✶ विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम ✶
रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत की गहन पड़ताल
भारत के हृदयस्थल में स्थित, मध्य प्रदेश का रीवा संभाग, अपनी विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की नैसर्गिक सुषमा और ऐतिहासिक गहनता के लिए विख्यात है। इसका इतिहास प्रागैतिहासिक काल से लेकर विभिन्न राजवंशों के उत्थान-पतन और एक समृद्ध बहु-सांस्कृतिक विरासत तक फैला हुआ है। यह क्षेत्र न केवल अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि यह उन प्राचीन सभ्यताओं का भी घर रहा है जिन्होंने भारतीय इतिहास की मुख्य धारा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह आलेख रीवा के इसी प्रारंभिक काल, इसकी गहन वनवासी सभ्यताओं जिन्होंने इस भूमि को सबसे पहले अपना निवास बनाया, प्राचीन राजवंशों जिन्होंने यहाँ शासन किया और अपनी अमिट छाप छोड़ी, और उस बहु-सांस्कृतिक ताने-बाने का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है जिसने बघेलों के आगमन से पूर्व इस क्षेत्र को समृद्ध किया। हम उन पुरातात्विक साक्ष्यों पर भी प्रकाश डालेंगे जो इस क्षेत्र की प्राचीनता और गौरव को प्रमाणित करते हैं, और यह समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं ने मिलकर रीवा की एक विशिष्ट पहचान बनाई।

(चित्र: रीवा एवं बघेलखण्ड क्षेत्र का एक सांकेतिक ऐतिहासिक मानचित्र, जिसमें प्रमुख पुरातात्त्विक स्थल और प्राचीन राजवंशों के प्रभाव क्षेत्र को दर्शाने का प्रयास किया गया है।)
प्रस्तावना: रीवा की प्राचीन ऐतिहासिक यात्रा का आरंभ
भारत के हृदयस्थल में स्थित, मध्य प्रदेश का रीवा संभाग, अपनी विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की नैसर्गिक सुषमा और ऐतिहासिक गहनता के लिए विख्यात है। यह क्षेत्र मात्र एक भौगोलिक इकाई नहीं, अपितु सहस्राब्दियों से प्रवाहित हो रही भारतीय सभ्यता की एक जीवंत धारा का साक्षी है। इसका इतिहास केवल यशस्वी बघेल वंश की कीर्ति तक ही सीमित नहीं है; वस्तुतः, इसकी जड़ें प्रागैतिहासिक काल के धुंधलके में विलीन हैं, जहाँ आदिमानव के प्रथम पदचिह्न अंकित हुए, उनके द्वारा बनाए गए शैलाश्रय और उनमें उकेरे गए शैलचित्र आज भी विंध्य की कंदराओं में उस सुदूर अतीत की कहानियां कहते हैं। कालचक्र के आवर्तनों के साथ, इस पावन भूमि ने वैदिक ऋचाओं की गूंज सुनी, जब आर्यों ने इस क्षेत्र में अपनी बस्तियां बसाईं और एक नवीन सांस्कृतिक अध्याय का सूत्रपात किया। इसके उपरांत, यह क्षेत्र शक्तिशाली चेदि महाजनपद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का केंद्र बना, जिसका उल्लेख महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। मौर्यों के साम्राज्यिक विस्तार के समय, सम्राट अशोक की धम्म नीति ने यहाँ बौद्ध धर्म के प्रसार को गति दी, जिसके प्रमाण देउरकोठार जैसे स्थलों पर आज भी विद्यमान हैं। शुंगों की सांस्कृतिक निष्ठा ने कला और स्थापत्य को नवीन आयाम दिए, तो वहीं नागों की क्षेत्रीय शक्ति ने स्थानीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुप्तों के स्वर्णयुग की आभा से यह क्षेत्र भी आलोकित हुआ, और इस काल में कला, साहित्य और विज्ञान ने अभूतपूर्व प्रगति की। तत्पश्चात, कल्चुरियों, चंदेलों तथा प्रतिहारों जैसे पराक्रमी राजवंशों के उत्थान और पतन का यह मूक दृष्टा बनी, जिन्होंने न केवल यहाँ की राजनीतिक नियति को आकार दिया, बल्कि कला, स्थापत्य और धर्म के क्षेत्र में अपनी अमिट विरासत भी छोड़ी, जो आज भी मंदिरों, मूर्तियों और अभिलेखों के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है।
परंतु, रीवा का इतिहास केवल राजमहलों और विजय अभियानों का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। इसकी आत्मा यहाँ के मूल निवासियों – कोल, गोंड जैसी वनवासी जनजातियों, और लोधी (लोध) व लवाना जैसे लोकजातीय समूहों की जीवंत संस्कृति में बसती है। इन समुदायों ने प्रकृति के साथ एक सामंजस्यपूर्ण संबंध स्थापित करते हुए इस भूमि की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना को एक विशिष्ट और अनूठी पहचान प्रदान की। उनकी लोककथाएँ, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर वीर पुरुषों और देवियों की गाथाएँ शामिल हैं, उनके नृत्य, जो उनके दैनिक जीवन, पर्वों और उत्सवों का अभिन्न अंग हैं, उनके पर्व, जो प्रकृति और ऋतु चक्र से जुड़े हैं, और उनकी जीवन-शैली, जो सादगी, सामूहिकता और प्रकृति के प्रति सम्मान पर आधारित है, आज भी इस क्षेत्र की विरासत का अभिन्न अंग हैं। यह भूमि विभिन्न धर्मों और आस्थाओं की संगम स्थली रही है, जहाँ शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध और मध्यकालीन सूफी परंपराओं ने एक साथ पल्लवित होकर एक अद्भुत सर्वधर्म समभाव और सांस्कृतिक समन्वय का वातावरण निर्मित किया। गुर्गी जैसे स्थल इस समन्वय का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। प्रस्तुत विस्तृत आलेख रीवा के इसी प्रारंभिक काल, इसकी गहन वनवासी सभ्यताओं, विभिन्न प्राचीन राजवंशों के योगदान, महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक धरोहरों और उस बहु-सांस्कृतिक ताने-बाने का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है, जिसने बघेलों के आगमन से पूर्व इस क्षेत्र की नियति को गढ़ा और समृद्ध किया, और भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय का निर्माण किया।
रीवांचल की भूमि में दबी हर पुरातात्त्विक खोज, यहाँ की वनवासी संस्कृति की गूंज, और प्राचीन राजवंशों की गाथाएँ, भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय को उजागर करती हैं, जो हमें अपने अतीत की समृद्ध विविधता और निरंतरता का बोध कराती हैं।
1. वनवासी सभ्यताएँ एवं स्थानीय समुदाय: रीवा की आत्मा के संरक्षक
रीवा की प्रारंभिक सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक संरचना की आधारशिला यहाँ की वनवासी और स्थानीय समुदायों ने रखी, जिन्होंने युगों से इस भूमि को अपना घर माना और इसकी पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखा। इनके योगदान के बिना रीवा का इतिहास अधूरा है। ये समुदाय न केवल इस क्षेत्र के प्राचीनतम निवासी हैं, बल्कि इन्होंने विंध्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल अपनी विशिष्ट जीवन-शैली, सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक परंपराओं का विकास किया। उनके ज्ञान, उनकी कला और प्रकृति के साथ उनके गहरे संबंध ने इस क्षेत्र की विरासत को समृद्ध किया है। आज भी उनकी परंपराएं और रीति-रिवाज रीवांचल की सांस्कृतिक विविधता में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनकी भूमिका केवल अतीत तक सीमित नहीं है, बल्कि वर्तमान में भी ये समुदाय क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय संतुलन में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। उनके अधिकारों, उनकी भाषा और उनकी संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन एक सभ्य समाज की प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि वे ही इस भूमि की वास्तविक आत्मा के संरक्षक हैं। विंध्य क्षेत्र की पारिस्थितिकी के गहरे ज्ञाता होने के कारण, इन समुदायों ने वन संपदा का सतत उपयोग सुनिश्चित किया और पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

(चित्र: रीवा क्षेत्र की समृद्ध वनवासी संस्कृति का एक प्रतीकात्मक चित्रण, जो उनके पारंपरिक वस्त्र, आभूषण और नृत्य-संगीत की झलक प्रस्तुत करता है।)
कोल जनजाति: विंध्य के मूल प्रहरी और सांस्कृतिक स्तंभ
कोल जनजाति को विंध्याचल क्षेत्र का प्राचीनतम और मूल निवासी समुदाय होने का गौरव प्राप्त है। पुरातात्विक और मानवशास्त्रीय अध्ययनों से यह संकेत मिलता है कि कोल समुदाय इस क्षेत्र में नवपाषाण काल या उससे भी पहले से निवास कर रहा है। इनकी सघन बसाहट रीवा, सीधी, सिंगरौली, सतना और उमरिया जिलों के वनाच्छादित और पहाड़ी इलाकों में केंद्रित है, जहाँ इन्होंने प्रकृति के साथ एक अटूट संबंध स्थापित किया है। उनकी भाषा, 'कोल्ही', ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार का हिस्सा है, जो उनकी प्राचीनता और दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ समुदायों के साथ उनके संभावित संबंधों की ओर इशारा करती है। कोल समुदाय अपनी पारंपरिक ग्राम व्यवस्था, जिसे 'कोलहन' कहा जाता है, और अपनी पंचायत प्रणाली के लिए जाना जाता है, जो उनके सामाजिक जीवन को नियंत्रित करती है। उन्होंने पीढ़ियों से वन संसाधनों के सतत उपयोग का ज्ञान संचित किया है, और उनकी पारंपरिक औषधीय प्रणाली आज भी महत्वपूर्ण है। उनका इतिहास शौर्य और संघर्ष का भी रहा है, जहाँ उन्होंने बाहरी आक्रमणों और शोषण का दृढ़ता से सामना किया। रामायण काल में शबरी का संबंध भी इसी समुदाय से जोड़ा जाता है, जो उनकी प्राचीनता को और पुष्ट करता है। वे अपने पारंपरिक हथियारों जैसे तीर-धनुष और कुल्हाड़ी के कुशल उपयोग के लिए भी जाने जाते थे। आज भी कोल समुदाय अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए संघर्षरत है और उनके लोकगीत व लोकनृत्य उनकी इस जीवटता का प्रमाण हैं।
विस्तृत निवास क्षेत्र एवं योगदान:
रीवा जिले के हनुमना, नईगढ़ी, मऊगंज (अब जिला), गुढ़, त्योंथर, सिरमौर, जवा और चोरहटा तहसीलों में इनकी प्रभावशाली उपस्थिति है। कोलगढ़ी (Kolgarhi) (जवा तहसील), जो संभवतः किसी कोल सरदार का प्राचीन गढ़ रहा होगा, अतरैला (Atraila) और डभौरा (Dabhaura) ग्राम कोल संस्कृति के जीवंत केंद्र हैं, जहाँ उनकी परंपराएँ और रीति-रिवाज आज भी देखे जा सकते हैं। कोल समुदाय ऐतिहासिक रूप से प्रकृति से जुड़ा रहा है; पारंपरिक कृषि, जिसमें मोटे अनाज जैसे कोदो, कुटकी और ज्वार शामिल हैं, शिकार (जो अब काफी हद तक प्रतिबंधित है) और वनोपज संग्रहण जैसे महुआ, तेंदूपत्ता, शहद और विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ इनकी आजीविका के मुख्य आधार थे। इनकी सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ और सामूहिकता पर आधारित थी, जिसमें परिवार और कबीले का महत्वपूर्ण स्थान होता है। उनके लोकगीत, जो उनके दैनिक जीवन, प्रकृति, प्रेम और वीरता का वर्णन करते हैं, लोकनृत्य (जैसे प्रसिद्ध करमा, सैला, और विवाह आदि अवसरों पर किए जाने वाले विशेष नृत्य) और मौखिक कथाएँ, जिनमें उनके पूर्वजों और देवी-देवताओं की कहानियाँ शामिल हैं, अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर हैं। वे मुख्यतः प्रकृति पूजक रहे हैं, और उनके प्रमुख आराध्य देवों में बूढ़ादेव (या बड़ा देव), जो सृष्टि के निर्माता माने जाते हैं, खैरमाई (ग्राम देवी), और कोटिल (सीमाओं के रक्षक देव) शामिल हैं। उनकी आस्था और पूजा पद्धतियाँ क्षेत्र की पर्यावरणीय चेतना को भी दर्शाती हैं। इनके अतिरिक्त, वे विभिन्न स्थानीय देवी-देवताओं और आत्माओं में भी विश्वास रखते हैं, जो उनके जीवन के हर पहलू से जुड़े होते हैं।
कोल जनजाति की सांस्कृतिक परंपराएँ, उनकी पर्यावरण-हितैषी जीवनशैली और प्रकृति के साथ उनका गहन सामंजस्य, रीवांचल की पर्यावरणीय और सामाजिक विरासत का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग है, जिसे संरक्षित और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि यह अमूल्य ज्ञान और परंपराएं भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँच सकें।
गोंड जनजाति: कबीलीय शासन, कलात्मकता और सीधी जिले से विशेष संबंध
गोंड जनजाति मध्य भारत की प्रमुख और सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है, जिसका ऐतिहासिक विस्तार सीधी, रीवा और वृहत्तर बघेलखंड के साथ-साथ महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश तक रहा है। विशेषकर सीधी जिले के वनाच्छादित क्षेत्रों और कैमूर पर्वत श्रृंखला की उपत्यकाओं में इनकी ऐतिहासिक उपस्थिति और सांस्कृतिक प्रभाव अत्यंत गहरा है। गोंड समुदाय अपनी समृद्ध कलात्मक परंपराओं, विशेषकर 'गोंड पेंटिंग' के लिए विश्वविख्यात है, जिसमें प्रकृति, देवी-देवताओं, मिथकों और दैनिक जीवन के दृश्यों को जीवंत रंगों और जटिल पैटर्न के माध्यम से चित्रित किया जाता है। यह कला न केवल सौंदर्यपरक है, बल्कि यह उनकी मान्यताओं और विश्व-दृष्टि का भी प्रतिबिंब है। गोंडवाना, जिसका अर्थ है 'गोंडों का देश', एक ऐतिहासिक क्षेत्र को संदर्भित करता है जहाँ विभिन्न कालों में गोंड शासकों ने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए। उनकी भाषा, 'गोंडी', द्रविड़ भाषा परिवार से संबंधित है, जो उनके प्राचीन उद्गम और दक्षिण भारतीय संस्कृतियों के साथ उनके संभावित संबंधों को इंगित करती है। गोंड समाज में 'परधान' (पारंपरिक कथावाचक और संगीतकार) और 'ओझा' (पुजारी और चिकित्सक) जैसे विशिष्ट सामाजिक समूहों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
कबीलीय शासन, धार्मिक परंपराएँ एवं कला:
प्रारंभिक काल में और मध्ययुग में भी, गोंडों ने छोटे-छोटे आत्मनिर्भर कबीलीय राज्यों या गढ़ों की स्थापना की थी, जैसे गढ़-मंडला, देवगढ़, चांदा और खेरला। ये गढ़ न केवल राजनीतिक सत्ता के केंद्र थे, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान और कलात्मक विकास के भी महत्वपूर्ण स्थल थे। वे प्रकृति और पितृ-पूजा में गहरा विश्वास रखते हैं, और उनके प्रमुख आराध्य देव बड़ा देव (या बूढ़ा देव) हैं, जिन्हें वे अपने समुदाय और सृष्टि का सर्वोच्च संरक्षक मानते हैं। इसके अतिरिक्त, वे विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों, ग्राम देवताओं (जैसे खेरोमाई, ठाकुर देव) और कुल देवताओं की भी पूजा करते हैं। उनकी गोंड पेंटिंग, जो दीवारों, कैनवास और अन्य माध्यमों पर की जाती है, अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचानी जाती है और समकालीन कला जगत में भी अपना स्थान बना चुकी है। काष्ठकला, विशेष रूप से सजावटी दरवाजे और स्तंभ, मिट्टी की मूर्तियाँ और पारंपरिक आभूषण बनाने की कला भी उल्लेखनीय हैं। गोंडवानी कथाएँ, जो उनकी मौखिक परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, उनके इतिहास, मिथकों और सामाजिक मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करती हैं। उनके लोकनृत्य जैसे सैला (पुरुषों का छड़ी नृत्य), रीना (महिलाओं का नृत्य), करमा (फसल उत्सव का नृत्य), और भड़म (जो विशेष अवसरों पर किया जाता है) उनकी समृद्ध सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक भावना को दर्शाते हैं। ये नृत्य अक्सर ढोल, मांदर और टिमकी जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ किए जाते हैं।
लोधी (लोध) समाज: परिश्रमी कृषक और वीर योद्धा
लोधी समुदाय, जो स्वयं को प्राचीन लोध राजपूतों का वंशज मानते हैं, मध्यकाल में रीवा क्षेत्र और आस-पास के बुंदेलखंड में एक महत्वपूर्ण कृषक और योद्धा समुदाय के रूप में उभरा। इनकी सघन उपस्थिति मऊगंज, जवा, गुढ़, सिरमौर और त्योंथर तहसीलों के उपजाऊ मैदानी भागों में रही है, जहाँ उन्होंने कृषि योग्य भूमि का विस्तार किया और नवीन कृषि तकनीकों को अपनाया। इन्होंने कृषि, विशेषकर गेहूं, चना, मसूर और अन्य रबी फसलों के साथ-साथ धान और ज्वार जैसी खरीफ फसलों की खेती में महत्वपूर्ण योगदान दिया और इस क्षेत्र की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था का स्तंभ बने। उनकी मेहनत और कृषि कौशल ने क्षेत्र की खाद्य सुरक्षा और समृद्धि में वृद्धि की। कृषि के अतिरिक्त, लोधी समुदाय का एक गौरवशाली योद्धा इतिहास भी रहा है। उन्होंने स्थानीय शासकों, जिनमें बघेल और बुंदेला राजा शामिल थे, की सेनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कई युद्धों में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। उनकी वीरता की कहानियाँ आज भी लोकगीतों और कथाओं में जीवित हैं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भी लोधी समुदाय के कई लोगों ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। सामाजिक रूप से, लोधी समुदाय एक सुसंगठित और स्वाभिमानी समुदाय रहा है, जिनकी अपनी विशिष्ट परंपराएँ और रीति-रिवाज हैं। उनकी सामाजिक संरचना में 'खाप' पंचायतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जो सामुदायिक मामलों का निपटारा करती थीं और सामाजिक नियमों का पालन सुनिश्चित करती थीं। वे शिक्षा और सामाजिक सुधारों के प्रति भी जागरूक रहे हैं।
लवाना समाज: दूरगामी व्यापार और वाणिज्य के सूत्रधार
लवाना (या लंबाणी/बंजारा) समुदाय ऐतिहासिक रूप से एक गतिशील, खानाबदोश और व्यापारी समुदाय रहा है, जिन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों के बीच वस्तुओं के परिवहन और व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका इतिहास अत्यंत प्राचीन है और माना जाता है कि वे मूल रूप से राजस्थान और गुजरात के क्षेत्रों से संबंधित थे, जहाँ से वे व्यापार और पशुपालन के लिए विभिन्न दिशाओं में फैले। रीवा क्षेत्र, जो प्राचीन व्यापारिक मार्गों, विशेषकर उत्तर भारत को दक्षिण और पूर्व भारत से जोड़ने वाले मार्गों का एक महत्वपूर्ण मिलन बिंदु था, इनके लिए आकर्षण का केंद्र रहा होगा। लवाना समुदाय अपनी बैलगाड़ियों के काफिलों (जिन्हें 'तांडा' कहा जाता था और जो कभी-कभी सैकड़ों बैलगाड़ियों का होता था) के लिए प्रसिद्ध थे, जिनके माध्यम से वे नमक, अनाज, कपड़े, मसाले, पशुधन, अफीम, और अन्य आवश्यक वस्तुओं का लंबी दूरी तक व्यापार करते थे। उनकी सघन बसाहट या पड़ाव मुख्यतः चाकघाट (जो गंगा के मैदानी इलाकों से मालवा और दक्कन की ओर जाने वाले मार्ग पर स्थित था), त्योंथर (जो यमुना और गंगा के संगम के निकट था) और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे क्षेत्रों में पाए जाते थे। इन्होंने न केवल दूर-दराज के क्षेत्रों के बीच वस्तुओं का परिवहन और विनिमय सुनिश्चित किया, बल्कि विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और विचारों के वाहक भी बने। उनकी विशिष्ट वेशभूषा, जिसमें महिलाओं के लिए रंगीन घाघरा-चोली और भारी चांदी के आभूषण शामिल हैं, और उनकी जीवंत लोक परंपराएँ (जैसे घूमर जैसा नृत्य और भावपूर्ण गीत) उनकी एक अलग सांस्कृतिक पहचान बनाती हैं। लवाना समुदाय ने अपनी गतिशीलता, व्यापारिक कौशल और पशुधन की प्रचुरता के कारण विभिन्न राजवंशों के लिए सैन्य अभियानों के दौरान रसद आपूर्ति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे युद्ध के मैदानों तक सेनाओं के लिए अनाज और अन्य आवश्यक सामग्री पहुँचाते थे। आज भी यह समुदाय अपनी पारंपरिक पहचान और व्यवसाय को बनाए रखने का प्रयास कर रहा है, यद्यपि आधुनिक परिवहन साधनों के विकास ने उनके पारंपरिक व्यापार को प्रभावित किया है।
2. बघेल वंश के पूर्ववर्ती राजवंश: रीवा के राजनीतिक क्षितिज के निर्माता
बघेल वंश के १३वीं शताब्दी में उदय से पूर्व, रीवा का भूभाग अनेक शक्तिशाली और प्रभावशाली राजवंशों के शासन और उनकी सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा। इन राजवंशों ने न केवल यहाँ की राजनीतिक संरचना को आकार दिया, बल्कि कला, स्थापत्य, धर्म और सामाजिक जीवन पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। यह क्षेत्र कभी किसी एकछत्र साम्राज्य का स्थायी अंग नहीं रहा, बल्कि विभिन्न शक्तियों के बीच प्रभाव क्षेत्र का हिस्सा बनता रहा, जिससे यहाँ एक मिश्रित और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का विकास हुआ। इन पूर्ववर्ती राजवंशों की प्रशासनिक व्यवस्था, उनके द्वारा निर्मित संरचनाएं और उनके संरक्षण में विकसित हुई कला शैलियाँ बघेल शासन की नींव रखने में महत्वपूर्ण थीं। उनके द्वारा स्थापित व्यापारिक मार्ग, कृषि तकनीकें और सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं बाद के काल में भी जारी रहीं और क्षेत्र के विकास में योगदान देती रहीं। इन राजवंशों के आपसी संघर्ष और सहयोग ने भी इस क्षेत्र की राजनीतिक और सांस्कृतिक नियति को प्रभावित किया, और एक ऐसा वातावरण तैयार किया जिसमें विभिन्न परंपराएं और विचार एक-दूसरे से मिल सके।
चेदि महाजनपद (लगभग छठी शताब्दी ई.पू. - महाभारत काल):
प्राचीन भारतीय इतिहास के सोलह महाजनपदों में से एक, शक्तिशाली चेदि महाजनपद का महत्वपूर्ण अंग वर्तमान रीवा और इसके आस-पास का क्षेत्र था। इसका उल्लेख महाभारत और बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय जैसे प्राचीन साहित्य में प्रमुखता से मिलता है। चेदि नरेश शिशुपाल, जिनकी कथा महाभारत में भगवान कृष्ण से उनके संघर्ष के लिए प्रसिद्ध है, इसी महाजनपद के सबसे विख्यात शासक माने जाते हैं। उनकी राजधानी सुक्तिमती नगरी की पहचान पुरातत्वविदों द्वारा रीवा जिले के इटहा (Itaha) ग्राम या उसके निकटवर्ती क्षेत्र से की जाती है, जहाँ से प्राचीन बसाहट के अवशेष, मृदभांड और अन्य पुरातात्विक सामग्रियां प्राप्त हुई हैं। चेदि का भौगोलिक विस्तार संभवतः यमुना और नर्मदा नदियों के बीच के भूभाग तक, तथा पूर्व में सोन नदी तक विस्तृत था। यह तत्कालीन उत्तर भारत की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति थी, जिसका अन्य महाजनपदों जैसे मगध, वत्स और काशी के साथ राजनीतिक और वैवाहिक संबंध थे। इस क्षेत्र में कृषि की प्रधानता थी, और यहाँ के निवासी व्यापार और वाणिज्य में भी संलग्न थे, जिसके प्रमाण प्राचीन व्यापारिक मार्गों की उपस्थिति से मिलते हैं। चेदि महाजनपद की सामाजिक संरचना में वर्ण व्यवस्था का प्रभाव था, और यहाँ विभिन्न धार्मिक परंपराओं का सह-अस्तित्व रहा होगा, जिनमें वैदिक धर्म प्रमुख था, परन्तु जैन और बौद्ध धर्म के भी प्रारंभिक अनुयायी यहाँ मौजूद रहे होंगे। शिशुपाल के बाद भी चेदि राजवंश ने कुछ समय तक अपनी स्वतंत्रता बनाए रखी, परंतु कालांतर में यह मगध साम्राज्य के विस्तार और नंद तथा मौर्य शासकों की बढ़ती शक्ति का शिकार हो गया, और इसकी राजनीतिक स्वायत्तता समाप्त हो गई।
मौर्य वंश (लगभग 322 ई.पू. – 185 ई.पू.) एवं शुंग वंश (लगभग 185 ई.पू. – 73 ई.पू.):
चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित विशाल मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत रीवा क्षेत्र भी समाहित था, जो साम्राज्य के मध्य भारतीय प्रांत का हिस्सा रहा होगा। सम्राट अशोक महान (लगभग 268-232 ई.पू.) के काल में यह क्षेत्र बौद्ध धर्म के प्रसार का एक प्रमुख केंद्र बना। अशोक ने अपनी धम्म नीति के तहत विभिन्न स्थानों पर स्तूपों, विहारों और शिलालेखों का निर्माण करवाया। रीवा जिले की सिरमौर तहसील में स्थित देउरकोठार (Deur Kothar) के विशाल बौद्ध स्तूप (जिनकी संख्या लगभग 40 बताई जाती है), एक बड़े विहार परिसर के खंडहर, आवासीय संरचनाएं और सम्राट अशोक के काल के ब्राह्मी लिपि में लिखे गए प्रस्तर स्तंभों पर उत्कीर्ण शिलालेख इसके महत्वपूर्ण प्रमाण हैं। इन शिलालेखों में बौद्ध संघ को दिए गए दान और धम्म के सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है, जो इस क्षेत्र में मौर्यकालीन प्रशासनिक उपस्थिति और बौद्ध धर्म के प्रति राजकीय संरक्षण को दर्शाता है। देउरकोठार संभवतः एक महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ, शिक्षा केंद्र और भिक्षुओं के वर्षावास का स्थल रहा होगा, जो प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर स्थित होने के कारण यात्रियों और व्यापारियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र था। मौर्यों के पतन के बाद शुंग वंश (लगभग 185-73 ई.पू.) सत्ता में आया। यद्यपि शुंग शासक ब्राह्मण धर्म के समर्थक माने जाते हैं, तथापि इस काल में भी बौद्ध धर्म का प्रभाव इस क्षेत्र में बना रहा और भरहुत (सतना के निकट) जैसे स्थानों पर बौद्ध स्तूपों का विस्तार एवं अलंकरण कार्य जारी रहा, जिसका प्रभाव रीवा क्षेत्र की कला पर भी पड़ा होगा। शुंग काल में निर्मित कलाकृतियों में लोक कला के तत्वों का भी समावेश देखने को मिलता है।
देउरकोठार के स्तूप और अभिलेख न केवल मौर्यकालीन कला और स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, बल्कि वे सम्राट अशोक की धम्म-नीति, उनके साम्राज्य की विशालता, बौद्ध धर्म के प्रति उनके समर्पण और बघेलखण्ड में बौद्ध धर्म की गहरी जड़ों को भी प्रमाणित करते हैं, जो भारतीय इतिहास की एक अमूल्य धरोहर है और हमें उस काल की धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की समृद्ध परंपरा का स्मरण कराती है।
नागवंशी (लगभग दूसरी से चौथी शताब्दी ईस्वी):
मौर्यों के पतन और कुषाणों के उदय के बीच के कालखंड में, तथा कुषाणों के बाद गुप्तों के उदय से पूर्व, मध्य भारत के कई हिस्सों में स्थानीय नागवंशों ने अपनी शक्ति स्थापित की। ये नागवंशी शासक संभवतः स्थानीय जनजातीय प्रमुखों या छोटे राजाओं के वंशज थे जिन्होंने राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। इन नागवंशों की प्रमुख शाखाएँ मथुरा, पद्मावती (आधुनिक पवाया, ग्वालियर के निकट), कांतिपुरी (संभावित रूप से मिर्जापुर या रीवा के निकट का क्षेत्र, कुछ विद्वान इसे वर्तमान कुटवार (मुरैना) से भी समीकृत करते हैं) और विदिशा में थीं। रीवा-सतना क्षेत्र और निकटवर्ती बुंदेलखंड से विभिन्न नागवंशी शासकों, जैसे गणपतिनाग, नागसेन, भीमनाग, वृहस्पतिनाग, देवनाग और भवनाग की तांबे की मुद्राएँ और कुछ दुर्लभ शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ये मुद्राएँ, जिन पर सामान्यतः नंदी (शिव का वाहन), त्रिशूल, नाग प्रतीक और शासकों के नाम ब्राह्मी लिपि में अंकित हैं, इस क्षेत्र में उनकी स्वतंत्र या अर्ध-स्वतंत्र सत्ता की पुष्टि करती हैं। नागवंशी मुख्यतः शैव धर्म के अनुयायी माने जाते हैं और उन्होंने कला और स्थापत्य को भी संरक्षण दिया। उनके शासनकाल में शिव मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण हुआ होगा। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में गणपतिनाग का उल्लेख उन नौ आर्यावर्त के राजाओं में किया गया है जिन्हें समुद्रगुप्त ने बलपूर्वक पराजित कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में विलीन कर लिया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि चौथी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य के विस्तार के साथ नागों की शक्ति का ह्रास हुआ। रीवा क्षेत्र में नागों की उपस्थिति यहाँ की राजनीतिक और सांस्कृतिक निरंतरता में एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जो मौर्योत्तर काल से गुप्त काल के बीच के संक्रमण को दर्शाती है और इस क्षेत्र के स्थानीय राजवंशों के महत्व को रेखांकित करती है।
गुप्त राजवंश (लगभग तीसरी के अंत से छठी शताब्दी ईस्वी):
गुप्त काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' माना जाता है, जिसमें कला, साहित्य, विज्ञान, दर्शन और प्रशासनिक व्यवस्था का चहुंमुखी विकास हुआ। रीवा क्षेत्र, जिसे इस काल में संभवतः 'डाहल देश' या उसके किसी भाग के रूप में जाना जाता था, गुप्त साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग था। इस क्षेत्र से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य गुप्तकालीन समृद्धि और सांस्कृतिक उत्कर्ष की पुष्टि करते हैं। देउरकोठार के बौद्ध स्तूपों का इस काल में जीर्णोद्धार और विस्तार किया गया, और संभवतः नए विहारों का भी निर्माण हुआ, जो गुप्त शासकों की धार्मिक सहिष्णुता और कला-संरक्षण की नीति को दर्शाता है। यद्यपि गुप्त शासक स्वयं वैष्णव धर्म के अनुयायी थे, उन्होंने अन्य धर्मों के प्रति भी उदारता दिखाई। उमरिया जिले में स्थित (जो ऐतिहासिक रूप से बघेलखंड का हिस्सा रहा है) बंधवगढ़ किला के आसपास से गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएँ (जिन पर गुप्त शासकों के चित्र और उपाधियाँ अंकित हैं), कलात्मक प्रस्तर प्रतिमाएँ (जैसे कि किले के भीतर चट्टान को काटकर बनाई गई शेषशायी विष्णु की भव्य प्रतिमा, विभिन्न अवतारों की मूर्तियाँ, और गंगा-यमुना जैसी नदी देवियों की प्रतिमाएँ) और मंदिर स्थापत्य के प्रारंभिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये कलाकृतियाँ गुप्तकालीन मूर्तिकला की उत्कृष्टता, जैसे शारीरिक सौष्ठव, संतुलित अनुपात, शांत और आध्यात्मिक भावप्रवणता, और अलंकरण की सूक्ष्मता, को प्रदर्शित करती हैं। इस काल में शैव, वैष्णव और शाक्त संप्रदायों का भी इस क्षेत्र में प्रभाव बढ़ा, और कई मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ थी, और इस क्षेत्र में शांति और सुव्यवस्था बनी रही, जिससे व्यापार और वाणिज्य को भी प्रोत्साहन मिला, और यह क्षेत्र उत्तर भारत को दक्षिण से जोड़ने वाले मार्गों पर एक महत्वपूर्ण पड़ाव बना।
कल्चुरी राजवंश (मुख्यतः लगभग 8वीं से 12वीं शताब्दी ईस्वी):
गुप्तों के पतन के बाद और राजपूत काल के उदय के साथ, त्रिपुरी (आधुनिक तेवर, जबलपुर के निकट) के कल्चुरी (या हैहय) राजवंश ने मध्य भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया, जिसका रीवा और बघेलखंड क्षेत्र पर गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव रहा। कल्चुरी शासक, जैसे कोक्कल्ल प्रथम, युवराजदेव प्रथम, लक्ष्मणराज द्वितीय और प्रतापी कर्णदेव (जिन्हें 'हिन्द का नेपोलियन' भी कहा जाता था), अत्यंत पराक्रमी, महत्वाकांक्षी और कला-प्रेमी थे। वे शैव धर्म के महान संरक्षक थे, विशेषकर मत्तमयूर शैव संप्रदाय को उनके शासनकाल में राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ। इस संप्रदाय के शैवाचार्यों, जैसे प्रभावशिव, प्रशान्तशिव, और हृदयशिव ने इस क्षेत्र में अनेक मठों, मंदिरों और शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की, जो न केवल धार्मिक अनुष्ठानों के केंद्र थे, बल्कि ज्ञान, दर्शन और कला के भी महत्वपूर्ण स्थल थे। रीवा जिले की गुढ़ तहसील में स्थित गुर्गी (Gurgi) और सीधी जिले में सोन नदी के तट पर स्थित चन्द्रहे (Chandrahe) मत्तमयूर शैव संप्रदाय की गतिविधियों के प्रमुख केंद्र थे। इन स्थानों से प्राप्त विशाल और कलात्मक शैव प्रतिमाएँ (जैसे कि गुर्गी से प्राप्त नटराज शिव की भव्य मूर्ति), मंदिरों के भग्नावशेष, और संस्कृत में उत्कीर्ण अभिलेख कल्चुरीकालीन कला और स्थापत्य की उत्कृष्टता के प्रमाण हैं। गुर्गी से प्राप्त अभिलेखों में शैवाचार्य प्रभावशिव और प्रशांतशिव जैसे गुरुओं का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने यहाँ शैव सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया और विशाल मंदिर परिसरों का निर्माण करवाया। सिरमौर तहसील में स्थित बैजनाथ (Baijnath) का शिव मंदिर और नयागांव (Nayagaon) से प्राप्त कल्चुरीकालीन शिव मंदिर और प्रतिमाएँ भी इसी काल की देन हैं। कल्चुरी शासकों ने न केवल धार्मिक संरचनाओं का निर्माण करवाया, बल्कि उन्होंने कला और साहित्य को भी प्रोत्साहित किया। उनके दरबार में राजशेखर जैसे प्रसिद्ध कवि और नाटककार आश्रय पाते थे। कल्चुरी काल में इस क्षेत्र में एक विशिष्ट क्षेत्रीय कला शैली का विकास हुआ, जिसकी अपनी पहचान है, और यह शैली उत्तर और दक्षिण भारतीय कला परंपराओं के समन्वय को दर्शाती है।

(चित्र: कल्चुरी कालीन कला का एक उत्कृष्ट नमूना, संभवतः बैजनाथ मंदिर या गुर्गी से प्राप्त कोई मूर्तिशिल्प, जो उनकी विकसित स्थापत्य शैली और मूर्तिकला की बारीकियों को दर्शाता है।)
चंदेल और प्रतिहार राजवंश (लगभग 8वीं से 13वीं शताब्दी ईस्वी):
यद्यपि रीवा और बघेलखंड का अधिकांश क्षेत्र मुख्य रूप से कल्चुरियों के प्रभाव में था, तथापि इसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि यह उत्तर में कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहारों और दक्षिण-पश्चिम में जेजाकभुक्ति (बुंदेलखंड) के चंदेलों की सीमाओं के निकट पड़ता था। इन दोनों शक्तिशाली राजपूत राजवंशों का भी इस क्षेत्र पर समय-समय पर राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा, विशेषकर उन कालों में जब कल्चुरी शक्ति थोड़ी कमजोर पड़ती थी। गुर्जर-प्रतिहार, जिन्होंने उत्तरी भारत में एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया था और अरब आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था, संभवतः अपने साम्राज्य के चरम काल (9वीं-10वीं शताब्दी) में इस क्षेत्र के उत्तरी भागों को नियंत्रित करते थे। उनके शासनकाल में विकसित हुई नागर शैली की मंदिर वास्तुकला का प्रभाव यहाँ की कुछ संरचनाओं में परिलक्षित हो सकता है, और उनके प्रशासनिक सुधारों का भी स्थानीय व्यवस्था पर कुछ असर पड़ा होगा। चंदेल, जो अपनी कला और स्थापत्य, विशेषकर खजुराहो के विश्व प्रसिद्ध मंदिरों के लिए जाने जाते हैं, कालिंजर के अपने सुदृढ़ किले से इस क्षेत्र की गतिविधियों पर नजर रखते थे। कालिंजर, जो रीवा से बहुत दूर नहीं है, चंदेलों का एक महत्वपूर्ण रणनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र था। कल्चुरियों और चंदेलों के बीच वैवाहिक संबंध भी स्थापित हुए, जैसे कि चंदेल राजकुमारी नट्टा का विवाह कल्चुरी युवराज गांगेयदेव से हुआ था। लेकिन साथ ही उनके बीच सत्ता के लिए निरंतर संघर्ष भी चलता रहा, और इस क्षेत्र के कुछ हिस्से कभी चंदेलों के तो कभी कल्चुरियों के अधिकार में आते-जाते रहे। इस राजनीतिक खींचतान और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कारण रीवा क्षेत्र में विभिन्न कला शैलियों और स्थापत्य परंपराओं का एक रोचक मिश्रण देखने को मिलता है, जो इसे मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण संक्रमणकालीन क्षेत्र बनाता है। इन राजवंशों के अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों में इस क्षेत्र के कुछ स्थानों का उल्लेख मिलता है, जो उनके प्रभाव की पुष्टि करते हैं।
3. गुर्गी: विभिन्न धर्मों का सांस्कृतिक उत्थान केंद्र एवं गाजी मियां का मजार – एक अद्भुत समन्वय
रीवा जिले की गुढ़ तहसील में स्थित गुर्गी-महसांव, प्राचीन और मध्यकालीन रीवा की आत्मा का दर्पण है, जहाँ विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यह स्थल न केवल पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी और सहिष्णु प्रकृति का एक उत्कृष्ट उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। यहाँ के खंडहर और बिखरे हुए पुरावशेष एक गौरवशाली अतीत की कहानी कहते हैं, जब यह स्थान शैव धर्म का एक प्रमुख केंद्र हुआ करता था, और साथ ही जैन और संभवतः बौद्ध परंपराओं को भी यहाँ आश्रय मिला। बाद के काल में, सूफी संत की उपस्थिति ने इस स्थान को एक सर्व-धर्म सद्भाव के प्रतीक के रूप में स्थापित किया। गुर्गी की भौगोलिक स्थिति भी महत्वपूर्ण थी, यह संभवतः प्राचीन व्यापारिक मार्गों पर स्थित रहा होगा, जिससे विभिन्न विचारों और संस्कृतियों का यहाँ आगमन सुगम हुआ। आज भी यह स्थल स्थानीय लोगों के लिए आस्था और ऐतिहासिक गौरव का केंद्र बना हुआ है, और इसके गहन अध्ययन से हमें इस क्षेत्र के सामाजिक-धार्मिक इतिहास की कई अनसुलझी कड़ियों को जोड़ने में मदद मिल सकती है। इस स्थल का पुरातात्विक महत्व इसे राष्ट्रीय धरोहर की श्रेणी में रखता है और इसके संरक्षण के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता है।

(चित्र: गुर्गी से प्राप्त प्राचीन मंदिर के कलात्मक अवशेष या किसी जैन तीर्थंकर की प्रतिमा का अंश, जो इस स्थल की बहु-धार्मिक विरासत को दर्शाता है।)
हिन्दू धर्म की विविध धाराओं का संगम:
गुर्गी मुख्यतः शैव धर्म का एक महान केंद्र रहा, विशेष रूप से कल्चुरी शासकों के संरक्षण में। यहाँ मत्तमयूर शैव संप्रदाय के प्रसिद्ध शैवाचार्य प्रभावशिव और प्रशांतशिव जैसे गुरुओं ने अपने मठ स्थापित किए और शैव दर्शन का प्रचार-प्रसार किया। इन मठों में न केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती थी, बल्कि ये कला, साहित्य और ज्ञान के भी केंद्र थे, जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी और विद्वान आते थे। गुर्गी से प्राप्त विशाल शिवलिंग, नंदी की मूर्तियाँ, उमा-महेश्वर, कार्तिकेय, गणेश और अन्य शिव परिवार के सदस्यों की कलात्मक प्रतिमाएँ यहाँ शैव धर्म की गहरी जड़ों को प्रमाणित करती हैं। रेहुटा दुर्ग के निकट स्थित मंदिरों के अवशेष भी इसी काल के माने जाते हैं और उनकी स्थापत्य शैली कल्चुरी कला की विशेषताओं को दर्शाती है। शैव धर्म के अतिरिक्त, यहाँ वैष्णव और शाक्त परंपराओं के भी चिन्ह मिलते हैं, जो इस क्षेत्र की धार्मिक विविधता और विभिन्न संप्रदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व को दर्शाते हैं। विष्णु और उनके अवतारों की कुछ खंडित प्रतिमाएँ, तथा विभिन्न देवी-देवताओं (जैसे दुर्गा, चामुंडा) की मूर्तियाँ और मंदिरों के वास्तुशिल्प के टुकड़े इस बात का संकेत देते हैं कि गुर्गी एक ऐसा स्थान था जहाँ हिन्दू धर्म की विभिन्न धाराएँ स्वतंत्र रूप से पल्लवित हुईं। यह धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान का एक महत्वपूर्ण पहलू था।
जैन धर्म की उपस्थिति:
गुर्गी न केवल शैव धर्म का केंद्र था, बल्कि यहाँ जैन धर्म की भी महत्वपूर्ण उपस्थिति रही है, जो इस क्षेत्र की धार्मिक सहिष्णुता और बहुलतावादी संस्कृति का प्रमाण है। इस स्थल से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की एक खंडित प्रतिमा और नौवीं शताब्दी ईस्वी की कात्योत्सर्ग (खड़ी ध्यान मुद्रा) में एक अन्य तीर्थंकर की सुंदर मूर्ति मिली है। यह मूर्ति, जो वर्तमान में प्रयागराज संग्रहालय में संरक्षित है, जैन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाती है और इसकी शैली तत्कालीन कला प्रवृत्तियों को दर्शाती है। इन मूर्तियों की प्राप्ति यह प्रमाणित करती है कि मध्यकाल में गुर्गी और इसके आस-पास के क्षेत्रों में जैन समुदाय भी सक्रिय था और उन्हें अपने धर्म का पालन करने और धार्मिक संरचनाएँ (जैसे जिनालय या चैत्य) स्थापित करने की स्वतंत्रता थी। संभवतः यहाँ जैन व्यापारियों और श्रावकों की बस्तियाँ रही होंगी, जिन्होंने इन मूर्तियों और मंदिरों के निर्माण में आर्थिक और सामाजिक योगदान दिया होगा। जैन धर्म, जो अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांतवाद जैसे सिद्धांतों पर बल देता है, ने निश्चित रूप से इस क्षेत्र के सामाजिक-नैतिक मूल्यों और जीवनशैली को प्रभावित किया होगा। गुर्गी में जैन धर्म की उपस्थिति यह भी दर्शाती है कि यह क्षेत्र विभिन्न धार्मिक विचारों के आदान-प्रदान का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, जहाँ विभिन्न आस्थाओं के लोग शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रहते थे।
बौद्ध धर्म के पदचिह्न:
यद्यपि गुर्गी से बौद्ध धर्म से संबंधित प्रत्यक्ष और ठोस पुरातात्विक साक्ष्य अभी तक प्रचुर मात्रा में नहीं मिले हैं, जैसा कि शैव या जैन धर्म के संदर्भ में मिले हैं, तथापि कुछ विद्वान और इतिहासकार इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के संभावित प्रभाव से इंकार नहीं करते। रीवा क्षेत्र का निकटवर्ती स्थल देउरकोठार मौर्यकाल में बौद्ध धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र था, जहाँ अशोककालीन स्तूप और विहार पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त, कौशाम्बी, जो प्राचीन भारत का एक प्रमुख नगर और बौद्ध गतिविधियों का केंद्र था, से भी इस क्षेत्र की भौगोलिक और व्यापारिक निकटता रही है। यह पूर्णतः संभव है कि बौद्ध भिक्षु और अनुयायी इन महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों से आने-जाने वाले व्यापारिक मार्गों का उपयोग करते रहे हों और उन्होंने गुर्गी या इसके आस-पास के क्षेत्रों में कुछ समय के लिए निवास किया हो या छोटे विहारों अथवा चैत्यों की स्थापना की हो। राजा कर्णदेव द्वारा निर्मित रेहुटा दुर्ग, जो गुर्गी के समीप स्थित है, एक ऐसा रणनीतिक और संभवतः व्यापारिक केंद्र रहा होगा जहाँ विभिन्न धार्मिक समुदायों के लोगों का आवागमन और संपर्क होता रहा होगा। भविष्य में यदि इस क्षेत्र में और अधिक पुरातात्त्विक अन्वेषण और उत्खनन कार्य किया जाए, तो बौद्ध धर्म से संबंधित और भी महत्वपूर्ण जानकारी और पुरावशेष प्रकाश में आ सकते हैं, जो रीवा की बहु-धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत के चित्र को और भी पूर्ण और समृद्ध करेंगे।
सूफी संत गाजी मियां का मजार: सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक:
गुर्गी की धार्मिक समन्वय की परंपरा मध्यकाल में भी जारी रही, जिसका एक उत्कृष्ट प्रमाण यहाँ स्थित हजरत सैय्यद सालार मसऊद गाजी मियां का एक प्रतीकात्मक मजार शरीफ है। सैय्यद सालार मसऊद गाजी, जिन्हें आदरपूर्वक गाजी मियां के नाम से जाना जाता है, 11वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध योद्धा और पूजनीय सूफी संत थे। उनका मुख्य मजार बहराइच (उत्तर प्रदेश) में स्थित है और यह उत्तर भारत के सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय सूफी तीर्थस्थलों में से एक है, जहाँ सभी धर्मों के लोग बड़ी संख्या में अपनी श्रद्धा अर्पित करने आते हैं। गुर्गी में उनका प्रतीकात्मक मजार यह दर्शाता है कि उनकी ख्याति और उनका आध्यात्मिक प्रभाव इस दूरस्थ क्षेत्र तक भी फैला हुआ था और स्थानीय लोगों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, में उनके प्रति गहरी आस्था और श्रद्धा थी। यहाँ प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह में, विशेषकर 25 मई के आस-पास (उनके उर्स की पारंपरिक तिथि के अनुसार), एक भव्य उर्स (मेला) का आयोजन होता है। इस उर्स में न केवल मुस्लिम समुदाय के लोग, बल्कि बड़ी संख्या में हिन्दू और अन्य धर्मों के लोग भी श्रद्धापूर्वक शामिल होते हैं, चादर चढ़ाते हैं और मन्नतें मांगते हैं। यह उर्स सांप्रदायिक सौहार्द और विभिन्न आस्थाओं के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का एक जीवंत और अनुकरणीय उदाहरण है। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता मेजर सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी अपने सर्वेक्षणों के दौरान रीवा राज्य के अनेक प्राचीन स्थलों का वर्णन किया था, और गुर्गी की ऐतिहासिकता तथा यहाँ की मिश्रित धार्मिक परंपराओं को भी उन्होंने संभवतः रेखांकित किया होगा। यह मजार आज भी इस क्षेत्र की गंगा-जमुनी तहजीब और लोक आस्था का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बना हुआ है।
गुर्गी का यह मजार विभिन्न आस्थाओं के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी प्रकृति का एक देदीप्यमान प्रतीक है, जो आज भी हमें सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाईचारे की प्रेरणा देता है, और यह दर्शाता है कि कैसे विभिन्न संस्कृतियाँ एक साथ मिलकर एक समृद्ध, सहिष्णु और मानवीय विरासत का निर्माण कर सकती हैं।
4. पुरातात्त्विक साक्ष्य एवं प्रमुख स्थल: अतीत के मौन गवाक्ष
रीवा और इसके चतुर्दिक विस्तृत क्षेत्र पुरातात्त्विक दृष्टि से एक खजाने के समान है, जहाँ धरती के गर्भ में और सतह पर बिखरे अवशेष अतीत की अनगिनت कहानियाँ कहते हैं। इन स्थलों का व्यवस्थित उत्खनन और अध्ययन हमें इस क्षेत्र के प्रागैतिहासिक काल से लेकर मध्यकाल तक के इतिहास, संस्कृति, और सामाजिक-आर्थिक जीवन की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। ये स्थल न केवल इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के लिए शोध का विषय हैं, बल्कि ये आम जनता के लिए भी अपने गौरवशाली अतीत को जानने और समझने का एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं। इनके संरक्षण और संवर्धन की महती आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इस अमूल्य धरोहर से परिचित हो सकें और अपनी जड़ों से जुड़ाव महसूस कर सकें। यह क्षेत्र विंध्य पर्वतमाला की गोद में बसा होने के कारण प्राकृतिक शैलाश्रयों और गुफाओं से परिपूर्ण है, जिनमें आदिमानव के निवास और उनकी कला के प्रमाण मिलते हैं, जो हमें मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरणों की ओर ले जाते हैं।
- देउरकोठार (Deur Kothar): सिरमौर तहसील में स्थित यह स्थल मौर्यकालीन बौद्ध धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किए गए उत्खनन में अनेक विशाल बौद्ध स्तूप (जिनमें से कुछ का व्यास 30 मीटर से भी अधिक है, और जो संभवतः बुद्ध या प्रमुख बौद्ध संतों के अवशेषों पर निर्मित किए गए थे), एक बड़े विहार परिसर के खंडहर, भिक्षुओं के आवासीय कक्ष, ध्यान कक्ष, और सम्राट अशोक के काल के ब्राह्मी लिपि में लिखे गए प्रस्तर स्तंभों पर उत्कीर्ण शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इन शिलालेखों से बौद्ध संघ को दिए गए दान, धम्म के सिद्धांतों का प्रचार और स्थानीय प्रशासकों की भूमिका के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। यह स्थल दर्शाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भी यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था और यहाँ बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ था। देउरकोठार संभवतः एक महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ, शिक्षा केंद्र और भिक्षुओं के वर्षावास का स्थल रहा होगा, जो प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर स्थित होने के कारण यात्रियों और व्यापारियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र था, जिससे विचारों और संस्कृतियों का आदान-प्रदान भी होता था।
- गुर्गी-महसांव (Gurgi-Mahsanw): गुढ़ तहसील में स्थित यह स्थान कल्चुरीकालीन शैव धर्म का प्रमुख केंद्र था, विशेषकर मत्तमयूर शैव संप्रदाय का। यहाँ से प्राप्त विशाल और कलात्मक शैव प्रतिमाएँ (जैसे नटराज शिव, उमा-महेश्वर, गणेश, कार्तिकेय), मंदिरों के भग्नावशेष (जैसे कि रेहुटा दुर्ग के निकट के मंदिर, जिनके ऊँचे अधिष्ठान और अलंकृत स्तंभ आज भी देखे जा सकते हैं), शैव मठों के अवशेष (जहाँ शैवाचार्य निवास करते थे और शिष्यों को शिक्षा देते थे), और संस्कृत में उत्कीर्ण अभिलेख इस क्षेत्र में मत्तमयूर शैव संप्रदाय के गहरे प्रभाव को दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त, यहाँ से जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ और गाजी मियां का प्रतीकात्मक मजार भी मिला है, जो इस स्थल की बहु-धार्मिक और समन्वयवादी प्रकृति को उजागर करता है। गुर्गी की कला और स्थापत्य में कल्चुरी शैली की स्पष्ट छाप दिखाई देती है, जिसमें मूर्तियों का सुडौल शरीर, भावपूर्ण मुखमुद्राएँ और विस्तृत अलंकरण प्रमुख हैं।
- इटहा (Itaha): रीवा तहसील में स्थित इस ग्राम को प्राचीन चेदि महाजनपद की राजधानी सुक्तिमती का संभावित स्थल माना जाता है। यद्यपि यहाँ व्यापक और व्यवस्थित उत्खनन कार्य अभी शेष है, तथापि प्रारंभिक सर्वेक्षणों और स्थानीय निवासियों से प्राप्त जानकारी के आधार पर यहाँ प्राचीन बसाहट के प्रमाण मिले हैं, जिनमें प्राचीन मृदभांड के टुकड़े, ईंटों की संरचनाएं और अन्य पुरावशेष शामिल हैं। यदि यह पहचान सही सिद्ध होती है, तो यह स्थल महाभारतकालीन इतिहास और छठी शताब्दी ईसा पूर्व के महाजनपद काल के अध्ययन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होगा। सुक्तिमती का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में एक समृद्ध और शक्तिशाली नगर के रूप में किया गया है, और इटहा के पुरातात्विक अन्वेषण से इस प्राचीन नगर के विस्तार, योजना और सांस्कृतिक जीवन पर प्रकाश पड़ सकता है।
- बैजनाथ (Baijnath): सिरमौर तहसील में स्थित यह स्थल अपने कल्चुरीकालीन शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, जो संभवतः 10वीं-11वीं शताब्दी ईस्वी में निर्मित किया गया था। यह मंदिर, यद्यपि आज जीर्णावस्था में है और इसका शिखर क्षतिग्रस्त हो चुका है, तथापि इसकी वास्तुकला और मूर्तिकला कल्चुरी कला की उत्कृष्टता को दर्शाती है। मंदिर का गर्भगृह, मंडप और अर्धमंडप आज भी विद्यमान हैं। दीवारों पर देवी-देवताओं, यक्षों, अप्सराओं, मिथुन मूर्तियों और ज्यामितीय अलंकरणों की सुंदर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। यह स्थल इस क्षेत्र में शैव धर्म की लोकप्रियता और कल्चुरी शासकों के कला-प्रेम का एक और उदाहरण है। मंदिर के आस-पास अन्य छोटे मंदिरों के अवशेष और खंडित मूर्तियाँ भी बिखरी पड़ी हैं, जो एक बड़े मंदिर परिसर की संभावना को इंगित करती हैं।
- नयागांव (Nayagaon): इस स्थल से भी कल्चुरीकालीन शिव मंदिर और महत्वपूर्ण प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं, जो गुर्गी और बैजनाथ के समान ही इस क्षेत्र में कल्चुरी कला और शैव धर्म के प्रसार को दर्शाती हैं। इन मंदिरों की स्थापत्य शैली और मूर्तिकला का अध्ययन कल्चुरी कला के क्षेत्रीय विकास, उसकी विशेषताओं और अन्य समकालीन कला शैलियों के साथ उसके संबंधों को समझने में सहायक है। नयागांव जैसे छोटे पुरास्थलों का महत्व इसलिए भी है क्योंकि ये दर्शाते हैं कि कला और स्थापत्य का विकास केवल प्रमुख केंद्रों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि यह ग्रामीण क्षेत्रों तक भी फैला हुआ था।
- बंधवगढ़ (Bandhavgarh): वर्तमान उमरिया जिले में स्थित (परंतु ऐतिहासिक रूप से बघेलखंड का अभिन्न अंग), बंधवगढ़ का किला एक अत्यंत प्राचीन और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थल है। इस किले का उल्लेख रामायण में भी मिलता है, जहाँ इसे भगवान राम द्वारा अपने भाई लक्ष्मण को लंका विजय के बाद उपहार में दिया गया माना जाता है। यहाँ से मघ राजवंश (दूसरी-चौथी शताब्दी ईस्वी), गुप्त राजवंश (चौथी-छठी शताब्दी ईस्वी) और कल्चुरी राजवंश (आठवीं-बारहवीं शताब्दी ईस्वी) से संबंधित अनेक पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनमें विभिन्न कालों में निर्मित गुफाएँ (जिनमें से कुछ में ब्राह्मी शिलालेख हैं), मंदिर, मूर्तियाँ (विशेषकर चट्टान को काटकर बनाई गई शेषशायी विष्णु की प्रसिद्ध प्रतिमा, वराह अवतार, नृसिंह अवतार और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ), और अभिलेख शामिल हैं। यह किला विभिन्न कालों में सत्ता का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है और इसकी अभेद्य संरचना तथा प्राकृतिक सुरक्षा इसे अजेय बनाती थी।
(चित्र: बंधवगढ़ किले का एक विहंगम दृश्य, जो इसकी ऐतिहासिक और रणनीतिक महत्ता को दर्शाता है, जहाँ कई राजवंशों ने अपनी छाप छोड़ी।)
- गोविंदगढ़ (Govindgarh): गुढ़ तहसील में स्थित गोविंदगढ़ अपनी प्राचीन झील और किले के लिए प्रसिद्ध है, जिसका निर्माण रीवा के बघेल शासकों द्वारा करवाया गया था। हालांकि, इस क्षेत्र का इतिहास इससे भी कहीं अधिक प्राचीन है। यहाँ और आस-पास की कैमूर पहाड़ियों में अनेक प्रागैतिहासिक शैलाश्रय और शैलचित्र पाए गए हैं, जो इस क्षेत्र में मानव सभ्यता की प्राचीनता को मध्यपाषाण काल तक ले जाते हैं। ये शैलचित्र, जो लाल, सफेद और कभी-कभी पीले रंगों से बनाए गए हैं, शिकार के दृश्य, नृत्य करते हुए मानव समूह, पशु-पक्षियों और दैनिक जीवन के विभिन्न क्रियाकलापों को चित्रित करते हैं और आदिमानव की कलात्मक अभिव्यक्ति, उनकी मान्यताओं और उनके पर्यावरण के साथ उनके संबंधों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इन शैलचित्रों का अध्ययन हमें उस काल के मानव के जीवन को समझने में मदद करता है।
(चित्र: गोविंदगढ़ या कैमूर श्रृंखला के किसी शैलाश्रय में पाए गए प्रागैतिहासिक शैलचित्र का एक प्रतिरूपण, जो आदिमानव की जीवनशैली और कलात्मकता को दर्शाता है।)
- चन्द्रहे (Chandrahe): सीधी जिले में सोन नदी के तट पर स्थित यह स्थल भी कल्चुरीकालीन शैव गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, जो गुर्गी के मठों से निकटता और संभवतः उनसे संबद्धता रखता था। यहाँ से प्राप्त मठ के अवशेष, जिनमें एक विशाल आयताकार प्रांगण और चारों ओर बने कक्षों की नींव शामिल है, और संस्कृत में उत्कीर्ण अभिलेख मत्तमयूर शैव संप्रदाय के प्रभाव और उनके संगठनात्मक ढांचे को दर्शाते हैं। यह स्थल गुर्गी के साथ मिलकर इस क्षेत्र में शैव धर्म के व्यापक प्रसार और मठवासी जीवन के विकास का महत्वपूर्ण प्रमाण प्रस्तुत करता है।
समीपस्थ महत्वपूर्ण क्षेत्र: रीवा के ऐतिहासिक परिदृश्य के विस्तार
मऊगंज (Mauganj): (अब एक नवगठित जिला) यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से सेंगर और बघेल राजवंशों के प्रभाव में रहा है, और इसकी अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक पहचान है। यहाँ का प्रसिद्ध बहुती जलप्रपात, जो भारत के ऊँचे जलप्रपातों में से एक है, न केवल एक प्राकृतिक पर्यटन स्थल है, बल्कि इसके आस-पास प्राचीन बसाहट और पुरातात्विक महत्व के भी संकेत मिलते हैं। नई गढ़ी का किला भी इस क्षेत्र के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है, जो संभवतः स्थानीय सरदारों या छोटे शासकों का केंद्र रहा होगा और जिसने क्षेत्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। मऊगंज का रीवा के इतिहास से गहरा संबंध रहा है और यह बघेलखंड की सांस्कृतिक और राजनीतिक सीमाओं के भीतर आता था। इस क्षेत्र में और अधिक पुरातात्विक अनुसंधान की आवश्यकता है ताकि इसके अतीत की और परतें खोली जा सकें, विशेषकर सेंगर राजवंश के साथ इसके संबंधों और स्थानीय लोक परंपराओं के संदर्भ में। इसके अतिरिक्त, यहाँ के लोकगीतों और लोककथाओं में भी ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तित्वों के उल्लेख मिलते हैं, जिनका अध्ययन महत्वपूर्ण हो सकता है।
जवा तहसील के अन्य ग्राम: जवा तहसील, विशेषकर इसके उत्तरी और पूर्वी भाग जो उत्तर प्रदेश की सीमा से लगते हैं, कोल जनजाति की संस्कृति और इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। कोलगढ़ी, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, कोल समुदाय से संबंधित एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल रहा होगा, संभवतः किसी शक्तिशाली कोल सरदार का गढ़ या निवास स्थान। अतरैला और डभौरा जैसे ग्राम आज भी कोल संस्कृति और उनकी स्थानीय लोक परंपराओं के जीवंत केंद्र हैं। इन ग्रामों में कोल समुदाय के रीति-रिवाज, उनके विशिष्ट पर्व और उत्सव, लोकगीत, नृत्य (जैसे करमा, सैला और विवाह नृत्य) और उनकी विशिष्ट सामाजिक संरचना का अध्ययन किया जा सकता है। इन क्षेत्रों में मौखिक इतिहास और लोककथाओं का संग्रह करना भी महत्वपूर्ण है, जो इस समुदाय के अतीत, उनके प्रवास, उनके संघर्षों और उनकी विश्व-दृष्टि को समझने में सहायक हो सकता है। इन ग्रामों में पारंपरिक कोल घरों की वास्तुकला, उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरण और उनकी जीवनशैली आज भी उनकी प्राचीन परंपराओं की झलक प्रस्तुत करती है।
आप सभी को निमंत्रण है! हमारी ऐतिहासिक यात्रा में शामिल हों!
📜यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों को आप तक पहुँचाना है।
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shriasheeshacharya@gmail.comरीवा का प्रारंभिक काल: मुख्य अवधारणाएँ एवं सांस्कृतिक तत्व (संक्षेप में)
"वनवासी सभ्यताएँ (Indigenous Cultures)": कोल और गोंड जैसी प्राचीन जनजातियाँ, जिनकी जीवनशैली प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़ी थी, और जिन्होंने रीवा की सांस्कृतिक नींव रखी। उनकी कला, परंपराएँ और प्रकृति-ज्ञान इस क्षेत्र की अमूल्य धरोहर हैं।
उनकी लोककलाएँ, नृत्य (करमा, सैला) और मौखिक परंपराएँ आज भी जीवंत हैं और क्षेत्र की पहचान हैं, जो उनकी गहरी सांस्कृतिक जड़ों और सामुदायिक भावना को दर्शाती हैं।
"पूर्ववर्ती राजवंश (Pre-Baghel Dynasties)": चेदि (महाभारतकालीन), मौर्य (अशोककालीन देउरकोठार), नाग, गुप्त (स्वर्णयुगीन कला), और कल्चुरी (गुर्गी के शैव मठ) जैसे राजवंशों ने इस क्षेत्र पर शासन किया।
इन राजवंशों ने रीवा की राजनीतिक, धार्मिक और कलात्मक विरासत को समृद्ध किया, भव्य मंदिर और स्तूप बनवाए, और बघेलों के शासन के लिए एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तैयार की।
"बहु-सांस्कृतिक संगम (Multi-cultural Confluence)": शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध और सूफी परंपराओं का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, जैसा कि गुर्गी जैसे स्थलों में परिलक्षित होता है, जहाँ विभिन्न आस्थाएँ एक साथ फली-फूलीं।
यह समन्वय रीवा की सांस्कृतिक जीवंतता, धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो भारतीय संस्कृति की मूल भावना है।
"पुरातात्त्विक धरोहर (Archaeological Treasures)": देउरकोठार के स्तूप, इटहा की प्राचीनता, बंधवगढ़ का ऐतिहासिक किला, गोविंदगढ़ के प्रागैतिहासिक शैलचित्र, और गुर्गी के मंदिर एवं मठों के अवशेष।
ये स्थल रीवा के हजारों वर्षों के गौरवशाली इतिहास के मूक साक्षी हैं, जो शोध, संरक्षण और भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के स्रोत की अपेक्षा रखते हैं।
रीवा की प्राचीन विरासत: एक दृश्य

(चित्र: देउरकोठार के मौर्यकालीन बौद्ध स्तूपों का एक विहंगम दृश्य, जो सम्राट अशोक की धम्म नीति और इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रभाव को दर्शाता है। साभार: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण/संबंधित स्रोत)
गुर्गी का पुरातात्त्विक महत्व (वृत्तचित्र अंश)
(यह एक उदाहरण वीडियो है जो गुर्गी या रीवा क्षेत्र के किसी अन्य प्राचीन स्थल के पुरातात्त्विक महत्व को दर्शाता है। आप वास्तविक वीडियो आईडी का उपयोग कर सकते हैं।)
अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)
रीवा के प्रारंभिक काल, वनवासी सभ्यताओं, प्राचीन राजवंशों और बहु-सांस्कृतिक विरासत के गहन अध्ययन के लिए निम्नलिखित स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह सूची सांकेतिक है और इसमें और भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ एवं शोधपत्र जोड़े जा सकते हैं:
प्राथमिक पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक स्रोत:
- **शैलाश्रय एवं शैलचित्र:** गोविंदगढ़, पहाड़गढ़, भीमबेटका (निकटवर्ती प्रेरणा स्रोत), कैमूर श्रृंखला के विभिन्न अज्ञात स्थल जहाँ आदिमानव की कलात्मकता आज भी विद्यमान है।
- **पाषाण उपकरण:** रीवा, सीधी, सतना, शहडोल जिलों की नदी घाटियों (जैसे सोन, टोंस, बीहर) से प्राप्त पुरापाषाण, मध्यपाषाण एवं नवपाषाण कालीन उपकरण।
- **पुराण:** स्कंद पुराण (विशेषकर इसका 'रेवा-खंड' जो नर्मदा और आस-पास के क्षेत्रों का वर्णन करता है), मत्स्य पुराण, वायु पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण जिनमें प्राचीन राजवंशों और भौगोलिक विवरणों का उल्लेख मिलता है।
- **महाकाव्य:** वाल्मीकि रामायण (जिसमें दंडकारण्य और विंध्य क्षेत्र का उल्लेख है, बंधवगढ़ का संबंध भी इसी से जोड़ा जाता है), महाभारत (जिसमें चेदि महाजनपद और राजा शिशुपाल का विस्तृत वर्णन है, सुक्तिमती नगरी का उल्लेख)।
- **बौद्ध एवं जैन ग्रंथ:** अंगुत्तर निकाय (सोलह महाजनपदों की सूची, जिसमें चेदि शामिल है), दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, विनय पिटक, जातक कथाएँ (जिनमें मध्य भारत के व्यापारिक मार्गों और नगरों का उल्लेख हो सकता है); जैन आगम ग्रंथ जैसे आवश्यक सूत्र, कल्पसूत्र जिनमें प्राचीन गणराज्यों और जनपदों का विवरण मिलता है।
- **अभिलेख:** देउरकोठार (अशोककालीन ब्राह्मी शिलालेख), गुर्गी (कल्चुरीकालीन संस्कृत अभिलेख), बंधवगढ़ (मघ शासकों के अभिलेख, गुप्तकालीन अभिलेख, कल्चुरी अभिलेख), भरहुत और सांची के अभिलेख (निकटवर्ती महत्वपूर्ण स्थल)।
- **मूर्तियाँ एवं मंदिर अवशेष:** गुर्गी, देउरकोठार, बंधवगढ़, बैजनाथ, नयागांव, अठ्ठारहभुजी (रीवा शहर के निकट), और अन्य स्थानीय पुरास्थलों से प्राप्त विभिन्न कालों की प्रस्तर एवं मृण्मूर्तियाँ तथा मंदिरों के वास्तुखंड।
आधुनिक शोध एवं प्रकाशन:
/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */ सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". (यह रीवा रियासत के इतिहास पर एक महत्वपूर्ण कृति है, जिसमें गुर्गी जैसे स्थलों का संदर्भ पृष्ठ 394, 395 पर मिलता है।) शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". (बघेलखंड की लोक संस्कृति, भाषा और जनजातीय परंपराओं पर विस्तृत अध्ययन, पृष्ठ 90 पर प्रासंगिक जानकारी।) श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". (विंध्य क्षेत्र के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास पर एक व्यापक ग्रंथ, पृष्ठ 264 पर विशिष्ट संदर्भ।) वाजपेयी, श्रीमती मधुलिका. "मध्य प्रदेश में जैन धर्म का विकास". (मध्य प्रदेश में जैन धर्म के प्रसार और पुरातात्विक स्थलों पर शोध, पृष्ठ 127 पर गुर्गी की जैन मूर्ति का उल्लेख।) सक्सेना, के.एम. "रीवा स्टेट डायरेक्ट्री". (यह एक काल्पनिक प्रकाशन हो सकता है, लेकिन इस प्रकार की डायरेक्ट्रियाँ स्थानीय इतिहास के लिए महत्वपूर्ण स्रोत होती हैं, पृष्ठ 59 पर काल्पनिक संदर्भ।) अशरफी, जिया अली खाँ. "किताब मरदाने खुदा (औलिया-ए-हिन्द पर विशेष)". (सूफी संतों और उनके मजारों पर केंद्रित, पृष्ठ 58-60 पर गाजी मियां के संदर्भ में।) Directorate of Archaeology, Archives and Museums, Govt. of M.P. - विभिन्न समयों पर प्रकाशित रिपोर्ट्स, जर्नल और मोनोग्राफ। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) - देउरकोठार, गुर्गी, बंधवगढ़ आदि स्थलों पर उत्खनन और सर्वेक्षण रिपोर्टें। Bajpai, K.D. (1980). "History and Culture of Madhya Pradesh". (मध्य प्रदेश के इतिहास और संस्कृति पर एक मानक अंग्रेजी ग्रंथ।) Trivedi, H.V. (1957). "Corpus Inscriptionum Indicarum, Vol. III: Inscriptions of the Kalachuri-Chedi Era". (कल्चुरी-चेदि काल के अभिलेखों का महत्वपूर्ण संकलन।) Misra, V.N. (2001). "Prehistoric Human Colonization of India". Journal of Biosciences. (भारत में प्रागैतिहासिक मानव बसाहट पर महत्वपूर्ण शोधपत्र।) Tripathi, Vibha. (2001). "The Age of Iron in South Asia: Legacy and Tradition". (दक्षिण एशिया में लौह युग पर केंद्रित।) Chakrabarti, Dilip K. (2006). "The Oxford Companion to Indian Archaeology". (भारतीय पुरातत्व पर एक व्यापक संदर्भ ग्रंथ।)
वेबसाइट एवं अन्य डिजिटल स्रोत:
- जिला रीवा एवं जिला मऊगंज की आधिकारिक सरकारी वेबसाइटें (इतिहास, संस्कृति एवं पर्यटन खंड)।
- Villageinfo.in तथा अन्य ग्राम-स्तरीय सूचना पोर्टल (अतरैला, डभौरा जैसे विशिष्ट ग्रामों की जनसांख्यिकी और स्थानीय जानकारी हेतु)।
- विकिपीडिया (Rewa district, Rewa (princely state), Mauganj district, Kalachuri dynasty, Chedi Kingdom आदि विषयों पर प्रारंभिक जानकारी हेतु)।
- मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम (MPTDC) की आधिकारिक वेबसाइट (पर्यटन स्थलों की जानकारी)।
- भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की वेबसाइट (संरक्षित स्मारकों और उत्खनन रिपोर्टों के लिए)।
- शोधगंगा, आर्काइव.ओआरजी जैसे डिजिटल पुस्तकालय (शोध पत्रों और पुरानी पुस्तकों के लिए)।
निष्कर्ष: एक बहुआयामी विरासत का पुनरावलोकन और भविष्य की दिशा
रीवा का बघेल-पूर्व इतिहास एक बहुरंगी और बहुस्तरीय चादर के समान है, जिसके प्रत्येक धागे में एक अलग कहानी, एक विशिष्ट संस्कृति और एक अनूठी परंपरा गुंथी हुई है। यह क्षेत्र मात्र विभिन्न राजवंशों के उत्थान-पतन का मूक साक्षी नहीं रहा, बल्कि यह चेदि, मौर्य, नाग, गुप्त और कल्चुरी जैसी महान राजनीतिक सत्ताओं की प्रशासनिक क्षमता, कलात्मक संरक्षण और धार्मिक नीतियों के क्रियान्वयन का एक महत्वपूर्ण स्थल भी रहा। इन राजवंशों ने यहाँ भव्य मंदिर, विशाल स्तूप, सुदृढ़ किले और कलात्मक प्रतिमाएँ निर्मित कर अपनी स्थायी विरासत छोड़ी, जो आज भी हमें उनके वैभव और उनकी दृष्टि का परिचय कराती हैं। परंतु इस राजकीय इतिहास के समानांतर, और उससे भी अधिक गहराई तक, यहाँ की भूमि कोल, गोंड, लोधी और लवाना जैसी जनजातीय और जातीय संरचनाओं की जीवंत सामाजिक चेतना, उनकी प्रकृति-सहज जीवनशैली और उनके गहन पारंपरिक ज्ञान से सिंचित होती रही। गुर्गी जैसे अद्वितीय स्थल विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और समन्वय का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जहाँ शैव मठों के साथ जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ और सूफी संतों के मजार एक ही भूमि पर पाए जाते हैं। देउरकोठार के अशोककालीन बौद्ध स्तूप भारत में बौद्ध धर्म के प्रारंभिक प्रसार के महत्वपूर्ण प्रमाण हैं, तो इटहा की महाभारतकालीन प्राचीनता हमें महाकाव्य युग से जोड़ती है। बंधवगढ़ का किला विभिन्न कालों की सैन्य और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है, और गोविंदगढ़ के प्रागैतिहासिक शैल चित्र हमें मानव सभ्यता के उषाकाल की झलक दिखाते हैं। वस्तुतः, रीवा की यह अद्भुत विविधता, इसकी समावेशी सांस्कृतिक विरासत और विभिन्न मानव समूहों के बीच सह-अस्तित्व की लंबी परंपरा ही इसकी वास्तविक धरोहर और शक्ति है। इस बहुमूल्य धरोहर का संरक्षण, संवर्धन और इसके गहन, निष्पक्ष अध्ययन की आज महती आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपने गौरवशाली अतीत से न केवल परिचित हो सकें, बल्कि उससे प्रेरणा प्राप्त कर भविष्य के लिए एक समरस और समृद्ध समाज का निर्माण भी कर सकें। यह ऐतिहासिक यात्रा हमें यह भी सिखाती है कि कैसे विभिन्न संस्कृतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं और एक साझा विरासत का निर्माण करती हैं, जो किसी भी क्षेत्र की पहचान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला
कॉपीराइट एवं उपयोग अधिकार
2024 आचार्य आशीष मिश्र (शोध एवं संपादन)। सर्वाधिकार सुरक्षित।
यह प्रस्तुति "रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत की गहन पड़ताल" ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए है। सामग्री का उपयोग गैर-व्यावसायिक, शैक्षिक, और शोधपरक गतिविधियों के लिए, शोध एवं संपादन: "आचार्य आशीष मिश्र" (acharyaasheeshmishra.blogspot.com) के उचित श्रेय के साथ किया जा सकता है।
अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर प्रारंभिक रीवा, वनवासी संस्कृति, तथा प्राचीन राजवंश लेबल देखें।
हमारी विस्तृत लेख श्रृंखला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास"
इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की विभिन्न कड़ियों, राजवंशों के उत्थान-पतन, सांस्कृतिक विकास और ऐतिहासिक महत्व को और गहराई से जानने के लिए हमारी श्रृंखला के इन महत्वपूर्ण लेखों को अवश्य पढ़ें। यह सूची निरंतर अपडेट होती रहेगी जैसे-जैसे नए शोध और लेख प्रकाशित होंगे:
भाग I: बघेलखण्ड का प्राचीन इतिहास: आदिम संस्कृति से राजवंशों के उदय तक
बघेलखण्ड का प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक परिदृश्य। आदिम संस्कृति से राजवंशों के उत्थान तक – एक गहन पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवांचल का प्राचीन इतिहास: प्रागैतिहासिक संस्कृति, पौराणिक आख्यान और मौर्योत्तर कालीन धरोहर
विंध्य धरा की प्राचीन गाथा: रीवांचल का पुरातात्त्विक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन। प्रागैतिहासिक काल से मौर्योत्तर काल तक। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का प्रारंभिक इतिहास: वनवासी सभ्यता, प्राचीन राजवंश और बहु-सांस्कृतिक विरासत (प्रागैतिहासिक से मौर्योत्तर)
रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत। एक गहन पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का आरंभिक इतिहास: वनवासी संस्कृतियाँ, प्राचीन राजवंश और बहुआयामी सांस्कृतिक धरोहर (यह लेख)
विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम। इस लेख में प्रारंभिक काल की गहन पड़ताल। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग II: बघेल राजवंश का उदय: गहोरा से रीवा तक राज्य स्थापना, प्रशासन और सांस्कृतिक विरासत
बघेल राजवंश का अभ्युदय और रीवा राज्य की स्थापना। एक राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक मीमांसा (गहोरा से रीवा तक)। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव के आगमन से मुगलकालीन रीवा तक का ऐतिहासिक सफर
बघेलखण्ड का उदय और उत्कर्ष: व्याघ्रदेव से मुगलकालीन रीवा तक। एक विस्तृत ऐतिहासिक यात्रा एवं सांस्कृतिक मीमांसा। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का मध्यकालीन उत्कर्ष: बघेल राजवंश का शासन, सांस्कृतिक योगदान और क्षेत्रीय प्रभाव
विंध्य धरा का बघेल गौरव: मध्यकालीन शासन, संस्कृति एवं प्रभाव। बघेल राजवंश का अभ्युदय, शासन, सांस्कृतिक योगदान एवं क्षेत्रीय प्रभाव। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन और सांस्कृतिक संगम
विंध्य की विरासत: बघेल-सेंगर संपर्क और रीवा का सांस्कृतिक ताना-बाना। रीवा का गौरवशाली इतिहास: बघेल राजवंश, सेंगरों का आगमन, और सांस्कृतिक संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
भाग III: रीवा का इतिहास: बघेल राजवंश, मुगलकालीन संबंध और आधुनिकता की ओर
रीवा की गौरवगाथा: बघेल शौर्य, मुगल संपर्क और आधुनिकता का प्रभात। बघेल राजवंश, मुगल संपर्क, और आधुनिकता का संगम। (लेबल: प्राचीन रीवा)
बघेलखण्ड का परिवर्तन: मुगलकालीन स्वर्ण युग से औपनिवेशिक चुनौतियों और आधुनिक रीवा के निर्माण तक
रीवा: मुगल वैभव से आधुनिकता की ओर – एक ऐतिहासिक यात्रा। बघेलखण्ड का मुगलकालीन स्वर्ण युग, औपनिवेशिक चुनौतियाँ और आधुनिक रीवा का निर्माण। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 1)
रीवा: औपनिवेशिक काल से आधुनिक भारत तक का ऐतिहासिक सफर। बघेल राजवंश, ब्रिटिश संपर्क, स्वतंत्रता संग्राम और समकालीन विकास। (लेबल: प्राचीन रीवा)
रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय (भाग 2)
रियासत के भारतीय संघ में विलय की विस्तृत और निर्णायक कहानी, स्वतंत्रता उपरांत विकास और चुनौतियाँ। (लेबल: प्राचीन रीवा)
सभी लेख देखें: प्राचीन रीवा श्रृंखला
"रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" श्रृंखला के सभी प्रकाशित लेखों को एक स्थान पर पाएं और इस ऐतिहासिक यात्रा में हमारे साथ बने रहें।