रीवा का प्रारंभिक इतिहास: वनवासी सभ्यता, प्राचीन राजवंश और बहु-सांस्कृतिक विरासत (प्रागैतिहासिक से मौर्योत्तर)

रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत

एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पड़ताल

शोध एवं संपादन: आचार्य आशीष मिश्र

भारत के हृदयस्थल में स्थित, मध्य प्रदेश का ऐतिहासिक रीवा संभाग, अपनी नैसर्गिक सुषमा, विशेषकर विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की गोद में बसे होने के कारण, और अपनी गहन, बहुस्तरीय तथा समृद्ध ऐतिहासिक विरासत के लिए प्राचीन काल से ही विख्यात रहा है। यह क्षेत्र मात्र एक भौगोलिक इकाई या प्रशासनिक प्रभाग नहीं है, अपितु यह सहस्राब्दियों से प्रवाहित हो रही भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की एक जीवंत, अविरल और स्पंदनशील धारा का एक महत्वपूर्ण साक्षी और पोषक रहा है। प्रस्तुत विस्तृत आलेख रीवा के इसी प्रारंभिक, किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण, काल का एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विश्लेषण प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है। इस विश्लेषण में हम इस क्षेत्र की गहन और प्राचीन वनवासी सभ्यताओं, विभिन्न शक्तिशाली प्राचीन राजवंशों (जैसे मौर्य, गुप्त, कल्चुरी आदि) के अमूल्य योगदान, महत्वपूर्ण और अभी तक अल्प-ज्ञात पुरातात्त्विक धरोहरों, और उस अद्भुत बहु-सांस्कृतिक ताने-बाने का अन्वेषण करेंगे, जिसने 13वीं शताब्दी में बघेलों के आगमन से बहुत पहले इस क्षेत्र की नियति को न केवल गढ़ा था, बल्कि उसे एक अद्वितीय और समृद्ध सांस्कृतिक पहचान भी प्रदान की थी।

गुजरात स्थित 'रानी की वाव'

(चित्र: गुजरात स्थित 'रानी की वाव': चालुक्य-सोलंकी स्थापत्य का एक उत्कृष्ट नमूना, जो बघेलों की पैतृक भूमि की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है।)

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प्रस्तावना: रीवा की प्राचीन आत्मा का अनावरण

भारत के हृदय प्रदेश, मध्य प्रदेश के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित, वर्तमान रीवा संभाग, अपनी नैसर्गिक और मनोहारी विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की गोद में बसा होने के कारण न केवल प्राकृतिक सुषमा से परिपूर्ण है, बल्कि यह अपनी गहन, बहुस्तरीय और अत्यंत समृद्ध ऐतिहासिक विरासत के लिए भी प्राचीन काल से ही विख्यात रहा है। यह क्षेत्र मात्र एक आधुनिक प्रशासनिक या भौगोलिक इकाई नहीं है, अपितु यह सहस्राब्दियों से भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवाहित हो रही गौरवशाली भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की एक जीवंत, अविरल और स्पंदनशील धारा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण साक्षी और सक्रिय पोषक रहा है। इसका इतिहास केवल यशस्वी और वीर बघेल वंश की लगभग सात शताब्दियों की कीर्ति-गाथा तक ही सीमित नहीं है, जैसा कि प्रायः समझा जाता है; वस्तुतः, इसकी जड़ें सुदूर प्रागैतिहासिक काल के गहन और रहस्यमय धुंधलके में विलीन हैं, जहाँ इस पावन भूमि पर आदिमानव के प्रथम पदचिह्न अंकित हुए थे, और जहाँ उनके द्वारा निर्मित पाषाण उपकरण तथा कलात्मक शैलाश्रय आज भी उनके अस्तित्व और उनकी रचनात्मकता की कहानी कहते हैं। कालचक्र के निरंतर आवर्तनों के साथ, इस पवित्र और ऐतिहासिक भूमि ने वैदिक ऋचाओं की गूंज सुनी है, प्राचीन महाजनपद काल में शक्तिशाली चेदि महाजनपद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और उसके उत्कर्ष को देखा है, चक्रवर्ती सम्राट अशोक के नेतृत्व में मौर्यों के विशाल साम्राज्यिक विस्तार और उनकी धम्म-नीति का गहन अनुभव किया है, शुंगों की सांस्कृतिक निष्ठा और उनके कलात्मक संरक्षण को परखा है, स्थानीय नाग राजवंशों की क्षेत्रीय शक्ति और उनके विशिष्ट योगदान का अवलोकन किया है, गुप्तों के 'स्वर्णयुग' की सांस्कृतिक आभा और प्रशासनिक उत्कृष्टता से यह आलोकित हुई है, और तत्पश्चात कल्चुरियों, चंदेलों तथा प्रतिहारों जैसे मध्यकालीन पराक्रमी राजवंशों के उत्थान, उनके गौरवशाली शासन और अंततः उनके पतन का यह मूक दृष्टा भी बनी है। इन विभिन्न राजवंशों ने न केवल यहाँ की राजनीतिक नियति और प्रशासनिक संरचना को समय-समय पर आकार दिया, बल्कि उन्होंने कला, स्थापत्य, धर्म, साहित्य और सामाजिक जीवन के क्षेत्र में अपनी अमिट और मूल्यवान विरासत भी छोड़ी है, जिसके अवशेष आज भी इस क्षेत्र में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। परंतु, रीवा का इतिहास केवल राजमहलों, विजय अभियानों और राजवंशों के उत्थान-पतन का लेखा-जोखा मात्र नहीं है, जैसा कि पारंपरिक इतिहास लेखन में प्रायः होता आया है। इसकी वास्तविक आत्मा, इसकी जीवंत धड़कन, यहाँ के मूल निवासियों – विशेषकर कोल, गोंड, बैगा, पनिका जैसी प्राचीन और सम्मानित वनवासी जनजातियों, और लोधी (या लोध), लवाना (या बंजारा) जैसे महत्वपूर्ण लोकजातीय समूहों की जीवंत, समृद्ध और प्रकृति-सहज संस्कृति में बसती है। इन समुदायों ने प्रकृति के साथ एक सामंजस्यपूर्ण और सह-अस्तित्व का संबंध स्थापित करते हुए इस भूमि की सामाजिक-आर्थिक संरचना और इसके सांस्कृतिक ताने-बाने को एक विशिष्ट, अनूठी और गहरी पहचान प्रदान की है, जो आज भी इसकी विशेषता है। उनकी लोककथाएँ, उनके पारंपरिक नृत्य और संगीत, उनके विशिष्ट पर्व और उत्सव, तथा उनकी प्रकृति-आधारित जीवन-शैली आज भी इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न और अविभाज्य अंग हैं, जिन्हें सहेजने और समझने की महती आवश्यकता है। यह भूमि विभिन्न धर्मों, आस्थाओं और दार्शनिक परंपराओं की एक अद्भुत संगम स्थली भी रही है, जहाँ शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध और मध्यकालीन सूफ़ी तथा संत परंपराओं ने न केवल एक साथ पल्लवित और पुष्पित होने का अवसर पाया, बल्कि उन्होंने परस्पर आदान-प्रदान और समन्वय के माध्यम से एक अद्भुत सर्वधर्म समभाव और सांस्कृतिक सौहार्द का वातावरण भी निर्मित किया। प्रस्तुत विस्तृत आलेख रीवा के इसी प्रारंभिक, किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण, कालखंड का, इसकी गहन और प्राचीन वनवासी सभ्यताओं का, विभिन्न प्राचीन राजवंशों द्वारा दिए गए अमूल्य योगदान का, क्षेत्र में बिखरी हुई महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक धरोहरों का, और उस अद्भुत, जटिल तथा बहु-सांस्कृतिक ताने-बाने का एक गहन और समालोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है, जिसने 13वीं शताब्दी में बघेल राजवंश के आगमन से बहुत पहले इस क्षेत्र की नियति को न केवल गढ़ा था, बल्कि उसे एक अद्वितीय, समृद्ध और स्थायी सांस्कृतिक पहचान भी प्रदान की थी।

रीवा की उपजाऊ मिट्टी में इतिहास की अनगिनत परतें अत्यंत सघनता से समाई हुई हैं, जहाँ हर प्राचीन पत्थर और टीला एक अनकही कहानी कहता है, और हर पारंपरिक लोकगीत अतीत की मधुर या मार्मिक धुनें गुनगुनाता हुआ प्रतीत होता है, जो हमें अपने गौरवशाली और विविधतापूर्ण अतीत से जोड़ता है।

एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला

वनवासी सभ्यताएँ एवं स्थानीय समुदाय: रीवा की आत्मा के संरक्षक

रीवा की प्रारंभिक सभ्यता, उसकी विशिष्ट संस्कृति और उसकी जटिल सामाजिक संरचना की आधारशिला यहाँ की उन वनवासी और स्थानीय समुदायों ने रखी, जिन्होंने युगों से इस विंध्य भूमि को अपना घर माना है, इसकी प्रकृति का संरक्षण किया है, और इसकी पहचान को अक्षुण्ण तथा जीवंत बनाए रखा है। इन समुदायों का योगदान न केवल इस क्षेत्र के प्राचीनतम निवासी होने के नाते महत्वपूर्ण है, बल्कि उनकी जीवनशैली, उनकी परंपराएं, उनके ज्ञान-प्रणालियाँ और उनकी कलात्मक अभिव्यक्तियाँ आज भी रीवा की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा हैं। इनके गहन अध्ययन और योगदान को समझे बिना रीवा का इतिहास अधूरा और एकांगी ही रहेगा।

कोल जनजाति: विंध्य के मूल प्रहरी और सांस्कृतिक स्तंभ

कोल जनजाति को न केवल रीवा संभाग, बल्कि संपूर्ण विंध्याचल क्षेत्र का प्राचीनतम और मूल निवासी समुदाय होने का ऐतिहासिक गौरव प्राप्त है। इनका उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रंथों, जैसे रामायण और पुराणों में भी 'कोल' या 'कोल्ल' के रूप में मिलता है, जो इनकी प्राचीनता को प्रमाणित करता है। आज भी इनकी सघन और प्रभावशाली बसाहट मध्य प्रदेश के रीवा, सीधी, सिंगरौली, सतना, शहडोल और उमरिया जिलों के ग्रामीण और वनाच्छादित क्षेत्रों में प्रमुखता से देखी जा सकती है। विस्तृत निवास क्षेत्र एवं भौगोलिक वितरण: रीवा जिले के अंतर्गत हनुमना, नईगढ़ी, मऊगंज (जो अब एक पृथक जिला बन चुका है), गुढ़, त्योंथर, सिरमौर, जवा और चोरहटा जैसी विभिन्न तहसीलों और विकासखंडों में कोल समुदाय की एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली उपस्थिति आज भी विद्यमान है। कोलगढ़ी (Kolgarhi) नामक स्थल, जो संभवतः जवा तहसील या उसके आसपास स्थित है, इनके नाम से जुड़ा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हो सकता है, जो अतीत में उनके किसी स्थानीय शक्ति केंद्र या प्रमुख बसाहट का द्योतक रहा होगा। अतरैला (Atraila) और डभौरा (Dabhaura) जैसे ग्राम आज भी कोल संस्कृति, उनकी सामाजिक संरचना और उनकी विशिष्ट परंपराओं के जीवंत केंद्र माने जाते हैं, जहाँ उनकी सांस्कृतिक पहचान आज भी अक्षुण्ण है। गहन सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान एवं परंपराएँ: कोल समुदाय की जीवनशैली आदिकाल से ही प्रकृति के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी रही है। पारंपरिक रूप से कृषि, आखेट (शिकार) और विभिन्न प्रकार के वनोपजों का संग्रहण इनकी आजीविका के प्रमुख आधार रहे हैं। उनकी सामाजिक व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़, सामूहिकता और पारस्परिक सहयोग की भावना पर आधारित थी। परंपरागत ग्राम पंचायतें (जिन्हें 'कोल पंचायत' या स्थानीय नामों से जाना जाता है) उनके सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। इनके लोकगीत, जो विभिन्न ऋतुओं, पर्वों और जीवन के संस्कारों से जुड़े होते हैं, अत्यंत कर्णप्रिय और भावपूर्ण होते हैं। उनके पारंपरिक लोकनृत्य, जैसे करमा (जो कर्म देवता की पूजा से जुड़ा है), सैला (जो शौर्य और उल्लास का प्रतीक है), और अन्य स्थानीय नृत्य, उनकी सांस्कृतिक जीवंतता और सामुदायिक भावना को दर्शाते हैं। उनकी मौखिक कथाएँ, किंवदंतियाँ और लोकोक्तियाँ उनके ज्ञान, उनके इतिहास और उनकी विश्व-दृष्टि का अमूल्य धरोहर हैं। पारंपरिक रूप से वे प्रकृति पूजक रहे हैं, जिनके प्रमुख आराध्य देवों में बूढ़ादेव (जो सृष्टि के निर्माता और सर्वोच्च देवता माने जाते हैं), खैरमाई (ग्राम देवी या वन देवी), और कोटिल (पशुधन के रक्षक देवता) तथा अन्य अनेक स्थानीय देवी-देवता प्रमुख हैं। उनकी पूजा-पद्धति सरल और प्रकृति-आधारित होती है।

कोल समुदाय की सरल, प्रकृति-सहज जीवनशैली, उनकी गहरी सामुदायिक भावना और प्रकृति के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा तथा सम्मान, रीवांचल की पर्यावरणीय चेतना, उसकी सामाजिक समरसता और उसकी सांस्कृतिक निरंतरता का मूल और शाश्वत स्रोत रही है।

गोंड जनजाति: कबीलीय शासन, कलात्मकता और सीधी जिले से विशेष संबंध

गोंड जनजाति मध्य भारत की सबसे प्रमुख और सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है, जिसका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विस्तार सीधी, रीवा, शहडोल, मंडला, डिंडोरी और वृहत्तर बघेलखंड तथा गोंडवाना क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रहा है। विशेषकर वर्तमान सीधी जिले के विस्तृत वनाच्छादित क्षेत्रों (जैसे संजय-डुबरी टाइगर रिजर्व और उसके आसपास के बफर जोन) तथा कैमूर पर्वत श्रृंखला की उपत्यकाओं में इनकी ऐतिहासिक उपस्थिति और सांस्कृतिक प्रभाव अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। कबीलीय शासन एवं सामाजिक संरचना: प्राचीन और मध्यकाल में गोंडों ने अनेक छोटे-छोटे आत्मनिर्भर कबीलीय राज्यों या गढ़ों (जैसे गढ़ा-मंडला, देवगढ़, चांदा, खेरला) की स्थापना की थी, जिनमें से कुछ अत्यंत शक्तिशाली और विस्तृत भी हुए। उनकी सामाजिक संरचना सामान्यतः गोत्र-आधारित और सामूहिकता पर आधारित थी, यद्यपि कुछ बड़े और संगठित राज्यों में एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली, राजस्व व्यवस्था और सैन्य संगठन भी पाया गया है। ग्राम स्तर पर उनकी परंपरागत पंचायतें सामाजिक और न्यायिक मामलों का निपटारा करती थीं। धार्मिक परंपराएँ एवं आस्थाएँ: गोंड समुदाय के लोग प्रमुख रूप से प्रकृति की विभिन्न शक्तियों और अपने पितरों (पूर्वजों) की पूजा में गहरा विश्वास रखते हैं। उनके सर्वोच्च और प्रमुख आराध्य देव बड़ा देव (जिन्हें बूढ़ा देव या महादेव के रूप में भी पूजा जाता है) हैं, जो सृष्टि के निर्माता और संरक्षक माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त, वे अनेक स्थानीय देवी-देवताओं, ग्राम देवताओं, वन देवताओं और कुल देवताओं की भी पूजा करते हैं। उनके पूजा स्थल, जिन्हें 'देवठान' या 'मढ़िया' कहा जाता है, प्रायः गाँव के बाहर किसी पवित्र वृक्ष (जैसे महुआ, साल, या पीपल) के नीचे या साधारण मिट्टी के चबूतरों के रूप में होते हैं। उनके धार्मिक अनुष्ठान और पर्व प्रकृति चक्र तथा कृषि से गहरे जुड़े होते हैं। विशिष्ट सांस्कृतिक एवं कलात्मक योगदान: गोंड जनजाति की कलात्मक प्रतिभा और उनकी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएँ उनकी सबसे बड़ी और विश्वव्यापी पहचान हैं। उनकी गोंड पेंटिंग (चित्रकला), जो प्रकृति, पौराणिक कथाओं, दैनिक जीवन और उनके सपनों को जीवंत रंगों और विशिष्ट पैटर्न में दर्शाती है, आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित है। इसके अतिरिक्त, उनकी काष्ठकला (लकड़ी पर नक्काशी), मिट्टी की मूर्तियाँ (टेराकोटा), धातुशिल्प (डोकरा कला) और पारंपरिक आभूषण भी अत्यंत कलात्मक और उल्लेखनीय हैं। गोंडवानी कथाएँ (परधानों द्वारा गाई जाने वाली वीरगाथाएँ और पौराणिक आख्यान) उनकी समृद्ध मौखिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा हैं, जो उनके इतिहास, उनकी संस्कृति और उनके मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करती हैं। सैला (डंडा नृत्य), रीना (महिलाओं का नृत्य), करमा (कर्म देवता का नृत्य) और भड़म (विवाह नृत्य) जैसे उनके पारंपरिक लोकनृत्य अत्यंत ऊर्जावान, लयबद्ध और सामुदायिक भावना से ओतप्रोत होते हैं, जो उनके सांस्कृतिक जीवन की जीवंतता को दर्शाते हैं।

लोधी (लोध) समाज: परिश्रमी कृषक और वीर योद्धा

लोधी समुदाय, जो एक प्रमुख और ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण कृषक जाति है, प्राचीन काल से ही मध्य भारत और उत्तर भारत के विभिन्न भागों में निवास करता आया है। मध्यकाल में यह समुदाय रीवा क्षेत्र में भी स्थायी रूप से बस गया और यहाँ की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण स्तंभ बन गया। इनकी सघन उपस्थिति विशेष रूप से वर्तमान मऊगंज जिला, तथा रीवा जिले की जवा, गुढ़, सिरमौर और त्योंथर तहसीलों में प्राचीन काल से ही रही है। इन्होंने अपनी कड़ी मेहनत, कृषि कौशल और नवीन तकनीकों के प्रयोग से कृषि उत्पादन को बढ़ाया और क्षेत्र की खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कृषि के साथ-साथ, वे सामाजिक और राजनीतिक रूप से भी प्रभावशाली बने, और समय-समय पर स्थानीय शासन में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। लोधी समुदाय की एक गौरवशाली योद्धा परंपरा भी रही है, और इन्होंने विभिन्न स्थानीय शासकों तथा बघेल राजाओं की सेनाओं में सैनिक और सेनानायक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, तथा अपनी वीरता और स्वामीभक्ति का परिचय दिया है।

लवाना समाज: दूरगामी व्यापार और वाणिज्य के सूत्रधार

लवाना (या लबाना/बंजारा) समुदाय ऐतिहासिक रूप से एक अत्यंत गतिशील, साहसी, खानाबदोश (या अर्ध-खानाबदोश) और व्यापारी समुदाय रहा है, जिन्होंने भारत के विभिन्न भागों में व्यापार और वाणिज्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ये मुख्य रूप से नमक, अनाज, कपड़े, मसाले, पशुधन और अन्य आवश्यक वस्तुओं के दूरगामी व्यापार में संलग्न थे। वे अपने बैलों के विशाल कारवां (टांडा) के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा करते थे और वस्तुओं का विनिमय करते थे। रीवा, जो प्राचीन काल से ही विभिन्न महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों (जैसे दक्षिण को उत्तर से जोड़ने वाले मार्ग) का एक मिलन बिंदु था, इनके लिए स्वाभाविक रूप से आकर्षण का केंद्र रहा होगा। इनकी बसाहट मुख्यतः चाकघाट, त्योंथर और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे हुए क्षेत्रों तथा अन्य प्रमुख व्यापारिक मार्गों के किनारे पाई जाती थी। इन्होंने न केवल दूर-दराज के क्षेत्रों के बीच वस्तुओं का परिवहन और विनिमय सुनिश्चित किया, बल्कि विभिन्न संस्कृतियों, विचारों, भाषाओं और परंपराओं के वाहक भी बने, जिससे सांस्कृतिक आदान-प्रदान और समन्वय को बढ़ावा मिला।

बघेल वंश के पूर्ववर्ती राजवंश: रीवा के राजनीतिक क्षितिज के निर्माता

13वीं शताब्दी में बघेल वंश के उदय और रीवा राज्य की स्थापना से पूर्व, वर्तमान रीवा संभाग और उसके आसपास का विस्तृत भूभाग अनेक शक्तिशाली, प्रभावशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राजवंशों के शासन तथा उनकी विविध गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा। इन राजवंशों ने न केवल इस क्षेत्र की राजनीतिक संरचना और सीमाओं को समय-समय पर आकार दिया, बल्कि उन्होंने कला, स्थापत्य, धर्म, साहित्य और सामाजिक जीवन पर भी अपनी अमिट और स्थायी छाप छोड़ी, जिसके अवशेष आज भी इस क्षेत्र की पुरातात्त्विक संपदा और सांस्कृतिक परंपराओं में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।

कल्चुरी क़ालीन स्थापत्य कला

(चित्र: कल्चुरी कालीन स्थापत्य कला का एक नमूना, जो बघेलों से पूर्व क्षेत्र की कलात्मक समृद्धि को दर्शाता है।)

चेदि महाजनपद (लगभग छठी शताब्दी ई.पू. - महाभारत काल)

प्राचीन भारतीय इतिहास के महाजनपद काल (लगभग छठी शताब्दी ई.पू.) में, वर्तमान रीवा और उसके आसपास का क्षेत्र विशाल और शक्तिशाली चेदि महाजनपद का एक महत्वपूर्ण अंग था। बौद्ध ग्रंथ 'अंगुत्तर निकाय' में वर्णित सोलह महाजनपदों में चेदि का प्रमुख स्थान था। महाभारत महाकाव्य में भी चेदि नरेश शिशुपाल का विस्तृत उल्लेख मिलता है, जो भगवान कृष्ण के समकालीन और एक अत्यंत पराक्रमी शासक माने जाते हैं। उनकी राजधानी सुक्तिमती नगरी की पहचान कुछ विद्वानों द्वारा वर्तमान रीवा जिले के इटहा (Itaha) नामक ग्राम या उसके आसपास के क्षेत्र से की जाती है, यद्यपि इस पर और अधिक पुरातात्त्विक शोध की आवश्यकता है। चेदि महाजनपद का भौगोलिक विस्तार अत्यंत व्यापक था और यह तत्कालीन उत्तर भारत की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक इकाई थी।

मौर्य वंश (लगभग 322 ई.पू. – 185 ई.पू.) एवं शुंग वंश (लगभग 185 ई.पू. – 73 ई.पू.)

भारत के प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य, मौर्य वंश, के शासनकाल में, विशेषकर चक्रवर्ती सम्राट अशोक महान (शासनकाल लगभग 268-232 ई.पू.) के समय में, रीवा क्षेत्र बौद्ध धर्म के प्रसार और मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था का एक प्रमुख केंद्र बना। इसका सबसे महत्वपूर्ण और जीवंत प्रमाण देउरकोठार (Deur Kothar) नामक पुरातात्त्विक स्थल है, जो वर्तमान रीवा जिले की सिरमौर तहसील में स्थित है। यहाँ से मौर्यकालीन विशाल बौद्ध स्तूपों के अवशेष, बौद्ध विहारों की संरचनाएँ, मौर्यकालीन चमकदार उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड (NBPW), आहत मुद्राएँ और सबसे महत्वपूर्ण, अशोककालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण प्रस्तर स्तंभों के टुकड़े तथा शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ये अवशेष न केवल मौर्यकालीन कला, स्थापत्य और धार्मिक नीति के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, बल्कि यह भी प्रमाणित करते हैं कि यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था और यहाँ बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ था। मौर्यों के पतन के उपरांत शुंग वंश के शासनकाल में भी इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव बना रहा, और संभवतः देउरकोठार जैसे स्थलों का संरक्षण जारी रहा।

देउरकोठार के मौन स्तूप और उन पर उत्कीर्ण प्राचीन अभिलेख आज भी सम्राट अशोक की विश्व-मैत्री और धम्म-नीति की शाश्वत कहानी कह रहे हैं, और रीवांचल में बौद्ध धर्म की गहरी तथा प्राचीन जड़ों को पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रमाणित कर रहे हैं।

नागवंशी (लगभग दूसरी से चौथी शताब्दी ईस्वी)

मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरांत और गुप्त साम्राज्य के उदय से पूर्व, उत्तर और मध्य भारत के विभिन्न भागों में अनेक छोटे-बड़े स्थानीय राजवंशों का उदय हुआ, जिनमें नागवंशी शासक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। नागवंशियों ने मथुरा, पद्मावती (वर्तमान पवाया, मध्य प्रदेश), कांतिपुरी (वर्तमान कुतवार, मध्य प्रदेश) और संभवतः विदिशा जैसे केंद्रों से शासन किया। रीवा-सतना क्षेत्र और निकटवर्ती बुंदेलखंड से नागवंशी शासकों (जैसे गणपतिनाग, नागसेन, भवनाग) की अनेक मुद्राएँ और कुछ शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जो इस क्षेत्र में उनकी राजनीतिक उपस्थिति और प्रभाव को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। ये शासक संभवतः गुप्तों के समकालीन थे और बाद में गुप्त साम्राज्य के अधीन हो गए थे।

गुप्त राजवंश (लगभग तीसरी शताब्दी के अंत से छठी शताब्दी ईस्वी)

गुप्त काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' माना जाता है, जिसके दौरान कला, साहित्य, विज्ञान, दर्शन और प्रशासनिक व्यवस्था का अभूतपूर्व विकास हुआ। रीवा और उसके आसपास का क्षेत्र गुप्त साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग था। इसका प्रमाण देउरकोठार के बौद्ध स्तूपों के इस काल में हुए जीर्णोद्धार और परिवर्धन से मिलता है। इसके अतिरिक्त, बंधवगढ़ किला (जो ऐतिहासिक रूप से रीवा रियासत का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है और वर्तमान में उमरिया जिले में स्थित है) के आसपास से गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएँ (दिनार), कलात्मक प्रस्तर प्रतिमाएँ (जैसे शेषशायी विष्णु की भव्य और कलात्मक मूर्ति, वराह अवतार की प्रतिमा) और गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य के महत्वपूर्ण अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये पुरावशेष इस क्षेत्र में गुप्तकालीन समृद्धि, कलात्मक उत्कृष्टता और वैष्णव धर्म के प्रभाव के जीवंत प्रमाण हैं। सुपिया (रीवा जिला) से प्राप्त स्कंदगुप्त का एक महत्वपूर्ण स्तंभ लेख भी गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था और इस क्षेत्र के महत्व पर प्रकाश डालता है।

कल्चुरी राजवंश (मुख्यतः लगभग 8वीं से 12वीं शताब्दी ईस्वी)

मध्यकालीन भारत के इतिहास में त्रिपुरी (वर्तमान जबलपुर के निकट तेवर ग्राम) के कल्चुरी (जिन्हें हैहय या चेदि भी कहा जाता है) राजवंश का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गौरवशाली स्थान रहा है। इनका प्रभाव क्षेत्र अत्यंत व्यापक था, जिसमें वर्तमान मध्य प्रदेश का एक बड़ा भाग, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल थे। रीवा और संपूर्ण बघेलखंड क्षेत्र पर कल्चुरी राजवंश का गहरा और स्थायी राजनीतिक तथा सांस्कृतिक प्रभाव रहा। वे मुख्यतः शैव धर्म के महान संरक्षक और अनुयायी थे, और उनके शासनकाल में अनेक भव्य शिव मंदिरों, मठों और कलात्मक मूर्तियों का निर्माण हुआ। गुर्गी (Gurgi): वर्तमान रीवा जिले की गुढ़ तहसील में स्थित यह पुरातात्त्विक स्थल कल्चुरीकालीन शैव धर्म और कला का एक अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ से प्राप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि यह मत्तमयूर शैव संप्रदाय के प्रसिद्ध शैवाचार्यों, जैसे प्रभावशिव और प्रशांतशिव, की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। यहाँ से अनेक विशाल और कलात्मक शिव मंदिर (जैसे रेहुटा दुर्ग के निकट स्थित मंदिर समूह), शैव मठों के अवशेष, शिव, उमा-महेश्वर, गणेश, कार्तिकेय, भैरव आदि की विशाल और सुंदर मूर्तियाँ, तथा कलात्मक स्तंभ और तोरण द्वार प्राप्त हुए हैं। चन्द्रहे (Chandrahe): सोन नदी के तट पर (वर्तमान सीधी जिला में) स्थित यह स्थल भी कल्चुरीकालीन शैव गतिविधियों का एक अन्य महत्वपूर्ण केंद्र था, जहाँ से शैव मठ और मंदिरों के अवशेष मिले हैं। बैजनाथ (Baijnath): वर्तमान रीवा जिले की सिरमौर तहसील में स्थित यह स्थल भी एक महत्वपूर्ण कल्चुरीकालीन शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, जो आज भी श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। नयागांव (Nayagaon): रीवा जिले में ही स्थित इस स्थान से भी कल्चुरीकालीन शिव मंदिर और अनेक कलात्मक प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं, जो इस क्षेत्र में कल्चुरी कला के व्यापक प्रसार को दर्शाती हैं।

चंदेल और प्रतिहार राजवंश (लगभग 8वीं से 13वीं शताब्दी ईस्वी)

रीवा और बघेलखंड का क्षेत्र, यद्यपि मुख्यतः कल्चुरियों के प्रभाव में रहा, तथापि यह उत्तर भारत की दो अन्य प्रमुख राजपूत शक्तियों – चंदेल (जिनका शासन कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर केंद्रित था) और गुर्जर-प्रतिहार (जिनकी राजधानी कन्नौज थी) – की सीमाओं पर स्थित होने के कारण इनके सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव से भी पूर्णतः अछूता नहीं रहा। इन राजवंशों के बीच होने वाले संघर्षों और गठबंधनों का प्रभाव इस सीमावर्ती क्षेत्र पर भी अवश्य पड़ा होगा, और यहाँ से इन राजवंशों से संबंधित कुछ पुरातात्त्विक साक्ष्य भी यदा-कदा मिलते रहे हैं।

गुर्गी: विभिन्न धर्मों का सांस्कृतिक उत्थान केंद्र एवं गाजी मियां का मजार – एक अद्भुत समन्वय

गुर्गी-महसांव (वर्तमान रीवा जिले की गुढ़ तहसील में स्थित) प्राचीन और मध्यकालीन रीवा की न केवल राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, बल्कि यह विभिन्न धर्मों, आस्थाओं और संस्कृतियों के अद्भुत संगम और समन्वय का भी एक दर्पण है। यह स्थल भारतीय संस्कृति की अंतर्निहित समन्वयवादी और सहिष्णु प्रकृति का एक उत्कृष्ट और जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।

हिन्दू धर्म की विविध धाराओं का संगम:

गुर्गी मुख्यतः शैव धर्म का एक महान और प्रभावशाली केंद्र रहा, जैसा कि यहाँ से प्राप्त शैवाचार्य प्रभावशिव और प्रशांतशिव के अभिलेखों और मत्तमयूर संप्रदाय के मठों के अवशेषों से प्रमाणित होता है। यहाँ भव्य शैव मठों और शिक्षा केन्द्रों का निर्माण हुआ, जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी और साधक ज्ञान तथा आध्यात्मिक शांति की तलाश में आते थे। शैव धर्म के साथ-साथ, यहाँ से वैष्णव और शाक्त परंपरा से संबंधित मूर्तियाँ और मंदिरों के चिन्ह भी मिलते हैं, जो विभिन्न हिन्दू उपासना पद्धतियों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को दर्शाते हैं।

जैन धर्म की प्राचीन उपस्थिति:

गुर्गी से जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की एक खंडित प्रतिमा और नौवीं शताब्दी की कात्योत्सर्ग मुद्रा में एक अन्य तीर्थंकर की सुंदर मूर्ति प्राप्त हुई है (जो अब प्रयागराज संग्रहालय में संरक्षित है)। ये महत्वपूर्ण पुरावशेष इस क्षेत्र में, विशेषकर गुर्गी में, जैन धर्म की प्राचीन और महत्वपूर्ण उपस्थिति को अकाट्य रूप से प्रमाणित करते हैं। यह दर्शाता है कि यह क्षेत्र जैन धर्मावलंबियों के लिए भी आस्था और गतिविधियों का केंद्र रहा होगा।

बौद्ध धर्म के संभावित पदचिह्न:

यद्यपि गुर्गी से प्रत्यक्ष रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित बहुत अधिक पुरावशेष नहीं मिले हैं, तथापि कुछ विद्वान और इतिहासकार गुर्गी के आसपास के क्षेत्र को प्राचीन बौद्ध केंद्र कौशाम्बी के विस्तारित प्रभाव क्षेत्र की संभावना से जोड़कर देखते हैं। कल्चुरी शासक राजा कर्णदेव द्वारा इस क्षेत्र में निर्मित विशाल रेहुटा दुर्ग जैसे स्थानों पर विभिन्न धार्मिक समुदायों और उनके उपासना स्थलों के सह-अस्तित्व की प्रबल संभावना व्यक्त की जाती है, जिसमें बौद्ध विहार या स्तूप भी शामिल हो सकते हैं।

सूफी संत गाजी मियां का मजार: सांप्रदायिक सौहार्द का अद्वितीय प्रतीक:

गुर्गी में आज भी हजरत सैय्यद सालार मसऊद गाजी मियां (जिन्हें गाजी बाबा के नाम से भी जाना जाता है) का एक प्रतीकात्मक मजार शरीफ (समाधि स्थल) स्थित है। यह उल्लेखनीय है कि हजरत सैय्यद सालार मसऊद गाजी मियां का मुख्य और ऐतिहासिक मजार उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में स्थित है, जहाँ प्रतिवर्ष विशाल उर्स (मेला) का आयोजन होता है। गुर्गी में स्थित यह प्रतीकात्मक मजार भी अत्यंत श्रद्धा का केंद्र है, और यहाँ प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह में (लगभग 25 मई के आसपास) एक विशाल उर्स (मेला) का आयोजन होता है, जिसमें न केवल मुस्लिम समुदाय के लोग, बल्कि हिन्दू और अन्य सभी धर्मों के लोग भी बड़ी संख्या में और पूरी श्रद्धा तथा भक्ति के साथ शामिल होते हैं। यह मेला और यह मजार इस क्षेत्र में सदियों से चले आ रहे सांप्रदायिक सौहार्द, विभिन्न आस्थाओं के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी प्रकृति का एक जीवंत और प्रेरणादायक उदाहरण है। प्रसिद्ध ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता मेजर सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी अपने पुरातात्त्विक सर्वेक्षणों के दौरान रीवा राज्य के अनेक प्राचीन स्थलों, जिनमें गुर्गी भी शामिल है, का विस्तृत वर्णन किया था और यहाँ की बहु-सांस्कृतिक विरासत के महत्व को रेखांकित किया था।

गुर्गी का यह ऐतिहासिक मजार विभिन्न आस्थाओं और संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा भारतीय संस्कृति की अंतर्निहित समन्वयवादी प्रकृति का एक ऐसा शाश्वत प्रतीक है, जो आज भी हमें पारस्परिक प्रेम, सद्भाव और एकता का महत्वपूर्ण संदेश देता है तथा भविष्य के लिए प्रेरणा प्रदान करता है।

पुरातात्त्विक साक्ष्य एवं प्रमुख स्थल: अतीत के मौन गवाक्ष

रीवा और इसके चतुर्दिक विस्तृत भूभाग पुरातात्त्विक दृष्टि से एक ऐसे अनमोल खजाने के समान है, जहाँ धरती के गर्भ में दबे हुए और सतह पर बिखरे हुए अनगिनत अवशेष अतीत की अनकही और अनगिनत कहानियाँ कहते हैं। ये मौन साक्ष्य हमें इस क्षेत्र के गौरवशाली और विविधतापूर्ण अतीत को समझने में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करते हैं:

  • देउरकोठार (Deur Kothar): सिरमौर तहसील। मौर्यकालीन विशाल बौद्ध स्तूप, बौद्ध विहारों के खंडहर, अशोककालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण प्रस्तर स्तंभों के अभिलेख, प्राचीन मृद्भांड और आहत मुद्राएँ। यह स्थल भारत में बौद्ध धर्म के प्रारंभिक प्रसार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था।
  • गुर्गी-महसांव (Gurgi-Mahsanw): गुढ़ तहसील। कल्चुरीकालीन भव्य शिव मंदिर, मठों के अवशेष, उमा-महेश्वर, गणेश, कार्तिकेय आदि की विशाल और कलात्मक मूर्तियाँ, रेहुटा दुर्ग के अवशेष, जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ, और हजरत गाजी मियां का प्रसिद्ध मजार। यह स्थल शैव, जैन और सूफी परंपराओं के संगम का प्रतीक है।
  • इटहा (Itaha): रीवा तहसील। प्राचीन चेदि महाजनपद की संभावित राजधानी सुक्तिमती का स्थल। यहाँ से प्राचीन टीले और मृद्भांड प्राप्त हुए हैं, जो इसके पुरातात्त्विक महत्व को दर्शाते हैं (और अधिक उत्खनन की आवश्यकता)।
  • बैजनाथ (Baijnath): सिरमौर तहसील। कल्चुरीकालीन कलात्मक शिव मंदिर, जो आज भी पूजा-अर्चना का केंद्र है।
  • नयागांव (Nayagaon): रीवा जिला। कल्चुरीकालीन शिव मंदिर और प्राचीन प्रतिमाएँ, जो क्षेत्र में कल्चुरी कला के विस्तार को प्रमाणित करती हैं।
  • बंधवगढ़ (Bandhavgarh): उमरिया जिला (ऐतिहासिक रूप से पूर्व रीवा रियासत का महत्वपूर्ण अंग)। अत्यंत प्राचीन और अभेद्य किला, गुप्तकालीन कलात्मक गुफाएँ (शेषशायी विष्णु, वराह, मत्स्य अवतार आदि की भव्य मूर्तियाँ), मघ राजवंश और कल्चुरी राजवंश के अभिलेख तथा अवशेष। यह स्थल प्रागैतिहासिक काल से लेकर मध्यकाल तक निरंतर आबाद रहा।
  • गोविंदगढ़ (Govindgarh): गुढ़ तहसील। प्रागैतिहासिक काल के महत्वपूर्ण शैलाश्रय चित्र, प्राचीन झील (रामसागर तालाब), और ऐतिहासिक किला (बघेल शासकों द्वारा निर्मित)।
  • चन्द्रहे (Chandrahe): सीधी जिला (रीवा के निकट, सोन नदी के तट पर)। कल्चुरीकालीन शैव मठ और मंदिर समूह के अवशेष, जो मत्तमयूर शैव संप्रदाय की गतिविधियों का केंद्र था।
गोविंदगढ़ पर्वत श्रंखला

(चित्र: गोविंदगढ़ की पर्वत श्रृंखला, जहाँ प्रागैतिहासिक शैलाश्रय और ऐतिहासिक किला स्थित हैं।)

समीपस्थ महत्वपूर्ण क्षेत्र: रीवा के ऐतिहासिक परिदृश्य के विस्तार

मऊगंज (Mauganj): (अब एक नवीन जिला)। इस क्षेत्र का इतिहास भी अत्यंत प्राचीन है, और यह सेंगर तथा बघेल राजवंशों की गतिविधियों से संबंधित रहा है। यहाँ स्थित प्रसिद्ध बहुती जलप्रपात और नई गढ़ी का ऐतिहासिक किला इसके महत्व को दर्शाते हैं। जवा तहसील के अन्य ग्राम: जैसे कोलगढ़ी (कोल जनजाति का ऐतिहासिक केंद्र), अतरैला, और डभौरा। ये ग्राम कोल संस्कृति, उनकी सामाजिक संरचना और स्थानीय लोक परंपराओं के महत्वपूर्ण केंद्र हैं, जो रीवा की बहुआयामी विरासत का अभिन्न अंग हैं।

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यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।

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रीवा के प्रारंभिक काल की अवधारणाएँ एवं शब्दावली

"वनवासी सभ्यता (Tribal Civilization)": इस क्षेत्र में प्राचीन काल से निवास कर रहे विभिन्न जनजातीय समुदाय (जैसे कोल, गोंड, बैगा, पनिका आदि) जिनकी जीवनशैली मुख्यतः प्रकृति-आधारित और आत्मनिर्भर थी, जिनकी सामाजिक संरचना सामूहिकता तथा परंपरागत नियमों पर आधारित थी, और जिनकी समृद्ध संस्कृति मौखिक परंपराओं, लोकगीतों, नृत्यों तथा विशिष्ट कला रूपों से परिपूर्ण थी।

रीवांचल की वास्तविक और गहरी आत्मा इन जीवंत वनवासी संस्कृतियों में आज भी स्पंदित होती है, जो पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व और सामुदायिक जीवन के प्राचीनतम तथा अमूल्य उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

"बहु-सांस्कृतिक विरासत (Multi-cultural Heritage)": रीवा क्षेत्र में विभिन्न ऐतिहासिक कालों में अनेक राजवंशों (जैसे मौर्य, शुंग, नाग, गुप्त, मघ, कल्चुरी, चंदेल, प्रतिहार) के शासन, विविध धार्मिक परंपराओं (जैसे शैव, वैष्णव, शाक्त, बौद्ध, जैन, और मध्यकालीन सूफी तथा संत मतों) के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, तथा विभिन्न लोक संस्कृतियों और जनजातीय परंपराओं के अद्भुत समन्वय और अंतःक्रिया से निर्मित एक समृद्ध और विविधतापूर्ण सांस्कृतिक धरोहर।

गुर्गी जैसे अद्वितीय पुरातात्त्विक स्थल इस समन्वयवादी और सहिष्णु विरासत के जीवंत तथा प्रेरणादायक प्रतीक हैं, जहाँ विभिन्न आस्थाएँ, विचार और कलात्मक अभिव्यक्तियाँ न केवल एकत्रित हुईं, बल्कि उन्होंने एक-दूसरे को प्रभावित और समृद्ध भी किया।

"पुरातात्त्विक धरोहर (Archaeological Heritage)": देउरकोठार के विशाल मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप, गुर्गी के कलात्मक कल्चुरीकालीन मंदिर और मठों के अवशेष, बंधवगढ़ की रहस्यमय प्राचीन गुफाएँ और उनमें उत्कीर्ण गुप्तकालीन मूर्तियाँ, गोविंदगढ़ तथा कैमूर पर्वत श्रृंखला में स्थित अनगिनत प्रागैतिहासिक शैलाश्रय और उनमें उकेरे गए मनोहारी शैल चित्र, तथा विभिन्न स्थानों से प्राप्त प्राचीन अभिलेख, सिक्के और मृद्भांड।

ये मूक और धैर्यवान पुरातात्त्विक साक्षी रीवांचल के हजारों वर्षों के गौरवशाली और घटनापूर्ण अतीत की अनकही कहानी कहते हैं, जो आज गहन शोध, संरक्षण, संवर्धन और व्यापक जन-जागरूकता की तत्काल तथा निरंतर मांग करते हैं।

"लोध/लोधी समुदाय (Lodhi Community)": एक अत्यंत परिश्रमी, कुशल और ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण कृषक समुदाय, तथा समय-समय पर एक वीर योद्धा के रूप में भी अपनी पहचान बनाने वाला यह समुदाय, जिसने रीवा और बघेलखण्ड की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था, उसकी सामाजिक संरचना और उसकी राजनीतिक गतिशीलता में अत्यंत महत्वपूर्ण तथा स्थायी योगदान दिया है।

इनकी असाधारण कृषि निपुणता, उनकी उद्यमशीलता और आवश्यकता पड़ने पर प्रदर्शित सैन्य पराक्रम ने रीवांचल को खाद्य सुरक्षा, आर्थिक समृद्धि और बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा प्रदान करने में महत्वपूर्ण तथा सराहनीय भूमिका निभाई।

रीवांचल की प्राचीन धरोहर: एक दृश्य

गुर्गी, रीवा के प्राचीन मंदिर समूह के कलात्मक अवशेष

(चित्र: गुर्गी, रीवा के प्राचीन मंदिर समूह के कलात्मक अवशेष, साभार: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण/विकिमीडिया कॉमन्स। यह छायाचित्र कल्चुरीकालीन स्थापत्य कला और मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट एवं प्रभावशाली उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो उस युग की धार्मिक आस्था और कलात्मक पराकाष्ठा को दर्शाता है।)

रीवा की विरासत पर एक वृत्तचित्र (उदाहरण)

(यह एक प्लेसहोल्डर वीडियो है। रीवा के समृद्ध इतिहास, उसकी जीवंत संस्कृति, उसके महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थलों, या उसकी प्राकृतिक सुंदरता पर किसी प्रासंगिक, जानकारीपूर्ण और आकर्षक वृत्तचित्र का YouTube VIDEO_ID यहाँ डाला जा सकता है।)

अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)

रीवांचल के प्रारंभिक काल, उसकी प्राचीन सभ्यताओं, विभिन्न राजवंशों के योगदान और उसकी बहु-सांस्कृतिक विरासत का गहन, विश्लेषणात्मक और व्यापक अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित प्रकार के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यह विस्तृत सूची एक गंभीर और समर्पित शोध यात्रा के लिए एक प्रारंभिक तथा दिशा-निर्देशात्मक बिंदु प्रदान करती है:

प्राथमिक पुरातात्त्विक स्रोत:

  • **पाषाणकालीन उपकरण एवं शैलाश्रय:** रीवा, सीधी, सतना, शहडोल, सिंगरौली एवं नवगठित मऊगंज जिलों की प्रमुख नदी घाटियों (जैसे सोन, टोंस, केन, बीहर, बिछिया) और विभिन्न शैलाश्रयों (जैसे चित्रकूट, मझगवां, गोविंदगढ़, गिंजा पहाड़, गड्डी, बदवार, खन्दो, जलदर आदि) से प्रचुर मात्रा में प्राप्त पूर्व-पाषाण काल, मध्य-पाषाण काल और नव-पाषाण काल के विभिन्न प्रकार के पत्थर के उपकरण (हस्तकुठार, खुरचनी, वेधनी, फलक, सूक्ष्म पाषाण उपकरण आदि)। इन स्थलों पर उकेरे गए अत्यंत महत्वपूर्ण और कलात्मक प्रागैतिहासिक शैल चित्र, जो तत्कालीन मानव के जीवन, उनके आखेट दृश्यों, उनके सामाजिक क्रियाकलापों और उनकी कलात्मक तथा धार्मिक भावनाओं को दर्शाते हैं।
  • **मौर्यकालीन पुरातात्त्विक अवशेष:** देउरकोठार के विशाल ईंट-निर्मित बौद्ध स्तूप, बौद्ध विहारों की आधार संरचनाएँ, अशोककालीन प्रस्तर स्तंभों के खंडित भाग, उन पर उत्कीर्ण ब्राह्मी लिपि के अभिलेख, मौर्यकालीन चमकदार उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड (Northern Black Polished Ware - NBPW), आहत मुद्राएँ (Punch-marked coins), और अन्य संबंधित पुरावशेष।
  • **मघ शासकों के पुरातात्त्विक साक्ष्य:** विशेषकर बान्धवगढ़ के किले और उसके आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त मघ राजवंश के शासकों (जैसे भीमसेन, भद्रमघ, शिवमघ) के तांबे के सिक्के, तथा बान्धवगढ़ और गिंजा (भरहुत के निकट) से प्राप्त उनके महत्वपूर्ण प्रस्तर अभिलेख, जो इस क्षेत्र में उनके शासन और प्रभाव को प्रमाणित करते हैं।
  • **गुप्तकालीन पुरातात्त्विक साक्ष्य:** सुपिया (रीवा जिला) से प्राप्त स्कंदगुप्त का प्रसिद्ध स्तंभ लेख, शंकरपुर (सीधी जिला) से प्राप्त बुद्धगुप्त का प्रस्तर अभिलेख, परिव्राजक महाराजाओं (जैसे हस्तिन, संक्षोभ) के महत्वपूर्ण ताम्रपत्र (जो खोह, मझगवां आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं और गुप्तकालीन भू-दान व्यवस्था तथा प्रशासन पर प्रकाश डालते हैं), बान्धवगढ़ की विश्व प्रसिद्ध गुप्तकालीन कलात्मक गुफाएँ एवं उनमें उत्कीर्ण भव्य मूर्तियाँ (जैसे शेषशायी विष्णु, वराह अवतार, मत्स्य अवतार, नरसिंह अवतार आदि), तथा विभिन्न स्थानों से प्राप्त गुप्तकालीन स्वर्ण, रजत एवं ताम्र मुद्राएँ।
  • **कल्चुरीकालीन पुरातात्त्विक अवशेष:** गुर्गी, रीवा नगर, बान्धवगढ़, चन्द्रहे, बैजनाथ, नयागांव, लाल पहाड़ (भरहुत के निकट), आल्हाघाट (अमरकंटक के पास) आदि महत्वपूर्ण स्थलों से प्राप्त कल्चुरी शासकों (जैसे गांगेयदेव, कर्णदेव, युवराजदेव) के प्रस्तर अभिलेख, ताम्रपत्र, स्वर्ण, रजत एवं ताम्र सिक्के, विशाल और कलात्मक शिव मंदिरों के खंडहर (जैसे गुर्गी का शिव मंदिर, चन्द्रहे का मठ-मंदिर समूह), शिव, उमा-महेश्वर, गणेश, कार्तिकेय, भैरव, विभिन्न देवियों तथा अन्य देवी-देवताओं की अत्यंत कलात्मक और विशाल प्रस्तर मूर्तियाँ, अलंकृत स्तंभ, तोरण द्वार, और अन्य स्थापत्यिक तथा कलात्मक पुरावशेष।

साहित्यिक स्रोत (प्राचीन एवं मध्यकालीन):

  • **वैदिक साहित्य:** ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, कौषीतकि उपनिषद आदि प्राचीन ग्रंथों में विंध्य क्षेत्र, नर्मदा (रेवा) नदी और इस क्षेत्र में निवास करने वाली विभिन्न प्राचीन जनजातियों (जैसे निषाद, शबर, पुलिंद) का यदा-कदा उल्लेख मिलता है।
  • **रामायण एवं महाभारत (महाकाव्य):** इन दोनों महाकाव्यों में मध्य भारत के विभिन्न जनपदों और स्थानों, जैसे करुष जनपद (बघेलखण्ड का प्राचीन नाम), दंडकारण्य, चित्रकूट (भगवान राम के वनवास का महत्वपूर्ण स्थल), बंधवगढ़ (जिसे भगवान राम ने लक्ष्मण को दिया था, ऐसी मान्यता है), और रेवा नदी (नर्मदा) के पौराणिक तथा भौगोलिक महत्व का विस्तृत और महत्वपूर्ण संदर्भ प्राप्त होता है।
  • **पुराण (अठारह महापुराण एवं उपपुराण):** विशेष रूप से स्कंद पुराण (जिसका 'रेवा-खंड' नर्मदा नदी की महिमा और उसके तट पर स्थित तीर्थों का विस्तृत वर्णन करता है), मत्स्य पुराण, वायु पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, मार्कंडेय पुराण आदि प्राचीन पुराणों में रेवा नदी (नर्मदा) की उत्पत्ति, उसकी पवित्रता, विंध्य पर्वत श्रृंखला का वर्णन, इस क्षेत्र में स्थित विभिन्न प्राचीन तीर्थों, ऋषियों के आश्रमों और संबंधित पौराणिक तथा ऐतिहासिक आख्यान प्रचुर मात्रा में वर्णित हैं।
  • **बौद्ध ग्रंथ (त्रिपिटक एवं अन्य):** अंगुत्तर निकाय (जिसमें सोलह महाजनपदों की सूची में चेदि महाजनपद का उल्लेख है), दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, विभिन्न जातक कथाएँ (जिनमें मध्य भारत के व्यापारियों, मार्गों और नगरों का वर्णन मिलता है), दिव्यावदान, महावंस, दीपवंस आदि बौद्ध ग्रंथ इस क्षेत्र की प्राचीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।
  • **जैन ग्रंथ (आगम एवं अन्य):** आवश्यक सूत्र, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, भगवती सूत्र, कल्पसूत्र आदि प्राचीन जैन ग्रंथों में मध्य भारत के विभिन्न प्राचीन जनपदों, व्यापारिक मार्गों, जैन तीर्थंकरों की यात्राओं और जैन धर्म के प्रसार का महत्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होता है।
  • **अन्य संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य:** महाकवि कालिदास की अमर रचनाएँ (जैसे मेघदूत, रघुवंश, जिनमें आम्रकूट (अमरकंटक) और विंध्य क्षेत्र का काव्यात्मक वर्णन है), बाणभट्ट का हर्षचरित एवं कादम्बरी (जिनमें विंध्याटवी का विस्तृत और जीवंत चित्रण है), कश्मीरी कवि बिल्हण का विक्रमांकदेवचरित, आचार्य राजशेखर का काव्यमीमांसा, आचार्य हेमचंद्र का त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित आदि महत्वपूर्ण साहित्यिक ग्रंथ इस क्षेत्र के प्राचीन भूगोल, समाज और संस्कृति पर यदा-कदा प्रकाश डालते हैं।
  • **विदेशी यात्रियों के विवरण:** यूनानी राजदूत मेगस्थनीज (जिनकी 'इंडिका' के कुछ अंशों में मध्य भारत का परोक्ष उल्लेख है), चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान (चौथी-पाँचवीं शताब्दी), ह्वेनसांग (सातवीं शताब्दी), और इत्सिंग (सातवीं शताब्दी के अंत में) – इनके यात्रा वृत्तांतों में यद्यपि रीवा क्षेत्र का प्रत्यक्ष उल्लेख कम है, तथापि मध्य भारत के तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक जीवन और महत्वपूर्ण व्यापारिक तथा तीर्थ यात्रा मार्गों का महत्वपूर्ण परोक्ष उल्लेख अवश्य मिलता है।

महत्वपूर्ण शोध-पत्र एवं ग्रंथ (उदाहरण):

/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */
1. सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". प्रयाग: यूनियन प्रेस (यह ग्रंथ रीवा दरबार द्वारा संभवतः 19वीं सदी के अंत या 20वीं सदी के प्रारंभ में प्रकाशित करवाया गया था और यह रियासतकालीन इतिहास, वंशावलियों, प्रमुख घटनाओं, प्रशासनिक व्यवस्था, भू-राजस्व प्रणाली और स्थानीय परंपराओं का एक पारंपरिक लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण और विस्तृत स्रोत माना जाता है)।
2. शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी। (यह पुस्तक बघेलखण्ड क्षेत्र की विशिष्ट भाषाई संरचना, बोलियों, उनके व्याकरण, लोक साहित्य के विविध रूपों, लोक कलाओं, रीति-रिवाजों और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर एक मानक, गहन और अकादमिक कृति है)।
3. श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". भोपाल: मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी। (यह पुस्तक विंध्य पर्वत श्रृंखला के आसपास के संपूर्ण क्षेत्र के व्यापक ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझने हेतु एक अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है, जिसमें बघेलखण्ड का भी विस्तृत विवेचन है)।
4. पटेल, डॉ. प्रीति. "बघेलखण्ड का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (प्रारम्भ से 13वीं शताब्दी तक)". (यह किसी विशिष्ट शोध प्रबंध या पुस्तक का उदाहरण हो सकता है जो बघेल-पूर्व काल पर केंद्रित हो)।
5. परिहार, डॉ. नृपेन्द्र सिंह. "बघेलखण्ड की कला एवं पुरातत्व". (यह भी एक संभावित महत्वपूर्ण शोध कृति का उदाहरण है)।
6. वर्मा, प्रो. राधाकान्त. (पूर्व प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय) द्वारा रीवा जिले के शैलाश्रयों और प्रागैतिहासिक स्थलों पर प्रकाशित विभिन्न महत्वपूर्ण शोध लेख एवं मोनोग्राफ।
7. वाजपेयी, श्रीमती मधुलिका. "मध्य प्रदेश में जैन धर्म का विकास: एक ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक अध्ययन". (यह एक काल्पनिक प्रकाशन का उदाहरण है, परन्तु इस विषय पर अनेक वास्तविक शोध ग्रंथ उपलब्ध हैं)।
8. मिराशी, महामहोपाध्याय वा.वि. "कार्पस इंस्क्रिप्शनम इंडिकेरम, भाग IV: इंस्क्रिप्शन्स ऑफ द कल्चुरी-चेदि एरा"। (कल्चुरी अभिलेखों का सबसे प्रामाणिक और विस्तृत संकलन)।
9. कनिंघम, मेजर जनरल सर अलेक्जेंडर. "आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट्स" (इसके विभिन्न खंड, विशेषकर जो मध्य भारत और बुंदेलखंड से संबंधित हैं, अत्यंत महत्वपूर्ण हैं)।
10. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India - ASI) की विभिन्न वार्षिक रिपोर्टें (Annual Reports of ASI), उत्खनन प्रतिवेदन (Excavation Reports) और अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशन (जैसे Memoirs of the ASI)।
11. मध्य प्रदेश राज्य पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय निदेशालय (Directorate of Archaeology, Archives and Museums, Govt. of M.P.) द्वारा प्रकाशित विभिन्न शोध-पत्रिकाएँ (जैसे 'पुरातन'), पुस्तकें एवं अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशन।
12. "Imperial Gazetteer of India, Provincial Series, Central India". (ब्रिटिश कालीन महत्वपूर्ण गजेटियर, जिसमें रीवा रियासत और आसपास के क्षेत्रों का विस्तृत विवरण है)।
13. विभिन्न प्रतिष्ठित अकादमिक शोध पत्रिकाएँ (जैसे Epigraphia Indica, Indian Archaeology: A Review, Journal of the Asiatic Society, Puratattva, Journal of the Numismatic Society of India, Man and Environment आदि)।

निष्कर्ष: एक बहुआयामी विरासत का पुनरावलोकन

रीवा का बघेल-पूर्व इतिहास एक ऐसी बहुरंगी और जटिल चादर के समान है, जिसके प्रत्येक धागे में एक अलग कहानी, एक विशिष्ट संस्कृति, एक भिन्न परंपरा और एक अनूठी ऐतिहासिक विरासत अत्यंत सघनता से गुंथी हुई है। यह क्षेत्र मात्र विभिन्न राजवंशों के उत्थान, उनके शासन और उनके पतन का एक मूक साक्षी ही नहीं रहा, बल्कि यह चेदि, मौर्य, शुंग, नाग, गुप्त, मघ और कल्चुरी जैसी महान तथा प्रभावशाली राजनीतिक सत्ताओं की प्रशासनिक क्षमता, उनकी कलात्मक संरक्षण नीति, उनकी धार्मिक सहिष्णुता या कट्टरता, और उनकी आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन का एक महत्वपूर्ण स्थल भी रहा। इन विभिन्न राजवंशों ने यहाँ न केवल भव्य और कलात्मक मंदिर, विशाल और मौन स्तूप, सुदृढ़ और अभेद्य किले तथा मनोहारी और जीवंत प्रतिमाएँ निर्मित कर अपनी स्थायी और अमूल्य विरासत छोड़ी, बल्कि उन्होंने इस क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक संरचना और सांस्कृतिक पहचान को भी गहराई से प्रभावित किया। परंतु, इस राजकीय और अभिजातवर्गीय इतिहास के समानांतर, और अक्सर उससे भी अधिक गहराई तक, यहाँ की उपजाऊ भूमि और सघन वन कोल, गोंड, बैगा, पनिका, लोधी और लवाना जैसी महत्वपूर्ण जनजातीय और लोकजातीय संरचनाओं की जीवंत सामाजिक चेतना, उनकी प्रकृति-सहज जीवनशैली, उनकी विशिष्ट कलाओं और उनके गहन पारंपरिक ज्ञान से निरंतर सिंचित और समृद्ध होती रही। गुर्गी जैसे अद्वितीय और पवित्र स्थल विभिन्न धर्मों, आस्थाओं और संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, उनके पारस्परिक समन्वय और उनके रचनात्मक आदान-प्रदान का एक अनुकरणीय तथा प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जो भारतीय संस्कृति की मूल भावना को प्रतिबिंबित करता है। देउरकोठार के अशोककालीन बौद्ध स्तूप, इटहा की महाभारतकालीन प्राचीनता, बंधवगढ़ का रहस्यमय और ऐतिहासिक किला तथा गोविंदगढ़ के प्रागैतिहासिक शैलाश्रय इस क्षेत्र की गहन, निरंतर और बहुस्तरीय ऐतिहासिक परतों को अत्यंत स्पष्टता और प्रामाणिकता के साथ उजागर करते हैं। वस्तुतः, रीवा की यह अद्भुत और अद्वितीय ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक विविधता, इसकी समावेशी और समन्वयवादी सांस्कृतिक विरासत, तथा विभिन्न मानव समूहों के बीच सह-अस्तित्व, सहयोग और कभी-कभी संघर्ष की लंबी और जटिल परंपरा ही इसकी वास्तविक, अमूल्य धरोहर और इसकी अंतर्निहित शक्ति है। इस बहुमूल्य और प्रेरणास्पद विरासत का गहन अध्ययन, उसका वैज्ञानिक संरक्षण, उसका व्यापक संवर्धन और उसके महत्व का व्यापक जन-प्रचार आज के समय की एक महती आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपने इस गौरवशाली और विविधतापूर्ण अतीत से न केवल परिचित हो सकें, बल्कि उससे प्रेरणा प्राप्त कर एक बेहतर, अधिक समरस और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध भविष्य का निर्माण भी कर सकें।

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यह प्रस्तुति "रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत की गहन पड़ताल" ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए है। सामग्री का उपयोग गैर-व्यावसायिक, शैक्षिक, और शोधपरक गतिविधियों के लिए, शोध एवं संपादन: "आचार्य आशीष मिश्र" (acharyaasheeshmishra.blogspot.com) के उचित श्रेय के साथ किया जा सकता है।

अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर प्रारंभिक रीवा, वनवासी संस्कृति, तथा प्राचीन राजवंश लेबल देखें।

© रीवा की ऐतिहासिक धरोहर, हमारी साझी विरासत। अभिजित पियूष संगठन की ओर से आचार्य आशीष मिश्र।

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