✶ बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य ✶
आदिम संस्कृति से राजवंशों के उत्थान तक – एक गहन पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक मीमांसा
भारतवर्ष के हृदयस्थल में, विंध्याचल की नैसर्गिक और प्रायः दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में, सघन वनों और कल-कल करती, जीवनदायिनी नदियों (यथा सोन, टोंस, केन, बीहर, बिछिया) से सिंचित ऐतिहासिक बघेलखण्ड, मात्र एक सुपरिभाषित भौगोलिक इकाई न होकर, भारतीय सभ्यता की एक अत्यंत प्राचीन, निरंतर प्रवाहमान और जीवंत सांस्कृतिक धारा का उद्गम स्थल और महत्वपूर्ण प्रवाह क्षेत्र रहा है। इसका वर्तमान नामकरण यद्यपि मध्यकालीन वीर बघेल राजवंश से हुआ, जिन्होंने इस क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि और राजनीतिक केंद्र बनाया, तथापि इसकी ऐतिहासिक जड़ें सुदूर प्रागैतिहासिक काल के उस गहन और रहस्यमय धुंधलके में विलीन हैं, जब आदिमानव ने पहली बार इस पावन भूमि पर अपने अस्तित्व के स्थायी चिह्न छोड़े थे। प्रतिष्ठित विद्वानों डॉ. प्रीति पटेल (जिनका शोध "बघेलखण्ड का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (प्रारम्भ से 13वीं शताब्दी तक)" इस विषय पर मौलिक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है) और डॉ. नृपेन्द्र सिंह परिहार (जिनका कार्य "बघेलखण्ड की कला एवं पुरातत्व" पर केंद्रित है) द्वारा प्रणीत गहन शोध-पत्रों में निहित महत्वपूर्ण पुरातात्विक और ऐतिहासिक अंतर्दृष्टियों को आत्मसात करते हुए, यह विस्तृत आलेख बघेलखण्ड के उस सुदूर और अल्प-ज्ञात अतीत की विभिन्न परतों को वैज्ञानिक और विश्लेषणात्मक ढंग से खोलने का एक विनम्र प्रयास है। इस ऐतिहासिक यात्रा में हम उस सुदूर कालखंड का अन्वेषण करेंगे जब आदिमानव ने कठोर पाषाणों को अपने सीमित ज्ञान और कौशल से तराशकर अपने दैनिक जीवन और अस्तित्व के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरण गढ़े, नैसर्गिक शैलाश्रयों की सुरक्षित भित्तियों और छतों पर अपनी आदिम भावनाओं, अपने परिवेश के प्रति अपनी समझ और अपनी कल्पनाओं को विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक रंगों के माध्यम से सजीव और साकार रूप प्रदान किया। तत्पश्चात हम उस क्रमिक विकास यात्रा को भी समझने का प्रयास करेंगे जब मानव शनैः-शनैः सामाजिक संगठन की ओर बढ़ा, कृषि और पशुपालन जैसी क्रांतिकारी तकनीकों का आविष्कार किया, धातुओं (विशेषकर तांबे और लोहे) के प्रयोग में दक्षता हासिल की, और इस प्रकार एक स्थायी तथा अधिक जटिल सभ्यता के मार्ग पर अग्रसर होते हुए विभिन्न जनपदों और कालांतर में शक्तिशाली राजवंशों के उदय की एक सुदृढ़ पृष्ठभूमि सफलतापूर्वक तैयार की।

(चित्र: युवराज दिव्यराज सिंह बघेल राजवंश के स्वातंत्र्योत्तर भावी महाराज।)
प्रस्तावना: विंध्य की प्राचीन धरोहर का अनावरण
मध्य भारत की गोद में, विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की नैसर्गिक और सुरम्य उपत्यकाओं में बसा ऐतिहासिक रीवा अंचल, जिसे प्राचीन संस्कृत साहित्य में पवित्र 'रेवा-खंड' (नर्मदा नदी से संबंधित वृहत्तर क्षेत्र) के नाम से भी श्रद्धापूर्वक जाना और पहचाना जाता है, भारतीय सभ्यता के अनेक महत्वपूर्ण, निर्णायक और गौरवशाली अध्यायों का एक मूक किन्तु मुखर साक्षी रहा है। इस क्षेत्र का समृद्ध और बहुआयामी इतिहास केवल यशस्वी और वीर बघेल राजवंश के लगभग सात शताब्दियों के गौरवशाली शासनकाल तक ही सीमित नहीं है, जैसा कि प्रायः सरसरी तौर पर समझा जाता है। वस्तुतः, इसकी जड़ें सुदूर प्रागैतिहासिक काल के गहन और रहस्यमय धुंधलके में विलीन हैं, जहाँ इस पावन भूमि पर आदिकालीन मानव ने अपने अस्तित्व के प्रथम पदचिह्न अंकित किए थे और अपनी कलात्मक तथा आध्यात्मिक भावनाओं को चट्टानों पर उकेरी गई अद्भुत एवं जीवंत कलाकृतियों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की थी। ये शैलाश्रय आज भी उस युग की कहानी कहते हैं। कालचक्र के निरंतर और अबाध आवर्तनों के साथ, इस पवित्र और ऐतिहासिक भूमि ने वैदिक ऋचाओं की गंभीर एवं सारगर्भित गूंज सुनी है, प्राचीन महाजनपद काल में शक्तिशाली चेदि महाजनपद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और उसके सांस्कृतिक उत्कर्ष को निकट से देखा है, चक्रवर्ती सम्राट अशोक महान के नेतृत्व में मौर्यों के विशाल और सुसंगठित साम्राज्यिक विस्तार तथा उनकी विश्व-कल्याणकारी धम्म-नीति का गहन एवं दूरगामी अनुभव किया है। इसने शुंगों की सांस्कृतिक निष्ठा, उनके कलात्मक संरक्षण और वैदिक पुनरुत्थान के प्रयासों को परखा है, स्थानीय नाग राजवंशों की क्षेत्रीय शक्ति, उनके विशिष्ट योगदान और उनकी राजनीतिक स्वायत्तता का अवलोकन किया है, महान गुप्त सम्राटों के 'स्वर्णयुग' की सांस्कृतिक आभा, उनकी प्रशासनिक उत्कृष्टता और उनके कलात्मक चरमोत्कर्ष से यह आलोकित हुई है। तत्पश्चात यह भूमि कल्चुरियों, प्रतिहारों और चंदेलों जैसे मध्यकालीन पराक्रमी और कला-प्रेमी राजवंशों के उत्थान, उनके गौरवशाली शासन, उनकी स्थापत्य कला की भव्यता और अंततः उनके पतन का यह मूक दृष्टा भी बनी है। इन विभिन्न और विविध राजवंशों ने न केवल यहाँ की राजनीतिक नियति, प्रशासनिक संरचना और सामाजिक ताने-बाने को समय-समय पर आकार दिया, बल्कि उन्होंने कला, स्थापत्य, धर्म, साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में अपनी अमिट, मूल्यवान और स्थायी विरासत भी छोड़ी है, जिसके जीवंत अवशेष आज भी इस क्षेत्र में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं और शोधकर्ताओं के लिए अध्ययन का विषय हैं। यह विस्तृत और गहन लेख रीवा अंचल के इसी गौरवशाली और बहुआयामी अतीत का एक व्यापक अध्ययन प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है। इसमें विभिन्न पुरातात्त्विक खोजों, प्राचीन अभिलेखों (शिलालेख, ताम्रपत्र, गुहालेख), विविध साहित्यिक प्रमाणों (संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश ग्रंथों), तथा महत्वपूर्ण मुद्राशास्त्रीय जानकारियों (सिक्कों के अध्ययन) के सुदृढ़ आधार पर, 13वीं शताब्दी में बघेल राजवंश के आगमन से पूर्व के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, कलात्मक और आर्थिक विकास का एक विस्तृत, समालोचनात्मक और तुलनात्मक विश्लेषण किया जाएगा। इस अध्ययन के माध्यम से हम यह देखने और समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे यह क्षेत्र विभिन्न संस्कृतियों, जातियों, धर्मों और विचारधाराओं का एक अद्भुत संगम स्थल बना और इसने भारतीय इतिहास तथा सभ्यता के निर्माण एवं विकास में क्या महत्वपूर्ण और विशिष्ट भूमिका निभाई।
बघेलखण्ड के प्राचीन इतिहास की यह गहन मीमांसा हमें न केवल पाषाणकालीन आखेटक-संग्राहक संस्कृतियों की गूढ़ता और उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति से परिचित कराएगी, बल्कि यह हमें महाजनपद काल की उदीयमान राजनीतिक चेतना, मौर्यों के विशाल साम्राज्यिक विस्तार और उनके प्रशासनिक तंत्र, गुप्तों के अद्वितीय सांस्कृतिक उत्कर्ष और कलात्मक पराकाष्ठा, तथा कल्चुरियों की प्रभावशाली क्षेत्रीय प्रभुता तक के विभिन्न महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सोपानों से भी अवगत कराएगी। इन सभी ने बघेलखण्ड की उर्वर भूमि पर अपनी अमिट और स्थायी छाप छोड़ी और एक ऐसी समृद्ध, विविधतापूर्ण तथा गौरवशाली ऐतिहासिक विरासत की नींव रखी जिस पर भविष्य के अनेक राजवंशों, विशेषकर बघेलों ने, अपनी कीर्ति, अपने शौर्य और अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों के अविस्मरणीय अध्याय लिखे।

(चित्र: विंध्याचल पर्वत श्रृंखला, बघेलखण्ड के इतिहास और भूगोल का अभिन्न अंग।)
1. बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक धरातल: पाषाणकालीन संस्कृतियों की गहन पड़ताल
नवीनतम पुरातात्विक गवेषणाओं, सुनियोजित उत्खननों और विभिन्न वैज्ञानिक विश्लेषणों ने यह अकाट्य और असंदिग्ध रूप से प्रमाणित कर दिया है कि बघेलखण्ड का विस्तृत भूभाग, वस्तुतः मानव सभ्यता के उषाकाल से ही, अर्थात् सुदूर प्रागैतिहासिक काल से, आदिमानव की विभिन्न गतिविधियों, उसकी क्रीड़ास्थली और उसकी प्रारंभिक तथा क्रमिक बसाहट का एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं निरंतर आबाद केंद्र रहा है। इस क्षेत्र की विशिष्ट और अनुकूल भौगोलिक संरचना – जिसमें विशाल और अभेद्य विंध्य तथा कैमूर पर्वत श्रृंखलाओं द्वारा निर्मित प्राकृतिक सुरक्षा कवच, सोन, टोंस, केन, बीहर, बिछिया जैसी जीवनदायिनी और वर्षभर प्रवाहित होने वाली नदियों तथा उनकी सहायक जलधाराओं की सतत जल आपूर्ति, और तत्कालीन सघन वनों तथा उपजाऊ घाटियों द्वारा प्रदत्त भोजन (कंद-मूल-फल, आखेट योग्य पशु-पक्षी) एवं अन्य आवश्यक संसाधनों की प्रचुरता सम्मिलित है – ने आदिमानव के जीवनयापन, उसके विकास और उसके सांस्कृतिक प्रस्फुटन के लिए एक आदर्श एवं अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) का सफलतापूर्वक निर्माण किया था।
पूर्व पाषाणकाल (Lower Paleolithic Age) – मानव के प्रथम पदचिह्न
बघेलखण्ड में मानव की उपस्थिति के प्राचीनतम और निर्विवाद पुरातात्त्विक साक्ष्य पूर्व पाषाणकाल (जो मोटे तौर पर लगभग 5,00,000 से 50,000 ई.पू. तक विस्तृत माना जाता है) से प्राप्त होते हैं। इस सुदीर्घ काल का मानव मुख्यतः एक शिकारी (Hunter) और खाद्य संग्राहक (Food Gatherer) था, जो भोजन और सुरक्षा की तलाश में छोटे-छोटे समूहों या टोलियों में निरंतर विचरण करता रहता था। उसके द्वारा दैनिक उपयोग में लाए जाने वाले पाषाण उपकरण मुख्य रूप से क्वार्टजाइट (Quartzite), बलुआ पत्थर (Sandstone) और कभी-कभी बेसाल्ट (Basalt) जैसे स्थानीय रूप से सहज उपलब्ध कठोर पत्थरों से निर्मित होते थे। इन औजारों की निर्माण तकनीक अत्यंत प्रारंभिक, अनगढ़ और मोटी थी, जिन्हें मुख्यतः ‘कोर टूल’ (Core Tool - पत्थर के मुख्य पिंड से बनाए गए औजार) और ‘फ्लेक टूल’ (Flake Tool - पत्थर के पिंड से उतारे गए शल्कों से निर्मित औजार) जैसी प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। इस काल के प्रमुख और चारित्रिक औजारों में भारी-भरकम तथा बहुउद्देशीय हस्तकुठार (Hand-axes), विभिन्न प्रकार के विदारक (Cleavers), और काटने तथा छीलने के काम आने वाले गड़ासे (Choppers/Chopping tools) प्रमुख रूप से सम्मिलित थे। डॉ. प्रीति पटेल के महत्वपूर्ण शोधपत्र में उद्धृत इतर पहाड़ (जिला रीवा), वर्दी (जिला सीधी), शिकारगंज (जिला सीधी) और अन्द्रावली (जिला शहडोल) जैसे उल्लेखनीय पुरातात्त्विक स्थल इस काल की महत्वपूर्ण मानव बस्तियों या उपकरण निर्माण कार्यशालाओं (Factory Sites) के रूप में सफलतापूर्वक चिन्हित किए गए हैं। इन स्थलों से प्राप्त पाषाण उपकरणों का गहन तकनीकी और तुलनात्मक अध्ययन तत्कालीन मानव की संज्ञानात्मक क्षमता, उसकी औजार बनाने की तकनीकी दक्षता, उसके आखेट के विशिष्ट तरीकों और अपने कठोर तथा चुनौतीपूर्ण पर्यावरण के साथ उसके निरंतर संघर्ष और अनुकूलन के संबंधों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है।
मध्य पाषाणकाल (Mesolithic Age) – सूक्ष्म उपकरणों और कला का उदय
लगभग 10,000 ई.पू. से लेकर 4,000 ई.पू. तक विस्तृत माने जाने वाले इस महत्वपूर्ण संक्रमणकालीन काल में, जिसे मध्य पाषाणकाल के नाम से जाना जाता है, पृथ्वी की जलवायु में महत्वपूर्ण और दूरगामी परिवर्तन हुए। तापमान में क्रमशः वृद्धि हुई, वर्षा की मात्रा और वितरण में बदलाव आया, तथा इसके परिणामस्वरूप वनस्पति जगत और जीव-जंतुओं के स्वरूप तथा उपलब्धता में भी उल्लेखनीय परिवर्तन परिलक्षित हुए। मध्य पाषाणकाल की सबसे बड़ी और चारित्रिक विशेषता है सूक्ष्म या लघु पाषाण उपकरणों (Microliths) का आविष्कार, उनका परिष्कृत निर्माण और उनका व्यापक तथा विविध प्रयोग। ये उपकरण सामान्यतः चर्ट (Chert), चकमक पत्थर (Flint), जैस्पर (Jasper), कार्नेलियन (Carnelian), अगेट (Agate) जैसे अर्ध-बहुमूल्य और सिलिकायुक्त पत्थरों से अत्यंत कुशलतापूर्वक बनाए जाते थे और अपने पूर्ववर्ती काल के औजारों की तुलना में आकार में अत्यंत छोटे (प्रायः 1 से 5 सेंटीमीटर तक) होते थे। इनमें विभिन्न प्रकार के ब्लेड (Blade), नुकीले पॉइंट (Point), ट्रेपीज (Trapeze - समलंब चतुर्भुजाकार), ल्यूनेट (Lunates – अर्धचंद्राकार फलक), और विभिन्न प्रकार के खुरचनी (Scraper) जैसे अत्यंत परिष्कृत और विशेषीकृत औजार सम्मिलित थे। इन सूक्ष्म और धारदार पाषाण औजारों को लकड़ी, हड्डी या सींग के बने हत्थों में लगाकर अधिक प्रभावी और बहुउद्देशीय संयुक्त उपकरण, जैसे तीर के अग्रभाग (Arrowheads), भाले के फलक (Spearheads), चाकू, हंसिया, आरी आदि, बनाए जाते थे, जिससे शिकार करने, मछली पकड़ने, कंद-मूल काटने और अन्य दैनिक कार्यों में अत्यधिक सुगमता हो गई थी। बघेलखण्ड में, विशेषकर टिकरिया रेलवे स्टेशन (जिला रीवा) के निकट स्थित मनगवां की भौंटी (एक छोटी पहाड़ी) नामक स्थान में, लघु पाषाण उद्योग के अत्यंत महत्वपूर्ण और समृद्ध पुरातात्त्विक अवशेष तथा उपकरण निर्माण स्थल (Factory Site) प्रकाश में आए हैं, जहाँ से हजारों की संख्या में माइक्रोलिथ्स और उनके निर्माण के विभिन्न चरणों के साक्ष्य मिले हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता आर्किबाल्ड कैम्पबेल लाइट कार्लाइल (A.C.L. Carlleyle) को 1867-68 ई. में ही तत्कालीन पुराने रीवा राज्य (बघेलखण्ड) के विभिन्न भागों से लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए थे, जो इस क्षेत्र में मध्य पाषाणकालीन अनुसंधान की अत्यंत प्रारंभिक शुरुआत को चिह्नित करते हैं। इसी मध्य पाषाणकाल में शैलाश्रयों और गुफाओं में स्थायी या अस्थायी रूप से निवास करने तथा उनकी भित्तियों एवं छतों पर विभिन्न प्रकार के रंगीन चित्रांकन करने की परंपरा और अधिक मुखर, व्यापक तथा कलात्मक रूप से विकसित हुई।
बघेलखण्ड के प्राचीन और रहस्यमय शैलाश्रयों की दीवारों पर मध्य पाषाणकालीन मानव ने अपनी कलात्मक प्रतिभा और अपने सूक्ष्म पर्यवेक्षण का प्रथम महत्वपूर्ण परिचय दिया, जो आगे चलकर और भी अधिक विकसित, परिष्कृत तथा विविधतापूर्ण हुई। ये अद्भुत शैलचित्र तत्कालीन मानव की जटिल जीवनशैली, उसके आखेट और खाद्य संग्रहण के तरीकों, उसकी प्रारंभिक सामाजिक संरचना, उसकी धार्मिक आस्थाओं और उसके चारों ओर फैले प्राकृतिक पर्यावरण के अमूल्य, जीवंत तथा प्रामाणिक दस्तावेज़ हैं, जो हमें उस सुदूर अतीत से सीधे संवाद करने का अवसर प्रदान करते हैं।
उत्तर पाषाणकाल (नवपाषाण काल सहित – Neolithic-Chalcolithic Phase) – कृषि क्रांति और स्थायी बसाहट
यह काल, जो लगभग 4,000 ई.पू. से 1,500 ई.पू. तक (या कुछ क्षेत्रों में और भी बाद तक) विस्तृत माना जाता है, मानव सभ्यता के इतिहास में एक युगांतरकारी और क्रांतिकारी परिवर्तन का साक्षी है। प्रसिद्ध ऑस्ट्रेलियाई पुरातत्ववेत्ता वी. गॉर्डन चाइल्ड (V. Gordon Childe) ने इस काल की महत्वपूर्ण उपलब्धियों के कारण इसे ‘नवपाषाणिक क्रांति’ (Neolithic Revolution) की सार्थक संज्ञा दी है। इस काल की सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम वाली उपलब्धि थी कृषि (Agriculture) और पशुपालन (Animal Husbandry) का विधिवत और सुनियोजित प्रारंभ, जिसने मानव को भोजन के लिए पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर रहने वाली शिकारी और खाद्य संग्राहक की अनिश्चित तथा घुमक्कड़ जीवनशैली से मुक्त कर दिया और उसे स्थायी ग्रामीण बसाहटों की ओर अग्रसर किया। बघेलखण्ड क्षेत्र में भी नवपाषाणिक संस्कृति के स्पष्ट और महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक प्रमाण मिलते हैं। इस काल के पाषाण उपकरण अब और अधिक परिष्कृत, सुडौल, घर्षित (Polished) और विशेषीकृत बनाए जाने लगे थे, जो उनकी बढ़ी हुई तकनीकी क्षमता को दर्शाते हैं। प्रमुख औजारों में विभिन्न प्रकार की पत्थर की कुल्हाड़ियाँ (Celts), बसूले (Adzes), छेनियाँ (Chisels), अनाज पीसने के लिए प्रयुक्त होने वाले सिलबट्टे (Saddle-querns), मूसल (Mullers), और संभवतः खेती में प्रयुक्त होने वाले गोलाकार छिद्रित गदाशीर्ष (Mace-heads or Ring-stones) प्रमुख रूप से सम्मिलित थे। डॉ. प्रीति पटेल अपने शोध में बताती हैं कि बघेलखण्ड के अमवा घाट, पटपरघाट, कटनी नदी घाटी क्षेत्र (विशेषकर कैमोर श्रृंखला का दक्षिणी ढलान), और दादर पहाड़ जैसे महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थानों से ऐसे नवपाषाण कालीन उपकरण प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। कृषि के क्रमिक विकास (जैसे गेहूँ, जौ, और संभवतः चावल के प्रारंभिक रूपों की खेती) और विभिन्न पशुओं (जैसे गाय, बैल, भेड़, बकरी, सूअर) के व्यवस्थित पशुपालन ने न केवल खाद्य सुरक्षा और निश्चितता प्रदान की, बल्कि अतिरिक्त उत्पादन (Surplus) को भी जन्म दिया। इसके परिणामस्वरूप जनसंख्या में वृद्धि हुई, स्थायी गाँवों का विकास हुआ, सामाजिक स्तरीकरण (Social Stratification) की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और श्रम विभाजन (Division of Labour) की नींव पड़ी। मृद्भांड निर्माण कला (Pottery Making) का व्यवस्थित विकास इस काल की एक और अत्यंत महत्वपूर्ण तकनीकी और सांस्कृतिक विशेषता थी। प्रारंभ में हाथ से बनाए गए (Hand-made) और बाद में धीमी गति से घूमने वाले चाक पर निर्मित (Slow-wheel made) विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तन भोजन पकाने, अनाज तथा अन्य वस्तुओं के भंडारण, और तरल पदार्थों को रखने तथा पीने-पिलाने के लिए व्यापक रूप से प्रयुक्त होने लगे। इन मृद्भांडों पर कभी-कभी अलंकरण और चित्रण भी किया जाता था, जो उनकी कलात्मक अभिरुचि को दर्शाता है। कुछ क्षेत्रों में, नवपाषाणिक संस्कृति के अंतिम चरणों में, तांबे (Copper) जैसी धातु का सीमित प्रयोग भी औजारों, हथियारों और आभूषणों के निर्माण में प्रारंभ हो गया था। इस मिश्रित सांस्कृतिक चरण को, जिसमें पत्थर के साथ-साथ तांबे का भी प्रयोग होता था, ताम्र-पाषाणिक संस्कृति (Chalcolithic Culture) के रूप में जाना जाता है। बघेलखण्ड के कुछ पुरातात्त्विक स्थलों से ऐसे मिश्रित सांस्कृतिक चरण के भी महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं, जो इस क्षेत्र में सभ्यता के अगले और अधिक उन्नत चरण की ओर एक महत्वपूर्ण संक्रमण को स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं।
एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला
2. आदिमानव की कलात्मक अभिव्यक्ति: बघेलखण्ड के शैलाश्रय – पाषाण युग के जीवंत अभिलेखागार
बघेलखण्ड का पहाड़ी, ऊबड़-खाबड़ और सघन वनाच्छादित भूभाग नैसर्गिक रूप से निर्मित अनेक शैलाश्रयों (Rock Shelters), कंदराओं और प्राकृतिक गुफाओं से परिपूर्ण है। ये विशिष्ट भौगोलिक संरचनाएँ प्रागैतिहासिक काल में आदिमानव के लिए न केवल वर्षा, शीत, धूप और हिंसक पशुओं से सुरक्षित आवास स्थल (Habitation Sites) थीं, बल्कि ये उसकी गहन कलात्मक, सृजनात्मक और संभवतः आध्यात्मिक तथा धार्मिक अभिव्यक्ति के लिए एक विशाल और स्थायी कैनवास भी बनीं। इन शैलाश्रयों की खुरदरी या चिकनी भित्तियों (दीवारों) और छतों पर गेरू (Hematite - लाल रंग), हिरमिजी (Red Ochre - गहरा लाल रंग), रामरज (Yellow Ochre - पीला रंग), सफेद खड़िया (Lime or Kaolin - सफेद रंग) और कोयले (Charcoal - काला रंग) जैसे स्थानीय रूप से उपलब्ध प्राकृतिक खनिज रंगों तथा अन्य जैविक पदार्थों का कुशलतापूर्वक प्रयोग कर आदिमानव ने अपने चारों ओर के परिवेश, अपने दैनिक जीवन के विभिन्न क्रियाकलापों, अपनी आस्थाओं, अपने भय, अपनी आशाओं और अपनी कल्पनाओं को विभिन्न प्रकार के आकर्षक और जीवंत चित्रों के माध्यम से साकार किया। ये अद्भुत शैलचित्र न केवल भारत की, बल्कि संपूर्ण विश्व की प्राचीनतम कला धरोहरों में से एक अमूल्य निधि हैं। ये तत्कालीन मानव समाज, उसकी जटिल जीवनशैली, उसके आखेट के तरीकों, उसके सामाजिक संगठन, उसकी धार्मिक और जादुई आस्थाओं, तथा उसके अपने प्राकृतिक पर्यावरण के साथ उसके गहरे और अविभाज्य संबंधों को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और अद्वितीय पुरातात्त्विक स्रोत हैं।
प्रमुख शैलाश्रय स्थल एवं चित्रण विषय-वस्तु:
चित्रकूट क्षेत्र एवं मझगवां (जिला सतना): विंध्य क्षेत्र, विशेषकर मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) और उसके निकटवर्ती चित्रकूट के आसपास के क्षेत्रों में, प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की खोज का श्रेय प्रसिद्ध ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता और अन्वेषक आर्किबाल्ड कैम्पबेल लाइट कार्लाइल (A.C.L. Carlleyle) और जॉन काकबर्न (John Cockburn) को दिया जाता है, जिन्होंने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध (मुख्यतः 1867-68 और उसके बाद) में ही इन महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थलों को प्रकाश में लाया था। मझगवां (जिसे स्थानीय लोग 'करिया बब्बा' या 'मड़वा पाथर' के नाम से भी जानते हैं) नामक स्थान पर स्थित शैलाश्रयों में विभिन्न प्रकार के शिकारियों (धनुष-बाण, भाले, कुल्हाड़ी आदि से सुसज्जित), बंदरों की उछल-कूद, स्वास्तिक के प्राचीनतम और सरल रूपों, विभिन्न प्रकार के हिरणों (जैसे बारहसिंगा, चीतल, सांभर), हाथियों, बैलों, और अन्य अनेक पशु-पक्षियों का अत्यंत स्पष्ट, गतिशील और जीवंत अंकन देखा जा सकता है। इस शैलाश्रय समूह की एक और अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहाँ की एक चट्टान पर मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण एक संक्षिप्त अभिलेख भी पाया गया है। यह अभिलेख यह अकाट्य रूप से दर्शाता है कि यह विशेष शैलाश्रय स्थल प्रागैतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक निरंतर मानव गतिविधियों और बसाहट का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा होगा, और इसका धार्मिक या सामाजिक महत्व ऐतिहासिक काल में भी बना रहा होगा।
गिंजा पहाड़ (जिला रीवा): रीवा-डभौरा मुख्य मार्ग पर स्थित चौखण्डी नामक ग्राम के समीप स्थित यह पहाड़ी शैलचित्रों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण और समृद्ध मानी जाती है। यहाँ एक विशाल शिलापट्ट पर मघवंशी शासक महाराज भीमसेन का उनके शासनकाल के 52वें वर्ष (जो संभवतः शक संवत 52 अर्थात 130 ईस्वी के समकक्ष है) का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अभिलेख गेरुए रंग से स्पष्ट रूप से अंकित है। इस महत्वपूर्ण अभिलेख के अतिरिक्त, इस शैलाश्रय समूह में विभिन्न प्रकार के आखेट के रोमांचक दृश्य, दो दलों के बीच युद्ध या संघर्ष के दृश्य, लयबद्ध तरीके से नृत्य करते हुए मानव समूह (जो संभवतः किसी उत्सव, धार्मिक अनुष्ठान या सामाजिक समारोह से संबंधित हो सकते हैं), विभिन्न पशु-आकृतियाँ (जैसे बाघ, चीता, सांभर, नीलगाय, भालू), और अनेक प्रकार के ज्यामितीय तथा प्रतीकात्मक चिह्न (जैसे वृत्त, त्रिकोण, सर्पिलाकार रेखाएँ) प्रचुर मात्रा में अंकित हैं, जो विभिन्न कालों और सांस्कृतिक चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
रीवा जिले के अन्य महत्वपूर्ण शैलाश्रय स्थल (प्रो. राधाकान्त वर्मा एवं उनके सहयोगियों द्वारा खोजे गए और अध्ययन किए गए): तत्कालीन रीवा विश्वविद्यालय (जो अब अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है) के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के संस्थापक अध्यक्ष, श्रद्धेय प्रो. राधाकान्त वर्मा, और उनके निष्ठावान सहयोगियों (जैसे डॉ. अयोध्या प्रसाद पाण्डेय, डॉ. राकेश तिवारी आदि) ने 1970 और 1980 के दशकों में रीवा जिले तथा आसपास के क्षेत्रों में व्यापक पुरातात्त्विक सर्वेक्षण कर गड्डी शैलाश्रय समूह, बदवार शैलाश्रय समूह, जलदर, खन्दो, शिवपुरवा, हनुमानधारा जैसे अनेक नए और महत्वपूर्ण शैलाश्रय स्थलों की खोज की थी और उनका वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया था। इन विभिन्न स्थलों पर पाए गए शैलचित्रों में लाल, सिंदूरी, गहरे लाल (Blood Red), मटमैले, सफेद और कभी-कभी काले रंगों का अत्यंत प्रभावी और कलात्मक प्रयोग किया गया है। इन चित्रों की विषय-वस्तु अत्यंत व्यापक और विविधतापूर्ण है, जिसमें विभिन्न प्रकार के हिरणों और अन्य जंगली पशुओं का शिकार, धनुष-बाण, भाले, कुल्हाड़ी और अन्य आदिम हथियारों से लैस शिकारी, दो या अधिक समूहों के बीच युद्ध या संघर्ष के दृश्य, विभिन्न मुद्राओं में सामूहिक नृत्य करते हुए स्त्री-पुरुषों के समूह (जो संभवतः किसी विशेष उत्सव, धार्मिक अनुष्ठान या सामाजिक समारोह से संबंधित हो सकते हैं), मानव हाथ की रंगीन छापें (Hand Prints - जो किसी प्रकार की उपस्थिति या अधिकार का प्रतीक हो सकती हैं), और अनेक प्रकार के प्रतीकात्मक तथा ज्यामितीय अंकन प्रमुख रूप से शामिल हैं। इनमें से कुछ चित्रों में अध्यारोपण (Superimposition – अर्थात् एक चित्र के ऊपर दूसरा या तीसरा चित्र बनाना) की तकनीक भी स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है, जो इन शैलाश्रयों के अत्यंत दीर्घकालिक उपयोग (विभिन्न सांस्कृतिक चरणों में) और विभिन्न कला शैलियों के क्रमिक विकास का एक महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक प्रमाण है। इन विभिन्न प्रकार के शैलचित्रों का गहन और तुलनात्मक अध्ययन हमें न केवल प्रागैतिहासिक मानव के विकसित सौंदर्यबोध, उसकी उन्नत कल्पनाशीलता, उसके जटिल धार्मिक और जादुई विश्वासों (जैसे पशुओं की आत्माओं की पूजा, शिकार में सफलता के लिए अनुष्ठान, प्रकृति की विभिन्न शक्तियों का मानवीकरण) और उसके अपने प्राकृतिक परिवेश के साथ उसके गहरे तथा अविभाज्य संबंधों की एक स्पष्ट अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, बल्कि ये चित्र उस सुदूर काल के सामाजिक संगठन, उनके द्वारा प्रयुक्त होने वाले औजारों और हथियारों, तथा उनके जीवनयापन के विविध तरीकों पर भी महत्वपूर्ण और रोचक प्रकाश डालते हैं। ये शैलचित्र वास्तव में पाषाण युग के जीवंत अभिलेखागार हैं, जो हमें उस समय की अनकही कहानियाँ सुनाते हैं।
3. आद्यैतिहासिक काल एवं प्रारंभिक जनपदों का उदय: सभ्यता के नए सोपान
कृषि और पशुपालन जैसी क्रांतिकारी तकनीकों के सुदृढ़ आधार पर टिकी हुई स्थायी और विकसित ग्रामीण बसाहटों के व्यापक विकास के साथ, बघेलखण्ड क्षेत्र में लगभग ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दी के मध्य से (अर्थात् लगभग 1500 ई.पू. से लेकर 600 ई.पू. तक) आद्यैतिहासिक युग (Protohistoric Period) की एक सुस्पष्ट और पहचान योग्य रूपरेखा धीरे-धीरे उभरने लगती है। इस महत्वपूर्ण संक्रमणकालीन काल में तांबे (Copper) और उसके विभिन्न मिश्रणों (Alloys) से बनी कांसे (Bronze) जैसी धातुओं का प्रयोग औजारों, हथियारों, आभूषणों और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माण में सीमित मात्रा में ही सही, परन्तु प्रारंभ हो गया था। यह चरण, जिसमें पत्थर के साथ-साथ तांबे का भी प्रयोग होता था, ताम्र-पाषाणिक संस्कृति (Chalcolithic Culture) के रूप में जाना जाता है। इस काल में मृद्भांड निर्माण कला में भी अत्यधिक उन्नति हुई और विभिन्न प्रकार के सुंदर, अलंकृत और तकनीकी रूप से बेहतर मिट्टी के बर्तन (Pottery) प्रकाश में आए। इनमें प्रमुख रूप से काले और लाल रंग के बर्तन (Black and Red Ware - BRW), विशिष्ट चित्रित धूसर मृद्भांड (Painted Grey Ware - PGW), और परवर्ती काल में (लगभग 700-600 ई.पू. से) अत्यंत चमकदार और उच्च गुणवत्ता वाले उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड (Northern Black Polished Ware - NBPW) उल्लेखनीय हैं। ये विभिन्न प्रकार के मृद्भांड न केवल तत्कालीन तकनीकी कौशल को दर्शाते हैं, बल्कि ये काल-निर्धारण, सांस्कृतिक संबंधों और व्यापारिक संपर्कों के अध्ययन के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक साक्ष्य हैं। इस काल में सामाजिक संगठन भी पहले की तुलना में अधिक जटिल और स्तरीकृत होने लगे थे। श्रम विभाजन (Division of Labour) अधिक स्पष्ट हुआ, विशेषीकृत शिल्पों का उदय हुआ, और विभिन्न समुदायों तथा क्षेत्रों के बीच वस्तुओं के विनिमय तथा व्यापार के भी प्रारंभिक पुरातात्त्विक प्रमाण मिलने लगते हैं। इसी पृष्ठभूमि में, गंगा घाटी और मध्य भारत में छोटे-छोटे कबायली राज्यों या जनपदों (Territorial States or Janapadas) का उदय हुआ, जो भारतीय राजनीतिक इतिहास के एक नए चरण का सूत्रपात था।
करुष (या कारुष) जनपद: बघेलखण्ड की प्राचीनतम राजनीतिक इकाई
महाकाव्य काल (अर्थात् रामायण और महाभारत की रचना का काल) और परवर्ती बौद्ध तथा जैन साहित्यिक ग्रंथों में वर्तमान बघेलखण्ड और उसके आसपास के विस्तृत क्षेत्र का तादात्म्य प्राचीन करुष (या कुछ ग्रंथों में कारुष) नामक जनपद से स्थापित किया जाता है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड (सर्ग 23, श्लोक 16-21) में महर्षि विश्वामित्र द्वारा युवा राजकुमारों राम और लक्ष्मण को इस क्षेत्र का परिचय देते हुए मलद और करुष नामक दो अत्यंत समृद्धिशाली और उपजाऊ जनपदों का उल्लेख किया गया है, जहाँ देवराज इंद्र ने वृत्रासुर का वध करने के उपरांत स्नान कर स्वयं को शुद्ध और पवित्र किया था। यह प्रसंग इस क्षेत्र की प्राचीनता और उसके पौराणिक महत्व को दर्शाता है। इसी प्रकार, महाभारत महाकाพย์ के विभिन्न पर्वों (जैसे आदि पर्व, सभा पर्व, भीष्म पर्व, कर्ण पर्व) में भी तत्कालीन भारत के अन्य शक्तिशाली महाजनपदों, जैसे चेदि, काशी, वत्स और मगध, के साथ-साथ करूष जनपद का भी उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख इसकी तत्कालीन राजनीतिक और भौगोलिक उपस्थिति को स्पष्ट रूप से प्रमाणित करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि करुष जनपद संभवतः विंध्य पर्वत श्रृंखला के पूर्वी भाग में, सोन और टोंस नदियों (तथा उनकी सहायक नदियों) की उपजाऊ घाटी में विस्तृत था, और इसने बघेलखण्ड क्षेत्र को एक प्रारंभिक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान प्रदान की। यहाँ के निवासियों को प्राचीन ग्रंथों में वीर, योद्धा और शक्तिशाली माना गया है। यद्यपि करुष जनपद की निश्चित सीमाओं, उसकी राजधानी और उसके विस्तृत इतिहास के बारे में अभी भी अधिक पुरातात्त्विक शोध की आवश्यकता है, तथापि यह निर्विवाद है कि यह बघेलखण्ड के प्राचीनतम राजनीतिक और सांस्कृतिक गठन का एक महत्वपूर्ण आधार था।
विशेष सूचना: ऐतिहासिक श्रृंखला
यह विस्तृत संस्करण "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" नामक हमारी महत्वाकांक्षी ऐतिहासिक श्रृंखला का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और आधारभूत भाग है, जो विशेष रूप से इस गौरवशाली क्षेत्र के प्राचीनतम इतिहास, उसकी प्रागैतिहासिक संस्कृतियों, पौराणिक संदर्भों एवं मौर्योत्तर काल तक के प्रारंभिक राजवंशों पर केंद्रित है। इस गूढ़, बहुआयामी और विस्तृत विषय पर हमारी समर्पित शोध टीम द्वारा लगभग दस भागों की एक व्यापक और गहन श्रृंखला प्रकाशित करने की महत्वाकांक्षी योजना है। इस श्रृंखला के प्रत्येक भाग में विभिन्न ऐतिहासिक कालखंडों, महत्वपूर्ण घटनाओं, प्रमुख शासकों, उनकी नीतियों, सांस्कृतिक विकास, सामाजिक परिवर्तनों और आर्थिक संरचना का गहन, निष्पक्ष और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा। हम आपसे, हमारे प्रबुद्ध, जिज्ञासु और इतिहास-प्रेमी पाठकों से, विनम्र अनुरोध करते हैं कि आप इस श्रृंखला के सभी भागों को धैर्यपूर्वक, मनोयोग से और आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ें, उन पर गहन चिंतन करें और अपने बहुमूल्य विचार, सारगर्भित सुझाव, तथ्यात्मक सुधार (यदि कोई हों) एवं रचनात्मक प्रतिक्रियाएं हमें अवश्य साझा करें। आपकी सक्रिय बौद्धिक सहभागिता और सकारात्मक प्रतिसाद हमारे इन शोध प्रयासों को न केवल सार्थकता और एक नवीन स्फूर्ति प्रदान करेगा, बल्कि हमें इस ऐतिहासिक वृत्तांत को और भी उन्नत, व्यापक, तथ्यात्मक रूप से सुदृढ़ और त्रुटिरहित बनाने में भी अमूल्य सहायता प्रदान करेगा।
ऐसे ही अन्य रोचक, ज्ञानवर्धक और शोधपरक ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक विषयों की गहन जानकारी नियमित रूप से प्राप्त करने तथा हमारे शोध एवं संपादन प्रयासों से सक्रिय रूप से जुड़ने, उन्हें समर्थन देने और हमारी इस ज्ञान यात्रा का हिस्सा बनने के लिए, कृपया हमें ईमेल करें: shriasheeshacharya@gmail.com
4. मौर्य साम्राज्य और उसके परवर्ती राजवंशों का प्रभाव: केन्द्रीय सत्ता का विस्तार और क्षेत्रीय शक्तियों का उदय
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उत्तर भारत और मध्य भारत में हुए गहन बौद्धिक, धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी अत्यंत महत्वपूर्ण और दूरगामी परिवर्तन हुए। इसी काल में छोटे-छोटे कबायली राज्यों और जनपदों के स्थान पर बड़े और अधिक संगठित राज्यों का उदय हुआ, जिन्हें प्राचीन ग्रंथों में सोलह महाजनपदों के नाम से जाना जाता है। इन महाजनपदों में आपसी संघर्ष और प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप अंततः मगध महाजनपद सबसे शक्तिशाली बनकर उभरा, जिसने भारत के प्रथम विशाल साम्राज्य की नींव रखी। बघेलखण्ड का क्षेत्र भी इन व्यापक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों से अछूता नहीं रहा, और यह समय-समय पर विभिन्न शक्तिशाली केंद्रीय तथा महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्तियों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव क्षेत्र के अधीन रहा, जिन्होंने इस क्षेत्र के इतिहास और संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।
नन्द एवं मौर्य वंश (लगभग 345 ई.पू. – 185 ई.पू.) – एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना
मगध के शासक महापद्मनंद के नेतृत्व में नंद वंश ने एक विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की, जिसमें संभवतः बघेलखण्ड का करुष जनपद भी विलीन हो गया था और मगध के प्रत्यक्ष नियंत्रण में आ गया था। नंदों के पतन के पश्चात, युवा चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु और मार्गदर्शक, महान कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) की सहायता से, नंद वंश का अंत कर भारत के प्रथम ऐतिहासिक और वस्तुतः अखिल भारतीय साम्राज्य – मौर्य साम्राज्य – की सुदृढ़ नींव डाली। मौर्य साम्राज्य के महानतम शासक, चक्रवर्ती सम्राट अशोक महान (शासनकाल लगभग 268-232 ई.पू.), के काल में मौर्य साम्राज्य अपनी शक्ति, विस्तार और सांस्कृतिक प्रभाव के चरमोत्कर्ष पर पहुँचा। बघेलखण्ड क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण भाग था, और सम्राट अशोक की धम्म-नीति के परिणामस्वरूप यहाँ बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। इसका सबसे ज्वलंत, अकाट्य और पुरातात्विक रूप से पुष्ट प्रमाण देउरकोठार (जिला रीवा) नामक स्थान पर स्थित विशाल बौद्ध स्तूपों का समूह, बौद्ध विहारों के खंडहर, और अशोककालीन ब्राह्मी लिपि तथा प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण प्रस्तर लेख हैं। ये स्तूप न केवल अपनी विशालता और स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये इस क्षेत्र में मौर्यकालीन सुसंगठित प्रशासनिक उपस्थिति, सम्राट अशोक की धार्मिक सहिष्णुता की नीति, और कला तथा स्थापत्य के विकास में उनकी गहरी रुचि के जीवंत और मौन साक्षी भी हैं। देउरकोठार संभवतः एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग पर स्थित एक प्रमुख बौद्ध केंद्र रहा होगा।
शुंग एवं कण्व वंश (लगभग 185 ई.पू. – 28 ई.पू.) – मौर्योत्तरकालीन संक्रमण
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात, अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ के महत्वाकांक्षी सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने उनकी हत्या कर सत्ता हस्तगत कर ली और शुंग वंश की स्थापना की। शुंग काल में यद्यपि बौद्ध धर्म को मौर्यों जैसा व्यापक राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं रहा, और वैदिक धर्म तथा ब्राह्मण परंपराओं का पुनरुत्थान हुआ, तथापि देउरकोठार जैसे महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्र संभवतः सक्रिय बने रहे और उनमें कुछ परिवर्धन तथा जीर्णोद्धार के कार्य भी हुए होंगे। बघेलखण्ड क्षेत्र संभवतः शुंगों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव क्षेत्र के अधीन रहा होगा, और उनके पुत्र राजकुमार अग्निमित्र, जिनकी एक महत्वपूर्ण राजधानी मध्य भारत में स्थित विदिशा थी, का इस क्षेत्र पर कुछ हद तक प्रशासनिक नियंत्रण हो सकता था। शुंगों के बाद कण्व वंश का एक अत्यंत अल्पकालिक और कमजोर शासन आया, जिसके बारे में विस्तृत जानकारी का अभाव है।
मित्र शासक एवं मघ शासक (लगभग दूसरी शताब्दी ई.पू. से चौथी शताब्दी ईस्वी) – क्षेत्रीय शक्तियों का उदय
शुंगों और कण्वों के पतन के बाद उत्तर और मध्य भारत में एक बार पुनः राजनीतिक विखंडन की स्थिति उत्पन्न हुई और अनेक स्थानीय तथा क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ। इनमें कौशाम्बी, मथुरा, अयोध्या और पांचाल जैसे महत्वपूर्ण प्राचीन नगरों से शासन करने वाले 'मित्र' नामधारी (अर्थात् जिनके नाम के अंत में 'मित्र' शब्द आता था, जैसे बृहस्पति मित्र, सूर्यमित्र आदि) शासक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। बघेलखण्ड की उत्तरी सीमा पर स्थित, भरहुत (जिला सतना), जो शुंगकालीन बौद्ध कला का एक विश्व प्रसिद्ध केंद्र था, के भव्य तोरणद्वारों पर उत्कीर्ण महत्वपूर्ण लेखों में विदिशा के तत्कालीन शासक धनभूति तथा स्थानीय शासकों रेवतीमित्र और वेणिमित्र जैसे 'मित्र' शासकों का प्रमुखता से उल्लेख मिलता है, जो इस क्षेत्र में उनकी राजनीतिक उपस्थिति को दर्शाता है। इसी कालखंड के दौरान, बघेलखण्ड के हृदय क्षेत्र, विशेषकर ऐतिहासिक बान्धवगढ़ और उसके आसपास के विस्तृत क्षेत्रों में, मघ (या कुछ विद्वानों के अनुसार मघवा) शासकों का एक शक्तिशाली और स्वतंत्र स्थानीय राजवंश उदित हुआ। इन शासकों के तांबे के सिक्के और महत्वपूर्ण प्रस्तर अभिलेख (जैसे महाराज भीमसेन का बान्धवगढ़ और गिंजा पहाड़ से प्राप्त प्रसिद्ध अभिलेख, जो उनके शासन के 52वें वर्ष अर्थात् लगभग 130 ईस्वी का है; तथा महाराज प्रोष्ठश्री/पोठसिरी के बान्धवगढ़ से प्राप्त अभिलेख, जो उनके शासन के 88वें वर्ष अर्थात् लगभग 166 ईस्वी के हैं) इस क्षेत्र से प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। ये शासक ‘महाराज’ की प्रतिष्ठित उपाधि धारण करते थे और संभवतः कुछ समय के लिए कुषाणों (जो उत्तर-पश्चिम भारत में एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर चुके थे) के समकालीन या उनके प्रभाव क्षेत्र से बाहर स्वतंत्र रूप से इस क्षेत्र पर शासन कर रहे थे। मघ शासकों का शासन बघेलखण्ड के प्रारंभिक ऐतिहासिक काल का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिस पर और अधिक गहन शोध की आवश्यकता है।
नागवंश (लगभग दूसरी से चौथी शताब्दी ईस्वी) – मध्य भारत की एक प्रमुख शक्ति
ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में पद्मावती (वर्तमान पवाया, जिला ग्वालियर, मध्य प्रदेश), कान्तिपुरी (वर्तमान कुतवार, जिला मुरैना, मध्य प्रदेश), मथुरा और विदिशा जैसे महत्वपूर्ण केंद्रों से शक्तिशाली नागवंश ने मध्य भारत के एक विस्तृत भूभाग पर अपना राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व सफलतापूर्वक स्थापित किया था। यद्यपि बघेलखण्ड क्षेत्र से नागवंश का कोई प्रत्यक्ष अभिलेख या सिक्का अभी तक निश्चित रूप से प्राप्त नहीं हुआ है, तथापि गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त की विश्व प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद स्तंभ लेख) में उनके द्वारा आर्यावर्त के जिन प्रमुख नाग शासकों को पराजित करने का उल्लेख मिलता है (जैसे नागसेन, गणपतिनाग, अच्युत, नन्दि), वह नागों की तत्कालीन शक्ति, उनके व्यापक प्रभाव क्षेत्र और उनकी राजनीतिक महत्ता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। यह संभव है कि बघेलखण्ड का कुछ भाग भी नागों के प्रभाव क्षेत्र में रहा हो।
वाकाटक एवं गुप्तवंश (लगभग 250 ईस्वी – 550 ईस्वी) – भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग
वाकाटकों का उदय दक्षिण भारत (विशेषकर विदर्भ और महाराष्ट्र) तथा मध्य भारत के कुछ भागों में गुप्तों के समकालीन एक अत्यंत प्रमुख और शक्तिशाली राजवंश के रूप में हुआ। वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण प्रथम के एक सामंत व्याघ्रदेव (जो बघेलों के पूर्वज व्याघ्रदेव से भिन्न हैं) का गंज (जिला पन्ना, मध्य प्रदेश) से प्राप्त अभिलेख इस क्षेत्र में वाकाटक प्रभाव का महत्वपूर्ण प्रमाण है। वाकाटकों के गुप्तों के साथ घनिष्ठ वैवाहिक और राजनीतिक संबंध भी थे। भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास में महान गुप्तवंश की स्थापना एक युगांतरकारी और अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी, जिसे प्रायः भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' या 'क्लासिकल युग' कहा जाता है। पाटलिपुत्र के श्रीगुप्त द्वारा लगभग तीसरी शताब्दी के अंत में स्थापित इस वंश के प्रतापी और दूरदर्शी शासकों – जैसे चंद्रगुप्त प्रथम, विश्वविजेता समुद्रगुप्त, महान चंद्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य', कला-प्रेमी कुमारगुप्त प्रथम और हूणों का सफलतापूर्वक सामना करने वाले वीर स्कन्दगुप्त – ने एक अत्यंत विशाल, सुसंगठित और समृद्ध अखिल भारतीय साम्राज्य का निर्माण किया। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में उनके द्वारा विजित या अधीनस्थ किए गए आटविक राज्यों (अर्थात् जंगली या जनजातीय प्रदेशों) के शासकों का उल्लेख मिलता है, जिसमें संभवतः बघेलखण्ड का दक्षिणी और पूर्वी वनाच्छादित भूभाग भी सम्मिलित रहा होगा। गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के शासनकाल का एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रस्तर अभिलेख रीवा जिले के सुपिया नामक ग्राम (जो गुप्त संवत 141 = 460-61 ईस्वी का है) से प्राप्त हुआ है, जो इस क्षेत्र पर गुप्तों के प्रत्यक्ष प्रशासनिक नियंत्रण का एक अकाट्य प्रमाण है। इसी प्रकार, परवर्ती गुप्त शासक बुधगुप्त के शासनकाल का एक अन्य महत्वपूर्ण अभिलेख सीधी जिले के शंकरपुर नामक ग्राम से भी प्राप्त हुआ है। गुप्तों के सामंत के रूप में, परिव्राजक महाराज वंश के शासक डभाल (या डाहल, जो बघेलखण्ड क्षेत्र का ही प्राचीन नाम माना जाता है) और उसके आसपास के क्षेत्रों पर सफलतापूर्वक शासन कर रहे थे। उनके अनेक महत्वपूर्ण ताम्रपत्र अभिलेख (जैसे खोह, मझगवां, बेतूल आदि स्थानों से प्राप्त) इस क्षेत्र से प्रचुर मात्रा में मिले हैं, जिनमें महाराजा हस्तिन, महाराजा संक्षोभ और महाराजा जयनाथ जैसे शासकों के नाम, उनकी वंशावली, उनके द्वारा किए गए विभिन्न भूमिदानों का विस्तृत उल्लेख, और तत्कालीन भू-राजस्व प्रणाली, धार्मिक स्थिति (विशेषकर ब्राह्मण धर्म, वैष्णव तथा शैव संप्रदायों का प्रभाव), सामाजिक संरचना तथा प्रशासनिक व्यवस्था को समझने में अत्यंत महत्वपूर्ण सहायता मिलती है।
हूण आक्रमण एवं परवर्ती गुप्त तथा वर्द्धन वंश (लगभग 5वीं सदी के अंत से 7वीं सदी ईस्वी) – अस्थिरता का दौर
पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और छठी शताब्दी के प्रारंभ में मध्य एशिया से आए बर्बर और आक्रामक हूणों के निरंतर और विनाशकारी आक्रमणों ने शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य को बुरी तरह से जर्जर और कमजोर कर दिया, जिससे अंततः उसका पतन हो गया। हूण आक्रमणों के इस दौर में उत्तर और मध्य भारत में व्यापक राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता फैल गई। इसके पश्चात, उत्तरी भारत में थानेश्वर (हरियाणा) के वर्द्धन वंश (जिसे पुष्यभूति वंश भी कहा जाता है) का उदय हुआ, जिसके सबसे प्रतापी और प्रसिद्ध शासक सम्राट हर्षवर्धन (शासनकाल लगभग 606-647 ईस्वी) ने एक बार पुनः उत्तरी भारत में एक विशाल और सुसंगठित साम्राज्य स्थापित करने का सफल प्रयास किया। बघेलखण्ड का क्षेत्र संभवतः हर्षवर्धन के विस्तृत साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा होगा, यद्यपि इस संबंध में प्रत्यक्ष अभिलेखीय साक्ष्य सीमित हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरणों से तत्कालीन मध्य भारत की राजनीतिक और धार्मिक स्थिति पर कुछ प्रकाश पड़ता है।
गुर्जर-प्रतिहार एवं कल्चुरी वंश (लगभग 8वीं से 13वीं शताब्दी ईस्वी) – राजपूत शक्तियों का उत्कर्ष
सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात उत्तर भारत में एक बार पुनः राजनीतिक विखंडन और अस्थिरता का दौर आया, तथा अनेक छोटी-बड़ी राजपूत शक्तियों का उदय हुआ। कालंजरमण्डल (जिसमें बघेलखण्ड का उत्तरी और पश्चिमी भाग, विशेषकर कालिंजर का दुर्ग, सम्मिलित था) कुछ समय के लिए कन्नौज के शक्तिशाली गुर्जर-प्रतिहारों के अधिकार क्षेत्र में रहा होगा, जो उस समय उत्तर भारत की प्रमुख शक्ति थे। तथापि, बघेलखण्ड के इतिहास और संस्कृति पर सबसे महत्वपूर्ण, व्यापक और दीर्घकालिक प्रभाव त्रिपुरी (वर्तमान जबलपुर के निकट स्थित तेवर ग्राम) के कल्चुरी (या हैहय या चेदि) राजवंश का रहा। लगभग सातवीं शताब्दी ईस्वी में वामराजदेव द्वारा स्थापित इस राजवंश ने आगामी कई शताब्दियों तक मध्य भारत में एक विस्तृत, शक्तिशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध साम्राज्य का सफलतापूर्वक संचालन किया। कल्चुरी शासक मुख्यतः शैव धर्म के महान संरक्षक और अनुयायी थे, और उनके शासनकाल में अनेक भव्य शिव मंदिरों, मठों और कलात्मक मूर्तियों का निर्माण हुआ। युवराजदेव प्रथम (शासनकाल लगभग 915-945 ईस्वी), जो एक अत्यंत शक्तिशाली और कला-प्रेमी शासक थे, ने मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध और तपस्वी मत्तमयूर शैव संप्रदाय के तत्कालीन प्रमुख आचार्य प्रभावशिव को अपने राज्य में आमंत्रित किया और उन्हें रीवा नगर के समीप गुर्गी (या गोरगी) नामक स्थान पर एक विशाल, भव्य और कलात्मक मठ तथा उससे संलग्न एक विशाल शिव मंदिर (संभवतः कैलाशेश्वर महादेव मंदिर) का निर्माण करवाने के लिए प्रचुर मात्रा में धन और भूमि दान में दी। इसी प्रकार, गांगेयदेव विक्रमादित्य (शासनकाल लगभग 1015-1041 ईस्वी) और उनके पराक्रमी पुत्र लक्ष्मीकर्ण (या कर्ण, शासनकाल लगभग 1041-1073 ईस्वी) अत्यंत शक्तिशाली, महत्वाकांक्षी और कला-प्रेमी शासक हुए, जिन्होंने अपने साम्राज्य का चतुर्दिक विस्तार किया और अनेक महत्वपूर्ण निर्माण कार्य करवाए। लक्ष्मीकर्ण के शासनकाल का एक रीवा से प्राप्त अभिलेख उनकी गुर्जर देश (गुजरात) पर विजय का उल्लेख करता है, जो उनकी सैन्य शक्ति को दर्शाता है। नरसिंहदेव के लाल पहाड़ (भरहुत के निकट) और आल्हाघाट (अमरकंटक के निकट, रीवा जिले में) से प्राप्त लेख भी कल्चुरी इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक, दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों और आंतरिक कमजोरियों के कारण, त्रिपुरी के शक्तिशाली कल्चुरियों का पतन हो चुका था। इससे बघेलखण्ड और मध्य भारत के क्षेत्र में एक बार पुनः राजनीतिक शून्य और अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हुई, और यही वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी जिसमें गुजरात से आए महत्वाकांक्षी बघेल राजपूतों ने इस क्षेत्र में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने का एक सुनहरा अवसर पाया, जो बघेलखण्ड के इतिहास के एक नए और गौरवशाली अध्याय का प्रारंभ था।
आप सभी को निमंत्रण है! हमारी ऐतिहासिक यात्रा में शामिल हों!
📜यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।
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shriasheeshacharya@gmail.comबघेलखण्ड के प्राचीन इतिहास की महत्वपूर्ण झलकियाँ
प्रमुख कालखंड एवं तिथियाँ (अनुमानित):
पूर्व पाषाणकाल (लगभग 5,00,000 – 50,000 ई.पू.), मध्य पाषाणकाल (लगभग 10,000 – 4,000 ई.पू.), नवपाषाण काल (लगभग 4,000 – 1,500 ई.पू.), करुष जनपद काल (महाकाव्य काल से ~6ठी श. ई.पू.), मौर्य साम्राज्य (~322 – 185 ई.पू.), मघ शासक (~100 – 350 ई.), गुप्त साम्राज्य (~320 – 550 ई.), कल्चुरी शासन (~650 – 1212 ई.)।
महत्वपूर्ण व्यक्ति एवं राजवंश:
आदिमानव, करुष जनपद के शासक, सम्राट अशोक (मौर्य), महाराज भीमसेन (मघ), समुद्रगुप्त (गुप्त), महाराजा हस्तिन (परिव्राजक), युवराजदेव प्रथम (कल्चुरी), तथा कनिंघम, कार्लाइल, काकबर्न, वर्मा जैसे पुरातत्ववेत्ता।
प्रमुख पुरातात्त्विक स्थल एवं उनका महत्व:
देउरकोठार (मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप), गिंजा पहाड़ (प्रागैतिहासिक शैलाश्रय एवं मघ अभिलेख), सुपिया (स्कंदगुप्त का अभिलेख), गुर्गी (कल्चुरीकालीन शैव मठ), बान्धवगढ़ (गुप्तकालीन गुफाएँ व मूर्तियाँ), भरहुत (शुंगकालीन स्तूप अवशेष)।
ऐतिहासिक घटनाएँ एवं विवेचन:
कृषि आधारित ग्रामीण सभ्यताओं का विकास, छोटे जनपदों का बड़े साम्राज्यों (मौर्य, गुप्त) में विलय, फिर क्षेत्रीय शक्तियों (मघ, कल्चुरी) का उदय। बौद्ध, वैष्णव, शैव धर्मों का क्रमिक उत्कर्ष और कला-स्थापत्य का विकास, जो बघेल राजवंश के उदय की पृष्ठभूमि तैयार करता है।
रीवांचल की प्राचीन गाथा की शब्दावली एवं अवधारणाएँ

(चित्र: विंध्याचल पर्वत श्रृंखला, जो इस क्षेत्र के इतिहास और पौराणिक कथाओं का केंद्र रही है।)
विशेषज्ञ वक्तव्य (वीडियो उदाहरण)
(यह एक प्लेसहोल्डर वीडियो है। बघेलखण्ड के प्राचीन इतिहास, प्रागैतिहासिक शैलाश्रयों, मौर्यकालीन देउरकोठार, गुप्तकालीन बंधवगढ़, या कल्चुरीकालीन गुर्गी जैसे महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थलों पर किसी प्रतिष्ठित पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार या विषय विशेषज्ञ के जानकारीपूर्ण वक्तव्य या साक्षात्कार का वास्तविक YouTube VIDEO_ID यहाँ डाला जा सकता है।)
अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ
रीवांचल के प्राचीन और गौरवशाली इतिहास का गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित प्रकार के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यह सूची केवल सांकेतिक है और विस्तृत तथा गंभीर शोध कार्य के लिए अनेक अन्य विशिष्ट विद्वानों के मौलिक कार्यों, पुरातात्विक रिपोर्टों, शोध-पत्रों और अभिलेखीय सामग्री का अवलोकन किया जाना नितांत आवश्यक है:
प्राथमिक पुरातात्त्विक स्रोत:
- विभिन्न कालखंडों के पाषाणकालीन उपकरण जो रीवा, सीधी, सतना, शहडोल, सिंगरौली और नवगठित मऊगंज जिलों की प्रमुख नदी घाटियों (जैसे सोन, टोंस, केन, बीहर, बिछिया आदि) तथा विभिन्न शैलाश्रयों और गुफाओं से प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं।
- चित्रकूट, मझगवां, गोविंदगढ़, गिंजा पहाड़, गड्डी, बदवार, खन्दो, जलदर आदि महत्वपूर्ण स्थलों के शैलाश्रयों में उकेरे गए प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल के शैल चित्र तथा उत्कीर्णन।
- देउरकोठार के विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप, बौद्ध विहारों की संरचनाएँ, मौर्यकालीन प्रस्तर स्तंभों के खंडित भाग एवं उन पर उत्कीर्ण अशोककालीन ब्राह्मी लिपि के महत्वपूर्ण अभिलेख।
- बान्धवगढ़ और उसके आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त मघ राजवंश के शासकों के विशिष्ट सिक्के (विशेषकर तांबे के) एवं बान्धवगढ़ तथा गिंजा (भरहुत के निकट) से प्राप्त उनके महत्वपूर्ण प्रस्तर अभिलेख।
- गुप्तकालीन महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक साक्ष्य, जैसे सुपिया (रीवा जिला) एवं शंकरपुर (सीधी जिला) से प्राप्त प्रस्तर अभिलेख, परिव्राजक महाराजाओं के विभिन्न ताम्रपत्र अभिलेख (जो खोह, मझगवां, बेतूल आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं), तथा बान्धवगढ़ की विश्व प्रसिद्ध गुप्तकालीन कलात्मक गुफाएँ एवं उनमें उत्कीर्ण भव्य मूर्तियाँ।
- कल्चुरी शासकों के शासनकाल से संबंधित गुर्गी, रीवा नगर, बान्धवगढ़, लाल पहाड़ (भरहुत के निकट), आल्हाघाट (अमरकंटक के पास) आदि महत्वपूर्ण स्थलों से प्राप्त विभिन्न प्रस्तर अभिलेख, ताम्रपत्र, स्वर्ण, रजत एवं ताम्र सिक्के, तथा विशाल और कलात्मक मंदिरों के खंडहर एवं मूर्तियाँ।
महत्वपूर्ण शोध-पत्र एवं ग्रंथ (उदाहरण):
/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */ 1. पटेल, डॉ. प्रीति. "बघेलखण्ड का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (प्रारम्भ से 13वीं शताब्दी तक)". (यह किसी विशिष्ट प्रकाशित या अप्रकाशित पीएच.डी. शोध प्रबंध या पुस्तक का उदाहरण हो सकता है जो बघेल-पूर्व काल पर केंद्रित हो, और जिसमें पुरातात्त्विक तथा साहित्यिक साक्ष्यों का विस्तृत विश्लेषण हो)। 2. परिहार, डॉ. नृपेन्द्र सिंह. "बघेलखण्ड की कला एवं पुरातत्व". (यह भी एक संभावित महत्वपूर्ण शोध कृति का उदाहरण है जो क्षेत्र की कलात्मक विरासत, स्थापत्य शैली और पुरातात्त्विक स्थलों पर गहन प्रकाश डालती है)। 3. वर्मा, प्रो. राधाकान्त. (पूर्व प्रोफेसर, प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय) द्वारा रीवा जिले के शैलाश्रयों, प्रागैतिहासिक संस्कृतियों, पाषाण उपकरणों और पुरातात्त्विक स्थलों पर विभिन्न प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित महत्वपूर्ण शोध लेख, विस्तृत मोनोग्राफ एवं महत्वपूर्ण उत्खनन रिपोर्टें। 4. कार्लाइल, ए.सी.एल. (A.C.L. Carlleyle) एवं काकबर्न, जॉन (John Cockburn). भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India) की 19वीं सदी की आरंभिक रिपोर्टें, जिनमें विंध्य क्षेत्र (विशेषकर मिर्जापुर और बघेलखण्ड) के शैलाश्रयों और प्रागैतिहासिक स्थलों का सर्वप्रथम विस्तृत वैज्ञानिक उल्लेख और विवरण मिलता है। 5. मिराशी, महामहोपाध्याय वा.वि. (V.V. Mirashi). "कार्पस इंस्क्रिप्शनम इंडिकेरम (Corpus Inscriptionum Indicarum), भाग IV: इंस्क्रिप्शन्स ऑफ द कल्चुरी-चेदि एरा (Inscriptions of the Kalachuri-Chedi Era)"। (यह ग्रंथ कल्चुरी राजवंश के अभिलेखों का सबसे प्रामाणिक, विस्तृत, पाठ-समीक्षित और महत्वपूर्ण संकलन माना जाता है)। 6. जायसवाल, डॉ. काशी प्रसाद. "भारतवर्ष का अंधकारयुगीन इतिहास" (History of India, 150 A.D. to 350 A.D.)। (इस महत्वपूर्ण ग्रंथ में मघ राजवंश, नाग वंश और अन्य समकालीन शक्तियों तथा उनके काल के राजनीतिक इतिहास पर महत्वपूर्ण मौलिक विचार एवं विश्लेषण प्रस्तुत किए गए हैं)। 7. पाण्डेय, डॉ. अयोध्या प्रसाद. "विंध्य क्षेत्र का पुरातत्व"। (यह भी एक संभावित महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ का उदाहरण है, जो इस क्षेत्र की पुरातात्त्विक संपदा पर केंद्रित हो सकता है)। 8. बाजपेयी, प्रो. कृष्णदत्त. "मध्य प्रदेश का पुरातत्व" एवं उनके द्वारा संपादित विभिन्न शोध ग्रंथ तथा विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित अनेक लेख, जो मध्य भारत के पुरातत्व और इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। 9. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India - ASI) की विभिन्न वार्षिक रिपोर्टें (Annual Reports of ASI), विस्तृत उत्खनन प्रतिवेदन (Excavation Reports - जैसे देउरकोठार, गुर्गी, बान्धवगढ़, भरहुत आदि पर विशेष और विस्तृत रिपोर्टें) और अन्य महत्वपूर्ण तथा प्रामाणिक प्रकाशन (जैसे Memoirs of the ASI, Indian Archaeology: A Review)। 10. विभिन्न भारतीय विश्वविद्यालयों (जैसे अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा; इलाहाबाद विश्वविद्यालय; बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय; डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर; विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन आदि) के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभागों द्वारा समय-समय पर प्रकाशित प्रतिष्ठित अकादमिक शोध पत्रिकाएँ (जैसे 'प्रज्ञान' - इलाहाबाद विश्वविद्यालय, 'भारती' - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, 'मध्य भारती' - सागर विश्वविद्यालय आदि) तथा महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों की कार्यवाहियाँ। 11. शर्मा, प्रो. राम शरण (R.S. Sharma). "इंडियाज एन्शिएंट पास्ट" (India's Ancient Past) एवं उनकी अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकें जो प्राचीन भारतीय सामाजिक-आर्थिक इतिहास पर प्रकाश डालती हैं। 12. रायचौधरी, डॉ. हेमचंद्र (H.C. Raychaudhuri). "पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएंट इंडिया" (Political History of Ancient India), (From the Accession of Parikshit to the Extinction of the Gupta Dynasty). (यह ग्रंथ प्राचीन भारतीय राजनीतिक इतिहास का एक मानक संदर्भ ग्रंथ है)।
निष्कर्ष: अतीत की नींव पर वर्तमान का निर्माण
बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक और प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य अत्यंत गहन, स्तरित, विविधतापूर्ण और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रहा है। आदिमानव की पाषाणकालीन संस्कृतियों की आदिम और रहस्यमयी गूंज से लेकर, शैलाश्रयों में अत्यंत कलात्मकता से अंकित उसकी विकसित होती आध्यात्मिक चेतना और सौंदर्यबोध के प्रथम उद्गारों तक; करुष जैसे प्राचीन और वीर जनपदों की धूमिल किन्तु महत्वपूर्ण स्मृतियों से लेकर, मौर्य और गुप्त जैसे महान तथा शक्तिशाली अखिल भारतीय साम्राज्यों के सुसंगठित प्रशासनिक एवं प्रगतिशील सांस्कृतिक प्रभाव तक; और फिर मघ, वाकाटक, कल्चुरी जैसे प्रभावशाली और कला-प्रेमी क्षेत्रीय राजवंशों के गौरवशाली उत्थान और अंततः उनके पतन तक, इस ऐतिहासिक भूमि ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास के अनेक महत्वपूर्ण, निर्णायक और युगांतरकारी चरणों को न केवल निकट से देखा है, बल्कि उन्हें पूरी तरह से आत्मसात भी किया है और उनमें अपना विशिष्ट योगदान भी दिया है। यह सुदीर्घ, जटिल और समृद्ध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ही वह उर्वर और शक्तिशाली भूमि थी जिस पर मध्यकाल में, 13वीं शताब्दी के आसपास, गुजरात से आए वीर बघेल राजवंश का उदय हुआ। बघेलों ने न केवल इस क्षेत्र को एक नई राजनीतिक पहचान और स्थिरता प्रदान की, बल्कि उन्होंने इस प्राचीन विरासत को आगे बढ़ाते हुए आने वाली कई शताब्दियों तक इस क्षेत्र की नियति को एक नया, गौरवशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध स्वरूप भी सफलतापूर्वक प्रदान किया। इस प्राचीन और अमूल्य विरासत के पुरातात्त्विक अवशेष – चाहे वे विभिन्न कालों के पाषाण उपकरण हों, गुफाओं और शैलाश्रयों में चित्रित अद्भुत शैलचित्र हों, बौद्ध स्तूपों और प्राचीन मंदिरों के भव्य खंडहर हों, विभिन्न भाषाओं और लिपियों में उत्कीर्ण महत्वपूर्ण अभिलेख हों या विभिन्न धातुओं से निर्मित प्राचीन मुद्राएँ हों – आज भी बघेलखण्ड के कण-कण में, उसकी मिट्टी में, उसके पहाड़ों और नदियों में, एक अनमोल धरोहर के रूप में बिखरे पड़े हैं। ये मौन साक्ष्य हमें अपने गौरवशाली, विविधतापूर्ण और प्रेरणास्पद अतीत से जुड़ने, उसे गहराई से समझने और उससे सीख लेने का एक अद्वितीय तथा अनमोल अवसर प्रदान करते हैं। इस ऐतिहासिक यात्रा का अगला महत्वपूर्ण पड़ाव वीर बघेल राजवंश का अभ्युदय, उनका शासनकाल, उनकी राजनीतिक उपलब्धियाँ और उनका सांस्कृतिक योगदान होगा, जिसका विस्तृत और गहन विवेचन इस श्रृंखला की अगली पोस्ट में किया जाएगा, जो बघेलखण्ड के इतिहास के एक नए और रोमांचक अध्याय का अनावरण करेगी।
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2024 आचार्य आशीष मिश्र (शोध एवं संपादन)। सर्वाधिकार सुरक्षित।
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अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर प्राचीन बघेलखण्ड, बघेलखण्ड पुरातत्व, तथा प्राचीन रीवा लेबल देखें।
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