रीवा का इतिहास: औपनिवेशिक चुनौतियाँ, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत में विलय

विंध्य की प्राचीन धरोहर: रीवा की वनवासी सभ्यताएँ, राजवंश एवं सांस्कृतिक संगम

रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत की गहन पड़ताल

शोध एवं संपादन: आचार्य आशीष मिश्र

भारत के हृदयस्थल में स्थित, मध्य प्रदेश का रीवा संभाग, अपनी विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की नैसर्गिक सुषमा और ऐतिहासिक गहनता के लिए विख्यात है। इसका इतिहास प्रागैतिहासिक काल से लेकर विभिन्न राजवंशों के उत्थान-पतन और एक समृद्ध बहु-सांस्कृतिक विरासत तक फैला हुआ है। यह क्षेत्र न केवल अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि यह उन प्राचीन सभ्यताओं का भी घर रहा है जिन्होंने भारतीय इतिहास की मुख्य धारा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह आलेख रीवा के इसी प्रारंभिक काल, इसकी गहन वनवासी सभ्यताओं जिन्होंने इस भूमि को सबसे पहले अपना निवास बनाया, प्राचीन राजवंशों जिन्होंने यहाँ शासन किया और अपनी अमिट छाप छोड़ी, और उस बहु-सांस्कृतिक ताने-बाने का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है जिसने बघेलों के आगमन से पूर्व इस क्षेत्र को समृद्ध किया। हम उन पुरातात्विक साक्ष्यों पर भी प्रकाश डालेंगे जो इस क्षेत्र की प्राचीनता और गौरव को प्रमाणित करते हैं, और यह समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं ने मिलकर रीवा की एक विशिष्ट पहचान बनाई।

रीवा का एक जीवंत बाजार दृश्य, जो शहर की व्यापारिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को दर्शाता है

(चित्र: रीवा का एक बाजार दृश्य, जो इस क्षेत्र की जीवंतता और वाणिज्यिक गतिविधियों का एक पहलू प्रस्तुत करता है।)

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प्रस्तावना: रीवा की प्राचीन ऐतिहासिक यात्रा का आरंभ

भारत के हृदयस्थल में स्थित, मध्य प्रदेश का रीवा संभाग, अपनी विंध्याचल पर्वत श्रृंखला की नैसर्गिक सुषमा और ऐतिहासिक गहनता के लिए विख्यात है। यह क्षेत्र मात्र एक भौगोलिक इकाई नहीं, अपितु सहस्राब्दियों से प्रवाहित हो रही भारतीय सभ्यता की एक जीवंत धारा का साक्षी है। इसका इतिहास केवल यशस्वी बघेल वंश की कीर्ति तक ही सीमित नहीं है; वस्तुतः, इसकी जड़ें प्रागैतिहासिक काल के धुंधलके में विलीन हैं, जहाँ आदिमानव के प्रथम पदचिह्न अंकित हुए, उनके द्वारा बनाए गए शैलाश्रय और उनमें उकेरे गए शैलचित्र आज भी विंध्य की कंदराओं में उस सुदूर अतीत की कहानियां कहते हैं। कालचक्र के आवर्तनों के साथ, इस पावन भूमि ने वैदिक ऋचाओं की गूंज सुनी, जब आर्यों ने इस क्षेत्र में अपनी बस्तियां बसाईं और एक नवीन सांस्कृतिक अध्याय का सूत्रपात किया। इसके उपरांत, यह क्षेत्र शक्तिशाली चेदि महाजनपद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का केंद्र बना, जिसका उल्लेख महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। मौर्यों के साम्राज्यिक विस्तार के समय, सम्राट अशोक की धम्म नीति ने यहाँ बौद्ध धर्म के प्रसार को गति दी, जिसके प्रमाण देउरकोठार जैसे स्थलों पर आज भी विद्यमान हैं। शुंगों की सांस्कृतिक निष्ठा ने कला और स्थापत्य को नवीन आयाम दिए, तो वहीं नागों की क्षेत्रीय शक्ति ने स्थानीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुप्तों के स्वर्णयुग की आभा से यह क्षेत्र भी आलोकित हुआ, और इस काल में कला, साहित्य और विज्ञान ने अभूतपूर्व प्रगति की। तत्पश्चात, कल्चुरियों, चंदेलों तथा प्रतिहारों जैसे पराक्रमी राजवंशों के उत्थान और पतन का यह मूक दृष्टा बनी, जिन्होंने न केवल यहाँ की राजनीतिक नियति को आकार दिया, बल्कि कला, स्थापत्य और धर्म के क्षेत्र में अपनी अमिट विरासत भी छोड़ी, जो आज भी मंदिरों, मूर्तियों और अभिलेखों के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है।

परंतु, रीवा का इतिहास केवल राजमहलों और विजय अभियानों का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। इसकी आत्मा यहाँ के मूल निवासियों – कोल, गोंड जैसी वनवासी जनजातियों, और लोधी (लोध)लवाना जैसे लोकजातीय समूहों की जीवंत संस्कृति में बसती है। इन समुदायों ने प्रकृति के साथ एक सामंजस्यपूर्ण संबंध स्थापित करते हुए इस भूमि की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना को एक विशिष्ट और अनूठी पहचान प्रदान की। उनकी लोककथाएँ, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर वीर पुरुषों और देवियों की गाथाएँ शामिल हैं, उनके नृत्य, जो उनके दैनिक जीवन, पर्वों और उत्सवों का अभिन्न अंग हैं, उनके पर्व, जो प्रकृति और ऋतु चक्र से जुड़े हैं, और उनकी जीवन-शैली, जो सादगी, सामूहिकता और प्रकृति के प्रति सम्मान पर आधारित है, आज भी इस क्षेत्र की विरासत का अभिन्न अंग हैं। यह भूमि विभिन्न धर्मों और आस्थाओं की संगम स्थली रही है, जहाँ शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध और मध्यकालीन सूफी परंपराओं ने एक साथ पल्लवित होकर एक अद्भुत सर्वधर्म समभाव और सांस्कृतिक समन्वय का वातावरण निर्मित किया। गुर्गी जैसे स्थल इस समन्वय का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। प्रस्तुत विस्तृत आलेख रीवा के इसी प्रारंभिक काल, इसकी गहन वनवासी सभ्यताओं, विभिन्न प्राचीन राजवंशों के योगदान, महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक धरोहरों और उस बहु-सांस्कृतिक ताने-बाने का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है, जिसने बघेलों के आगमन से पूर्व इस क्षेत्र की नियति को गढ़ा और समृद्ध किया, और भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय का निर्माण किया।

रीवांचल की भूमि में दबी हर पुरातात्त्विक खोज, यहाँ की वनवासी संस्कृति की गूंज, और प्राचीन राजवंशों की गाथाएँ, भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय को उजागर करती हैं, जो हमें अपने अतीत की समृद्ध विविधता और निरंतरता का बोध कराती हैं।

1. वनवासी सभ्यताएँ एवं स्थानीय समुदाय: रीवा की आत्मा के संरक्षक

रीवा की प्रारंभिक सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक संरचना की आधारशिला यहाँ की वनवासी और स्थानीय समुदायों ने रखी, जिन्होंने युगों से इस भूमि को अपना घर माना और इसकी पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखा। इनके योगदान के बिना रीवा का इतिहास अधूरा है। ये समुदाय न केवल इस क्षेत्र के प्राचीनतम निवासी हैं, बल्कि इन्होंने विंध्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल अपनी विशिष्ट जीवन-शैली, सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक परंपराओं का विकास किया। उनके ज्ञान, उनकी कला और प्रकृति के साथ उनके गहरे संबंध ने इस क्षेत्र की विरासत को समृद्ध किया है। आज भी उनकी परंपराएं और रीति-रिवाज रीवांचल की सांस्कृतिक विविधता में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनकी भूमिका केवल अतीत तक सीमित नहीं है, बल्कि वर्तमान में भी ये समुदाय क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय संतुलन में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। उनके अधिकारों, उनकी भाषा और उनकी संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन एक सभ्य समाज की प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि वे ही इस भूमि की वास्तविक आत्मा के संरक्षक हैं। इन समुदायों ने बाहरी आक्रमणों और सांस्कृतिक परिवर्तनों के दौर में भी अपनी पहचान को बनाए रखा और अपनी परंपराओं को जीवित रखा, जो उनकी अदम्य जिजीविषा और सांस्कृतिक दृढ़ता का परिचायक है।

रीवा क्षेत्र की समृद्ध वनवासी संस्कृति का एक प्रतीकात्मक चित्रण, जैसे कोल या गोंड समुदाय का पारंपरिक नृत्य या कला

(चित्र: रीवा क्षेत्र की समृद्ध वनवासी संस्कृति का एक प्रतीकात्मक चित्रण, जो उनके पारंपरिक जीवन, कला या नृत्य की झलक प्रस्तुत करता है।)

कोल जनजाति: विंध्य के मूल प्रहरी और सांस्कृतिक स्तंभ

कोल जनजाति को विंध्याचल क्षेत्र का प्राचीनतम और मूल निवासी समुदाय होने का गौरव प्राप्त है। पुरातात्विक और मानवशास्त्रीय अध्ययनों से यह संकेत मिलता है कि कोल समुदाय इस क्षेत्र में नवपाषाण काल या उससे भी पहले से निवास कर रहा है। इनकी सघन बसाहट रीवा, सीधी, सिंगरौली, सतना और उमरिया जिलों के वनाच्छादित और पहाड़ी इलाकों में केंद्रित है, जहाँ इन्होंने प्रकृति के साथ एक अटूट संबंध स्थापित किया है। उनकी भाषा, 'कोल्ही', ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार का हिस्सा है, जो उनकी प्राचीनता और दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ समुदायों के साथ उनके संभावित संबंधों की ओर इशारा करती है। कोल समुदाय अपनी पारंपरिक ग्राम व्यवस्था, जिसे 'कोलहन' कहा जाता है, और अपनी पंचायत प्रणाली के लिए जाना जाता है, जो उनके सामाजिक जीवन को नियंत्रित करती है। उन्होंने पीढ़ियों से वन संसाधनों के सतत उपयोग का ज्ञान संचित किया है, और उनकी पारंपरिक औषधीय प्रणाली आज भी महत्वपूर्ण है। रामायण में भी शबरी नामक कोल भीलनी का उल्लेख मिलता है, जो इस समुदाय की प्राचीनता का एक और साहित्यिक साक्ष्य प्रस्तुत करता है। वे विंध्य पर्वत श्रृंखला के दुर्गम क्षेत्रों में निवास करते हुए भी अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में सफल रहे हैं।

विस्तृत निवास क्षेत्र एवं योगदान:

रीवा जिले के हनुमना, नईगढ़ी, मऊगंज (अब जिला), गुढ़, त्योंथर, सिरमौर, जवा और चोरहटा तहसीलों में इनकी प्रभावशाली उपस्थिति है। कोलगढ़ी (Kolgarhi) (जवा तहसील), जो संभवतः किसी कोल सरदार का प्राचीन गढ़ रहा होगा, अतरैला (Atraila) और डभौरा (Dabhaura) ग्राम कोल संस्कृति के जीवंत केंद्र हैं, जहाँ उनकी परंपराएँ और रीति-रिवाज आज भी देखे जा सकते हैं। कोल समुदाय ऐतिहासिक रूप से प्रकृति से जुड़ा रहा है; पारंपरिक कृषि, जिसमें मोटे अनाज जैसे कोदो, कुटकी और ज्वार शामिल हैं, शिकार (जो अब काफी हद तक प्रतिबंधित है) और वनोपज संग्रहण जैसे महुआ, तेंदूपत्ता, शहद और विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ इनकी आजीविका के मुख्य आधार थे। इनकी सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ और सामूहिकता पर आधारित थी, जिसमें परिवार और कबीले का महत्वपूर्ण स्थान होता है। उनके लोकगीत, जो उनके दैनिक जीवन, प्रकृति, प्रेम और वीरता का वर्णन करते हैं, लोकनृत्य (जैसे प्रसिद्ध करमा, सैला, और विवाह आदि अवसरों पर किए जाने वाले विशेष नृत्य) और मौखिक कथाएँ, जिनमें उनके पूर्वजों और देवी-देवताओं की कहानियाँ शामिल हैं, अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर हैं। वे मुख्यतः प्रकृति पूजक रहे हैं, और उनके प्रमुख आराध्य देवों में बूढ़ादेव (या बड़ा देव), जो सृष्टि के निर्माता माने जाते हैं, खैरमाई (ग्राम देवी), और कोटिल (सीमाओं के रक्षक देव) शामिल हैं। उनकी आस्था और पूजा पद्धतियाँ क्षेत्र की पर्यावरणीय चेतना को भी दर्शाती हैं। कोल समुदाय ने विभिन्न ऐतिहासिक कालों में स्थानीय शासकों को सैन्य सहायता भी प्रदान की और क्षेत्र की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

कोल जनजाति की सांस्कृतिक परंपराएँ, उनकी पर्यावरण-हितैषी जीवनशैली और प्रकृति के साथ उनका गहन सामंजस्य, रीवांचल की पर्यावरणीय और सामाजिक विरासत का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग है, जिसे संरक्षित और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि यह अमूल्य ज्ञान और परंपराएँ भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँच सकें।

गोंड जनजाति: कबीलीय शासन, कलात्मकता और सीधी जिले से विशेष संबंध

गोंड जनजाति मध्य भारत की प्रमुख और सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है, जिसका ऐतिहासिक विस्तार सीधी, रीवा और वृहत्तर बघेलखंड के साथ-साथ महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश तक रहा है। विशेषकर सीधी जिले के वनाच्छादित क्षेत्रों और कैमूर पर्वत श्रृंखला की उपत्यकाओं में इनकी ऐतिहासिक उपस्थिति और सांस्कृतिक प्रभाव अत्यंत गहरा है। गोंड समुदाय अपनी समृद्ध कलात्मक परंपराओं, विशेषकर 'गोंड पेंटिंग' के लिए विश्वविख्यात है, जिसमें प्रकृति, देवी-देवताओं, मिथकों और दैनिक जीवन के दृश्यों को जीवंत रंगों और जटिल पैटर्न के माध्यम से चित्रित किया जाता है। यह कला न केवल सौंदर्यपरक है, बल्कि यह उनकी मान्यताओं और विश्व-दृष्टि का भी प्रतिबिंब है। गोंडवाना, जिसका अर्थ है 'गोंडों का देश', एक ऐतिहासिक क्षेत्र को संदर्भित करता है जहाँ विभिन्न कालों में गोंड शासकों ने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए, जिनमें गढ़-मंडला का राज्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। रानी दुर्गावती जैसी वीरांगनाएँ इसी गोंडवाना की शासिका थीं, जिन्होंने मुगल सत्ता को कड़ी चुनौती दी थी। गोंड भाषा, जो द्रविड़ भाषा परिवार से संबंधित है, उनकी एक अलग भाषाई पहचान स्थापित करती है।

कबीलीय शासन, धार्मिक परंपराएँ एवं कला:

प्रारंभिक काल में और मध्ययुग में भी, गोंडों ने छोटे-छोटे आत्मनिर्भर कबीलीय राज्यों या गढ़ों की स्थापना की थी, जैसे गढ़-मंडला, देवगढ़, चांदा और खेरला। ये गढ़ न केवल राजनीतिक सत्ता के केंद्र थे, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान और कलात्मक विकास के भी महत्वपूर्ण स्थल थे। वे प्रकृति और पितृ-पूजा में गहरा विश्वास रखते हैं, और उनके प्रमुख आराध्य देव बड़ा देव (या बूढ़ा देव) हैं, जिन्हें वे अपने समुदाय और सृष्टि का सर्वोच्च संरक्षक मानते हैं। इसके अतिरिक्त, वे विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों, ग्राम देवताओं (जैसे खैरमाई, ठाकुर देव) और कुल देवताओं की भी पूजा करते हैं। उनकी गोंड पेंटिंग, जो दीवारों, कैनवास और अन्य माध्यमों पर की जाती है, अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचानी जाती है और समकालीन भारतीय कला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है। काष्ठकला, विशेष रूप से सजावटी दरवाजे और स्तंभ, मिट्टी की मूर्तियाँ (टेराकोटा) और पारंपरिक आभूषण बनाने की कला भी उल्लेखनीय हैं। गोंडवानी कथाएँ, जो उनकी मौखिक परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, उनके इतिहास, मिथकों और सामाजिक मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करती हैं। उनके लोकनृत्य जैसे सैला (फसल कटाई का नृत्य), रीना (महिलाओं का नृत्य), करमा (सामूहिक आनंद का नृत्य), और भड़म (जो विशेष अवसरों पर किया जाता है) उनकी समृद्ध सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक भावना को दर्शाते हैं। गोंड समुदाय का 'गोटुल' नामक युवा गृह भी उनकी सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है, जहाँ युवाओं को सामुदायिक जीवन और परंपराओं की शिक्षा दी जाती थी।

लोधी (लोध) समाज: परिश्रमी कृषक और वीर योद्धा

लोधी समुदाय, जो स्वयं को प्राचीन लोध राजपूतों का वंशज मानते हैं और जिनका संबंध पौराणिक काल में लोध नामक ऋषि से भी जोड़ा जाता है, मध्यकाल में रीवा क्षेत्र और आस-पास के बुंदेलखंड में एक महत्वपूर्ण कृषक और योद्धा समुदाय के रूप में उभरा। इनकी सघन उपस्थिति मऊगंज, जवा, गुढ़, सिरमौर और त्योंथर तहसीलों के उपजाऊ मैदानी भागों में रही है। इन्होंने कृषि, विशेषकर गेहूं, चना, मसूर और अन्य रबी फसलों की खेती में महत्वपूर्ण योगदान दिया और इस क्षेत्र की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था का स्तंभ बने। उनकी मेहनत और कृषि कौशल ने क्षेत्र की खाद्य सुरक्षा और समृद्धि में वृद्धि की। कृषि के अतिरिक्त, लोधी समुदाय का एक गौरवशाली योद्धा इतिहास भी रहा है। उन्होंने स्थानीय शासकों, जिनमें बघेल और बुंदेला राजा शामिल थे, की सेनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कई युद्धों में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। उनकी वीरता की कहानियाँ आज भी लोकगीतों और कथाओं में जीवित हैं। कहा जाता है कि वे युद्ध कौशल में निपुण होते थे और अपने स्वामी के प्रति निष्ठावान रहते थे। सामाजिक रूप से, लोधी समुदाय एक सुसंगठित और स्वाभिमानी समुदाय रहा है, जिनकी अपनी विशिष्ट परंपराएँ और रीति-रिवाज हैं। उनकी सामाजिक संरचना में 'खाप' पंचायतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जो सामुदायिक मामलों का निपटारा करती थीं और सामाजिक अनुशासन बनाए रखती थीं। वर्तमान में भी यह समुदाय कृषि के साथ-साथ विभिन्न अन्य व्यवसायों में संलग्न है और क्षेत्र के विकास में योगदान दे रहा है।

लवाना समाज: दूरगामी व्यापार और वाणिज्य के सूत्रधार

लवाना (या लंबाणी/बंजारा) समुदाय ऐतिहासिक रूप से एक गतिशील, खानाबदोश और व्यापारी समुदाय रहा है, जिन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों के बीच वस्तुओं के परिवहन और व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका नाम 'लवण' (नमक) शब्द से व्युत्पन्न माना जाता है, क्योंकि वे प्राचीन काल में नमक के प्रमुख व्यापारी थे, जो आंतरिक क्षेत्रों तक इस आवश्यक वस्तु को पहुँचाते थे। रीवा क्षेत्र, जो प्राचीन व्यापारिक मार्गों, विशेषकर उत्तर भारत को दक्षिण और पूर्व भारत से जोड़ने वाले मार्गों (जैसे कि दक्षिणापथ का एक हिस्सा) का एक महत्वपूर्ण मिलन बिंदु था, इनके लिए आकर्षण का केंद्र रहा होगा। लवाना समुदाय अपनी बैलगाड़ियों के काफिलों (जिन्हें 'तांडा' कहा जाता था) के लिए प्रसिद्ध थे, जिनके माध्यम से वे नमक, अनाज, कपड़े, मसाले, पशुधन (विशेषकर बैल और घोड़े जिनकी सैन्य अभियानों में भी आवश्यकता होती थी) और अन्य आवश्यक वस्तुओं का लंबी दूरी तक व्यापार करते थे। उनकी सघन बसाहट या पड़ाव मुख्यतः चाकघाट (जो गंगा के मैदानी इलाकों से मालवा और दक्कन की ओर जाने वाले मार्ग पर स्थित था), त्योंथर (जो यमुना और गंगा के संगम के निकट था) और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे क्षेत्रों में पाए जाते थे। इन्होंने न केवल दूर-दराज के क्षेत्रों के बीच वस्तुओं का परिवहन और विनिमय सुनिश्चित किया, जिससे क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को बल मिला, बल्कि विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं, विचारों और तकनीकी ज्ञान के वाहक भी बने, जिससे सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा मिला। उनकी विशिष्ट वेशभूषा, जिसमें महिलाओं के लिए रंग-बिरंगे, शीशे और कौड़ियों से सजे कपड़े, और पुरुषों के लिए धोती-कुर्ता और पगड़ी शामिल हैं, उनके कलात्मक आभूषण (विशेषकर चांदी के भारी गहने और हाथी दांत की चूड़ियाँ) और उनकी जीवंत लोक परंपराएँ (जैसे उनका प्रसिद्ध बंजारा नृत्य और संगीत, जिसमें ढोल और मंजीरे का प्रयोग होता है) उनकी एक अलग और आकर्षक पहचान बनाती हैं। लवाना समुदाय ने अपनी गतिशीलता और व्यापारिक कौशल के कारण विभिन्न राजवंशों के लिए सैन्य अभियानों के दौरान रसद आपूर्ति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे वे राज्य व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण, यद्यपि अक्सर उपेक्षित, हिस्सा बने रहे। समय के साथ, उनमें से कई स्थायी रूप से बस गए और कृषि तथा अन्य व्यवसायों को अपना लिया, लेकिन उनकी व्यापारिक विरासत और सांस्कृतिक विशिष्टता आज भी उनकी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

2. बघेल वंश के पूर्ववर्ती राजवंश: रीवा के राजनीतिक क्षितिज के निर्माता

बघेल वंश के १३वीं शताब्दी में उदय से पूर्व, रीवा का भूभाग अनेक शक्तिशाली और प्रभावशाली राजवंशों के शासन और उनकी सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा। इन राजवंशों ने न केवल यहाँ की राजनीतिक संरचना को आकार दिया, बल्कि कला, स्थापत्य, धर्म और सामाजिक जीवन पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। यह क्षेत्र कभी किसी एकछत्र साम्राज्य का स्थायी अंग नहीं रहा, बल्कि विभिन्न शक्तियों के बीच प्रभाव क्षेत्र का हिस्सा बनता रहा, जिससे यहाँ एक मिश्रित और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का विकास हुआ। इन पूर्ववर्ती राजवंशों की प्रशासनिक व्यवस्था, उनके द्वारा निर्मित संरचनाएं और उनके संरक्षण में विकसित हुई कला शैलियाँ बघेल शासन की नींव रखने में महत्वपूर्ण थीं। उनके द्वारा स्थापित व्यापारिक मार्ग, कृषि तकनीकें और सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं बाद के काल में भी जारी रहीं और क्षेत्र के विकास में योगदान देती रहीं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि बघेलों का आगमन किसी शून्य में नहीं हुआ, बल्कि वे एक ऐसे क्षेत्र में आए जिसकी अपनी एक स्थापित और गतिशील ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि थी, जिसे इन पूर्ववर्ती शक्तियों ने सदियों से गढ़ा था। इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति – विंध्य श्रृंखला की उपस्थिति, प्रमुख नदियों का प्रवाह और उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच एक संपर्क कड़ी होना – ने भी इसे विभिन्न राजवंशों के लिए आकर्षण का केंद्र बनाया।

चेदि महाजनपद (लगभग छठी शताब्दी ई.पू. - महाभारत काल):

प्राचीन भारतीय इतिहास के सोलह महाजनपदों में से एक, शक्तिशाली चेदि महाजनपद का महत्वपूर्ण अंग वर्तमान रीवा और इसके आस-पास का क्षेत्र था। इसका उल्लेख महाभारत और बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय जैसे प्राचीन साहित्य में प्रमुखता से मिलता है, जो इसकी प्राचीनता और तत्कालीन राजनीतिक महत्व को रेखांकित करता है। चेदि नरेश शिशुपाल, जिनकी कथा महाभारत में भगवान कृष्ण से उनके संघर्ष और अंततः वध के लिए प्रसिद्ध है, इसी महाजनपद के सबसे विख्यात शासक माने जाते हैं। उनकी राजधानी सुक्तिमती नगरी की पहचान पुरातत्वविदों द्वारा रीवा जिले के इटहा (Itaha) ग्राम या उसके निकटवर्ती क्षेत्र से की जाती है, जहाँ से प्राचीन बसाहट के अवशेष, मृदभांड और अन्य पुरातात्विक सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं। चेदि का भौगोलिक विस्तार संभवतः यमुना और नर्मदा नदियों के बीच के भूभाग तक, विशेषकर पूर्वी बुंदेलखंड और बघेलखंड के क्षेत्रों में, था, और यह केन नदी (प्राचीन शुक्तिमती) के किनारे स्थित था। यह तत्कालीन उत्तर भारत की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति थी, जिसका अन्य महाजनपदों जैसे मगध, वत्स, अवंती और काशी के साथ निरंतर संपर्क और कभी-कभी संघर्ष भी होता रहता था। इस क्षेत्र में कृषि की प्रधानता थी, और उपजाऊ भूमि के कारण यहाँ प्रचुर मात्रा में अनाज का उत्पादन होता था। यहाँ के निवासी व्यापार और वाणिज्य में भी संलग्न थे, जिसके प्रमाण प्राचीन व्यापारिक मार्गों और संभावित रूप से प्राप्त आहत सिक्कों (पंच-मार्क कॉइन) की उपस्थिति से मिलते हैं। चेदि महाजनपद की सामाजिक संरचना में वर्ण व्यवस्था का प्रभाव था, और यहाँ विभिन्न धार्मिक परंपराओं का सह-अस्तित्व रहा होगा, जिनमें वैदिक धर्म के साथ-साथ संभवतः प्रारंभिक जैन और बौद्ध विचारों का भी प्रवेश हो चुका था, क्योंकि यह काल इन नवीन धर्मों के उदय का भी साक्षी था। शिशुपाल के बाद भी चेदि राजवंश ने कुछ समय तक अपनी स्वतंत्रता बनाए रखी, परंतु कालांतर में, अन्य महाजनपदों की भांति, यह भी मगध साम्राज्य के बढ़ते हुए प्रभुत्व और विस्तार का शिकार हो गया, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक मानचित्र को स्थायी रूप से बदल दिया। चेदि महाजनपद की विरासत इस क्षेत्र की प्राचीनतम राजनीतिक इकाइयों में से एक के रूप में आज भी महत्वपूर्ण है।

मौर्य वंश (लगभग 322 ई.पू. – 185 ई.पू.) एवं शुंग वंश (लगभग 185 ई.पू. – 73 ई.पू.):

चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित विशाल मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत रीवा क्षेत्र भी समाहित था, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप में पहली बार एक केंद्रीकृत, सुदृढ़ और विस्तृत शासन व्यवस्था स्थापित की। सम्राट अशोक महान (लगभग 268-232 ई.पू.) के काल में यह क्षेत्र बौद्ध धर्म के प्रसार का एक प्रमुख केंद्र बना, जो उनकी कलिंग विजय के पश्चात अपनाई गई धम्म नीति का परिणाम था। अशोक ने अपनी धम्म नीति के तहत विभिन्न स्थानों पर स्तूपों, विहारों और शिलालेखों का निर्माण करवाया, जिनका उद्देश्य बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार, सामाजिक सौहार्द स्थापित करना और एक नैतिक शासन व्यवस्था को बढ़ावा देना था। रीवा जिले की सिरमौर तहसील में स्थित देउरकोठार (Deur Kothar) के विशाल बौद्ध स्तूप (जिनकी संख्या लगभग 40 बताई जाती है), विहारों के खंडहर और अशोककालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण स्तंभ लेख और प्रस्तर खंड इसके महत्वपूर्ण प्रमाण हैं। इन शिलालेखों में बौद्ध संघ को दिए गए दान, भिक्षुओं के लिए बनाए गए नियमों और धम्म के सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है, जो इस क्षेत्र में मौर्यकालीन प्रशासनिक उपस्थिति और बौद्ध धर्म के प्रति राजकीय संरक्षण को दर्शाता है। देउरकोठार संभवतः एक महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ, शिक्षा केंद्र (जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी आते होंगे) और पाटलिपुत्र से उज्जैन और दक्षिणापथ को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग पर स्थित एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहा होगा। मौर्यों के पतन के बाद शुंग वंश (लगभग 185-73 ई.पू.) सत्ता में आया, जिसके संस्थापक पुष्यमित्र शुंग थे। यद्यपि शुंग शासक ब्राह्मण धर्म के प्रबल समर्थक माने जाते हैं और उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किए, तथापि इस काल में भी बौद्ध धर्म का प्रभाव इस क्षेत्र में बना रहा। भरहुत (सतना के निकट) और सांची जैसे विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्तूपों का विस्तार एवं अलंकरण कार्य, विशेषकर तोरणद्वारों का निर्माण, शुंग काल में ही हुआ, जिसका प्रभाव रीवा क्षेत्र की कला पर भी पड़ा होगा और संभवतः देउरकोठार जैसे स्थलों पर भी कुछ निर्माण या जीर्णोद्धार कार्य हुए होंगे। इस प्रकार, मौर्य और शुंग काल में रीवा क्षेत्र ने धार्मिक और सांस्कृतिक विकास के महत्वपूर्ण चरण देखे, जिनकी पुरातात्विक विरासत आज भी हमें उस युग की झलक दिखाती है।

देउरकोठार स्थित मौर्यकालीन बौद्ध स्तूपों का एक विहंगम दृश्य

(चित्र: देउरकोठार के मौर्यकालीन बौद्ध स्तूपों का एक विहंगम दृश्य, जो सम्राट अशोक की धम्म नीति और इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रभाव को दर्शाता है। साभार: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण/संबंधित विश्वसनीय स्रोत)

देउरकोठार के स्तूप और अभिलेख न केवल मौर्यकालीन कला और स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, बल्कि वे सम्राट अशोक की धम्म-नीति, उनके साम्राज्य की विशालता और बघेलखण्ड में बौद्ध धर्म की गहरी जड़ों को भी प्रमाणित करते हैं, जो भारतीय इतिहास की एक अमूल्य धरोहर है, और यह दर्शाते हैं कि कैसे प्राचीन काल में भी दूरस्थ क्षेत्रों तक प्रशासनिक और सांस्कृतिक प्रभाव पहुँचता था।

नागवंशी (लगभग दूसरी से चौथी शताब्दी ईस्वी):

मौर्यों के पतन और कुषाणों के उदय के बीच के कालखंड में, और कुषाणों के समानांतर भी, मध्य भारत के कई हिस्सों में स्थानीय नागवंशों ने अपनी शक्ति स्थापित की, जो भारतीय इतिहास के एक अल्प-ज्ञात किंतु महत्वपूर्ण अध्याय का निर्माण करते हैं। इन नागवंशों की प्रमुख शाखाएँ मथुरा, पद्मावती (आधुनिक पवाया, ग्वालियर के निकट), विदिशा और कांतिपुरी (संभावित रूप से मिर्जापुर या रीवा के निकट का कोई स्थल, जिसकी सटीक पहचान अभी भी शोध का विषय है) में थीं। रीवा-सतना क्षेत्र और निकटवर्ती बुंदेलखंड से विभिन्न नागवंशी शासकों, जैसे गणपतिनाग, नागसेन, नंदीनाग, वीरसेन और भीमनाग की तांबे की मुद्राएँ और कुछ शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जो इस क्षेत्र में उनके शासन की पुष्टि करते हैं। ये मुद्राएँ, जिन पर प्रायः नाग प्रतीक (जैसे सर्प या फन फैलाए नाग), नंदी (बैल, जो शैव धर्म से संबंधित है) और शासकों के नाम ब्राह्मी लिपि में अंकित हैं, इस क्षेत्र में उनकी स्वतंत्र या अर्ध-स्वतंत्र सत्ता की ओर इशारा करती हैं। नागवंशी शासक शैव धर्म के प्रबल अनुयायी माने जाते हैं, जैसा कि उनकी मुद्राओं पर अंकित शैव प्रतीकों और उनके द्वारा अपनाई गई उपाधियों से स्पष्ट होता है, और उन्होंने कला तथा स्थापत्य को भी संभवतः संरक्षण दिया होगा, यद्यपि उनके द्वारा निर्मित संरचनाओं के अवशेष अभी तक व्यापक रूप से प्रकाश में नहीं आए हैं। समुद्रगुप्त की प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति में गणपतिनाग का उल्लेख उन प्रमुख उत्तर भारतीय शासकों में किया गया है जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपने दिग्विजय अभियान में पराजित किया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि चौथी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य के विस्तार के साथ नागों की शक्ति का ह्रास हुआ और वे गुप्तों के अधीन आ गए या उनका राज्य गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गया। रीवा क्षेत्र में नागों की उपस्थिति यहाँ की राजनीतिक और सांस्कृतिक निरंतरता में एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जो मौर्योत्तर काल से गुप्त काल के बीच के संक्रमण को दर्शाती है और इस क्षेत्र के स्थानीय राजवंशों के महत्व को उजागर करती है, जो बड़े साम्राज्यों के उत्थान और पतन के बीच भी अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रहे।

गुप्त राजवंश (लगभग तीसरी के अंत से छठी शताब्दी ईस्वी):

गुप्त काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' माना जाता है, जिसमें कला, साहित्य, विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान और प्रशासनिक व्यवस्था का चहुंमुखी और अभूतपूर्व विकास हुआ, जिसने भारतीय सभ्यता को एक नई ऊंचाई प्रदान की। रीवा क्षेत्र, जिसे इस काल में संभवतः 'डाहल देश' या उसके किसी भाग के रूप में जाना जाता था, गुप्त साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग था, यद्यपि यह सीधे पाटलिपुत्र के केंद्रीय नियंत्रण में न होकर संभवतः किसी सामंत शासक या स्थानीय गवर्नर (उपरिक) के अधीन रहा हो, जो गुप्त सम्राट के प्रति निष्ठावान था। इस क्षेत्र से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य, जिनमें सिक्के, अभिलेख, मूर्तियाँ और मंदिरों के अवशेष शामिल हैं, गुप्तकालीन समृद्धि और सांस्कृतिक उत्कर्ष की स्पष्ट पुष्टि करते हैं। देउरकोठार के बौद्ध स्तूपों का इस काल में न केवल जीर्णोद्धार और संरक्षण किया गया, बल्कि उनका विस्तार भी हुआ, जो गुप्त शासकों की धार्मिक सहिष्णुता (यद्यपि वे स्वयं मुख्यतः वैष्णव थे) और कला-संरक्षण की नीति को दर्शाता है। उमरिया जिले में स्थित (जो ऐतिहासिक रूप से बघेलखंड का अभिन्न अंग रहा है और बघेलों की प्रारंभिक राजधानी भी रहा) बंधवगढ़ किला के आसपास से गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएँ, जिन पर गुप्त शासकों (जैसे समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य') के चित्र और उनकी उपाधियाँ (जैसे 'पराक्रमांक', 'विक्रमादित्य') अंकित हैं, कलात्मक प्रस्तर प्रतिमाएँ (जैसे कि किले के भीतर शेषशायी विष्णु की प्रसिद्ध और विशाल प्रतिमा, वराह अवतार, मत्स्यावतार और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, जो गुप्त कला की विशिष्ट शैली में निर्मित हैं) और मंदिर स्थापत्य के प्रारंभिक अवशेष (जैसे कि भूमरा और नचना-कुठार के मंदिर, जो इस क्षेत्र के निकट हैं) प्राप्त हुए हैं। ये कलाकृतियाँ गुप्तकालीन मूर्तिकला की उत्कृष्टता, जैसे शारीरिक सौष्ठव का यथार्थवादी चित्रण, भावप्रवणता, वस्त्रों की महीन और पारदर्शी सिलवटें, अलंकृत केशविन्यास और आभूषणों की सूक्ष्मता, को प्रभावशाली ढंग से प्रदर्शित करती हैं। इस काल में शैव, वैष्णव और शाक्त संप्रदायों का भी इस क्षेत्र में व्यापक प्रभाव बढ़ा, और कई मंदिरों का निर्माण हुआ, जो गुप्त स्थापत्य की नागर शैली के प्रारंभिक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ और कुशल थी, और इस क्षेत्र में शांति और सुव्यवस्था बनी रही, जिससे व्यापार और वाणिज्य को भी प्रोत्साहन मिला, और यह क्षेत्र उत्तर भारत को दक्षिण से जोड़ने वाले प्राचीन व्यापारिक मार्गों पर एक महत्वपूर्ण पड़ाव बना रहा।

कल्चुरी राजवंश (मुख्यतः लगभग 8वीं से 12वीं शताब्दी ईस्वी):

गुप्तों के पतन के बाद और राजपूत काल के उदय के साथ, त्रिपुरी (आधुनिक तेवर, जबलपुर के निकट) के कल्चुरी (या हैहय) राजवंश ने मध्य भारत में एक शक्तिशाली और विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया, जिसका रीवा और बघेलखंड क्षेत्र पर गहरा और दीर्घकालिक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव रहा। कल्चुरी शासक, जैसे कोक्कल्ल प्रथम, जिन्होंने इस वंश की नींव रखी, युवराजदेव प्रथम (जिन्होंने प्रसिद्ध कवि राजशेखर को संरक्षण दिया), लक्ष्मणराज द्वितीय (जिन्होंने कई विजय अभियान किए) और विशेष रूप से कर्णदेव (लगभग 1041-1073 ई., जिन्हें 'त्रिकलिंगाधिपति' अर्थात् तीन कलिंगों का स्वामी भी कहा जाता था), अत्यंत पराक्रमी, महत्वाकांक्षी और कला-प्रेमी थे। वे शैव धर्म के महान संरक्षक थे, विशेषकर पाशुपत और मत्तमयूर शैव संप्रदाय को उनके शासनकाल में राजकीय संरक्षण और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। इस संप्रदाय के शैवाचार्यों, जैसे प्रभावशिव, प्रशांतशिव और हृदयशिव, ने इस क्षेत्र में अनेक भव्य मठों, मंदिरों और शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की, जो न केवल धार्मिक गतिविधियों और अनुष्ठानों के केंद्र थे बल्कि ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और कला के भी महत्वपूर्ण स्थल बने, जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी और विद्वान आते थे। रीवा जिले की गुढ़ तहसील में स्थित गुर्गी (Gurgi) और सीधी जिले में सोन नदी के तट पर स्थित चन्द्रहे (Chandrahe) मत्तमयूर शैव संप्रदाय की गतिविधियों के प्रमुख और विश्वविख्यात केंद्र थे। इन स्थानों से प्राप्त विशाल और कलात्मक शैव प्रतिमाएँ (जैसे उमा-महेश्वर, नटराज, गणेश, कार्तिकेय, विभिन्न मातृकाओं और योगिनियों की मूर्तियाँ), मंदिरों के विस्तृत भग्नावशेष, अलंकृत स्तंभ, तोरण द्वार और संस्कृत में उत्कीर्ण अभिलेख (जो शासकों की वंशावली, उनके विजय अभियानों और उनके द्वारा दिए गए दानों का विवरण देते हैं) कल्चुरीकालीन कला और स्थापत्य की उत्कृष्टता, भव्यता और परिष्कार के जीवंत प्रमाण हैं। गुर्गी से प्राप्त अभिलेखों में शैवाचार्य प्रभावशिव और प्रशांतशिव जैसे प्रभावशाली गुरुओं का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने यहाँ शैव सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया और विशाल मठों का सफलतापूर्वक प्रबंधन किया। सिरमौर तहसील में स्थित बैजनाथ (Baijnath) का शिव मंदिर और नयागांव (Nayagaon) से प्राप्त कल्चुरीकालीन शिव मंदिर और प्रतिमाएँ भी इसी काल की देन हैं, जो इस क्षेत्र में कल्चुरी स्थापत्य की क्षेत्रीय विशेषताओं को दर्शाती हैं। कल्चुरी शासकों ने न केवल धार्मिक संरचनाओं का निर्माण करवाया, बल्कि उन्होंने कला, साहित्य और शिक्षा को भी व्यापक रूप से प्रोत्साहित किया। उनके दरबार में कई प्रसिद्ध विद्वान और कवि, जैसे राजशेखर (जिन्होंने 'काव्यमीमांसा', 'कर्पूरमंजरी' जैसे ग्रंथों की रचना की), आश्रय पाते थे। कल्चुरी काल में इस क्षेत्र में एक विशिष्ट क्षेत्रीय कला शैली का विकास हुआ, जिसमें गुप्तकालीन परंपराओं के साथ-साथ स्थानीय तत्वों और नवीन प्रयोगों का भी सुंदर समावेश था, और इसकी अपनी एक अलग और प्रभावशाली पहचान है जो भारतीय कला के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

कल्चुरी कालीन कला का एक उत्कृष्ट नमूना (मंदिर स्थापत्य या मूर्तिशिल्प)

(चित्र: कल्चुरी कालीन कला का एक उत्कृष्ट नमूना, संभवतः बैजनाथ मंदिर या गुर्गी से प्राप्त कोई मूर्तिशिल्प, जो उनकी विकसित स्थापत्य शैली और मूर्तिकला की बारीकियों को दर्शाता है, जिसमें अलंकरण और भाव-प्रवणता का सुंदर समन्वय है।)

चंदेल और प्रतिहार राजवंश (लगभग 8वीं से 13वीं शताब्दी ईस्वी):

यद्यपि रीवा और बघेलखंड का अधिकांश क्षेत्र मुख्य रूप से कल्चुरियों के शक्तिशाली प्रभाव में था, तथापि इसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि यह उत्तर में कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहारों और दक्षिण-पश्चिम में जेजाकभुक्ति (आधुनिक बुंदेलखंड) के चंदेलों की सीमाओं के निकट पड़ता था। इन दोनों शक्तिशाली राजपूत राजवंशों का भी इस क्षेत्र पर समय-समय पर राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा, और कभी-कभी इन शक्तियों के बीच आधिपत्य के लिए संघर्ष भी हुए, जिससे क्षेत्र की राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ी। गुर्जर-प्रतिहार, जिन्होंने उत्तरी भारत में एक विशाल और सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था और जिन्होंने पश्चिम से होने वाले अरब आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था, संभवतः अपने साम्राज्य के चरम काल (लगभग 8वीं से 10वीं शताब्दी) में इस क्षेत्र के उत्तरी भागों को, विशेषकर यमुना के निकटवर्ती क्षेत्रों को, नियंत्रित करते थे। उनके शासनकाल में विकसित हुई नागर शैली की मंदिर वास्तुकला और मूर्तिकला का प्रभाव यहाँ की कुछ प्रारंभिक संरचनाओं में, विशेषकर मूर्तिकला की शैली और विषय-वस्तु में, देखा जा सकता है। चंदेल, जो अपनी अद्वितीय कला और स्थापत्य, विशेषकर खजुराहो के विश्व प्रसिद्ध मंदिरों (जो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं) के निर्माण के लिए जाने जाते हैं, कालिंजर के अपने सुदृढ़ और अभेद्य किले से इस क्षेत्र की गतिविधियों पर नजर रखते थे और उनका प्रभाव भी यहाँ तक विस्तृत था। कालिंजर, जो रीवा से बहुत दूर नहीं है, चंदेलों का एक महत्वपूर्ण रणनीतिक, धार्मिक (नीलकंठ महादेव मंदिर) और सांस्कृतिक केंद्र था। कल्चुरियों और चंदेलों के बीच न केवल वैवाहिक संबंध स्थापित हुए, जैसा कि कुछ ऐतिहासिक अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है, बल्कि साथ ही उनके बीच अपने-अपने राज्यों की सीमाओं के विस्तार और क्षेत्रीय प्रभुत्व के लिए निरंतर संघर्ष भी चलता रहा, जिसमें कभी एक पक्ष तो कभी दूसरा पक्ष भारी पड़ता था। इस राजनीतिक खींचतान और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कारण रीवा क्षेत्र में विभिन्न कला शैलियों और स्थापत्य परंपराओं का एक रोचक और विशिष्ट मिश्रण देखने को मिलता है, जो इसे मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण संक्रमणकालीन और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्र बनाता है। चंदेलों द्वारा निर्मित विशाल जलाशय (तालाब) और उनके द्वारा संरक्षित कला एवं साहित्य की परंपराओं का भी इस क्षेत्र पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ा होगा, जिससे क्षेत्र की सांस्कृतिक समृद्धि में और वृद्धि हुई।

3. गुर्गी: विभिन्न धर्मों का सांस्कृतिक उत्थान केंद्र एवं गाजी मियां का मजार – एक अद्भुत समन्वय

रीवा जिले की गुढ़ तहसील में स्थित गुर्गी-महसांव, प्राचीन और मध्यकालीन रीवा की आत्मा का दर्पण है, जहाँ विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यह स्थल न केवल पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी और सहिष्णु प्रकृति का एक उत्कृष्ट उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। यहाँ के खंडहर और बिखरे हुए पुरावशेष एक गौरवशाली अतीत की कहानी कहते हैं, जब यह स्थान शैव धर्म का एक प्रमुख केंद्र हुआ करता था, और साथ ही जैन और संभवतः बौद्ध परंपराओं को भी यहाँ आश्रय मिला। बाद के काल में, सूफी संत की उपस्थिति ने इस स्थान को एक सर्व-धर्म सद्भाव के प्रतीक के रूप में स्थापित किया। गुर्गी की भौगोलिक स्थिति भी महत्वपूर्ण थी; यह संभवतः प्राचीन व्यापारिक मार्गों पर स्थित रहा होगा, जो उत्तर भारत को दक्षिण और पूर्व से जोड़ते थे, जिससे विभिन्न विचारों, कला शैलियों और संस्कृतियों का यहाँ आगमन सुगम हुआ। आज भी यह स्थल स्थानीय लोगों के लिए आस्था और ऐतिहासिक गौरव का केंद्र बना हुआ है, और इसके गहन अध्ययन से हमें इस क्षेत्र के सामाजिक-धार्मिक इतिहास की कई अनसुलझी कड़ियों को जोड़ने में मदद मिल सकती है। इस स्थल का संरक्षण और इसके महत्व का प्रचार-प्रसार आवश्यक है ताकि यह भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहे। गुर्गी का शांत वातावरण और ऐतिहासिक अवशेष आगंतुकों को एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं, जहाँ वे अतीत की जीवंतता को महसूस कर सकते हैं।

गुर्गी से प्राप्त प्राचीन मंदिर के खंडहर या मूर्ति

(चित्र: गुर्गी से प्राप्त प्राचीन मंदिर के कलात्मक अवशेष या किसी जैन तीर्थंकर की प्रतिमा का अंश, जो इस स्थल की बहु-धार्मिक विरासत को दर्शाता है और तत्कालीन शिल्प कौशल का प्रमाण है।)

हिन्दू धर्म की विविध धाराओं का संगम:

गुर्गी मुख्यतः शैव धर्म का एक महान केंद्र रहा, विशेष रूप से कल्चुरी शासकों के संरक्षण में, जिन्होंने इस क्षेत्र में शैव धर्म को राजकीय प्रश्रय दिया और इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यहाँ मत्तमयूर शैव संप्रदाय के प्रसिद्ध शैवाचार्य प्रभावशिव और प्रशांतशिव जैसे प्रभावशाली गुरुओं ने अपने मठ स्थापित किए और शैव दर्शन, योग और तंत्र साधना का प्रचार-प्रसार किया। इन मठों में न केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती थी और विभिन्न तांत्रिक एवं आगमिक अनुष्ठान किए जाते थे, बल्कि ये कला, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के भी महत्वपूर्ण केंद्र थे, जहाँ विभिन्न विषयों पर गहन चर्चाएँ और अध्ययन होते थे। गुर्गी से प्राप्त विशाल शिवलिंग, नंदी की कलात्मक मूर्तियाँ, उमा-महेश्वर, गणेश, कार्तिकेय और अन्य शिव परिवार के सदस्यों की सुंदर एवं भावप्रवण प्रतिमाएँ यहाँ शैव धर्म की गहरी जड़ों और उसके कलात्मक वैभव को स्पष्ट रूप से प्रमाणित करती हैं। रेहुटा दुर्ग के निकट स्थित मंदिरों के अवशेष भी इसी शैव परिसर का हिस्सा माने जाते हैं, जो एक विस्तृत और सुनियोजित धार्मिक केंद्र की ओर संकेत करते हैं। शैव धर्म के अतिरिक्त, यहाँ वैष्णव और शाक्त परंपराओं के भी महत्वपूर्ण चिन्ह मिलते हैं, जो इस क्षेत्र की धार्मिक विविधता और विभिन्न हिन्दू संप्रदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व को दर्शाते हैं। विभिन्न देवी-देवताओं, जैसे विष्णु, लक्ष्मी, दुर्गा और सप्तमातृकाओं की खंडित प्रतिमाएँ और मंदिरों के वास्तुशिल्प के टुकड़े, जैसे कि अलंकृत स्तंभ, द्वार चौखटें और आमलक, इस बात का संकेत देते हैं कि गुर्गी एक ऐसा पवित्र स्थान था जहाँ हिन्दू धर्म की विभिन्न धाराएँ स्वतंत्र रूप से पल्लवित हुईं और उनके बीच विचारों का स्वस्थ आदान-प्रदान भी होता रहा होगा, जिससे एक समन्वित धार्मिक वातावरण का निर्माण हुआ।

जैन धर्म की उपस्थिति:

गुर्गी न केवल शैव धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, बल्कि पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि यहाँ जैन धर्म की भी महत्वपूर्ण और सक्रिय उपस्थिति रही है। इस स्थल से 23वें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की एक खंडित किंतु कलात्मक प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो इस क्षेत्र में पार्श्वनाथ की पूजा की प्राचीन परंपरा को इंगित करती है। इसके अतिरिक्त, नौवीं शताब्दी ईस्वी की कात्योत्सर्ग (खड़ी ध्यान मुद्रा, जो कायोत्सर्ग या शरीर के प्रति ममत्व का त्याग दर्शाती है) में एक अन्य तीर्थंकर की सुंदर और कलात्मक मूर्ति मिली है। यह मूर्ति, जो अब प्रयागराज संग्रहालय में संरक्षित है, जैन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाती है और तत्कालीन शिल्पकारों की दक्षता को प्रदर्शित करती है। इन मूर्तियों की प्राप्ति यह प्रमाणित करती है कि मध्यकाल में गुर्गी और इसके आस-पास के क्षेत्रों में एक सक्रिय और समृद्ध जैन समुदाय भी निवास करता था, और उन्हें अपने धर्म का पालन करने तथा अपने धार्मिक उपासना स्थलों (जैसे जिनालय या बसदि) का निर्माण करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। यह संभव है कि यहाँ जैन व्यापारियों, श्रेष्ठीजनों और श्रावकों की बस्तियाँ रही होंगी, जिन्होंने इन मूर्तियों और संभावित जिनालयों के निर्माण में आर्थिक योगदान दिया होगा और जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। यह तथ्य इस क्षेत्र की धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न आस्थाओं के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को और पुष्ट करता है, जो भारतीय संस्कृति की एक विशिष्ट और गौरवशाली पहचान रही है। जैन धर्म की अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांतवाद की शिक्षाओं ने भी संभवतः इस क्षेत्र के सामाजिक और नैतिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया होगा और एक शांतिपूर्ण समाज के निर्माण में योगदान दिया होगा।

बौद्ध धर्म के पदचिह्न:

यद्यपि गुर्गी से बौद्ध धर्म से संबंधित प्रत्यक्ष और ठोस पुरातात्विक साक्ष्य, जैसे कि स्तूप, चैत्य या विहार के स्पष्ट संरचनात्मक अवशेष, अभी तक प्रचुर मात्रा में नहीं मिले हैं, तथापि कुछ विद्वान और इतिहासकार इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के संभावित प्रभाव और अल्पकालिक उपस्थिति से इंकार नहीं करते। रीवा क्षेत्र का निकटवर्ती स्थल देउरकोठार मौर्यकाल में बौद्ध धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और विशाल केंद्र था, और यह संभव है कि देउरकोठार का सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव गुर्गी तक भी किसी न किसी रूप में पहुंचा हो। इसके अतिरिक्त, प्राचीन व्यापारिक मार्ग जो कौशाम्बी (एक प्रमुख बौद्ध तीर्थ और शिक्षा केंद्र) और भरहुत (जहाँ प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप स्थित था) जैसे अन्य महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्रों से होकर गुजरते थे, वे इस क्षेत्र के निकट से जाते रहे होंगे। यह कल्पना करना तर्कसंगत है कि बौद्ध भिक्षु, विद्वान और सामान्य अनुयायी इन मार्गों का उपयोग करते हुए इस क्षेत्र में आए हों और उन्होंने गुर्गी या इसके आस-पास के क्षेत्रों में कुछ समय के लिए निवास किया हो या छोटे-मोटे विहारों या साधना स्थलों (जैसे गुफाओं) की स्थापना की हो। राजा कर्णदेव द्वारा निर्मित रेहुटा दुर्ग, जो गुर्गी के समीप स्थित है, एक ऐसा रणनीतिक और महत्वपूर्ण स्थल रहा होगा जहाँ विभिन्न धार्मिक समुदायों के लोगों का आवागमन और संपर्क होता रहा होगा, और संभव है कि वहाँ भी विभिन्न आस्थाओं के प्रतीक चिन्ह मिले हों। भविष्य में यदि इस क्षेत्र में और अधिक व्यवस्थित, वैज्ञानिक और गहन पुरातात्त्विक अन्वेषण और उत्खनन कार्य किया जाए, तो बौद्ध धर्म से संबंधित और भी महत्वपूर्ण जानकारी तथा पुरावशेष प्रकाश में आ सकते हैं, जो रीवा की बहु-धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत की तस्वीर को और भी समृद्ध और स्पष्ट करेंगे।

सूफी संत गाजी मियां का मजार: सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक:

गुर्गी की धार्मिक समन्वय और सहिष्णुता की परंपरा मध्यकाल में भी अनवरत जारी रही, जिसका सबसे बड़ा और जीवंत प्रमाण यहाँ स्थित हजरत सैय्यद सालार मसऊद गाजी मियां का एक प्रतीकात्मक मजार शरीफ है। सैय्यद सालार मसऊद गाजी, जिन्हें सामान्यतः गाजी मियां या बाले मियां के नाम से जाना जाता है, 11वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध योद्धा और सूफी संत थे, जिनका संबंध महमूद गजनवी के अभियानों से भी जोड़ा जाता है, यद्यपि उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व के बारे में कई मतभेद हैं। उनका मुख्य मजार बहराइच (उत्तर प्रदेश) में स्थित है और यह उत्तर भारत के सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय सूफी तीर्थस्थलों में से एक है, जहाँ सभी धर्मों के लोग बड़ी संख्या में अपनी मन्नतें लेकर आते हैं। गुर्गी में उनका यह प्रतीकात्मक मजार (जिसे 'चौरा' या 'निशान' भी कहा जा सकता है, जो उनकी उपस्थिति या उनके पड़ाव का प्रतीक हो सकता है) यह दर्शाता है कि उनकी ख्याति, उनके प्रति श्रद्धा और उनके चमत्कारों की कथाएँ इस दूरस्थ क्षेत्र तक भी फैली हुई थीं और स्थानीय लोगों, चाहे वे किसी भी धर्म या समुदाय के हों, में उनके प्रति गहरी आस्था और सम्मान था। यहाँ प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह में, विशेषकर 25 मई के आस-पास (जो उनके उर्स की पारंपरिक तिथि के निकट है), एक भव्य उर्स (मेला) का आयोजन होता है। इस उर्स में न केवल मुस्लिम समुदाय के लोग, बल्कि बड़ी संख्या में हिन्दू और अन्य धर्मों के अनुयायी भी श्रद्धापूर्वक शामिल होते हैं, चादर चढ़ाते हैं, मन्नतें मांगते हैं और भंडारे का आयोजन करते हैं। यह उर्स सांप्रदायिक सौहार्द और विभिन्न आस्थाओं के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का एक देदीप्यमान और अनुकरणीय उदाहरण है। प्रसिद्ध ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता मेजर सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी अपने पुरातात्विक सर्वेक्षणों के दौरान रीवा राज्य के अनेक प्राचीन स्थलों का वर्णन किया था, और संभवतः गुर्गी की इस विशिष्ट धार्मिक परंपरा ने भी उनका ध्यान आकर्षित किया होगा। यह मजार आज भी इस क्षेत्र की गंगा-जमुनी तहजीब और लोक आस्था का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बना हुआ है, जो विभिन्न समुदायों को एक स्नेहपूर्ण सूत्र में पिरोता है और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है।

गुर्गी का यह मजार विभिन्न आस्थाओं के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी प्रकृति का एक देदीप्यमान प्रतीक है, जो आज भी हमें सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाईचारे की प्रेरणा देता है, और यह दर्शाता है कि कैसे विभिन्न संस्कृतियाँ एक साथ मिलकर एक समृद्ध, साझा और मानवीय विरासत का निर्माण कर सकती हैं, जो क्षेत्रीय पहचान को और भी विशिष्ट बनाती है।

एक विशेष ऐतिहासिक श्रृंखला

4. पुरातात्त्विक साक्ष्य एवं प्रमुख स्थल: अतीत के मौन गवाक्ष

रीवा और इसके चतुर्दिक विस्तृत क्षेत्र पुरातात्त्विक दृष्टि से एक ऐसे खुले संग्रहालय के समान है, जहाँ धरती के गर्भ में और सतह पर बिखरे अनगिनत अवशेष अतीत की अनकही कहानियाँ सुनाते प्रतीत होते हैं। इन स्थलों का व्यवस्थित उत्खनन, गहन अध्ययन और वैज्ञानिक विश्लेषण हमें इस क्षेत्र के प्रागैतिहासिक काल से लेकर मध्यकाल तक के सुदीर्घ इतिहास, विभिन्न संस्कृतियों के विकास, सामाजिक-आर्थिक जीवन के विविध आयामों और कलात्मक उपलब्धियों की महत्वपूर्ण एवं रोचक जानकारी प्रदान करता है। ये पुरातात्विक स्थल न केवल इतिहासकारों, पुरातत्वविदों और शोधार्थियों के लिए गंभीर शोध का विषय हैं, बल्कि ये आम जनता, विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए भी अपने गौरवशाली अतीत, अपनी जड़ों और अपनी सांस्कृतिक विरासत को जानने और समझने का एक अमूल्य एवं महत्वपूर्ण माध्यम हैं। इनके संरक्षण और संवर्धन की महती आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इस अमूल्य धरोहर से परिचित हो सकें, उस पर गर्व कर सकें और भविष्य के निर्माण के लिए उससे प्रेरणा ले सकें। इन पुरास्थलों का पर्यटन की दृष्टि से भी विकास किया जा सकता है, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बल मिलेगा और लोगों में अपनी विरासत के प्रति जागरूकता बढ़ेगी।

  • देउरकोठार (Deur Kothar): सिरमौर तहसील में स्थित यह स्थल मौर्यकालीन बौद्ध धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और विस्तृत केंद्र था। यहाँ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किए गए उत्खनन में अनेक विशाल बौद्ध स्तूप (जिनमें से कुछ का व्यास 30 मीटर से भी अधिक है, जो इनकी महत्ता को दर्शाते हैं), एक सुव्यवस्थित विहार परिसर, भिक्षुओं के आवासीय कक्षों की नींव, और सबसे महत्वपूर्ण, सम्राट अशोक के काल के ब्राह्मी लिपि में लिखे गए प्रस्तर स्तंभों के खंड और अन्य शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इन शिलालेखों से बौद्ध संघ को दिए गए दान, धम्म के सिद्धांतों और संभवतः स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। यह स्थल स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भी यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था और यहाँ बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ था, जो इसे राष्ट्रीय महत्व का पुरातात्विक स्थल बनाता है। यहाँ प्राप्त मृदभांड और अन्य पुरावशेष भी मौर्यकालीन जीवनशैली पर प्रकाश डालते हैं।
  • गुर्गी-महसांव (Gurgi-Mahsanw): गुढ़ तहसील में स्थित यह स्थान, जैसा कि पहले भी वर्णित है, कल्चुरीकालीन शैव धर्म का प्रमुख केंद्र था। यहाँ से प्राप्त विशाल और कलात्मक शैव प्रतिमाएँ, जिनमें नटराज, उमा-महेश्वर, गणेश, कार्तिकेय और विभिन्न देवियों की मूर्तियाँ शामिल हैं, मंदिरों के विस्तृत भग्नावशेष (जैसे कि रेहुटा दुर्ग के निकट), शैव मठों के अवशेष, अलंकृत स्तंभ, तोरणद्वार और संस्कृत में उत्कीर्ण अभिलेख इस क्षेत्र में मत्तमयूर शैव संप्रदाय के गहरे प्रभाव और कल्चुरी कला की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त, यहाँ से जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ और गाजी मियां का प्रतीकात्मक मजार भी मिला है, जो इस स्थल की बहु-धार्मिक और समन्वयवादी प्रकृति को उजागर करता है, जहाँ विभिन्न आस्थाएँ एक साथ फली-फूलीं। गुर्गी की मूर्तिकला में एक विशिष्ट स्थानीयता और भावप्रवणता देखने को मिलती है।
  • इटहा (Itaha): रीवा तहसील में स्थित इस ग्राम को प्राचीन चेदि महाजनपद की प्रसिद्ध राजधानी सुक्तिमती का संभावित स्थल माना जाता है। यद्यपि यहाँ व्यापक और व्यवस्थित उत्खनन कार्य अभी शेष है, तथापि प्रारंभिक सर्वेक्षणों और स्थानीय किंवदंतियों में प्राचीन बसाहट के प्रमाण मिले हैं, जिनमें प्राचीन मृदभांड के टुकड़े (जैसे उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड - NBPW), टेराकोटा की वस्तुएं और वास्तुशिल्प के खंड शामिल हो सकते हैं। यदि यह पहचान वैज्ञानिक रूप से सही सिद्ध होती है, तो यह स्थल महाभारतकालीन इतिहास, छठी शताब्दी ईसा पूर्व के महाजनपद काल और प्राचीन भारतीय नगर नियोजन, व्यापारिक गतिविधियों और राजनीतिक संरचना के अध्ययन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।
  • बैजनाथ (Baijnath): सिरमौर तहसील में स्थित यह स्थल अपने कल्चुरीकालीन शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर, यद्यपि आज आंशिक रूप से जीर्णावस्था में है और इसके कई हिस्से खंडित हो चुके हैं, तथापि इसकी वास्तुकला और मूर्तिकला कल्चुरी कला की स्थानीय शैली और उत्कृष्टता को दर्शाती है। मंदिर का शिखर संभवतः नागर शैली का रहा होगा और दीवारों पर देवी-देवताओं, यक्षों, अप्सराओं और विभिन्न पौराणिक आख्यानों की सुंदर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। यहाँ प्राप्त मूर्तियों में शिव के विभिन्न रूपों के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी शामिल हैं, जो तत्कालीन धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश डालती हैं। यह स्थल इस क्षेत्र में शैव धर्म की लोकप्रियता और कल्चुरी शासकों के कला-प्रेम एवं धार्मिक संरक्षण का एक और महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है।
  • नयागांव (Nayagaon): इस स्थल से भी कल्चुरीकालीन शिव मंदिर और महत्वपूर्ण प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं, जो गुर्गी और बैजनाथ के समान ही इस क्षेत्र में कल्चुरी कला और शैव धर्म के प्रसार को दर्शाती हैं। इन मंदिरों की स्थापत्य शैली और मूर्तिकला का तुलनात्मक अध्ययन कल्चुरी कला के क्षेत्रीय विकास, उसकी विविधताओं और विभिन्न उप-शैलियों को समझने में सहायक है। नयागांव से प्राप्त प्रतिमाएं भी कल्चुरी काल की मूर्तिकला की विशिष्टताओं, जैसे अलंकरण, शारीरिक गठन और भाव-भंगिमाओं को प्रदर्शित करती हैं।
  • बंधवगढ़ (Bandhavgarh): वर्तमान उमरिया जिले में स्थित (परंतु ऐतिहासिक रूप से बघेलखंड का अभिन्न अंग और बघेलों की प्रारंभिक राजधानियों में से एक), बंधवगढ़ का किला एक अत्यंत प्राचीन और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण पहाड़ी दुर्ग है। इस किले का उल्लेख रामायण में भी मिलता है, जहाँ इसे भगवान राम द्वारा अपने भाई लक्ष्मण को उपहार में दिया गया माना जाता है। यहाँ से मघ राजवंश (दूसरी-तीसरी शताब्दी ईस्वी), गुप्त राजवंश (चौथी-छठी शताब्दी ईस्वी) और कल्चुरी राजवंश (नौवीं-बारहवीं शताब्दी ईस्वी) से संबंधित अनेक पुरातात्विक अवशेष, जिनमें मानव निर्मित गुफाएँ (कुछ में ब्राह्मी अभिलेख, जो भिक्षुओं के निवास स्थान हो सकते हैं), मंदिर (जैसे विष्णु, शिव और अन्य देवी-देवताओं के), विशाल मूर्तियाँ (विशेषकर शेषशायी विष्णु की प्रसिद्ध और भव्य प्रतिमा, वराह अवतार, मत्स्यावतार और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, जो गुप्त और कल्चुरी कला का प्रतिनिधित्व करती हैं), और विभिन्न कालों के अभिलेख शामिल हैं, प्राप्त हुए हैं। यह किला विभिन्न कालों में सत्ता का एक महत्वपूर्ण केंद्र और विभिन्न संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है।
    बंधवगढ़ किले का एक विहंगम दृश्य या किले के भीतर की महत्वपूर्ण संरचना

    (चित्र: बंधवगढ़ किले का एक विहंगम दृश्य, जो इसकी ऐतिहासिक और रणनीतिक महत्ता को दर्शाता है, जहाँ कई राजवंशों ने अपनी छाप छोड़ी और यह भारतीय वन्यजीवों, विशेषकर बाघों का एक महत्वपूर्ण आवास भी है।)

  • गोविंदगढ़ (Govindgarh): गुढ़ तहसील में स्थित गोविंदगढ़ अपनी सुरम्य प्राचीन झील और ऐतिहासिक किले के लिए प्रसिद्ध है, जिसका निर्माण रीवा के महाराजाओं द्वारा करवाया गया था और यह उनकी ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करता था। इसके अतिरिक्त, यहाँ और आस-पास की कैमूर पहाड़ियों में अनेक प्रागैतिहासिक शैलाश्रय और शैलचित्र पाए गए हैं, जो इस क्षेत्र में मानव सभ्यता की अत्यंत प्राचीनता को दर्शाते हैं। ये शैलचित्र, जो लाल, सफेद और कभी-कभी पीले प्राकृतिक रंगों से बने हैं, शिकार के दृश्यों, पशु-पक्षियों (जैसे हिरण, बारहसिंगा, हाथी), मानव आकृतियों, नृत्य और दैनिक जीवन के विभिन्न क्रिया-कलापों को चित्रित करते हैं और आदिमानव की कलात्मक अभिव्यक्ति तथा उनकी विश्व-दृष्टि का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इन शैलचित्रों का अध्ययन हमें उस काल के पर्यावरण, जीव-जंतुओं और मानव जीवन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
    गोविंदगढ़ किले का एक दृश्य, जो झील के किनारे स्थित है

    (चित्र: गोविंदगढ़ किले का एक सुरम्य दृश्य, जो झील के किनारे अपनी ऐतिहासिक भव्यता के साथ खड़ा है।)

  • चन्द्रहे (Chandrahe): सीधी जिले में सोन नदी के तट पर स्थित यह स्थल भी कल्चुरीकालीन शैव गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ से प्राप्त मठ के अवशेष और संस्कृत में उत्कीर्ण अभिलेख मत्तमयूर शैव संप्रदाय के प्रभाव और उनकी संगठित मठ व्यवस्था को दर्शाते हैं। यह स्थल गुर्गी के साथ मिलकर इस क्षेत्र में शैव धर्म के व्यापक प्रसार और उसके दार्शनिक विकास का महत्वपूर्ण प्रमाण प्रस्तुत करता है। चन्द्रहे से प्राप्त मूर्तियाँ भी कल्चुरी कला की विशिष्टता को प्रदर्शित करती हैं।

समीपस्थ महत्वपूर्ण क्षेत्र: रीवा के ऐतिहासिक परिदृश्य के विस्तार

मऊगंज (Mauganj): (अब एक नवगठित जिला) यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से सेंगर और बघेल राजवंशों के प्रभाव में रहा है, और इसकी अपनी एक विशिष्ट स्थानीय पहचान रही है, जो रीवा के मुख्य केंद्र से थोड़ी भिन्न हो सकती है। यहाँ का प्रसिद्ध बहुती जलप्रपात, जो भारत के ऊँचे जलप्रपातों में से एक है और अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए विख्यात है, न केवल एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक पर्यटन स्थल है, बल्कि इसके आस-पास के क्षेत्रों में प्राचीन बसाहट और पुरातात्विक महत्व के भी संकेत मिलते हैं, जैसे कि प्राचीन मंदिर के अवशेष या पाषाण उपकरण। नई गढ़ी का किला भी इस क्षेत्र के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है, जो संभवतः स्थानीय सरदारों या छोटे शासकों का केंद्र रहा होगा और इसने क्षेत्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभाई होगी। मऊगंज का रीवा के इतिहास से गहरा संबंध रहा है और यह बघेलखंड की व्यापक सांस्कृतिक और राजनीतिक सीमाओं के भीतर आता था। इस नवगठित जिले में और अधिक व्यवस्थित पुरातात्विक अनुसंधान और ऐतिहासिक अध्ययन की आवश्यकता है ताकि इसके अतीत की और भी अनकही कहानियाँ और महत्वपूर्ण परतें खोली जा सकें, जो बघेलखंड के समग्र इतिहास को समझने में सहायक होंगी और स्थानीय पहचान को और सुदृढ़ करेंगी।

जवा तहसील के अन्य ग्राम: जवा तहसील, विशेषकर इसके उत्तरी और पूर्वी भाग जो उत्तर प्रदेश की सीमा से लगते हैं, कोल जनजाति की संस्कृति और इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। कोलगढ़ी, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, कोल समुदाय से संबंधित एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल रहा होगा, संभवतः किसी कोल प्रमुख का गढ़ या उनकी सामूहिक बसाहट का केंद्र, जहाँ से वे अपने क्षेत्र का प्रशासन और सुरक्षा करते होंगे। अतरैला और डभौरा जैसे ग्राम आज भी कोल संस्कृति और उनकी स्थानीय लोक परंपराओं के जीवंत केंद्र हैं, जहाँ उनके रीति-रिवाज, लोकगीत, नृत्य (जैसे करमा, सैला, और विवाह के अवसर पर किए जाने वाले विशिष्ट नृत्य) और उनकी विशिष्ट सामाजिक संरचना का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। इन ग्रामों में कोल समुदाय के पारंपरिक घर, उनकी कृषि पद्धतियाँ (जो अक्सर पर्यावरण के अनुकूल होती हैं) और उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरण भी उनकी जीवनशैली की झलक प्रस्तुत करते हैं। इन क्षेत्रों में मौखिक इतिहास, लोककथाओं, लोकगीतों और कहावतों का संग्रह करना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो इस समुदाय के अतीत, उनके सामाजिक मूल्यों, उनकी विश्व-दृष्टि और उनके ऐतिहासिक अनुभवों को समझने में अमूल्य सहायक सिद्ध हो सकता है। यह मौखिक परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है और इसमें इस क्षेत्र के इतिहास की कई अनलिखी कड़ियाँ छिपी हो सकती हैं, जिनका दस्तावेजीकरण आवश्यक है।

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आप सभी को निमंत्रण है! हमारी ऐतिहासिक यात्रा में शामिल हों!

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यह लेखमाला "रीवा और बघेलखण्ड का समग्र इतिहास" की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारा उद्देश्य इस पवित्र भूमि के गौरवशाली अतीत की अनकही कहानियों, विस्मृत नायकों और समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं को आप तक पहुँचाना है। यह यात्रा केवल तथ्यों का संग्रह मात्र नहीं, बल्कि अतीत के साथ एक जीवंत संवाद स्थापित करने का प्रयास है। हम आशा करते हैं कि यह प्रयास आपको इस क्षेत्र की ऐतिहासिक गहराई और सांस्कृतिक विविधता से परिचित कराएगा।

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रीवा का प्रारंभिक काल: मुख्य अवधारणाएँ एवं सांस्कृतिक तत्व (संक्षेप में)

"वनवासी सभ्यताएँ (Indigenous Cultures)": कोल और गोंड जैसी प्राचीन जनजातियाँ, जिनकी जीवनशैली प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़ी थी, और जिन्होंने रीवा की सांस्कृतिक नींव रखी। उनकी कला, परंपराएँ और प्रकृति-ज्ञान इस क्षेत्र की अमूल्य धरोहर हैं, जो उनके पर्यावरण के प्रति गहरे सम्मान और सह-अस्तित्व की भावना को दर्शाती हैं। इन समुदायों ने विंध्य की विषम परिस्थितियों में भी अपनी सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखा।

उनकी लोककलाएँ, नृत्य (करमा, सैला) और मौखिक परंपराएँ आज भी जीवंत हैं और क्षेत्र की पहचान हैं, जो उनकी गहरी सांस्कृतिक जड़ों और सामुदायिक भावना को दर्शाती हैं, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती आ रही हैं, जिनमें उनके पूर्वजों का ज्ञान और अनुभव संचित है।

"पूर्ववर्ती राजवंश (Pre-Baghel Dynasties)": चेदि (महाभारतकालीन), मौर्य (अशोककालीन देउरकोठार), नाग, गुप्त (स्वर्णयुगीन कला), और कल्चुरी (गुर्गी के शैव मठ) जैसे राजवंशों ने इस क्षेत्र पर शासन किया और अपनी अमिट छाप छोड़ी, जिससे एक समृद्ध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का निर्माण हुआ।

इन राजवंशों ने रीवा की राजनीतिक, धार्मिक और कलात्मक विरासत को समृद्ध किया, भव्य मंदिर और स्तूप बनवाए, प्रशासनिक व्यवस्थाएँ स्थापित कीं, व्यापारिक मार्गों को सुरक्षा प्रदान की और बघेलों के शासन के लिए एक ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आधारभूमि तैयार की।

"बहु-सांस्कृतिक संगम (Multi-cultural Confluence)": शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध और सूफी परंपराओं का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, जैसा कि गुर्गी जैसे स्थलों में परिलक्षित होता है, जहाँ विभिन्न आस्थाएँ एक साथ फली-फूलीं और एक-दूसरे को प्रभावित किया, जिससे एक अनूठी समन्वयवादी संस्कृति का विकास हुआ।

यह समन्वय रीवा की सांस्कृतिक जीवंतता, धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो भारतीय संस्कृति की मूल "विविधता में एकता" की भावना को सशक्त रूप से दर्शाता है और आज भी प्रेरणा का स्रोत है।

"पुरातात्त्विक धरोहर (Archaeological Treasures)": देउरकोठार के स्तूप, इटहा की प्राचीनता, बंधवगढ़ का ऐतिहासिक किला, गोविंदगढ़ के प्रागैतिहासिक शैलचित्र, और गुर्गी के मंदिर एवं मठों के अवशेष इस क्षेत्र की गहन ऐतिहासिकता और सांस्कृतिक समृद्धि के अमूल्य प्रमाण हैं।

ये स्थल रीवा के हजारों वर्षों के गौरवशाली इतिहास के मूक साक्षी हैं, जो गहन शोध, वैज्ञानिक संरक्षण और भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के स्रोत की अपेक्षा रखते हैं, ताकि यह अमूल्य विरासत सजीव बनी रहे और हमें अपने अतीत से जोड़े रखे।

रीवा की प्राचीन विरासत: एक दृश्य

देउरकोठार स्थित मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप या उसके अवशेषों की स्पष्ट तस्वीर

(चित्र: देउरकोठार के मौर्यकालीन बौद्ध स्तूपों का एक विहंगम दृश्य, जो सम्राट अशोक की धम्म नीति और इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रभाव को दर्शाता है। साभार: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण/संबंधित विश्वसनीय स्रोत)

गुर्गी का पुरातात्त्विक महत्व (वृत्तचित्र अंश)

(यह एक उदाहरण वीडियो है जो गुर्गी या रीवा क्षेत्र के किसी अन्य प्राचीन स्थल के पुरातात्त्विक महत्व को दर्शाता है। आप वास्तविक वीडियो आईडी का उपयोग कर सकते हैं।)

अध्ययन स्रोत एवं संदर्भ ग्रंथ (विस्तारित)

रीवा के प्रारंभिक काल, वनवासी सभ्यताओं, प्राचीन राजवंशों और बहु-सांस्कृतिक विरासत के गहन अध्ययन के लिए निम्नलिखित स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह सूची सांकेतिक है और इसमें और भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ एवं शोधपत्र जोड़े जा सकते हैं:

प्राथमिक पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक स्रोत:

  • **शैलाश्रय एवं शैलचित्र:** गोविंदगढ़, पहाड़गढ़, भीमबेटका (निकटवर्ती प्रेरणा स्रोत), कैमूर श्रृंखला के विभिन्न अज्ञात स्थल जहाँ आदिमानव की कलात्मकता आज भी विद्यमान है।
  • **पाषाण उपकरण:** रीवा, सीधी, सतना, शहडोल जिलों की नदी घाटियों (जैसे सोन, टोंस, बीहर) से प्राप्त पुरापाषाण, मध्यपाषाण एवं नवपाषाण कालीन उपकरण।
  • **पुराण:** स्कंद पुराण (विशेषकर इसका 'रेवा-खंड' जो नर्मदा और आस-पास के क्षेत्रों का वर्णन करता है), मत्स्य पुराण, वायु पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण जिनमें प्राचीन राजवंशों और भौगोलिक विवरणों का उल्लेख मिलता है।
  • **महाकाव्य:** वाल्मीकि रामायण (जिसमें दंडकारण्य और विंध्य क्षेत्र का उल्लेख है, बंधवगढ़ का संबंध भी इसी से जोड़ा जाता है), महाभारत (जिसमें चेदि महाजनपद और राजा शिशुपाल का विस्तृत वर्णन है, सुक्तिमती नगरी का उल्लेख)।
  • **बौद्ध एवं जैन ग्रंथ:** अंगुत्तर निकाय (सोलह महाजनपदों की सूची, जिसमें चेदि शामिल है), दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, विनय पिटक, जातक कथाएँ (जिनमें मध्य भारत के व्यापारिक मार्गों और नगरों का उल्लेख हो सकता है); जैन आगम ग्रंथ जैसे आवश्यक सूत्र, कल्पसूत्र जिनमें प्राचीन गणराज्यों और जनपदों का विवरण मिलता है।
  • **अभिलेख:** देउरकोठार (अशोककालीन ब्राह्मी शिलालेख), गुर्गी (कल्चुरीकालीन संस्कृत अभिलेख), बंधवगढ़ (मघ शासकों के अभिलेख, गुप्तकालीन अभिलेख, कल्चुरी अभिलेख), भरहुत और सांची के अभिलेख (निकटवर्ती महत्वपूर्ण स्थल)।
  • **मूर्तियाँ एवं मंदिर अवशेष:** गुर्गी, देउरकोठार, बंधवगढ़, बैजनाथ, नयागांव, अठ्ठारहभुजी (रीवा शहर के निकट), और अन्य स्थानीय पुरास्थलों से प्राप्त विभिन्न कालों की प्रस्तर एवं मृण्मूर्तियाँ तथा मंदिरों के वास्तुखंड।

आधुनिक शोध एवं प्रकाशन:

/* --- प्रमुख आधुनिक संदर्भ ग्रंथ एवं शोध (उदाहरण) --- */
सिंह, जीतन. "रीवा राज्य का दर्पण". (यह रीवा रियासत के इतिहास पर एक महत्वपूर्ण कृति है, जिसमें गुर्गी जैसे स्थलों का संदर्भ पृष्ठ 394, 395 पर मिलता है।)
शुक्ल, डॉ. हीरा लाल. "बघेलखण्ड की संस्कृति और भाषा". (बघेलखंड की लोक संस्कृति, भाषा और जनजातीय परंपराओं पर विस्तृत अध्ययन, पृष्ठ 90 पर प्रासंगिक जानकारी।)
श्रीवास्तव, प्रो. राधेशरण. "विंध्य क्षेत्र का इतिहास". (विंध्य क्षेत्र के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास पर एक व्यापक ग्रंथ, पृष्ठ 264 पर विशिष्ट संदर्भ।)
वाजपेयी, श्रीमती मधुलिका. "मध्य प्रदेश में जैन धर्म का विकास". (मध्य प्रदेश में जैन धर्म के प्रसार और पुरातात्विक स्थलों पर शोध, पृष्ठ 127 पर गुर्गी की जैन मूर्ति का उल्लेख।)
सक्सेना, के.एम. "रीवा स्टेट डायरेक्ट्री". (यह एक काल्पनिक प्रकाशन हो सकता है, लेकिन इस प्रकार की डायरेक्ट्रियाँ स्थानीय इतिहास के लिए महत्वपूर्ण स्रोत होती हैं, पृष्ठ 59 पर काल्पनिक संदर्भ।)
अशरफी, जिया अली खाँ. "किताब मरदाने खुदा (औलिया-ए-हिन्द पर विशेष)". (सूफी संतों और उनके मजारों पर केंद्रित, पृष्ठ 58-60 पर गाजी मियां के संदर्भ में।)
Directorate of Archaeology, Archives and Museums, Govt. of M.P. - विभिन्न समयों पर प्रकाशित रिपोर्ट्स, जर्नल और मोनोग्राफ।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) - देउरकोठार, गुर्गी, बंधवगढ़ आदि स्थलों पर उत्खनन और सर्वेक्षण रिपोर्टें।
Bajpai, K.D. (1980). "History and Culture of Madhya Pradesh". (मध्य प्रदेश के इतिहास और संस्कृति पर एक मानक अंग्रेजी ग्रंथ।)
Trivedi, H.V. (1957). "Corpus Inscriptionum Indicarum, Vol. III: Inscriptions of the Kalachuri-Chedi Era". (कल्चुरी-चेदि काल के अभिलेखों का महत्वपूर्ण संकलन।)
Misra, V.N. (2001). "Prehistoric Human Colonization of India". Journal of Biosciences. (भारत में प्रागैतिहासिक मानव बसाहट पर महत्वपूर्ण शोधपत्र।)
Tripathi, Vibha. (2001). "The Age of Iron in South Asia: Legacy and Tradition". (दक्षिण एशिया में लौह युग पर केंद्रित।)
Chakrabarti, Dilip K. (2006). "The Oxford Companion to Indian Archaeology". (भारतीय पुरातत्व पर एक व्यापक संदर्भ ग्रंथ।)

वेबसाइट एवं अन्य डिजिटल स्रोत:

  • जिला रीवा एवं जिला मऊगंज की आधिकारिक सरकारी वेबसाइटें (इतिहास, संस्कृति एवं पर्यटन खंड)।
  • Villageinfo.in तथा अन्य ग्राम-स्तरीय सूचना पोर्टल (अतरैला, डभौरा जैसे विशिष्ट ग्रामों की जनसांख्यिकी और स्थानीय जानकारी हेतु)।
  • विकिपीडिया (Rewa district, Rewa (princely state), Mauganj district, Kalachuri dynasty, Chedi Kingdom आदि विषयों पर प्रारंभिक जानकारी हेतु)।
  • मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम (MPTDC) की आधिकारिक वेबसाइट (पर्यटन स्थलों की जानकारी)।
  • भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की वेबसाइट (संरक्षित स्मारकों और उत्खनन रिपोर्टों के लिए)।
  • शोधगंगा, आर्काइव.ओआरजी जैसे डिजिटल पुस्तकालय (शोध पत्रों और पुरानी पुस्तकों के लिए)।

निष्कर्ष: एक बहुआयामी विरासत का पुनरावलोकन और भविष्य की दिशा

रीवा का बघेल-पूर्व इतिहास एक बहुरंगी और बहुस्तरीय चादर के समान है, जिसके प्रत्येक धागे में एक अलग कहानी, एक विशिष्ट संस्कृति और एक अनूठी परंपरा गुंथी हुई है। यह क्षेत्र मात्र विभिन्न राजवंशों के उत्थान-पतन का मूक साक्षी नहीं रहा, बल्कि यह चेदि, मौर्य, नाग, गुप्त और कल्चुरी जैसी महान राजनीतिक सत्ताओं की प्रशासनिक क्षमता, कलात्मक संरक्षण और धार्मिक नीतियों के क्रियान्वयन का एक महत्वपूर्ण स्थल भी रहा। इन राजवंशों ने यहाँ भव्य मंदिर, विशाल स्तूप, सुदृढ़ किले और कलात्मक प्रतिमाएँ निर्मित कर अपनी स्थायी विरासत छोड़ी, जो आज भी हमें उनके वैभव और उनकी दृष्टि का परिचय कराती हैं। परंतु इस राजकीय इतिहास के समानांतर, और उससे भी अधिक गहराई तक, यहाँ की भूमि कोल, गोंड, लोधी और लवाना जैसी जनजातीय और जातीय संरचनाओं की जीवंत सामाजिक चेतना, उनकी प्रकृति-सहज जीवनशैली और उनके गहन पारंपरिक ज्ञान से सिंचित होती रही। गुर्गी जैसे अद्वितीय स्थल विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और समन्वय का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जहाँ शैव मठों के साथ जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ और सूफी संतों के मजार एक ही भूमि पर पाए जाते हैं। देउरकोठार के अशोककालीन बौद्ध स्तूप भारत में बौद्ध धर्म के प्रारंभिक प्रसार के महत्वपूर्ण प्रमाण हैं, तो इटहा की महाभारतकालीन प्राचीनता हमें महाकाव्य युग से जोड़ती है। बंधवगढ़ का किला विभिन्न कालों की सैन्य और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है, और गोविंदगढ़ के प्रागैतिहासिक शैल चित्र हमें मानव सभ्यता के उषाकाल की झलक दिखाते हैं। वस्तुतः, रीवा की यह अद्भुत विविधता, इसकी समावेशी सांस्कृतिक विरासत और विभिन्न मानव समूहों के बीच सह-अस्तित्व की लंबी परंपरा ही इसकी वास्तविक धरोहर और शक्ति है। इस बहुमूल्य धरोहर का संरक्षण, संवर्धन और इसके गहन, निष्पक्ष अध्ययन की आज महती आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपने गौरवशाली अतीत से न केवल परिचित हो सकें, बल्कि उससे प्रेरणा प्राप्त कर भविष्य के लिए एक समरस और समृद्ध समाज का निर्माण भी कर सकें।

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यह प्रस्तुति "रीवा का प्रारंभिक काल: वनवासी सभ्यताएँ, प्राचीन राजवंश एवं बहु-सांस्कृतिक विरासत की गहन पड़ताल" ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए है। सामग्री का उपयोग गैर-व्यावसायिक, शैक्षिक, और शोधपरक गतिविधियों के लिए, शोध एवं संपादन: "आचार्य आशीष मिश्र" (acharyaasheeshmishra.blogspot.com) के उचित श्रेय के साथ किया जा सकता है।

अस्वीकरण: इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, शोध-पत्रों और विद्वानों के कार्यों पर आधारित है। ऐतिहासिक तिथियों और व्याख्याओं में भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे गहन अध्ययन के लिए मूल संदर्भ ग्रंथों का अवलोकन करें। अधिक जानकारी के लिए हमारे ब्लॉग पर प्राचीन रीवा लेबल देखें।

© रीवा का अतीत, भारत का गौरव। अन्वेषण जारी रखें। अभिजित पियूष संगठन की ओर से आचार्य आशीष मिश्र।

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