह (1918-1946 ई.):
महाराज वेंकटरमण सिंह के पुत्र महाराज गुलाब सिंह एक दूरदर्शी, प्रगतिशील विचारों वाले, कुशल प्रशासक, समाज सुधारक और गहरी स्वदेशी भावना से ओतप्रोत शासक थे। वे भारत के उन गिने-चुने नरेशों में से थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन काल में ही अपने राज्य में उत्तरदायी लोकप्रिय सरकार की स्थापना की साहसिक घोषणा की थी। वे महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों से गहरे प्रभावित थे और उन्होंने अपने राज्य में स्वदेशी (विशेषकर "रिमही गजी" या स्थानीय खद्दर) को बढ़ावा दिया, हरिजनोद्धार के कार्य किए और शिक्षा के प्रसार पर बल दिया। उनके इन राष्ट्रवादी और सुधारवादी कदमों के कारण वे स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन बने और अंततः उन्हें पद छोड़ने पर विवश होना पड़ा।
मार्तण्ड सिंह (1946-1948 ई. शासक के रूप में):
महाराज गुलाब सिंह के पुत्र, महाराजा मार्तण्ड सिंह, बघेल राजवंश के अंतिम शासक सिद्ध हुए। उनकी शिक्षा-दीक्षा आधुनिक परिवेश में हुई थी और वे बदलते समय की चुनौतियों से भली-भाँति परिचित थे। भारत की स्वतंत्रता के उपरांत, उन्होंने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए रीवा रियासत के भारतीय संघ में विलय के प्रपत्र पर हस्ताक्षर किए। वे नवगठित विन्ध्य प्रदेश (जिसमें बघेलखण्ड और बुन्देलखण्ड की 35 रियासतें शामिल थीं) के प्रथम और एकमात्र राज प्रमुख (संवैधानिक प्रमुख) बने (4 अप्रैल 1948)। 1 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के अनुसार विन्ध्य प्रदेश का तत्कालीन मध्य भारत, भोपाल राज्य और महाकौशल क्षेत्र के साथ विलय कर वर्तमान विशाल मध्यप्रदेश राज्य का निर्माण हुआ। महाराजा मार्तण्ड सिंह को विश्व को 'सफेद शेर' (व्हाइट टाइगर) का अद्वितीय उपहार प्रदान करने का भी श्रेय जाता है। सन् 1951 में उन्होंने गोविंदगढ़ के निकट सीधी जिले के बरगड़ी जंगल से पहले जीवित सफेद बाघ शावक 'मोहन' को पकड़ा था, जो आज विश्वभर के चिड़ियाघरों में पाए जाने वाले अधिकांश सफेद शेरों का पूर्वज माना जाता है। वे वन्य प्राणियों एवं पर्यावरण के संरक्षण के प्रति भी अत्यंत सजग थे और उन्होंने ही बांधवगढ़ के जंगलों को एक राष्ट्रीय उद्यान बनाने की सर्वप्रथम माँग की थी।
5. बघेल शासकों का सांस्कृतिक एवं धार्मिक योगदान
बघेल वंश के शासकों ने अपनी लगभग सात शताब्दियों की लंबी और गौरवशाली शासन परंपरा के दौरान न केवल राजनीतिक और सैन्य क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी, बल्कि उन्होंने कला, साहित्य, संगीत, वास्तुकला और धर्म के संरक्षण तथा संवर्धन में भी अत्यंत महत्वपूर्ण और दूरगामी भूमिका निभाई। उनके इन प्रयासों के फलस्वरूप बघेलखण्ड की एक विशिष्ट, जीवंत और समृद्ध सांस्कृतिक पहचान निर्मित हुई, जो आज भी इस क्षेत्र की धरोहर है।

(चित्र: बघेलखण्ड राज्यशक्ति और सांस्कृतिक गौरव का एक प्रतीक।)
कला और वास्तुकला:
रीवा का किला: बघेलों की राजनीतिक शक्ति, उनके वैभव और उनकी राजधानी का प्रमुख प्रतीक रीवा का विशाल और सुदृढ़ किला है। इसका निर्माण और विस्तार विभिन्न बघेल शासकों के समय में चरणबद्ध तरीके से हुआ। किले के भीतर स्थित कलात्मक महल (जैसे मोती महल, लंबा घर, वेंकट भवन), उनके सुंदर भित्ति चित्र, बारीक पत्थर की नक्काशी और मेहराबदार दालान बघेली स्थापत्य कला और मुगल तथा राजस्थानी शैलियों के समन्वय के उत्कृष्ट नमूने हैं। बान्धवगढ़ किला: बघेलों की प्रारंभिक और सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण राजधानी, बांधवगढ़ का प्राचीन किला, मध्यकालीन भारतीय सैन्य वास्तुकला का एक अद्वितीय और प्रभावशाली उदाहरण है। यहाँ स्थित कर्णपाल दरवाजा, ऊदल की कोठरी, शेषशायी विष्णु की विशाल प्रतिमा और विभिन्न प्राचीन मंदिरों के अवशेष बघेलों के प्रारंभिक इतिहास और उनकी निर्माण गतिविधियों की कहानी कहते हैं। मंदिर निर्माण: बघेल शासक गहन रूप से धर्मपरायण थे और उन्होंने अपने शासनकाल में अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया तथा प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार भी किया। इनमें गुढ़ स्थित प्राचीन भैरवनाथ मंदिर (जिसका जीर्णोद्धार और संरक्षण संभवतः बघेलों द्वारा किया गया), रीवा किले के समीप स्थित विश्व प्रसिद्ध महामृत्युंजय मन्दिर (जिसका निर्माण महाराज भाव सिंह द्वारा करवाया गया और जो अपनी विशिष्ट शिवलिंग आकृति के लिए जाना जाता है), ऐतिहासिक रानी तालाब के किनारे बने सुंदर मंदिर (शारदा मंदिर, शिव मंदिर), और लक्ष्मणबाग मंदिर परिसर आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये मंदिर न केवल उनकी धार्मिक आस्था को दर्शाते हैं, बल्कि तत्कालीन स्थापत्य कला और मूर्तिकला के भी उत्कृष्ट उदाहरण हैं। मऊगंज का योगदान: बघेल शासकों ने अपने राज्य के विभिन्न भागों में निर्माण कार्यों को प्रोत्साहित किया। नवगठित मऊगंज जिले में स्थित ऐतिहासिक नई गढ़ी का किला और अन्य छोटे-मोटे दुर्ग तथा मंदिर भी बघेलकालीन निर्माण गतिविधियों के महत्वपूर्ण प्रमाण हैं, जो उनके क्षेत्रीय प्रशासन और सुरक्षा व्यवस्था को दर्शाते हैं।
बघेलकालीन मंदिर, किले और महल मात्र निर्जीव ईंट-पत्थर की संरचनाएं नहीं हैं, बल्कि वे उस गौरवशाली युग की जीवंत आस्था, गहन कलात्मकता, परिष्कृत सौंदर्यबोध और अद्भुत इंजीनियरिंग कौशल के मौन किन्तु मुखर प्रमाण हैं, जो आज भी हमें विस्मित और प्रेरित करते हैं।
संगीत और साहित्य:
तानसेन और रीवा दरबार: भारतीय शास्त्रीय संगीत के सम्राट और अकबर के नवरत्नों में से एक, मियाँ तानसेन का अपने जीवन के प्रारंभिक और महत्वपूर्ण काल में महाराजा रामचन्द्र के दरबार से घनिष्ठ संबंध था। रीवा दरबार उस समय ध्रुपद गायकी और अन्य संगीत विधाओं का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, और तानसेन की प्रतिभा को यहाँ पूर्ण संरक्षण और सम्मान मिला। यह घटना बघेल शासकों की संगीतप्रियता और कला पारखिता का सबसे बड़ा और विश्वविख्यात प्रमाण है। वीरभानूदय काव्यम्: बघेल शासक भीमलदेव द्वारा स्वयं रचित (या उनके संरक्षण में किसी दरबारी कवि द्वारा रचित) यह महत्वपूर्ण संस्कृत महाकाव्य बघेल वंश के प्रारंभिक इतिहास, उनकी वंशावली और उनके पूर्वजों की वीरगाथाओं का एक अत्यंत मूल्यवान और प्रामाणिक साहित्यिक स्रोत माना जाता है। अन्य महत्वपूर्ण रचनाएँ: बघेल शासकों में से कई स्वयं भी विद्वान और कवि थे। महाराज भाव सिंह द्वारा रचित कर्मकांडीय ग्रंथ "हौत्र कल्पद्रुम", महाराजा वेंकटरमण सिंह द्वारा रचित भक्तिपूर्ण पदों का संग्रह "भजनावली", और महाराजा रघुराज सिंह द्वारा रचित नीति और भक्ति से ओतप्रोत काव्य ग्रन्थ "जगदीश शतक" उनकी गहन साहित्यिक अभिरुचि, विद्वता और रचनात्मक प्रतिभा को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं। बघेली भाषा और लोक साहित्य का संरक्षण: बघेल शासकों ने न केवल संस्कृत और हिंदी के प्रतिष्ठित विद्वानों और कवियों को संरक्षण दिया, बल्कि उन्होंने स्थानीय बघेली भाषा और उसके समृद्ध लोक साहित्य को भी प्रोत्साहित किया। उनके संरक्षण में बघेली भाषा में अनेक लोकगीतों, वीरगाथाओं, प्रेम-कथाओं और कविताओं का सृजन और विकास हुआ। बघेली आज भी इस संपूर्ण क्षेत्र की प्रमुख और जीवंत लोकभाषा है, जो इसकी सांस्कृतिक पहचान का एक महत्वपूर्ण आधार है।
धार्मिक महत्व और संरक्षण:
बघेल शासक मुख्यतः हिन्दू धर्म के शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के प्रति गहरी आस्था रखते थे और उन्होंने दोनों ही संप्रदायों के मंदिरों, मठों और धार्मिक गतिविधियों को समान रूप से संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया। उनकी धार्मिक नीति सहिष्णु और उदार थी। भारत की पवित्रतम नदियों में से एक, नर्मदा नदी, की पौराणिक महिमा (जिसका विस्तृत वर्णन स्कन्द पुराण के रेवा खण्ड में मिलता है, और जिसके नाम पर ही 'रीवा' का नामकरण हुआ माना जाता है) ने रीवा और उसके आसपास के क्षेत्र को एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल के रूप में प्राचीन काल से ही स्थापित कर रखा था। बघेल शासकों ने नर्मदा के तट पर (तथा तमसा, बीहर, बिछिया जैसी अन्य पवित्र नदियों के तटों पर भी) अनेक घाटों, मंदिरों, धर्मशालाओं और अन्नक्षेत्रों का निर्माण करवाया, जिससे तीर्थयात्रियों को सुविधा हो और धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा मिले। उनके शासनकाल में विभिन्न महत्वपूर्ण धार्मिक मेलों, उत्सवों (जैसे शिवरात्रि, रामनवमी, जन्माष्टमी, दशहरा, दीपावली) और रथयात्राओं का भव्य आयोजन किया जाता था, जिससे न केवल धार्मिक भावना का प्रसार होता था, बल्कि सामाजिक एकता, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सामुदायिक समरसता भी बनी रहती थी।
6. समीपस्थ क्षेत्र: मऊगंज, कोलघारी, अतरैला, डभौरा पर बघेल प्रभाव
बघेल वंश का सुदीर्घ और प्रभावशाली शासनकाल केवल उनकी राजधानी रीवा तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उनके राज्य के अंतर्गत आने वाले समीपस्थ क्षेत्र भी उनकी प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग थे। बघेल शासन का प्रभाव इन क्षेत्रों पर विभिन्न रूपों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता था, जिसने इन स्थानों के विकास और चरित्र को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
मऊगंज:
जैसा कि नवगठित मऊगंज जिले की आधिकारिक वेबसाइट (History | District Mauganj | India) पर उल्लेखित है, मऊगंज क्षेत्र 14वीं शताब्दी में बघेल राजवंश के अधीन आया था। कालांतर में यह बघेल राज्य का एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक केंद्र (संभवतः तहसील या परगना मुख्यालय) और एक जीवंत व्यापारिक स्थल के रूप में विकसित हुआ। बघेलों द्वारा निर्मित ऐतिहासिक नई गढ़ी का किला और क्षेत्र में स्थित अन्य प्राचीन संरचनाएँ (जैसे मंदिर, बावड़ियाँ, गढ़ीनुमा हवेलियाँ) आज भी उनके शासन और स्थापत्य में उनकी रुचि की मूक गवाही देती हैं। इस क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध बहुती जलप्रपात (जो मध्य प्रदेश के सबसे ऊंचे जलप्रपातों में से एक है) और अन्य प्राकृतिक सौंदर्य के स्थल भी बघेल शासकों के समय में तीर्थयात्रियों, प्रकृति प्रेमियों और संभवतः राजपरिवार के सदस्यों के लिए आकर्षण का केंद्र रहे होंगे। मऊगंज का इलाका कृषि की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था और यहाँ से राज्य को राजस्व प्राप्त होता था।
कोलघारी, अतरैला, डभौरा (जवा तहसील):
ग्राम सूचना वेबसाइटों (Atraila Village in Jawa (Rewa) Madhya Pradesh | villageinfo.in और Dabhaura Village in Jawa (Rewa) Madhya Pradesh | villageinfo.in) से प्राप्त जानकारी के अनुसार, वर्तमान रीवा जिले की जवा तहसील में स्थित अतरैला और डभौरा जैसे ग्राम बघेल वंश के शासनकाल में महत्वपूर्ण स्थानीय प्रशासनिक इकाइयाँ (संभवतः छोटे परगना या बड़ी जागीरें) रही होंगी। कोलघारी, जैसा कि इसके नाम से ही प्रतीत होता है, संभवतः इस क्षेत्र में प्राचीन काल से निवास कर रही कोल जनजातियों की सघन बसाहट का एक प्रमुख केंद्र रहा होगा। बघेल शासकों के अधीन यह क्षेत्र एक महत्वपूर्ण कृषि उत्पादक क्षेत्र के रूप में विकसित हुआ होगा, और कोल समुदाय के लोग बघेल सेना में सैनिक तथा अन्य प्रशासनिक कार्यों में सहयोगी के रूप में भी भूमिका निभाते रहे होंगे। इन क्षेत्रों में बघेलकालीन संस्कृति और परंपराएँ, जैसे विशिष्ट बघेली लोक नृत्य (करमा, सैला, सुआ), कर्णप्रिय लोकगीत (फाग, सोहर, विदेसिया), और विभिन्न स्थानीय देवी-देवताओं से जुड़े वार्षिक मेले तथा उत्सव, बघेल शासकों के संरक्षण और प्रोत्साहन में फलते-फूलते रहे थे। बघेल शासकों द्वारा लागू की गई भू-राजस्व नीतियाँ, न्याय व्यवस्था और स्थानीय प्रशासन के नियम इन क्षेत्रों की सामाजिक-आर्थिक संरचना और जन-जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते थे। इन ग्रामों में आज भी बघेलकालीन स्मृतियाँ और परंपराएँ किसी न किसी रूप में जीवित हैं।
रीवा राज्य के अंतर्गत आने वाले समीपस्थ क्षेत्रों का सुनियोजित विकास, उनकी सांस्कृतिक जीवंतता और स्थानीय समुदायों के साथ समन्वयपूर्ण संबंध, बघेल शासन की समग्र शक्ति, उनकी प्रशासनिक कुशलता और उनकी लोक-कल्याणकारी दृष्टि का महत्वपूर्ण परिचायक थी।
7. बघेल शासन का विश्लेषण और महत्व
बघेल वंश का लगभग सात शताब्दियों तक चलने वाला सुदीर्घ और प्रभावशाली शासनकाल निस्संदेह रीवा और वृहत्तर बघेलखण्ड के इतिहास में एक 'स्वर्ण युग' के समान था, जिसने इस क्षेत्र को एक विशिष्ट और गौरवशाली पहचान प्रदान की। उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता, कूटनीतिक कौशल और सुदृढ़ सैन्य शक्ति ने रीवा को न केवल एक स्वतंत्र और शक्तिशाली रियासत के रूप में स्थापित किया, बल्कि उसे मुगल सम्राटों, मराठा सरदारों, बुंदेला शासकों और अंततः ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों जैसी समकालीन महाशक्तियों के साथ अपने जटिल और चुनौतीपूर्ण कूटनीतिक संबंधों को सफलतापूर्वक तथा सम्मानपूर्वक निभाने में भी सक्षम बनाया। उनकी उदार सांस्कृतिक और प्रगतिशील धार्मिक नीतियों ने रीवा को न केवल एक महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थ स्थल (विशेषकर महामृत्युंजय मंदिर और नर्मदा परिक्रमा मार्ग के संदर्भ में) के रूप में प्रतिष्ठित किया, बल्कि कला, ध्रुपद संगीत, विभिन्न साहित्यिक विधाओं और अद्वितीय स्थापत्य कला का एक जीवंत तथा रचनात्मक केंद्र भी बनाया। विश्वविख्यात संगीत सम्राट तानसेन का बघेल दरबार और महाराजा रामचंद्र सिंह से घनिष्ठ संबंध, तथा रीवा एवं बान्धवगढ़ के भव्य और अभेद्य किले जैसे स्थापत्य के अनुपम नमूने बघेल वंश की समृद्ध विरासत को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक विशिष्ट और स्थायी पहचान दिलाते हैं। एक और अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रशंसनीय पहलू यह है कि बघेल शासकों ने, अधिकांशतः, अपने राज्य में निवास करने वाली स्थानीय जनजातियों और विभिन्न समुदायों, जैसे कोल, गोंड, भर, लोधी, पनिका और लवाना (बंजारा), के साथ सहयोग, समन्वय और सह-अस्तित्व की नीति अपनाई। उन्होंने इन समुदायों के प्रतिभाशाली और वीर व्यक्तियों को अपने प्रशासन, सेना और स्थानीय शासन में महत्वपूर्ण स्थान दिया, उनकी विशिष्ट परंपराओं, रीति-रिवाजों और सामाजिक संरचना का सम्मान किया, और उनके आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिए समय-समय पर प्रयास भी किए (यद्यपि कभी-कभी आपसी हितों के टकराव और संघर्ष की स्थितियाँ भी उत्पन्न हुईं)। उनकी इस समावेशी नीति ने राज्य में सामाजिक एकता, सांस्कृतिक विविधता और सामुदायिक समरसता को बढ़ावा दिया, जो राज्य की स्थिरता और समृद्धि के लिए आवश्यक था। उनकी अपेक्षाकृत सुव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय प्रणाली (जो परंपरागत हिन्दू विधि और स्थानीय रीति-रिवाजों पर आधारित थी) और उदार धार्मिक संरक्षण की नीति ने रीवा को एक समृद्ध, शांत, सुरक्षित और सांस्कृतिक रूप से विविध तथा जीवंत क्षेत्र बनाया। बंधवगढ़ और रीवा के किलों के पुरातात्त्विक अवशेष, विभिन्न स्थानों पर बिखरे हुए प्राचीन मंदिरों की श्रृंखला, कलात्मक बावड़ियाँ, तालाब और संस्कृत तथा बघेली भाषा में रचे गए साहित्यिक ग्रंथ इस गौरवशाली काल की समृद्धि, वैभव, बौद्धिक चेतना और सांस्कृतिक जीवंतता के मूक किन्तु मुखर साक्षी हैं। बघेलों ने न केवल एक भौतिक राज्य का निर्माण और विस्तार किया, बल्कि उन्होंने एक विशिष्ट 'बघेली' सांस्कृतिक पहचान को भी सफलतापूर्वक पोषित, संरक्षित और संवर्धित किया, जो आज भी इस अंचल की आत्मा है।
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📜यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।
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shriasheeshacharya@gmail.comबघेल राजवंश: प्रमुख अवधारणाएँ, व्यक्तित्व एवं सांस्कृतिक प्रतीक
"गहोरा एवं बांधवगढ़": बघेल राजवंश की प्रारंभिक और अत्यंत महत्वपूर्ण राजधानियाँ, जिन्होंने उनके सैन्य अभियानों, राजनीतिक उत्थान और एक स्वतंत्र राज्य के रूप में उनकी स्थापना की सुदृढ़ आधारशिला रखी।
ये ऐतिहासिक स्थल बघेल शक्ति के क्रमिक विकास, उनकी सामरिक सूझबूझ, प्रारंभिक संघर्षों और रणनीतिक विस्तार की महत्वाकांक्षी योजनाओं के जीवंत और मूक साक्षी हैं, जो आज भी इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं।
"महाराजा रामचंद्र सिंह": मुगल सम्राट अकबर के समकालीन, एक अत्यंत कला-प्रेमी, उदार और दूरदर्शी शासक, जिनके गौरवशाली दरबार में भारतीय संगीत के सम्राट तानसेन और अपनी प्रखर बुद्धि तथा हाजिरजवाबी के लिए विख्यात बीरबल (महेश दास) (जिनका स्थानीय जुड़ाव सीधी जिले के घोघरा ग्राम से माना जाता है) जैसी असाधारण विभूतियाँ थीं, जिन्होंने बघेल दरबार की प्रतिष्ठा को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया।
उनका शासनकाल निस्संदेह रीवा के सांस्कृतिक, साहित्यिक और संगीत के इतिहास में एक स्वर्ण युग का प्रतीक है, जिसने बघेलखण्ड को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई तथा भारतीय संस्कृति को अमूल्य योगदान दिया।
"रीवा नगर की स्थापना": महाराजा विक्रमादित्य द्वारा लगभग 1618 ई. में पवित्र तमसा (टोंस) और बीहर नदियों के संगम के निकट, सामरिक और प्रशासनिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त स्थान पर, एक नवीन और सुनियोजित राजधानी के रूप में रीवा नगर का निर्माण किया जाना।
यह ऐतिहासिक और दूरगामी महत्व की घटना बघेल राज्य के स्थायित्व, उसके प्रशासनिक केंद्रीकरण और भविष्य के सर्वांगीण विकास की दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक मोड़ साबित हुई।
"महामृत्युंजय मंदिर": महाराजा भाव सिंह द्वारा रीवा नगर के हृदय में निर्मित यह विश्व प्रसिद्ध और अद्वितीय शिव मंदिर, जो अपनी विशिष्ट शिवलिंग आकृति और पौराणिक महत्व के लिए जाना जाता है, बघेल शासकों की गहन धार्मिक आस्था, उनकी उदार संरक्षण नीति और स्थापत्य कला में उनकी गहरी रुचि का एक ज्वलंत द्योतक है।
यह भव्य और प्रतिष्ठित मंदिर आज भी लाखों श्रद्धालुओं की अगाध आस्था का प्रमुख केंद्र है और बघेलकालीन स्थापत्य, धार्मिक सहिष्णुता तथा सांस्कृतिक गौरव का एक शाश्वत प्रतीक बनकर शोभायमान है।
बघेल राजवंश की ऐतिहासिक धरोहरें

(चित्र: रीवा का किला, बघेल राजवंश की सात शताब्दियों की शक्ति, उनके गौरवशाली अतीत और उनकी राजधानी का एक अभेद्य प्रतीक। इसके विशाल परकोटे और बुर्ज आज भी बघेलों की वीरगाथाएँ कहते प्रतीत होते हैं। साभार: Wikimedia Commons)
तानसेन और रीवा दरबार (वृत्तचित्र अंश)
(यह एक प्लेसहोल्डर वीडियो है। संगीत सम्राट तानसेन के जीवन, उनकी संगीत साधना, रीवा दरबार में महाराजा रामचंद्र सिंह के संरक्षण में उनके उत्कर्ष, और भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनके अद्वितीय योगदान पर किसी जानकारीपूर्ण और मनमोहक वृत्तचित्र का YouTube VIDEO_ID यहाँ डाला जा सकता है।)
अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)
बघेल राजवंश के विस्तृत और गौरवशाली इतिहास, उनके उदय, राजनीतिक उत्कर्ष, सांस्कृतिक योगदान, प्रशासनिक व्यवस्था और उनके शासनकाल के विभिन्न पहलुओं का गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित प्रकार के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यह सूची एक विस्तृत शोध यात्रा के लिए एक प्रारंभिक और दिशा-निर्देशात्मक बिंदु प्रदान करती है:
पारंपरिक एवं समकालीन ऐतिहासिक ग्रंथ:
- **"एकात्रा बान्धवगढ़ माहात्म्य"** या संबंधित स्थानीय पुराण और माहात्म्य ग्रंथ: जो बघेल वंश की पौराणिक उत्पत्ति, उनके कुलदेवता और प्रारंभिक इतिहास पर पारंपरिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
- **"वीरभानुदय काव्यम्"**: बघेल शासक भीमलदेव द्वारा स्वयं रचित (या उनके संरक्षण में किसी दरबारी कवि द्वारा रचित) यह महत्वपूर्ण संस्कृत महाकाव्य बघेल वंश के प्रारंभिक इतिहास, उनकी वंशावली, प्रमुख शासकों की वीरगाथाओं और तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश का एक अत्यंत मूल्यवान और प्रामाणिक साहित्यिक स्रोत माना जाता है।
- **मुगलकालीन फारसी तवारीखें और समकालीन वृत्तांत**: शेख अबुल फजल कृत "अकबरनामा" (तीन खंडों में) एवं "आईन-ए-अकबरी" (जो महाराजा रामचंद्र सिंह, संगीत सम्राट तानसेन के रीवा से मुगल दरबार में आगमन, और अकबरकालीन मुगल-बघेल राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संबंधों पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं)। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी कृत "मुंतखब-उत-तवारीख" (जो अकबरकालीन घटनाओं का एक वैकल्पिक और कभी-कभी आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है)। ख्वाजा निज़ामुद्दीन अहमद कृत "तबकात-ए-अकबरी" (अकबर से पहले के सुल्तानों और प्रारंभिक मुगल शासकों के काल का महत्वपूर्ण विवरण)। "हुमायूँनामा": मुगल बादशाह हुमायूँ की बहन, गुलबदन बेगम द्वारा फारसी में रचित यह आत्मकथात्मक ग्रंथ (जिसमें कन्नौज के युद्ध में शेरशाह सूरी से पराजित होकर निष्कासित जीवन व्यतीत कर रहे हुमायूँ को बघेल शासक राजा वीरभानु द्वारा सहायता और शरण प्रदान करने की महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख है)।
- **"बघेल वंश वर्णनम्"**: कवि रूपणि शर्मा द्वारा संस्कृत में रचित यह काव्य ग्रंथ (जो महाराजा भाव सिंह के दरबारी कवि थे और जिन्होंने बघेल वंश की विस्तृत वंशावली और प्रमुख शासकों की उपलब्धियों का वर्णन किया है)।
- **"अमररेश विलास"**: कवि नीलकण्ठ द्वारा रचित यह काव्य ग्रंथ (जो महाराजा अमर सिंह के दरबारी कवि थे और जिन्होंने अपने आश्रयदाता शासक की प्रशंसा में इसकी रचना की)।
- **"हौत्र कल्पद्रुम"**: स्वयं महाराजा भाव सिंह द्वारा संस्कृत में रचित यह महत्वपूर्ण साहित्यिक एवं धार्मिक ग्रन्थ (जो यज्ञ-पद्धति और कर्मकांड पर आधारित है तथा उनकी गहन विद्वता को दर्शाता है)।
- **"भजनावली"**: महाराजा वेंकटरमण सिंह द्वारा रचित भक्तिपूर्ण पदों और भजनों का यह संग्रह (जो उनकी आध्यात्मिक अभिरुचि का परिचायक है)।
- **"जगदीश शतक"**: महाराजा रघुराज सिंह द्वारा रचित नीति और भक्ति से ओतप्रोत यह काव्य ग्रन्थ।
- स्थानीय भाटों, चारणों और जागाओं द्वारा संरक्षित मौखिक और लिखित ख्यातें, वंशावलियाँ, लोकगाथाएँ, प्रशासनिक दस्तावेज़ (जैसे सनद, परवाने, रुक्के) और बहियाँ।
आधुनिक शोध एवं प्रकाशन:
/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */ 1. सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". प्रयाग: यूनियन प्रेस (रीवा दरबार द्वारा प्रकाशित, यह रियासतकालीन इतिहास, वंशावलियों, प्रमुख घटनाओं और स्थानीय परंपराओं का एक पारंपरिक लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण और विस्तृत स्रोत माना जाता है)। 2. शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी। (यह ग्रंथ इस क्षेत्र की विशिष्ट भाषाई, साहित्यिक, लोक कलाओं और सांस्कृतिक विरासत पर एक मानक और गहन अकादमिक कृति है)। 3. श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी। (यह पुस्तक विंध्य क्षेत्र के व्यापक ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझने हेतु एक अत्यंत उपयोगी संदर्भ ग्रंथ है)। 4. Luard, C.E. (1907). "Rewah State Gazetteer". Calcutta: Superintendent Government Printing, India. (Central India State Gazetteer Series, Vol. IV का भाग, जो तत्कालीन रीवा रियासत का विस्तृत भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक विवरण प्रस्तुत करता है)। 5. परिहार, डॉ. नृपेन्द्र सिंह. "बघेलखण्ड में बघेलों का अभ्युदय एवं विकास का समीक्षात्मक अध्ययन" (पीएच.डी. शोध पत्र, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा, या संबंधित प्रकाशन)। 6. दुबे, पुष्पा. "बघेलखण्ड राज्य का ऐतिहासिक अध्ययन (प्रारम्भ से 1947 ई. तक)" (पीएच.डी. शोध पत्र, या संबंधित प्रकाशन)। 7. तिवारी, डॉ. सुमन. "बघेलखण्ड के सेंगरों का सांस्कृतिक अनुशीलन" (पीएच.डी. शोध पत्र, या संबंधित प्रकाशन, जो बघेलखण्ड की अन्य राजपूत शक्तियों पर प्रकाश डालता है)। 8. Wills, C.U. (1919). "The Raj-Gond Maharajas of the Satpura Hills: A Local History". Nagpur: Government Press. (गोंडवाना और बघेलखण्ड के संबंधों के संदर्भ में)। 9. Elliot, H.M. & Dowson, John. "The History of India, as Told by Its Own Historians". (इसके विभिन्न खंडों में मुगलकालीन फारसी तवारीखों के अंग्रेजी अनुवाद और सारांश उपलब्ध हैं)। 10. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India - ASI) की वार्षिक रिपोर्टें, मोनोग्राफ एवं अन्य प्रकाशन (जो बांधवगढ़, गहोरा, रीवा किला, देउर कोठार आदि महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थलों के उत्खनन और संरक्षण के संदर्भ में उपयोगी हैं)। 11. मध्य प्रदेश राज्य पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय निदेशालय (Directorate of Archaeology, Archives and Museums, Govt. of M.P.) द्वारा प्रकाशित विभिन्न शोध-पत्रिकाएँ, पुस्तकें एवं अन्य प्रकाशन। 12. विभिन्न भारतीय विश्वविद्यालयों (जैसे अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा; इलाहाबाद विश्वविद्यालय; बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय; जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) के इतिहास, पुरातत्व और मानवशास्त्र विभागों द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठित शोध-पत्र, अकादमिक जर्नल (जैसे Journal of Indian History, The Indian Historical Review, Epigraphia Indica) एवं संगोष्ठी कार्यवाहियाँ।
पुरातात्त्विक एवं अभिलेखीय साक्ष्य:
- बांधवगढ़, गहोरा, मरफा, रीवा किला, गुर्गी, देउर कोठार, भरहुत (निकटवर्ती महत्वपूर्ण स्थल) आदि पुरातात्त्विक स्थलों से प्राप्त विभिन्न कालों के स्थापत्य अवशेष, किलेबंदी के निशान, प्राचीन मार्ग, जल प्रबंधन प्रणालियाँ, मूर्तियाँ (हिन्दू, जैन, बौद्ध), मृद्भांड, और अन्य पुरावशेष।
- बघेल शासकों द्वारा समय-समय पर जारी किए गए सिक्के (यदि उपलब्ध हों और पहचाने जा सकें), विभिन्न भाषाओं (संस्कृत, फारसी, हिन्दी) में लिखे गए ताम्रपत्र (भूमि अनुदान, संधि-पत्र, घोषणाएँ आदि), शिलालेख (मंदिरों, बावड़ियों, किलों पर उत्कीर्ण), और अन्य अभिलेखीय सामग्री।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान रीवा रियासत से संबंधित विभिन्न प्रशासनिक रिकॉर्ड, अधिकारियों का पत्राचार, संधियाँ, समझौते, रिपोर्टें, मानचित्र और सर्वेक्षण दस्तावेज़ जो भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India), नई दिल्ली एवं मध्य प्रदेश राज्य अभिलेखागार, भोपाल में व्यापक रूप से संरक्षित हैं।
- भारत और विदेश के विभिन्न प्रतिष्ठित संग्रहालयों (जैसे रीवा महाराज का निजी संग्रहालय (यदि शोध के लिए सुलभ हो), गोविंदगढ़ किला संग्रहालय, इलाहाबाद संग्रहालय, राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली, इंडियन म्यूजियम कोलकाता, ब्रिटिश म्यूजियम लंदन, विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम लंदन) में संरक्षित बघेलकालीन अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र, आभूषण, चित्रकला, पांडुलिपियाँ एवं अन्य महत्वपूर्ण कलाकृतियाँ।
निष्कर्ष: एक गौरवशाली विरासत का सिंहावलोकन
बघेल वंश का मध्यकालीन और परवर्ती रियासती शासन निस्संदेह रीवा और वृहत्तर बघेलखण्ड के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण, दूरगामी प्रभाव वाला और अविस्मरणीय गौरवशाली अध्याय है। तेरहवीं शताब्दी के मध्य में वीर व्याघ्रदेव द्वारा उनके अभ्युदय ने, कल्चुरियों के पतन से उत्पन्न राजनीतिक शून्यता के दौर में, बघेलखण्ड को एक सुदृढ़ और स्थायी राजनीतिक पहचान प्रदान की। उनके कुशल नेतृत्व और उनके पराक्रमी उत्तराधिकारियों के सतत प्रयासों से रीवा एक शक्तिशाली और सम्मानित रियासत के रूप में स्थापित हुई, जो न केवल राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से सुदृढ़ थी, बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक और कलात्मक दृष्टिकोण से भी अत्यंत समृद्ध और जीवंत थी। बघेल शासकों ने कला के विभिन्न रूपों, विशेषतः भारतीय शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद शैली, संस्कृत एवं बघेली साहित्य की विभिन्न विधाओं, और अद्वितीय स्थापत्य कला को अभूतपूर्व संरक्षण और प्रोत्साहन प्रदान किया, जिसके परिणामस्वरूप रीवा की एक विशिष्ट और मनोहारी सांस्कृतिक पहचान निर्मित और मजबूत हुई, जो आज भी इस क्षेत्र की अमूल्य धरोहर है। उनके द्वारा निर्मित भव्य मंदिर और सुदृढ़ किले, जैसे गुढ़ का प्राचीन भैरवनाथ मंदिर, रीवा नगर का विश्व प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर, और रीवा तथा बान्धवगढ़ के ऐतिहासिक और अभेद्य किले, आज भी उनकी असीम राजनीतिक शक्ति, परिष्कृत कलात्मक अभिरुचि, गहन धार्मिक आस्था और दूरगामी सोच की गौरवशाली कहानी कहते हैं। महाराजा रामचंद्र सिंह के प्रबुद्ध दरबार में संगीत सम्राट तानसेन और प्रज्ञावान बीरबल जैसी असाधारण राष्ट्रीय विभूतियों की उपस्थिति बघेल दरबार की तत्कालीन राष्ट्रीय प्रतिष्ठा, उसकी बौद्धिक जीवंतता और कला-पारखिता को सशक्त रूप से प्रमाणित करती है। रीवा राज्य के अंतर्गत आने वाले समीपस्थ और महत्वपूर्ण क्षेत्र, जैसे नवीन मऊगंज जिला (जो पहले रीवा का ही भाग था), तथा कोलघारी, अतरैला और डभौरा जैसे ऐतिहासिक ग्राम, बघेल शासनकाल में न केवल महत्वपूर्ण प्रशासनिक इकाइयाँ थीं, बल्कि वे राज्य की समग्र आर्थिक प्रगति, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक विरासत के भी अभिन्न और अविभाज्य अंग थे। यह विस्तृत और गहन विवेचन रीवा के मध्यकालीन और रियासती इतिहास को समग्रता में समझने के लिए एक व्यापक और सुदृढ़ आधार प्रदान करता है। यह बघेल वंश के बहुआयामी योगदान, उनके द्वारा स्थापित सुशासन, उनकी सांस्कृतिक उदारता और उनकी स्थायी तथा प्रेरणास्पद विरासत को रेखांकित करता है और उनके प्रति नमन निवेदित करता है। उनकी यह ऐतिहासिक यात्रा निस्संदेह कठिनाइयों, संघर्षों, चुनौतियों और सफलताओं से भरी रही, जिसने मध्य भारत के इतिहास और भारतीय संस्कृति के व्यापक परिदृश्य पर एक अमिट और गौरवपूर्ण छाप छोड़ी है।
कॉपीराइट एवं उपयोग अधिकार
2024 आचार्य आशीष मिश्र (शोध एवं संपादन)। सर्वाधिकार सुरक्षित।
यह प्रस्तुति "बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव से मुगलकालीन रीवा तक" ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए है। सामग्री का उपयोग गैर-व्यावसायिक, शैक्षिक, और शोधपरक गतिविधियों के लिए, शोध एवं संपादन: "आचार्य आशीष मिश्र" (acharyaasheeshmishra.blogspot.com) के उचित श्रेय के साथ किया जा सकता है।
अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर बघेलखण्ड इतिहास, बघेल राजवंश, तथा मुगलकालीन रीवा लेबल देखें।
हमारी विस्तृत लेख श्रृंखला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास"
इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की विभिन्न कड़ियों, राजवंशों के उत्थान-पतन, सांस्कृतिक विकास और ऐतिहासिक महत्व को और गहराई से जानने के लिए हमारी श्रृंखला के इन महत्वपूर्ण लेखों को अवश्य पढ़ें। यह सूची निरंतर अपडेट होती रहेगी जैसे-जैसे नए शोध और लेख प्रकाशित होंगे:
भाग I: बघेलखण्ड का प्राचीन इतिहास: आदिम संस्कृति से राजवंशों के उदय तक
बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य। आदिम संस्कृति से राजवंशों के उत्थान तक – एक गहन पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवांचल का प्राचीन इतिहास: प्रागैतिहासिक संस्कृति, पौराणिक आख्यान और मौर्योत्तर कालीन धरोहर
विंध्य धरा की प्राचीन गाथा: रीवांचल का पुरातात्त्विक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन। प्रागैतिहासिक काल से मौर्योत्तर काल तक। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का प्रारंभिक इतिहास: वनवासी सभ्यता, प्राचीन राजवंश और बहु-सांस्कृतिक विरासत (प्रागैतिहासिक से मौर्योत्तर)
रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत। एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का आरंभिक इतिहास: वनवासी संस्कृतियाँ, प्राचीन राजवंश और बहुआयामी सांस्कृतिक धरोहर
विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम। इस लेख में प्रारंभिक काल की गहन पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग II: बघेल राजवंश का उदय: गहोरा से रीवा तक राज्य स्थापना, प्रशासन और सांस्कृतिक विरासत
बघेल राजवंश का अभ्युदय और रीवा राज्य की स्थापना। एक राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक मीमांसा (गहोरा से रीवा तक)। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव के आगमन से मुगलकालीन रीवा तक का ऐतिहासिक सफर
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव से मुगलकालीन रीवा तक। एक विस्तृत ऐतिहासिक यात्रा एवं सांस्कृतिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन और सांस्कृतिक संगम
विंध्य की विरासत: बघेल-सेंगर संपर्क और रीवा का सांस्कृतिक ताना-बाना। रीवा का गौरवशाली इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन, और सांस्कृतिक संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग III: रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, मुगलकालीन संबंध और आधुनिकता की ओर
रीवा की गौरवगाथा: बघेल शौर्य, मुगल संपर्क और आधुनिकता का प्रभात। बघेल राजवंश, मुगल संपर्क, और आधुनिकता का संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का परिवर्तन: मुगलकालीन स्वर्ण युग से औपनिवेशिक चुनौतियों और आधुनिक रीवा के निर्माण तक
रीवा: मुगल वैभव से आधुनिकता की ओर – एक ऐतिहासिक यात्रा। बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 1)
रीवा: औपनिवेशिक काल से आधुनिक भारत तक का ऐतिहासिक सफर। बघेल राजवंश, ब्रिटिश संपर्क, स्वतंत्रता संग्राम और समकालीन विकास। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 2)
रियासत के भारतीय संघ में विलय की विस्तृत और निर्णायक कहानी, स्वतंत्रता उपरांत विकास और चुनौतियाँ। (लेबल: प्राचीन रीवा)
सभी लेख देखें: प्राचीन रीवा श्रृंखला
"रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" श्रृंखला के सभी प्रकाशित लेखों को एक स्थान पर पाएं और इस ऐतिहासिक यात्रा में हमारे साथ बने रहें।