भाषाई साम्राज्यवाद का चक्रव्यूह: संस्कृत का निर्वासन, हिंदी का आरोहण और भारत की भाषाई अस्मिता

विषय-सूची
- प्रस्तावना
- संस्कृत: भारतीय ज्ञान परंपरा की आधारशिला
- हिंदी: शौरसेनी अपभ्रंश से राजभाषा तक का सफर
- अंग्रेजों की भूमिका: फूट डालो और राज करो की नीति
- मुस्लिम शासकों की भूमिका: फारसी और उर्दू का प्रभुत्व
- दलित और शूद्र: सामाजिक न्याय और भाषा का प्रश्न
- क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा: भाषाई साम्राज्यवाद का एक रूप
- समापन: एक समावेशी भाषाई नीति की आवश्यकता
प्रस्तावना
भारत, एक बहुभाषी राष्ट्र, अपनी भाषाई विविधता के लिए विश्वभर में जाना जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने का निर्णय एक ऐतिहासिक मोड़ था, जिसने भाषाई राजनीति और सांस्कृतिक पहचान के जटिल प्रश्नों को जन्म दिया। यह लेख उस विवादास्पद परिदृश्य का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसमें हिंदी को षड्यंत्रपूर्वक थोपने, संस्कृत को हाशिए पर धकेलने, और विभिन्न ऐतिहासिक शक्तियों के योगदान को उजागर किया गया है। हम आंदोलनों, मांगों, सिफारिशों और बैठकों के संदर्भ में तथ्यों के समर्थन में गहन अनुसंधान प्रस्तुत करेंगे, ताकि इस भाषाई दुविधा की गहरी समझ विकसित की जा सके।
संस्कृत: भारतीय ज्ञान परंपरा की आधारशिला
संस्कृत, जिसे देवभाषा माना जाता है, भारतीय सभ्यता की प्राचीनतम और सबसे प्रभावशाली भाषाओं में से एक है। यह न केवल एक भाषा है, बल्कि ज्ञान, संस्कृति, और दर्शन का भंडार है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद, ज्योतिष, और अनगिनत अन्य ग्रंथों का मूल स्रोत संस्कृत भाषा में ही निहित है।
संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति और सभ्यता की रीढ़ है, जो हमारी पहचान और मूल्यों को संजोए हुए है।
हिंदी: शौरसेनी अपभ्रंश से राजभाषा तक का सफर
हिंदी, आधुनिक भारत की एक महत्वपूर्ण भाषा है, जिसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। यह उत्तरी और मध्य भारत में व्यापक रूप से बोली जाती है, लेकिन इसे राजभ```html ाषा के रूप में स्थापित करने की प्रक्रिया सरल नहीं थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी को राजभाषा बनाने के प्रयासों ने कई भाषाई विवादों को जन्म दिया। यह विवाद विशेष रूप से दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर राज्यों में अधिक तीव्र था, जहाँ स्थानीय भाषाओं के समर्थकों ने हिंदी के आधिपत्य का विरोध किया।
अंग्रेजों की भूमिका: फूट डालो और राज करो की नीति
ब्रिटिश शासन ने भारत की भाषाई संरचना को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने प्रशासनिक और शैक्षिक क्षेत्रों में अंग्रेजी को प्रधानता देकर भारतीय भाषाओं को हाशिए पर डालने का कार्य किया। 1835 में लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के तहत संस्कृत और फारसी की जगह अंग्रेजी को प्राथमिकता दी गई, जिससे भारतीय भाषाओं की सशक्त परंपरा कमजोर हुई।
मुस्लिम शासकों की भूमिका: फारसी और उर्दू का प्रभुत्व
मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासकों ने फारसी को दरबारी भाषा के रूप में अपनाया, जिससे संस्कृत का प्रभाव सीमित हो गया। मुगलों के शासनकाल में फारसी के साथ-साथ उर्दू का भी विकास हुआ, जिसने आम जनता की भाषा के रूप में एक नई पहचान बनाई। हालांकि, इस दौर में संस्कृत और हिंदी साहित्य का भी विकास जारी रहा, लेकिन सरकारी संरक्षण के अभाव में इनका प्रभाव सीमित होता गया।
दलित और शूद्र: सामाजिक न्याय और भाषा का प्रश्न
भारत की वर्ण व्यवस्था ने भी भाषाओं के उत्थान और पतन में भूमिका निभाई। संस्कृत को एक विशिष्ट वर्ग तक सीमित कर दिया गया, जिससे दलित और शूद्र समुदायों की भाषाई अभिव्यक्ति बाधित हुई। स्वतंत्रता के बाद सामाजिक न्याय आंदोलनों ने शिक्षा और भाषा के क्षेत्र में समानता की मांग उठाई, जिससे हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा मिला।
क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा: भाषाई साम्राज्यवाद का एक रूप
हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने के बाद कई क्षेत्रीय भाषाओं के समर्थकों ने इसके आधिपत्य का विरोध किया। विशेष रूप से तमिल, कन्नड़, तेलुगु, बंगाली, और मराठी भाषी राज्यों में हिंदी के अनिवार्य थोपे जाने का विरोध किया गया। यह विवाद आज भी जारी है, जहाँ कई राज्यों में हिंदी विरोधी आंदोलन समय-समय पर उभरते रहते हैं।
समापन: एक समावेशी भाषाई नीति की आवश्यकता
भारत की भाषाई विविधता इसकी सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है। यह आवश्यक है कि कोई भी भाषा किसी अन्य भाषा पर थोपने के बजाय समावेशी नीति अपनाई जाए। संस्कृत, हिंदी, और अन्य भारतीय भाषाओं को समान अवसर देकर भारत की भाषाई अस्मिता को सुरक्षित रखा जा सकता है। हमें यह समझना होगा कि भाषाई पहचान केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर भी है।